केलो नदी की समस्या को लेकर अनुग्रह में एक आलेख प्रकाशित हुआ था "रायगढ़ की जीवन रेखा केलो का शोक गीत" । उस आलेख को लेकर हमें कुछ महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं। लेखक और विचारक डॉ हेमचंद्र पांडे और युवा कवि लेखक बसंत राघव की इन प्रतिक्रियाओं से सम्भव है इस बहस को आगे और जगह मिले । इन दोनों ही प्रतिक्रियाओं को अनुग्रह के पाठकों के लिए हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं -
◆१◆
अनुग्रह के 06/04/2023 के अंक में रमेश जी के द्वारा लिखित रायगढ़ की जीवन रेखा 'केलो' का शोक गीत हम रायगढ़ वासियों के द्वारा अनसुना ही रह गया । बसंत राघव के अलावा किसी ने भी अत्यंत ज्वलंत समस्या पर केंद्रित इस जरूरी आलेख पर कोई टिप्पणी नहीं की।
डॉ. हेमचन्द्र पांडेय |
यह मौन और उदासीनता ही वे कारण हैं कि रायगढ़ मानों आत्मघात की दहलीज पर जा पहुंचा है।
रमेश जी के इस आलेख का प्रत्यक्ष संदर्भ स्थानीय जरूर है पर, निहितार्थ सार्वभौमिक है। केलो के स्थान पर विश्व की किसी भी नदी का नाम रखा जा सकता है और रायगढ़ के स्थान पर किसी भी अन्य धुंधियाये औद्योगिक नगर या महानगर का नाम डाला जा सकता है ; तब भी आलेख का वर्णन और विश्लेषण उतना ही सटीक बैठेगा।
दरअसल, पिछली सदी में मानव जाति ने विकास के जिन दो माडलों - पूंजीवादी माडल और साम्यवादी माडल- को एक दूसरे का विकल्प समझा और अपनाया, वे वस्तुत: एक दूसरे के विकल्प थे नहीं। दोनों भौतिकवाद और औद्योगिकीकरण पर ही आधारित थे, केवल मुनाफे के बंटवारे पर थोड़ा सा फर्क था। ये दोनों माडल तो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे थे, पर इन्हें एक दूसरे का विरोधी और विकल्प समझने की भूल की गयी। मानव जाति एक दुष्चक्र में फंसी रही और समस्याओं के भंवर में गहरे डूबती गयी।
असली विकल्प गांधीवादी माडल था जिसमें प्रकृति का स्वामी बन कर, दोहन करते हुए विकास करने के स्थान पर प्रकृति का अंग बन कर विकसित होने की धारणा अंतर्निहित थी। पर भौतिकवाद, बाजारवाद और उपभोगवाद के डीजों के शोर में, आत्मा की सौम्य आवाज की तरह, गांधीवाद के संदेश की तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया।
नतीजा यह है कि नदियां मर रही हैं, उनके तटों पर बसे शहर भुतहे श्मशान बनते जा रहे हैं और इन श्मशानों में जांबियों की तरह आत्माहीन लालच के पुतले घूम रहे हैं !
-हेमचंद्र पाण्डेय , संपर्क - 9340155363
◆२◆
जिंदल के आने से पूर्व केलो का पानी इतना साफ और निर्मल था कि उसे हम अपनी अंजुरी में लेकर अपनी प्यास बुझाया करते थे। बरसात के दिनों में न जाने कितनी बार उसे तैर कर पार करते थे। अब तो इसे देखकर मन अवसाद से भर जाता है। बहुत दुख होता है।
-बसंत राघव
-रायगढ़ की जीवन रेखा 'केलो' का शोक गीत
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