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सलिल सरोज की गज़लें

युवा ग़ज़लकार सलिल सरोज की गज़लें अपने समय की विसंगतियों पर जरूरी हस्तक्षेप करती हुईं आगे बढ़ती हैं। राजनीतिक विषयों पर भी उनकी गज़लें पैनी निगाह रखती हैं। युवा पीढ़ी के रचनाकारों की बात करें तो कहना न होगा कि उनके पास एक गहरी दृष्टि है , उसी दृष्टि से वे दुनिया को देखते हैं  और उस दृष्टि से उपजीं उनकी रचनाएं पाठकों से संवाद करती हैं। सहजता कई बार सम्प्रेषण को सघन करती है, सलिल सरोज की गज़लों को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है  1  किसी की भी निगाह में मैं अब खुदा नहीं रहा अब तो मुझे भी गुनाह की इजाज़त मिलनी चाहिए उम्र की दहलीज पर वो अब भी एक बच्ची है उसकी हरकतों को कुछ नई सी शरारत मिलनी चाहिए आवाम कब तक यूँ ही कठपुतली सी तमाशा देखेगी सिम्त जज़्बातों को कभी न कभी बगावत मिलनी चाहिए बहुत देर पोशीदा रही मेरे ख़्वाबों की रंगीन ताबीरें मेरी निगाहों को भी तस्वीरे-हुश्न कयामत मिलनी चाहिए तुम्हारे हाथों में सौप दी हैं हम सबने अपनी तकदीरें हर हाल में हमें मुल्क की सूरत सलामत मिलनी चाहिए मसला क्यों न कोई  भी हो मंदिर या मस्जिद का इंसानों के दिल में हर घड़ी ज़िन्दा मोहब्बत मिलनी चाहिए 2 मुझको मुझसे ही मिले इक