सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

असमर्थ युग के समर्थ लेखक मैक्सिम गोर्की की कहानी "करोड़पति कैसे होते हैं"

मैक्सिम गोर्की असमर्थ युग के समर्थ लेखक के रूप में पहचाने जाते हैं। जन्म के समय अपनी पहली चीख़ के बारे में मैक्सिम गोर्की ने एक जगह स्वयं लिखा है- 'मुझे पूरा यकीन है कि वह चीख घृणा और विरोध की चीख़ रही होगी।' इस पहली चीख़ की घटना 1868 ई. की 28 मार्च की 2 बजे रात की है लेकिन घृणा और विरोध की यह चीख़ आज इतने वर्ष बाद भी सुनाई दे रही है।मैक्सिम गोर्की ऐसे क्रांतिकारी और युगद्रष्टा लेखक थे जिन्होंने लेखन के माध्यम से ऐसा रच दिया कि आजतक कोई रच नहीं पाया। जीते जी उन्हें जो कीर्ति मिली , जो सम्मान मिला वह किसी अन्य को नहीं मिल पाया।   पीड़ा और संघर्ष उनकी रचनाओं का मुख्य कथानक है। यह सब उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता बढ़ई थे जो लकड़ी के संदूक बनाया करते थे । उनकी माँ ने अपने माता-पिता की इच्छा के बिरूद्ध विवाह किया था। यह दुर्भाग्य रहा कि मैक्सिम गोर्की सात वर्ष की आयु में ही  अनाथ हो गए। वे माँ की ममता से वंचित रह गए।  माँ की ममता की लहरों से वंचित हुए गोर्की को वोल्गा की लहरों द्वारा ही बचपन से संरक्षण मिला। शायद इसलिए उनकी 'शैलकश' और अन्य कृतियों में वोल्गा का सजीव चित्र

हान कांग को साहित्य का नोबल पुरस्कार और विजय शर्मा का आलेख बुकर साहित्य और शाकाहार

कोरिया की सबसे बडी और मशहूर किताब की दुकान का नाम है "क्योबो" जिसमें तेईस लाख किताबें सजी रहती हैं। इस पुस्तक भंडार की हर दीवार पर किताबें सजी हैं, लेकिन एक दीवार दशकों से सूनी है। उस पर टंगे बोर्ड पर लिखा है "साहित्य के नोबेल विजेता कोरियाई लेखक के लिये आरक्षित"। आज उस बोर्ड का सूनापन दूर हुआ है। कोरियाई साहित्य प्रेमियों की उस इच्छा को वहां की लेखिका हान कांग ने आज पूरा किया है। इस वर्ष 2024 में साहित्य का नोबल पुरस्कार कोरिया की उपन्यासकार हान कान्ग को मिला है। जब उन्हें 2015 में बुकर पुरस्कार मिला था तो उन पर प्रख्यात लेखिका विजय शर्मा ने एक महत्वपूर्ण आलेख लिखा था। उस आलेख को आज उन्होंने सोशल मीडिया पर साझा किया है। इस आलेख को पढ़कर कोरियाई उपन्यासकार  हान कान्ग  के लेखन के सम्बंध में हमें बहुत कुछ जानने समझने के अवसर  मिलते हैं। उनका आलेख यहाँ नीचे संलग्न है- बुकर, साहित्य और शाकाहार विजय शर्मा इस साल 2015का मैन बुकर इंटरनेशनल पुरस्कार कोरिया की उपन्यासकार हान कान्ग को मिला है। यह पुरस्कार उन्हें उनके उपन्यास ‘द वेजीटेरियन’ के इंग्लिश अनुवाद के लिए मिला है। असल

परिधि शर्मा की कहानी : मनीराम की किस्सागोई

युवा पीढ़ी की कुछेक   नई कथा लेखिकाओं की कहानियाँ हमारा ध्यान खींचती रही हैं । उन कथा लेखिकाओं में एक नाम परिधि शर्मा का भी है।वे कम लिखती हैं पर अच्छा लिखती हैं। उनकी एक कहानी "मनीराम की किस्सागोई" हाल ही में परिकथा के नए अंक सितंबर-दिसम्बर 2024 में प्रकाशित हुई है । यह कहानी संवेदना से संपृक्त कहानी है जो वर्तमान संदर्भों में राजनीतिक, सामाजिक एवं मनुष्य जीवन की भीतरी तहों में जाकर हस्तक्षेप करती हुई भी नज़र आती है। कहानी की डिटेलिंग इन संदर्भों को एक रोचक अंदाज में व्यक्त करती हुई आगे बढ़ती है। पठनीयता के लिहाज से भी यह कहानी पाठकों को अपने साथ बनाये रखने में कामयाब नज़र आती है। ■ कहानी : मनीराम की किस्सागोई    -परिधि शर्मा  मनीराम की किस्सागोई बड़ी अच्छी। जब वह बोलने लगता तब गांव के चौराहे या किसी चबूतरे पर छोटी मोटी महफ़िल जम जाती। लोग अचंभित हो कर सोचने लगते कि इतनी कहानियां वह लाता कहां से होगा। दरअसल उसे बचपन में एक विचित्र बूढ़ा व्यक्ति मिला था जिसके पास कहानियों का भंडार था। उस बूढ़े ने उसे फिजूल सी लगने वाली एक बात सिखाई थी कि यदि वर्तमान में हो रही समस्याओं का समाधान

क्या गांधी कोई राजनीतिज्ञ हैं?

यूथ और गांधी के बीच का राजनैतिक परिदृश्य यूथ को गांधी के निकट ले जाने की कोशिश के किसी भी उपक्रम में विभिन्न दिशाओं से  यह सवाल खड़ा होने लगता है कि गांधी राजनीतिज्ञ हैं या नहीं? यूथ को गांधी से आखिर किस तरह जोड़ा जा सकता है? राजनीति कोई अस्पृश्य बिषय नहीं है । कोई दो राय नहीं कि विचारों के दायरे में हर आदमी राजनीति की परिधि से बाहर भी नहीं है। जो कोई मतदान करने जाता है , किसी न किसी दल को अपना समर्थन देता ही है। यहां यह समझना होगा कि उसका समर्थन कई बार परिस्थिति जन्य होता है। लोकहित में, जिसे वह उचित समझता है उस वक्त समर्थन कर देता है। उसकी पक्षधरता यहां किसी राजनीतिक खांचे में कैद न होकर अपने विचारों के भीतर कैद होती है। किसी व्यक्ति के इस आचरण को राजनीति के दायरे में लाकर परिभाषित करना न्यायसंगत होगा, मुझे ऐसा नहीं लगता। व्यक्तिवादी राजनीति की परिभाषा उस जगह अधिक सुसंगत लगती है जब व्यक्ति अपने विचारों की कैद से मुक्त होकर या अपने स्वयं के विचारों से मुक्त होकर एक पक्ष तय करके दृढ़ता से खड़ा नज़र आता है। आम आदमी जो चेतना और विवेक के स्तर पर अपनी जगह दृढ़ है , उसकी पहली प्राथमिकता राजनीतिक

परिकथा सितंबर - दिसम्बर 2024 अंक पर एक टिप्पणी - अनुज कुमार

भारतीय डाक व्यवस्था की मेहरबानी हुई और देर से ही सही, लेकिन दुरुस्त ढंग से ‘परिकथा’ का नया अंक (संयुक्तांक : सितम्बर-दिसम्बर, 2024) आख़िरकार कल मुझे मिल गया। विषय-सूची देखकर मन खिल उठा। हर बार की तरह इसबार भी पत्रिका के संपादक शंकर जी ने यह सिद्ध कर दिया है कि साहित्य की दुनिया में जो दो-चार पत्रिकाएँ अच्छा काम कर रही हैं, उनमें ‘परिकथा’ अगली सफ़ में बैठी हुई है। इससे पहले कि मैं पत्रिका पर मुक़म्मल बात शुरू करुँ, मैं कहना चाहता हूँ कि पत्रिका का संपादकीय ‘भूखे पेट सोने वाले लोगों’ की जिस मौलिक समस्या को रेखांकित करता है, वह वास्तव में पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का दावा करने वाले देश के लिए गहरी चिन्ता का विषय है।  पूर्व संपादकीय की परम्परा की नींव 1969 में मार्कण्डेय ने अपनी ‘कथा’ पत्रिका से डाली थी। यह इत्तफ़ाक ही है कि मैंने उसी ‘कथा’ पत्रिका का पाँच वर्षों तक संपादन किया था। ‘परिकथा’ ने उस परम्परा को आगे बढ़ाया है। आप विषय-सूची देखकर स्वयं ही अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यह अंक कितना समृद्ध है। इसमें आलेख हैं, कविताएँ हैं, पुस्तक समीक्षाएँ हैं, कहानियाँ हैं, और भी बहुत कुछ है : लेकिन बात स

गांधी पर केंद्रित कुछ कविताएँ - रमेश शर्मा

गांधी पर केंद्रित रमेश शर्मा की कुछ कविताएँ आज गांधी जयंती है । गांधी के नाम को लेकर हर तरफ एक शोर सा उठ रहा है । पर क्या गांधी सचमुच अपनी नीति और सिद्धांतों के स्वरूप और प्रतिफलन में राजनीति , समाज और आदमी की दुनियाँ में अब भी मौजूद हैं ? हैं भी अगर तो किस तरह और  किस अनुपात में ? कहीं गांधी अब एक शो-केस मॉडल की तरह तो नहीं हो गए हैं कि उन्हें दिखाया तो जाए पर उनके बताए मार्गों पर चलने से किसी तरह बचा जाए ? ये ऐसे प्रश्न हैं जो इसी शोर शराबे के बीच से उठते हैं । शोर इतना ज्यादा है कि ये सवाल कहीं गुम होने लगते हैं। सवालों के ऊत्तर ढूंढ़तीं इन कविताओं को पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया भी ब्लॉग पर ही टिप्पणी के माध्यम से व्यक्त करें--  १. हर आदमी के भीतर एक गांधी रहता था कभी  ---------------     एक छाया की तरह है वह तुम चलोगे तो आगे जाएगा  पकड़ने की हर कोशिशों की  परिधि के बाहर ! बाहर खोजने-पकड़ने से अच्छा है  खोजो भीतर उसे तुम्हारी दुनियाँ के  किसी कोने में मिल जाए दबा सहमा हुआ मरणासन्न ! कहते हैं  हर आदमी के भीतर  एक गांधी रहता था कभी किसी के भीतर का मर चुका अब तो किसी के भीतर  पड़ा हुआ है मरणा