(कथादेश सितंबर 2023)
उसकी मृत्यु के बजाय जिंदगी को लेकर उसकी बौद्धिक चेतना और जिंदादिली अधिक देर तक स्मृति में गूंजती हैं।
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ज्ञान प्रकाश विवेक जी की कहानी 'शहर छोड़ते हुए' बहुत पहले दिसम्बर 2019 में मेरे सम्मुख गुजरी थी, नया ज्ञानोदय में प्रकाशित इस कहानी पर एक छोटी टिप्पणी भी मैंने तब लिखी थी।
लगभग 4 साल बाद उनकी एक नई कहानी 'बातूनी लड़की' कथादेश सितंबर 2023 अंक में अब पढ़ने को मिली। बहुत रोचक संवाद , दिल को छू लेने वाली संवेदना से लबरेज पात्र और कहानी के दृश्य अंत में जब कथानक के द्वार खोलते हैं तो मन भारी होने लग जाता है।
अंडर ग्रेजुएट की एक युवा लड़की और एक युवा ट्यूटर के बीच घूमती यह कहानी, कोर्स की किताबों से ज्यादा जिंदगी की किताबों पर ठहरकर बातें करती है। इन दोनों ही पात्रों के बीच के संवाद बहुत रोचक,बौद्धिक चेतना के साथ पाठक को तरल संवेदना की महीन डोर में बांधे रखकर अपने साथ वहां तक ले जाते हैं जहां कहानी अचानक बदलने लगती है।
लड़की को ब्रेन ट्यूमर होने की जानकारी जब होती है, तब न केवल उसके ट्यूटर को बल्कि पाठक को भी एक गहरा धक्का सा लगता है।कहानी की खूबी यह है कि
सारी घटनाएं बहुत स्वाभाविक लगती हैं।
जिंदगी से जुड़ी कई कहानियाँ बहुत त्रासद होती हैं पर उसको जीने वाले पात्र बहुत जिंदादिल होते हैं।वे छोटी सी जिंदगी को भी अपनी जिंदादिली से बहुत बड़ा बना देते हैं। बातूनी लड़की जैसे पात्र को बहुत खूबसूरती से ज्ञानप्रकाश विवेक जी ने गढ़ा है। उसकी मृत्यु के बजाय जिंदगी को लेकर उसकी बौद्धिक चेतना और जिंदादिली अधिक देर तक स्मृति में गूंजती हैं।कहानी मुझे अच्छी लगी।
◆तराना परवीन की कहानी "चिन्दियाँ"
(बया सितंबर 2023 अंक में प्रकाशित)
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कालकी और भूरकी की कथा भर नहीं है यह , उन आम भारतीय किशोर उम्र की लड़कियों की कथा है जो एकदम संसाधन विहीन परिवारों से आती हैं। एक किशोर उम्र की लड़की के जीवन में माहवारी एक बायोलॉजिकल घटना है जिसके कारण पहले पहल बहुत असहज स्थितियाँ निर्मित होती हैं।शहर से अपने गांव जाने के लिए सड़क पर किसी सवारी वाहन की प्रतीक्षा करते हुए गरीब, संसाधन विहीन माता पिता की लड़कियों को जब इस माहवारी जैसी असहज कर देने वाली घटना का पहली बार सामना करना पड़े तो परिस्थिति जन्य एक चिन्दी के लिए भी तरसना पड़ सकता है।
माता पिता संग उन लड़कियों द्वारा एक ट्रक पर लिफ्ट लेकर सफ़र करते हुए जो दृश्य और संवाद इस कहानी में हैं बहुत भयावह हैं। परिस्थितियां और वहाँ की घटनाएं ऐसी हैं कि पुरुषों का नग्न चरित्र एक शैतान की तरह आंखों के सामने दिखाई पड़ता है। एक चिन्दी के बदले शोषित लडकियों की यह कहानी आज के नग्न समाज की सच्चाई बयाँ करती है।एक अच्छी कहानी के लिए तराना परवीन जी को बधाई।
◆महावीर राजी की कहानी "अनाम सी खुशबू"
अहा जिंदगी अगस्त 2023 अंक
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कहानी में कथाकार ने स्त्रियों की उस मजबूरी की ओर ध्यान आकृष्ट किया है जो परिवार में उनकी ही जिम्मेदारी के बतौर परिभाषित कर दिया गया है। चाय बनानी हो, चाय को सर्व करना हो , पुरुष की नज़र में किचन का सारा काम औरत के जिम्मे ही है भले ही वह बीमार हो। ज्वर बुखार से पीड़ित होने की स्थिति में भी इन कामों को उसे ही करना है।बीमार होने की स्थिति में अगर वह इन कामों को न करे तो उसका बीमार होना भी बहानेबाजी के बतौर ही देखा जाता है क्योंकि पुरुष की नजर में तो स्त्री कभी बीमार हो ही नहीं सकती। उसे तो बीमार होना ही नहीं चाहिए।
एक स्त्री की मजबूरियों को एक अन्य स्त्री की नजर से जो कि एक काम वाली बाई है, देखने की कोशिश इस कहानी में की गई है।
कहानी में बुखार से बुरी तरह पीड़ित अपनी मालकिन के प्रति कामवाली बाई की संवेदना को जिस तरह स्वाभाविक तौर पर उभारा गया है वह ध्यान आकर्षित करता है। संवेदना जब जागृत होती है तब अपने साथ त्याग और समर्पण को भी बहा कर लाती है। कामवाली बाई जो कि आमतौर पर आर्थिक रूप से विपन्न ही होती है अगर वह भी अपनी मासिक मजदूरी की रकम को मालकिन की बेहोशी की हालत में उसके इलाज पर खर्च कर दे तो यह घटना त्याग, समर्पण और संवेदना से संपृक्त घटना है। खर्च हुई रकम के वापस मिलने की संभावना भी कुहांसे से भरी हुई है क्योंकि सारी घटनाएं मालकिन की बेहोशी की हालत में घटित हुई है। यद्यपि ऐसी घटनाएं आमतौर पर आज के समय में देखने को न भी मिलें तब भी इस तरह की घटनाओं के घटित होने की संभावना खत्म नहीं हुई है। कहानी इसी संभावना के जीवित रहने को आगे बढ़ाती है।
अपनी सुविधाओं भरी जिंदगी में मस्त होकर धनाढ्य और पितृसत्तात्मक समाज की संवेदना जहां कोमा में जा चुकी है, ऐसे में एक कामवाली बाई जैसा पात्र और इस पात्र का त्याग, उसकी संवेदना और उसका समर्पण पाठक को आश्वस्त करते हैं।
महावीर राजी की यह छोटी सी कहानी सही मायनों में मानवता और जीवन को आश्वस्त करने वाली कहानी है।
◆आनंद हर्षुल की कहानी "गन्ध"
(कथादेश अंक जुलाई 2023)
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आनंद हर्षुल जी अपनी कहानी में भाषा को बरतने, उसको कलात्मक रूप देने में हमेशा नए तरह के प्रयोग करते देखे जाते हैं। उनकी भाषायी मौलिकता उनकी कहानियों में देखी जा सकती है। उनकी कहानियों में मन से जुड़ी अंदरूनी परतों की बुनावटें भी कुछ इस तरह आती हैं कि उन्हें पकड़ने के लिए हमारे जैसे सामान्य पाठक को, मन के विज्ञान से को-रिलेट करते हुए उन्हें समझना पड़ता है।
कथादेश जुलाई 2023 अंक में उनकी कहानी "गन्ध" पढ़ रहा था तो लगभग इसी तरह के अनुभवों से गुजरना हुआ, जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है।
यह कहानी सिबू नामक एक ऐसे पात्र के इर्द-गिर्द बुनी गई है जिसकी नौकरी अपने मालिक के घर उनके छः कुत्तों की देखभाल से जुड़ी है।
गंध निरा एक अमूर्त बिषय होते हुए भी कहानी में उसे मूर्त तरीके से प्रस्तुत करने की चुनौती कथा लेखक के सामने रही होगी, पर आनंद हर्षुल जी ने बड़े सलीके से उसे पाठकों के सामने रखा है।
पृथ्वी अनगिनत गंधों से भरी हुई है । सुगंध और दुर्गंध । गन्ध के दो घटक । पर इन दो घटकों के बीच कोई सीधी स्पष्ट रेखा नहीं खींची जा सकती। किसी के लिए दुर्गंध भी सुगंध की तरह हो सकती है तो किसी के लिए सुगंध भी दुर्गंध की तरह हो सकती है। यह होना परिस्थिति जन्य है और यह जीवन और जीवन की आजीविका से जुड़ा एक गंभीर मसला है।
आनंद जी ने इस कहानी में एक बड़ी बात यह कही है कि धरती पर गन्ध भी मरते रहते हैं। जैसे सिबू के जीवन में मनुष्य देह की गंध मृत हो चुकी है। वह जहां से भी गुजरता है लोगों को उसकी देह से कुत्तों की गंध आती है।
दरअसल गन्ध मनुष्यों के मन से जुड़ा मसला है । मन में कोई धारणा बहुत सघन रूप में बैठ जाती है तो कई बार वह गन्ध का रूप ग्रहण कर लेती है।कुत्तों की सेवा करने जैसी नौकरी करने वाले सिबू के जीवन से मनुष्य देह की गन्ध को उसकी पत्नी भी महसूस नहीं कर पाती। सिबू की पत्नी के जीवन में सिबू से जुड़ी मनुष्य देह की गंध मृत होकर वह कुत्तों की गन्ध में बदल गयी है।धरती पर लोगों के जीवन से गंध किस तरह मरती रहती हैं, उसका एक मनोवैज्ञानिक चित्रण इस कहानी में मिलता है।
अंत में कोलाज के सहारे आनंद जी ने सिबू को एक कुत्ते के रूप में तब्दील करते हुए उसका चित्रण किया है। कई बार कहानी में इस तरह के प्रयोगों के माध्यम से कथ्य को संप्रेषित करने की कोशिश की जाती है। संभवतः कहानी को प्रभावी बनाने का यह एक तरीका है।
छह कुत्तों के साथ सातवें कुत्ते के रूप में सिबू के बदल जाने के बाद मनुष्य के रूप में सिबू की पहचान पूरी तरह मिट चुकी होती है। अब उसे देखकर सिबू के रूप में कोई नहीं पहचान सकता। यहां तक की उसकी पत्नी भी।
सिबू के लिए यह एक बहुत बड़ा संकट है कि देख कर उसकी पत्नी भी उसे ना पहचान पाए। अपनी पहचान के संकट के साथ वह अपने घर की चौखट के बाहर रात दिन बैठा रहता है। उसकी ललक देख सिबू की पत्नी का ध्यान उसकी ओर जाता है। तब अचानक सिबू की पत्नी को उस सातवें कुत्ते की देह से मनुष्य की गंध आने लगती है । सिबू की देह की गंध। यह गन्ध ही उसकी पहचान में एकमात्र घटक है जिसके सहारे वह पहचाना जाता है।
मनुष्य का मन ही कुछ ऐसा है कि कोई चीज अगर जीवन में खो जाए तब हम उसे पहचान पाते हैं। उसकी गंध को पहचान पाते हैं।
इस धरती पर चीजों के गंध के मरने और जीवित होने की कहानियाँ अनवरत चलती रहती हैं जिसे इस कहानी के माध्यम से हम महसूस करते हैं।एक बात जरूर है कि यह कहानी पढ़ने के दरमियान बहुत धीरज की मांग करती है। कई बार कहानी पढ़ते समय दृश्यों, घटनाओं और मन में आते जाते विचारों के तालमेल के लिए पाठकीय धीरज भी जरूरी होता है। इसे पठनीयता की बाधा के रूप में देखने को मैं सही नहीं मानता।
कहानी को खत्म करने के बाद भी हम कहानी के विषय में बहुत देर तक सोचते रहते हैं।
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रमेश शर्मा
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