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सलिल सरोज की गज़लें


युवा ग़ज़लकार सलिल सरोज की गज़लें अपने समय की विसंगतियों पर जरूरी हस्तक्षेप करती हुईं आगे बढ़ती हैं। राजनीतिक विषयों पर भी उनकी गज़लें पैनी निगाह रखती हैं। युवा पीढ़ी के रचनाकारों की बात करें तो कहना न होगा कि उनके पास एक गहरी दृष्टि है , उसी दृष्टि से वे दुनिया को देखते हैं 
और उस दृष्टि से उपजीं उनकी रचनाएं पाठकों से संवाद करती हैं। सहजता कई बार सम्प्रेषण को सघन करती है, सलिल सरोज की गज़लों को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है 





किसी की भी निगाह में मैं अब खुदा नहीं रहा
अब तो मुझे भी गुनाह की इजाज़त मिलनी चाहिए

उम्र की दहलीज पर वो अब भी एक बच्ची है
उसकी हरकतों को कुछ नई सी शरारत मिलनी चाहिए

आवाम कब तक यूँ ही कठपुतली सी तमाशा देखेगी
सिम्त जज़्बातों को कभी न कभी बगावत मिलनी चाहिए

बहुत देर पोशीदा रही मेरे ख़्वाबों की रंगीन ताबीरें
मेरी निगाहों को भी तस्वीरे-हुश्न
कयामत मिलनी चाहिए

तुम्हारे हाथों में सौप दी हैं हम सबने अपनी तकदीरें
हर हाल में हमें मुल्क की सूरत सलामत मिलनी चाहिए

मसला क्यों न कोई  भी हो मंदिर या मस्जिद का
इंसानों के दिल में हर घड़ी ज़िन्दा मोहब्बत मिलनी चाहिए



2

मुझको मुझसे ही मिले इक ज़माना हो गया
अपनी पहचान भी अब तो फसाना हो गया

जो वक़्त पसंद थे मेरी तबियत और मिज़ाज़ को
वो हर लम्हा,बीते लम्हों के साथ पुराना हो गया

कमाता कम था फिर भी कितना शुकून था मुझे
बेशरम ख्वाहिशों का ख्वामखाह निशाना हो गया

नींद कम आती है और वो भी किश्तों में ही
ख़्वाबों का भी बन्द मुझमें  आना-जाना हो गया

क्यों और कैसे करूँ किसी और से मैं शिकायत
शौक मेरी ज़ुबाँ को जब दर्द का तराना हो गया



3


मैं धर्म की दलील देकर इन्सान को झुठला नहीं सकता 
मुझको तमीज है मजहब की भी और इंसानियत की भी 

ज़मीर भी गर बिकता है तो अब बेच आना प्रजातंत्र का 
मुझको समझ है सरकार की भी और व्यापार की  भी 

जो मेरा है मुझे वही चाहिए ना  कि तुम्हारी कोई भीख 
मुझे फर्क पता है उपकार की भी और अधिकार की भी 

वोटों की बिसात पर प्यादों के जैसे इंसां ना उछाले जाएँ 
मुझको मालूम है परिभाषा स्वीकार और तिरस्कार की भी 

अपने दिल को पालो ऐसे  की खून की जगह ख़ुशी बहे 
उसमें हो थोड़ी जगह मंदिर की भी और मज़ार की भी 


4

कभी मिलना 
उन गलियों में
जहाँ छुप्पन-छुपाई में
हमनें रात जगाई थी
जहाँ गुड्डे-गुड़ियों की शादी में
दोस्तों की बारात बुलाई थी
जहाँ स्कूल खत्म होते ही
अपनी हँसी-ठिठोली की
अनगिनत महफिलें सजाई थी
जहाँ पिकनिक मनाने के लिए
अपने ही घर से न जाने
कितनी ही चीज़ें चुराई थी
जहाँ हर खुशी हर ग़म में
दोस्तों से गले मिलने के लिए
धर्म और जात की दीवारें गिराई थी
कई दफे यूँ ही उदास हुए तो
दोस्तों ने वक़्त बे वक़्त 
जुगनू पकड़ के जश्न मनाई थी
जब गया कोई दोस्त 
वो गली छोड़ के तो याद में
आँखों को महीनों रुलाई थी
गली अब भी वही है
पर वो वक़्त नहीं, वो दोस्त नहीं
हरे घास थे जहाँ
वहाँ बस काई उग आई है।

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संपर्क:

B 302 तीसरी मंजिल

सिग्नेचर व्यू अपार्टमेंट
मुखर्जी नगर
नई दिल्ली-110009
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लेखक परिचय

सलिल सरोज

जन्ममार्च,1987,बेगूसराय जिले के नौलागढ़ गाँव में(बिहार)

शिक्षाआरंभिक शिक्षा सैनिक स्कूलतिलैयाकोडरमा,झारखंड से। जी.डीकॉलेज,बेगूसरायबिहार (इग्नू)से अंग्रेजी में बी.(2007),जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली से रूसी भाषा में बी.(2011),  जीजस एन्ड मेरीकॉलेज,चाणक्यपुरी(इग्नू)से समाजशास्त्र में एम.(2015)

प्रयासRemember Complete Dictionary का सह-अनुवादन,Splendid World Infermatica Study का सह-सम्पादनस्थानीय त्रिका"कोशिशका संपादन एवं प्रकाशन, "मित्र-मधुर"पत्रिका में कविताओं का चुनाव।

सम्प्रतिसामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार एवं ज्वलन्त विषयों पर पैनी नज़र। सोशल मीडिया पर साहित्यिक धरोहर को जीवित रखने की अनवरत कोशिश।

-मेल:salilmumtaz@gmail.com

टिप्पणियाँ

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