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क्या गांधी कोई राजनीतिज्ञ हैं?

यूथ और गांधी के बीच का राजनैतिक परिदृश्य यूथ को गांधी के निकट ले जाने की कोशिश के किसी भी उपक्रम में विभिन्न दिशाओं से  यह सवाल खड़ा होने लगता है कि गांधी राजनीतिज्ञ हैं या नहीं? यूथ को गांधी से आखिर किस तरह जोड़ा जा सकता है? राजनीति कोई अस्पृश्य बिषय नहीं है । कोई दो राय नहीं कि विचारों के दायरे में हर आदमी राजनीति की परिधि से बाहर भी नहीं है। जो कोई मतदान करने जाता है , किसी न किसी दल को अपना समर्थन देता ही है। यहां यह समझना होगा कि उसका समर्थन कई बार परिस्थिति जन्य होता है। लोकहित में, जिसे वह उचित समझता है उस वक्त समर्थन कर देता है। उसकी पक्षधरता यहां किसी राजनीतिक खांचे में कैद न होकर अपने विचारों के भीतर कैद होती है। किसी व्यक्ति के इस आचरण को राजनीति के दायरे में लाकर परिभाषित करना न्यायसंगत होगा, मुझे ऐसा नहीं लगता। व्यक्तिवादी राजनीति की परिभाषा उस जगह अधिक सुसंगत लगती है जब व्यक्ति अपने विचारों की कैद से मुक्त होकर या अपने स्वयं के विचारों से मुक्त होकर एक पक्ष तय करके दृढ़ता से खड़ा नज़र आता है। आम आदमी जो चेतना और विवेक के स्तर पर अपनी जगह दृढ़ है , उसकी पहली प्राथमिकता राजनीतिक

परिकथा सितंबर - दिसम्बर 2024 अंक पर एक टिप्पणी - अनुज कुमार

भारतीय डाक व्यवस्था की मेहरबानी हुई और देर से ही सही, लेकिन दुरुस्त ढंग से ‘परिकथा’ का नया अंक (संयुक्तांक : सितम्बर-दिसम्बर, 2024) आख़िरकार कल मुझे मिल गया। विषय-सूची देखकर मन खिल उठा। हर बार की तरह इसबार भी पत्रिका के संपादक शंकर जी ने यह सिद्ध कर दिया है कि साहित्य की दुनिया में जो दो-चार पत्रिकाएँ अच्छा काम कर रही हैं, उनमें ‘परिकथा’ अगली सफ़ में बैठी हुई है। इससे पहले कि मैं पत्रिका पर मुक़म्मल बात शुरू करुँ, मैं कहना चाहता हूँ कि पत्रिका का संपादकीय ‘भूखे पेट सोने वाले लोगों’ की जिस मौलिक समस्या को रेखांकित करता है, वह वास्तव में पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का दावा करने वाले देश के लिए गहरी चिन्ता का विषय है।  पूर्व संपादकीय की परम्परा की नींव 1969 में मार्कण्डेय ने अपनी ‘कथा’ पत्रिका से डाली थी। यह इत्तफ़ाक ही है कि मैंने उसी ‘कथा’ पत्रिका का पाँच वर्षों तक संपादन किया था। ‘परिकथा’ ने उस परम्परा को आगे बढ़ाया है। आप विषय-सूची देखकर स्वयं ही अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यह अंक कितना समृद्ध है। इसमें आलेख हैं, कविताएँ हैं, पुस्तक समीक्षाएँ हैं, कहानियाँ हैं, और भी बहुत कुछ है : लेकिन बात स

गांधी पर केंद्रित कुछ कविताएँ - रमेश शर्मा

गांधी पर केंद्रित रमेश शर्मा की कुछ कविताएँ आज गांधी जयंती है । गांधी के नाम को लेकर हर तरफ एक शोर सा उठ रहा है । पर क्या गांधी सचमुच अपनी नीति और सिद्धांतों के स्वरूप और प्रतिफलन में राजनीति , समाज और आदमी की दुनियाँ में अब भी मौजूद हैं ? हैं भी अगर तो किस तरह और  किस अनुपात में ? कहीं गांधी अब एक शो-केस मॉडल की तरह तो नहीं हो गए हैं कि उन्हें दिखाया तो जाए पर उनके बताए मार्गों पर चलने से किसी तरह बचा जाए ? ये ऐसे प्रश्न हैं जो इसी शोर शराबे के बीच से उठते हैं । शोर इतना ज्यादा है कि ये सवाल कहीं गुम होने लगते हैं। सवालों के ऊत्तर ढूंढ़तीं इन कविताओं को पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया भी ब्लॉग पर ही टिप्पणी के माध्यम से व्यक्त करें--  १. हर आदमी के भीतर एक गांधी रहता था कभी  ---------------     एक छाया की तरह है वह तुम चलोगे तो आगे जाएगा  पकड़ने की हर कोशिशों की  परिधि के बाहर ! बाहर खोजने-पकड़ने से अच्छा है  खोजो भीतर उसे तुम्हारी दुनियाँ के  किसी कोने में मिल जाए दबा सहमा हुआ मरणासन्न ! कहते हैं  हर आदमी के भीतर  एक गांधी रहता था कभी किसी के भीतर का मर चुका अब तो किसी के भीतर  पड़ा हुआ है मरणा