गांधी पर केंद्रित रमेश शर्मा की कुछ कविताएँ
आज गांधी जयंती है । गांधी के नाम को लेकर हर तरफ एक शोर सा उठ रहा है । पर क्या गांधी सचमुच अपनी नीति और सिद्धांतों के स्वरूप और प्रतिफलन में राजनीति , समाज और आदमी की दुनियाँ में अब भी मौजूद हैं ? हैं भी अगर तो किस तरह और किस अनुपात में ? कहीं गांधी अब एक शो-केस मॉडल की तरह तो नहीं हो गए हैं कि उन्हें दिखाया तो जाए पर उनके बताए मार्गों पर चलने से किसी तरह बचा जाए ? ये ऐसे प्रश्न हैं जो इसी शोर शराबे के बीच से उठते हैं । शोर इतना ज्यादा है कि ये सवाल कहीं गुम होने लगते हैं। सवालों के ऊत्तर ढूंढ़तीं इन कविताओं को पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया भी ब्लॉग पर ही टिप्पणी के माध्यम से व्यक्त करें--
१.
हर आदमी के भीतर एक गांधी रहता था कभी
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एक छाया की तरह है वह
तुम चलोगे तो आगे जाएगा
पकड़ने की हर कोशिशों की
परिधि के बाहर !
बाहर खोजने-पकड़ने से अच्छा है
खोजो भीतर उसे
तुम्हारी दुनियाँ के
किसी कोने में मिल जाए
दबा सहमा हुआ मरणासन्न !
कहते हैं
हर आदमी के भीतर
एक गांधी रहता था कभी
किसी के भीतर का मर चुका अब
तो किसी के भीतर
पड़ा हुआ है मरणासन्न !
गांधी-गांधी जपने के शोर में
डूब रही दुनियाँ
यह तो भटकना हुआ साफ साफ
या हुआ अन्धेरे में धकेलना
इस दुनियाँ को !
जपने से पहले
जिंदा करो
अपने भीतर उस गांधी को
जो मरणासन्न है
तुम्हारी अपनी दुनियाँ में !
नहीं कर सकते
फिर तो तुम्हारी गांधीगिरी
बस एक छाया है
कहते हैं छाया भी एक धोखे की तरह है
जो दिखाई तो देती है
पर पकड़ में नहीं आती कभी !
२.
गांधी को छुए बिना
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गांधी रहेंगे
हमेशा रहेंगे
अपने उपयोग होने की
खबर से बेखबर
वे रहेंगे हमेशा दुनियाँ में !
उन पर खूब होंगी बातें
उन्हें मानने के लिए नहीं
बस उन्हें जानने के लिए
कि वे ऐसे थे
उन्होंने जिया इस तरह जीवन !
सबने रख लिया है गांधी को
एक कागज की तरह
अपनी अपनी जेबों में
धर लिया है जुबान पर उन्हें
कि समय बेसमय निकालकर उन्हें
रखा जा सके
भागती पीढ़ी के सामने
दिखाया जा सके
कि देखो
गांधी की घुट्टी को
किस तरह घोलकर
पी लिया हमने !
यह समय है
गांधी के जीवन को छुए बिना
गांधी को जानने का
अपने अपने तरीकों से
उन्हें पहचानने का !
रोज जंगल कट रहे
हो रही हत्याएं रोज
बेदखल हो रहे आदिवासी जंगलों से
कूड़े में बदल रही दुनियाँ रोज
गांधी की आत्मा को
छलनी करने के तरीकों से
भर उठा है यह समय !
जुबान में ही सही
इन मुद्दों को छूना
गांधी को छूने की तरह होता
पर बिना छुए भी
चर्चा जारी है इनदिनों !
कितना दुखद है
कि यह समय गांधी को छूने का नहीं
उन पर चर्चा करने
और खुद चर्चा में बने रहने का समय है !
३.
एक गांधी के बिना
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अहिंसा का रास्ता बहुत कठिन है
उससे भी कठिन है
सत्य को किसी आदमी में खोज पाना
हम कठिन दिनों की यात्रा पर हैं
झूठ के कंकड़
और हिंसा के कांटे
हर कदम पर चुभ रहे
जैसे झूठ और हिंसा की कहानियों से
भर उठा है यह समय
जिनकी अट्टहास करती आवाजें
कदमों को रोक रहीं हर घड़ी !
कौन है
जो बचा ले जाएगा हमें
कौन है
जिसके सहारे हमारी यात्राएँ पूरी हो सकेंगी
कोई तो नहीं
तुम्हारे जैसा आसपास
इस सदी की सरहदों में समाया हुआ
हम कितने असहाय हो गए हैं इनदिनों !
कितना अच्छा हो
कि इस समय की धरती पर
तुम्हारे पदचापों की आवाज
फिर से सुनाई देने लगें
जिन्हें सुनने को हम तरस रहे हैं !
क्या तुम लौटोगे फिर से इस समय में
अपनी धोती और लाठी के साथ ?
सचमुच
कितना अधूरा है यह देश
एक गांधी के बिना !
४.
ऐसा लगना ही गांधी का हमारे आसपास होना है
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मुझे ऐसा क्यों लगता है
कि कुछ लोग होंगे जो
लालच को किसी बीहड़ में तड़प कर मरने को
छोड़ आए होंगें !
कुछ लोग होंगे
जिनके जीवन की गाड़ी इस समय की धरती पर
अल्प जरूरतों और कम संसाधनों के बीच
आज भी सरपट दौड़ रही होगी !
कुछ लोग होंगे
जिनकी आंखों में हर आदमी के लहु का रंग
दिखता होगा एक जैसा ही !
कुछ लोग होंगे
जिनके लिए हर दिल के दरवाजे प्रेम से खुलते होंगे
और बेरोकटोक वे कर लेते होंगे अपनी रोज की यात्राएं !
कुछ लोग होंगे
जो खुद से ज्यादा जीते होंगे दूसरों के लिए
और ऐसा जीना भरपूर जीने की तरह लगता होगा उन्हें !
चैन की नींद सोते या जागते न जाने क्यों
अक्सर ऐसा लगता है मुझे
कि ऐसे कुछ लोगों की उपस्थिति ही
हमारे समय की घड़ियों को गतिमान किए हुए है !
किसी सुबह जब आप जागते हैं
और किसी हिंसा की खबर के बिना
आपका दिन बीत जाता है शुभ शुभ
तो क्या आपको भी ऐसा नही लगता
कि दुनियां कितनी खूबसूरत है ?
ऐसा लगने को हर दिन हर जगह तलाशिए
ऐसा लगना ही तो शायद
गांधी का हमारे आस पास होना है !
मो.7722975017
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