भारत हमेशा से गाँवों का देश रहा है, जहां की अस्सी प्रतिशत आबादी ग्रामीण लोक जीवन से सम्बद्ध रही है । प्रेमचन्द युगीन हिन्दी कहानियों पर जब हमारी नजर जाती है तो इसी ग्रामीण लोकजीवन की गहरी छाया वहां हम देख पाते हैं । आर्थिक उदारीकरण के उपरान्त समय के साथ सभ्यता और संस्कृति के उलट फेर ने जब एक नए बाजार को जन्म दिया तब उसका गहरा प्रभाव भारत के गाँवों की आबादी पर भी पड़ा और वे निपट शहरीकरण की चपेट में आने लगे । पूंजीवादी तंत्र और सत्ता ने मिलकर जब गाँवों को तहस-नहस करना शुरू किया तब गाँवों का स्वरूप बिगड़ने लगा । किसानों की जमीनें छीनी जाने लगीं और खेती की जगह पर कल कारखानों का कब्जा होने लगा । ज्यादातर गाँव, कस्बों और शहरों में विलीन होते चले गए और उनका अस्तित्व धीरे-धीरे एक तरह से खत्म सा होने लगा। हिन्दी कहानी पर भी उसका प्रभाव स्पष्ट दिखने लगा । अस्सी और नब्बे के दशक की हिन्दी कहानियों को देखें, खासकर तत्कालीन युवा कहानी विशेषांकों को जो कि रविन्द्र कालिया जी के संपादन में पाठकों तक आए , तो यह बात स्पष्ट तौर पर उभरकर सामने आती है कि हिंदी कहानी से ग्रामीण लोक जीवन अदृश्य सा होने लगा ।