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फादर्स डे पर परिधि की कविता : "पिता की चप्पलें"

  आज फादर्स डे है । इस अवसर पर प्रस्तुत है परिधि की एक कविता "पिता की चप्पलें"।यह कविता वर्षों पहले उन्होंने लिखी थी । इस कविता में जीवन के गहरे अनुभवों को व्यक्त करने का वह नज़रिया है जो अमूमन हमारी नज़र से छूट जाता है।आज पढ़िए यह कविता ......     पिता की चप्पलें   आज मैंने सुबह सुबह पहन ली हैं पिता की चप्पलें मेरे पांवों से काफी बड़ी हैं ये चप्पलें मैं आनंद ले रही हूं उन्हें पहनने का   यह एक नया अनुभव है मेरे लिए मैं उन्हें पहन कर घूम रही हूं इधर-उधर खुशी से बार-बार देख रही हूं उन चप्पलों की ओर कौतूहल से कि ये वही चप्पले हैं जिनमें होते हैं मेरे पिता के पांव   वही पांव जो न जाने कहां-कहां गए होंगे उनकी एड़ियाँ न जाने कितनी बार घिसी होंगी कितने दफ्तरों सब्जी मंडियों अस्पतालों और शहर की गलियों से गुजरते हुए घर तक पहुंचते होंगे उनके पांव अपनी पुरानी बाइक को न जाने कितनी बार किक मारकर स्टार्ट कर चुके होंगे इन्हीं पांवों से परिवार का बोझ लिए जीवन की न जाने कितनी विषमताओं से गुजरे होंगे पिता के पांव !   मगर वे नहीं कहते कभी

शंकर की कहानी : ‘गिफ्ट–विफ्ट’

  आदमी के दिलोदिमाग में घुसा पड़ा बाज़ार उसे किन मनः स्थितियों के माध्यम से संचालित करता है, किसी दुकान के काउंटर पर किस तरह एक स्त्री के बैठ जाने मात्र से मनुष्य के भीतर घुसी पड़ीं ये तामसिक मनः स्थितियां सक्रिय होकर उसे बाज़ार के आगोश में धकेलने लग जाती हैं, बाज़ार के इस केंद्र में स्त्री का ग्लेमर किस तरह घुल मिल गया है, बाज़ार के बीच रहकर किस तरह एक स्त्री को अपने विवेक,अपनी बुद्धि और दृढ़ता का इस्तेमाल करना चाहिए ताकि उसकी गरिमा और उसका अस्तित्व कायम रहे....... यह कहानी इन सारी बातों को एक विमर्श के रूप में हमारे सामने रखती है। कहानी की पठनीयता, उसकी सहजता, नए रूप में प्रस्तुत उसका कथ्य कहानी को धारदार बनाते हैं । सामाजिक मूल्यों के छिन्न भिन्न होने के इस बाज़ारू समय में ऎसी कहानियाँ समाज को एक दिशा देने का काम भी करती हैं ।        शंकर  शंकर की कहानी : ‘ गिफ्ट – विफ्ट ’   ‘ गिफ्ट – विफ्ट ’ नाम से दुकान खुली तो थी बहुत उत्साह और उम्मीदों के साथ , लेकिन दुकान अभी चल रही थी बहुत धीमी और सुस्त रफ्तार से।युगेश भूषण के लिए ये किसी अकल्पित मुश्किल के सामने खड़ा हो गए होने और भीतर ही भीत