आदमी के दिलोदिमाग में घुसा पड़ा
बाज़ार उसे किन मनः स्थितियों के माध्यम से संचालित करता है, किसी दुकान के काउंटर
पर किस तरह एक स्त्री के बैठ जाने मात्र से मनुष्य के भीतर घुसी पड़ीं ये तामसिक मनः
स्थितियां सक्रिय होकर उसे बाज़ार के आगोश में धकेलने लग जाती हैं, बाज़ार के इस
केंद्र में स्त्री का ग्लेमर किस तरह घुल मिल गया है, बाज़ार के बीच रहकर किस तरह
एक स्त्री को अपने विवेक,अपनी बुद्धि और दृढ़ता का इस्तेमाल करना चाहिए ताकि उसकी
गरिमा और उसका अस्तित्व कायम रहे....... यह कहानी इन सारी बातों को एक विमर्श के
रूप में हमारे सामने रखती है। कहानी की पठनीयता, उसकी सहजता, नए रूप में प्रस्तुत
उसका कथ्य कहानी को धारदार बनाते हैं । सामाजिक मूल्यों के छिन्न भिन्न होने के इस
बाज़ारू समय में ऎसी कहानियाँ समाज को एक दिशा देने का काम भी करती हैं ।
शंकर |
शंकर की कहानी
: ‘गिफ्ट–विफ्ट’
‘गिफ्ट–विफ्ट’ नाम से दुकान खुली तो थी बहुत उत्साह और उम्मीदों के साथ, लेकिन दुकान अभी चल रही थी बहुत धीमी और सुस्त रफ्तार से।युगेश भूषण के लिए ये किसी अकल्पित मुश्किल के सामने खड़ा हो गए होने और भीतर ही भीतर लहूलुहान होने के ही दिन थे।
‘गिफ्ट-विफ्ट’ के
कुछ बाद खुली रेस्टूरेंटनुमा दुकान उनकी आंखों के सामने जोर-शोर से चल रही थी।वे
चाह रहे थे,
रेस्टूरेंटनुमा दुकान उनकी सोच में नहीं आए, लेकिन
वह दुकान थी कि उनकी सोच में घुसी आती थी।अहमदाबाद में एक कंपनी में काम कर रहे
उनके बेटे ने उन्हें समझाया, ‘कार्ड, गुलदस्ते
और गिफ्ट आइटम्स रोजमर्रा की जरूरी चीजें नहीं हैं।ये फैंसी, शौक
और शो से जुड़ी चीजें हैं।इनके कारोबार की रफ्तार धीमी ही रहेगी।’ बेटे
ने दुकान के प्रति ग्राहकों के मन में आकर्षण पैदा करने के कुछ सुझाव जरूर दिए थे
और उसकी सलाह मानकर ही उन्होंने दुकान के साइनबोर्ड को हटवाकर वहां एल.ई.डी. बल्ब
में लिखे हुए ‘गिफ्ट-विफ्ट’ का
बोर्ड लगवा दिया था जो पूरा दिन और पूरी रात जल रहा था और लोगों को दिखाई पड़ रहा
था।दुकान के सामने चमकते हुए स्टील के दो खंभे गड़ गए थे जिनके सहारे दूर से ही
दिखाई पड़ जाने वाले आर्टिफिशियल गुलदस्ते लटक रहे थे।बेटे की ही सलाह पर दुकान के
काउंटर पर परफ्यूम बिखेरने की व्यवस्था हो गई थी और एक मनोहारी सुगंध सड़क से
गुजरने वालों तक पहुंच रही थी।बेटे ने तो सलाह नहीं दी थी, लेकिन
युगेश भूषण ने अपनी तरफ से दुकान में चारों कोनों पर आदमकद आईने लगवा दिऐ थे कि दुकान
शीशमहल जैसे दिखे और जो भी दुकान पर आए, वह
अपनी चार-चार छवियां देखे।
इन उपायों से दुकान के आसपास
रौनक और जीवंतता जरूर बढ़ी थी, थोड़ी-सी
बिक्री भी बढ़ी थी,
लेकिन बिक्री इतनी नहीं बढ़ी थी कि अपने रिटायरमेंट
के बाद कुछ करने और सक्रिय जीवन जीने के ख्याल से किया गया यह उपाय युगेश भूषण को
खुशनुमा या हौसला बढ़ाने वाला लगने लग जाए।
यह प्रांत की राजधानी से सटा एक
कस्बा था।यहां एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी थी, एक
डिग्री कॉलेज था,
दो दो अच्छे अस्पताल थे, सब-डिविजन
ऑफिस और उसका तामझाम था, एक ठीक-ठाक बाजार था।पास में एक
झील थी,
अलग से हरा-भरा पार्क था।राजधानी और यहां के बीच
अच्छी-खासी आवाजाही थी।नौजवानों और घूमने-फिरने वालों के लिए यह पसंद की जगह थी और
यहां भीड़ बनी रहती थी।ऐसा कभी किसी को नहीं लग सकता था कि यह कोई वीरान या
कोने-किनारे में फिंकायी हुई जगह है या यहां गिफ्ट आइटम्स, कार्ड, फूलों
या गुलदस्तों की किसी दुकान के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।
उन्होंने अपने लिए एक मजबूत कवच
भी गढ़ लिया था कि जिसे जो कहना हो, कहे, वे
तो यही कहेंगे कि मैं एक्टिव रहना चाहता हूँ और जीवन के अंतिम क्षण तक कुछ न कुछ
करते रहना चाहता हूँ।उनके एक मित्र ने कहा भी, ‘एक्टिव
रहने के लिए दिन भर साइकिल पर घूमो’ तो
उसका उत्तर उन्होंने तुरंत ही दिया था, ‘दुकान
पर मैं रोज दो बार पैदल आऊंगा-जाऊंगा। … सो?’
युगेश भूषण ने बहुत सोच-विचार
कर यह कारोबार चुना था।राशन, अनाज, दाल, तेल, नमक
की दुकानदारी वे कर नहीं सकते थे।दवा के कारोबार में ज्यादा पूंजी लगनी थी।किताबों
की दुकान पर एक बार सोच गई थी।साइबर-कैफे खोलने का भी ख्याल आया था, लेकिन
उनकी दिक्कत थी कि उनको कंप्यूटर-इंटरनेट की ज्यादा जानकारी नहीं थी और दूसरों पर
पूरी तरह से निर्भर रहने की मजबूरी होती।लिहाजा अंत अंत तक गिफ्ट आइटम, कार्ड, फूल, गुलदस्ते
की दुकान का ख्याल ही उनके मन में जोर मारता रहा था।
दुकान चले, इस
सोच के साथ उन्होंने गिफ्ट कार्नर, गिफ्ट
पैलेस,
गिफ्ट म्युजियम या गिफ्ट गैलरी जैसे भारी-भरकम नाम
की जगह किसी को भी समझ में आ जाने वाला बहुत सीधा सपाट और अलग सा नाम ‘गिफ्ट-विफ्ट’ ही
चुना था।सड़क पर ही ऑटो रिपयेरिंग की एक लंबी सी दुकान लंबे समय से बंद पड़ी थी।यह
जगह उन्होंने ‘गिफ्ट-विफ्ट’ के
लिए चुनी,
क्योंकि यहां दुकान चल जाने की पूरी संभावना
थी।पास के शहर में गिफ्ट, कार्ड, गुलदस्तों
की दुकानों से पूछताछ करते हुए वे सबसे बड़े सप्लायर होलसेलर तक पहुंच गए थे।बात
पक्की हो गई थी कि सिर्फ पांच प्रतिशत मुनाफे और पांच प्रतिशत लागत लेकर जिस जिस
तरह के,
जितने जितने महंगे कार्ड, गिफ्ट
आइटम वे चाहेंगे,
वह उन्हें उपलब्ध करा देगा।गुलाब के फूल और
गुलदस्तों के बास्केट रोज रोज डिलवरी-औटो से उन तक पहुंच जाएंगे जिस तरह वे अन्य
दूसरी दुकानों पर पहुंच जाते हैं।
दुकान को खुलना था और वह सज-धज
कर खुल गई थी।
‘गिफ्ट-विफ्ट’ बेशक
इस कस्बे में खुली एक नई तरह की दुकान थी।यहां नया साल, जन्मदिन, वेडिंग, वेडिंग
एनिवरसरी,
वेलेनटाइन डे, दीपावली
जैसे तरह-तरह के अवसरों के लिए तरह-तरह के उन्नत किस्म के चमकीले कार्ड सजे दिखते
थे।जिस किसी की नजर पड़ जाए, सामने
सजे हुए गुलदस्ते दिखाई पड़ रहे थे।दुकान के भीतर शो केसों में गिफ्ट आइटम्स की
भरमार थी।इनमें कई विदेशी चीजें भी थीं।कोई गुजरता तो दुकान की तरफ से खुशबू का
झोंका आता था,
गुलदस्ते स्वागत में मौजूद दिखते थे।एलइडी ट्युबों
से बना बोर्ड रोशनी का समुद्र बिखेरता दिखता था।
यहां सब कुछ था, लेकिन
इसी परिद़ृश्य में दुकान की केबिन से सड़क की तरफ उम्मीदों के साथ देखतीं युगेश
भूषण की दो आंखें भी थीं, जिनमें गहरी निराशा और उदासी की
परछांइयां होती थीं।
यह एक खिली हुई दोपहर थी।युगेश
भूषण केबिन में उदास बैठे थे कि मोबाइल पर आवाज हुई।उन्होंने देखा, यह
शहर के होलसेल सप्लायर का फोन था।उन्होंने मोबाइल को कान से सटाया और हैलो कहा तो
उधर से आवाज आई,
‘नमस्कार, प्रोफेसर
साहब,
आपकी आवाज में उदासी है।शायद दुकान ढीली ढाली चल
रही है।’
‘मैं
तो मेहनत कर रहा हूँ और लगा हुआ ही हूँ।’ युगेश
भूषण इसके अलावा और क्या कह सकते थे।
‘प्रोफेसर
सर जी,
कोई कारोबार सिर्फ अच्छाई या मेहनत से नहीं चलता
है।यह दुकान राशन,
अनाज, तेल
या किराने-परचून की नहीं है कि खुल गई तो बस चलने लगे।हर कारोबार के अपने अपने
नुस्खे और ट्रिक होते हैं, तभी कारोबार चलता है।आपकी दुकान
तो ऐसी जगह पर है कि वह वहीं की ही नहीं, इस
इलाके की टाप दुकान बन सकती है।आप इजाजत दें तो मैं वे नुस्खे आपकी दुकान पर
लगाऊं।आप केबिन में बैठिये, काउंटर
कोई दूसरा सम्हाले…।’ होलसेल-सप्लायर
की आवाज में सदाशयता कम, तजुर्बे और घाघपने की
अंतर्ध्वनि ज्यादा थी।
‘हां, हां, आपकी
ही दुकान है।इसे आगे बढ़ाइए।’ युगेश
भूषण ने तुरंत जवाब दिया था।होलसेल-सप्लायर क्या करेगा, इसका
शायद उन्हें अंदाजा भी नहीं था और ‘हां’ कह
देना उनकी विनम्रता थी या मजबूरी, यह
शायद वे भी नहीं समझ पाए थे।
अगली सुबह डिलवरी-ऑटो उनकी
दुकान के सामने रुका तो रोज-रोज आने वाला डिलवरी ब्वाय फूल और गुलदस्तों के
बास्केट से पहले दो बड़े-बड़े कटआउट खींचकर लाता हुआ दिखा।युगेश भूषण ने निरीहता के
साथ देखा,
ये अर्द्धनग्न फिल्म अभिनेत्रियों के कटआउट
थे।डिलवरी ब्वाय इन्हें स्टील के खंभों से स्क्रू लगाकर बांध रहा था।तभी एक लड़की
भी स्कूटी पर गुलाबी रंग की सूट पहने पहुंच गई थी।
‘सर
जी,
मुझे मेरे सर ने भेजा है कि मैं इस दुकान का
काउंटर सम्हालूं।’
लड़की दुकान के अंदर आने की इजाजत मांग रही थी।
‘हां, हां, बेटा, आओ, आओ…’ युगेश
भूषण काउंटर की जगह से हटकर एक किनारे खड़े हो गए।
लड़की सभी सामानों का मुआयना कर
रही थी और कार्ड के पैकेटों पर अंकित मूल्य और शोकेस के सामानों के साथ लटक रहे
प्राइस-टैग को देखती जा रही थी।
युगेश भूषण को केबिन में जाकर
होलसेलर-सप्लायर को फोन लगाने और बात करने का मौका मिल गया था, ‘आपने
बताया नहीं,
मुझे महीने में कितने देने होंगे?’
‘सर
जी,
दुकान चल जाए तो दस हजार दे दीजिएगा, ज्यादा
चल जाए तो बारह हजार और नहीं चले तो कुछ नहीं, आप
काउंटर गर्ल को वापस भेज दीजिएगा।’ यह
दूसरी तरफ की आवाज थी।
होलसेल सप्लायर का तर्जुबा सही
निकला था।दिन भर दुकान में चहल-पहल बनी रही।सड़क से गुजरते हुए लोग दुकान में आकर
चीजों की मोल तोल कर रहे थे।छोटी सी जगह थी।यहां एक किनारे की खबर दूसरे कोने तक
बिजली की तरह दौड़ती थी।दबे-छिपे कइयों के पांव ‘गिफ्ट-विफ्ट’ की
तरफ बढ़ आए थे।जो भी दुकान में आया, उसने
कुछ न कुछ ले ही लिया।किसी ने कार्ड, किसी
ने गुलाब का फूल।किसी ने गिफ्ट आइटम्स देखे और काउंटर-गर्ल को कहा, वह
चुने हुए सामान को सुरक्षित रख दे, सामान
कल आकर ले जाऊंगा।
पूरा दिन खरीदारों और खरीदने का
मन बनाकर लौट जाने वालों का आना-जाना जारी रहा।शायद ही कभी मौका आया कि दुकान पर
कोई न हो और मुर्दानगी हो।वे केबिन में बैठे रहे थे, खरीदार
से पैसे लेते थे,
दिए जाने वाले सामान का स्लिप देते थे, लड़की
स्लिप पर लिखा सामान खरीदार को दे देती थी।लड़की सामान देते हुए ‘थैंक
यू’
कहती तो खरीदार भी उसकी आंखों में झांकते हुए
मुस्कराकर ‘थैंक
यू’
कहता जैसे कि वह कृतार्थ हुआ हो और लौटते हुए भी
काउंटर को देखता रहता।
शाम को दुकान बंद होने लगी तो
लड़की युगेश भूषण को नमस्ते कहकर स्कूटी से चली गई।युगेश भूषण बैग हाथों में दबाए
लौट रहे थे तो लगा,
पांव आज धीरे-धीरे रेंगने के बजाय हवा में तेज-तेज
उड़ रहे हैं।
घर पर पत्नी ने रोज की तरह रकम
गिनने के लिए बैग को बिछावन पर पलटा तो उनकी आंखें कुछ चुंधियाईं, ‘डौली
के पापा,
बिक्री की रकम तो कभी तीन, साढ़े
तीन हजार से ज्यादा नहीं रही, आज
यह रकम आठ हजार से ज्यादा की लग रही है।क्या दुकान में कुछ और सामान जोड़ लिया है
आपने?’
‘यदि
बिक्री की रकम कल भी इतनी ही रही, मैं
तब तुमको बताऊंगा।’
युगेश भूषण के मन में अथाह खुशी थी, लेकिन
उसे उन्होंने छुपा लिया था।
युगेश भूषण ने गौर किया, अगले
दिन भी दुकान पर गहमागहमी जारी है।लोग आ रहे हैं, जा
रहे हैं,
कार्ड छांट-छांटकर और सामानों को मांग-मांग देख
रहे हैं और तय कर रहे हैं, क्या खरीदा जाए।जो नौजवान, अधेड़
खाली हाथ शाम को घर लौटते थे, वे
अब गुलदस्ते लेकर जा रहे थे।काउंटर की लड़की जब खरीदारों को सामान देकर ‘थैंक
यू’
कह रही थी तो लोग निहाल हो रहे थे।यह जैसे एक नई
तरह का सुख था जो लोग खरीदे गए सामानों के साथ अलग से पा रहे थे।
शाम को युगेश भूषण की पत्नी
रुपये गिनकर फिर चौंकीं।आज भी रकम आठ हजार से ज्यादा ही थी।युगेश भूषण ने आज मन की
खुशी बांट ली,
‘डौली की मां, शहर
के होलसेलर-सप्लायर ने काउंटर सम्हालने के लिए एक बहुत सुंदर और सुसंस्कृत लड़की
भेजी है।मेरी मेहनत भी कम हो गई है।मैं तो अब बस केबिन में बैठा रहता हूँ।यह उसकी
मौजूदगी का जादू है…।’
‘आप
क्या जानें दुकान और कारोबार के तरीके।वह तजुर्बेवाला है और हमारी दुकान को आगे
बढ़ा रहा है।आप बस उसके बताए हुए पर लगे रहिए।’ पत्नी
की आवाज में थोड़ी खुशी और थोड़ा संतोष, दोनों
की अंतर्ध्वनियां थीं।
ये ‘गिफ्ट-विफ्ट’ के
लिए कारोबार और तरक्की के दिन थे।हर मौके पर नौजवान-अधेड़ ‘गिफ्ट-विफ्ट’ तक
दौड़ रहे थे,
और काउंटर गर्ल से राय मशविरा कर रहे थे, काउंटर
गर्ल की सलाह मानते हुए दिखना उन्हें अच्छा लग रहा था।लड़की थोड़ा झुककर थैंक यू
कहती तो यह खरीद और भी अच्छी लग रही थी।
दुकान में सामानों की जरूरत भी
बढ़ गई थी और कार्ड या गिफ्ट आइटम्स की खेपें होलसेलर-सप्लायर लगातार भिजवा रहा
था।फूल और गुलदस्तों के बास्केट भी अब ज्यादा संख्या में आने लगे थे।कभी-कभी तो यह
भी होता था कि दोपहर ढलते-ढलते होलसेलर-सप्लायर को खबर की जाती कि फूल या गुलदस्ते
नहीं बचे हैं तो होलसेलर-सप्लायर दुबारा बास्केट भिजवा दे रहा था।वे दिन गुजर गए
थे जब फूलों या गुलदस्तों के बास्केट हफ्ते में दो दिन ही आ रहे थे, उन्हें
पानी और केमिकल के स्प्रे से ताजा रखना होता था।डिलवरी ऑटो से बास्केट लाने वाला
लड़का युगेश भूषण को रोज हँसते हुए सलाम कर रहा था और युगेश भूषण इसका अर्थ समझकर
रोज लड़के को खुशी में बख्शीश के रूप में बीस रुपये का एक नोट दे रहे थे।
युगेश भूषण के चारों तरफ उत्साह
और उल्लास की एक नई दुनिया थी।वे सुबह में दुकान खोलने आ रहे होते तो उन्हें देखकर
कोई-कोई मुस्कराता था, कोई-कोई नमस्कार कर रहा था, कोई
रुककर हाथ मिला रहा था।उनके लिए यह समझना मुश्किल नहीं था कि ये दरअसल उनकी
कामयाबी और बढ़ती हुई हैसियत की निशानियां हैं।वे दुकान से घर लौटते तो पत्नी
इंतजार करती हुई मिलती थीं।बैग बिछावन पर उलटा जाता था तो अब किसी दिन रकम दस हजार
से कम नहीं निकलती थी।
‘गिफ्ट-विफ्ट’ के
खुले हुए समय गुजर गया था।युगेश भूषण का बेटा तो अहमदाबाद में ही नौकरी पर था, लेकिन
बिटिया पढ़ाई पूरी करके दिल्ली से यहीं आ गई थी।कस्बे में कुछ और दुकानें भी खुल गई
थीं,
एक छोटे आकार का मार्केट कम्पलेक्स भी बन गया था, जिसे
लोग गौरवान्वित होने के लिए मॉल कह रहे थे।मार्केट कम्पलेक्स में स्टेशनरी की भी
एक दुकान खुली थी जिस पर फूल और गुलदस्ते छोड़कर वे सारी चीजें थी जो ‘गिफ्ट-विफ्ट’ में
मिलती थीं।मसलन,
डायरी, पेन, पेन-स्टैंड, कापियां, शो
पीसेज,
तरह तरह के अवसरों के लिए कार्ड, गिफ्ट
आइटम्स आदि।
युगेश भूषण ऐसे कारोबारी नहीं
थे कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा कमाई बढ़ाने की फिक्र हो, लेकिन
उन्हें यह फिक्र जरूर थी कि अभी जितनी बिक्री हो रही है, उतनी
बिक्री जरूर रहे,
उसमें कमी नहीं आए।इसी लिहाज से यह नई दुकान उनकी
चिंता में मौजूद थी।फूलों और गुलदस्ते के जितने बास्केट आ रहे थे, अभी
भी उतने बास्केट आ रहे थे।गिफ्ट आइटम्स और कार्ड की खेपें जिस रफ्तार में आती रही
थीं,
उतनी ही रफ्तार में अभी भी आ रही थीं।
दिल्ली से आई बिटिया ने एक शाम
मम्मी से कहा,
‘मम्मी, दुकान
को मैंने सड़क से ही देखा है।चलो, एक
दिन दुकान पर चलते हैं और दुकान को देखते हैं।’
‘बेटी, तुम्हारे
पापा मना करते हैं,
वे कहते हैं, घर
और दुकान अलग-अलग चीजें हैं।वह कोई लेक या पार्क नहीं है कि वहां घूमा जाए।वे कहते
हैं,
दुकान में तरह-तरह के खरीदार आते हैं।कुछ अच्छे, कुछ
बुरे,
कुछ खरीदार तो खरीद करने से आगे-पीछे घंटे भर
आसपास वक्तकटी करते हैं।’
बिटिया चुप लगा गई थी।
‘हां-हां
बेटे…
तुमको मेरी हजार-हजार बधाइयां।तुम्हारे रहते इस
दुकान ने एक मजबूत मुकाम पाया, यह
हमारी याद में रहेगा।’ युगेश भूषण ने उत्साह से कहा
था।लेकिन भीतर से थोड़ा हिले भी थे।महीने के अखिरी दिन युगेश भूषण ने उसे तनख्वाह
दी,
एक लिफाफे में दस हजार रुपये, कार्डों
का एक पैकेट,
एक सुंदर सी घड़ी और एक गुलदस्ता देकर विदा कर
दिया।
अब दुकान को युगेश भूषण अकेले
सम्हाल रहे थे।उन्हें ही सामान दिखाना था, सामान
देना था,
पैसे लेने थे और पैसों के लिए मेमो देना
था।ताज्जुब हो रहा था कि दुकान पर आने वालों की संख्या कम हो रही थी, रोज-रोज
की बिक्री भी गिर रही थी।उन्हें लग रहा था, यदि
कारोबार इतना ही धीमा रहा तो दुकान फिर से उन्हीं दिनों में चली जाएगी जब वह खुली
थी और जिंदगी का पहिया आगे बढ़ने के बजाय उलटा घूम जाएगा।
ऐसा ही कोई दिन था और दोपहर का
वक्त रहा होगा।मोबाइल पर आवाज के साथ जो नंबर चमका, वह
होलसेलर का था,
‘प्रोफेसर साहब, ऐसे
बिजनेस चला तो दुकान उखड़ जाएगी और सारा कारोबार मॉल वाली दुकान के पास चला
जाएगा।मैं काउंटर के लिए दूसरी सेल्स-गर्ल ढूंढ रहा हूँ।तब तक के लिए मेरी सलाह है, मेरी
बात मानिए,
जब तक कोई सेल्सगर्ल मिल नहीं जाती है, तब
तक आप दिल्ली से पढ़कर आई अपनी बिटिया से दुकान सम्हलवाइए, यह
वक्त की जरूरत है…।’
युगेश भूषण की अंगुलियों से
अचानक बटन दब गया।आवाज बंद हो गई।
रात को पत्नी ने भी अपनी राय
जाहिर कर दी,
‘देखिए, कारोबार
डूबता हुआ दिखाई पड़ रहा है, हर
दिन बिक्री कम हो रही है।अब तो बिक्री उतनी भी नहीं रह गई है जितनी वह शुरू के
दिनों में थी।ऐसे में तो दुकान ही खत्म हो जाएगी।होलसेलर कह रहा है तो डौली को
दुकान सम्हालने दें।पढ़ लिख कर आई है, दुकान
क्यों नहीं सम्हाल सकती है?’
पत्नी इधर लगातार राय दे रही
थीं और युगेश भूषण पत्नी की बातें सुनकर खामोशी धारण किए रह रहे थे।आखिर वह फट ही
पड़ीं,
‘आप की सोच में बेईमानी और दोहरापन है।जो लड़की
काउंटर पर काम कर रही थी, वह भी किसी की लड़की थी कि नहीं? उसने
इतने दिनों तक काउंटर सम्हाला तो क्या बिगड़ा उसका? लड़कियां
सड़क पर चलें,
ऑफिस बाजार में काम करें या दुकान सम्हालें, क्या
बिगड़ता है उनका?
कालापन लोगों की आंखों में हो तो हो।लड़की अगर खुद
को सम्हालती है तो वह दुनिया घूमकर आ सकती है।यहां तो बस एक छोटी सी दुकान है।’
युगेश भूषण ने तीन-चार दिनों तक
चुप्पी साधी थी,
लेकिन आखिरकार डगमगाते हुए कारोबार ने एक नया
तकाजा खड़ा कर दिया था।
युगेश भूषण की पत्नी ने पति से
कह दिया था,
आप घर में टी.वी. देखें, अखबार
पढ़ें,
आराम करें या दिन भर जहां चाहे, घूमें, लेकिन
दुकान में
दखल नहीं दें।दुकान तो बिटिया ही चलाएगी।
पिछले कुछ दिनों से काउंटर पर
काम कर रही लड़की के जाने से दुकान के आसपास जो ढीलापन छाया था और जो युगेश भूषण की
मुस्तैदी और तैयारी से भी नहीं भर पाया था, वह
अब छंटने लगा था।युवा या अधेड़ कुछ न कुछ लेने के बहाने दुकान पर आ रहे थे।जो लोग
कार्ड या गिफ्ट आइटम्स लेने मॉल में जा रहे थे, वे
‘गिफ्ट-विफ्ट’ का
रुख कर रहे थे।कई नौजवान दुकान पर आ रहे थे, भले
ही वे दस रुपये का एक गुलाब खरीदते या कोई न कोई कार्ड खरीदते।अधेड़ गुलदस्ते खरीद
रहे थे और उसके साथ गिफ्ट आइटम्स। ‘गिफ्ट-विफ्ट’ के
आसपास गहमागहमी और जीवंतता फिर से बढ़ गई थी।एकाएक कस्बे में कार्ड, गुलदस्तों
और गिफ्ट आइटम्स का चलन उभार पर आ गया था।हद थी कि कस्बे के नौजवान, अधेड़
के अलावे पास के बड़े शहर से नौजवान, अधेड़
बाइकों,
कारों से ये सामान खरीदने आने लग गए थे।पास के शहर
में और इस कस्बे में जैसे कि इस कस्बे में यही दुकान सबसे जरूरी दुकान हो और इस
दुकान के सामने मॉल या बाकी दुकानें कोई मायने नहीं रखती हों।
अब स्थिति थी कि दुकान में
काउंटर पर लोग सामान ले रहे होते थे और कुछ लोग बाहर इंतजार कर रहे होते थे कि
काउंटर के ग्राहक छंट जाएं तो वे भी काउंटर पर जाएं। ‘गिफ्ट-विफ्ट’ के
हिस्से में पहले से भी बेहतर स्वर्णिम दौर था।
डौली भूषण जब पढ़ाई कर रही थी, तब
पैंट-टीशर्ट और कभी कभी सलवार-समीज पहनती थीं क्योंकि यूनिवर्सिटी में लड़कियां यही
पहनावे पहनती थी,
लेकिन अब वे एक कस्बे में थी।यहां कभी कभी और कोई
कोई लड़की ही पैंट और टीशर्ट में दिखाई पड़ती थी।वह माहौल को समझ रही थी और दुकान
में जाने के लिए सलवार-समीज ही पहन रही थी।यह दिवाली के आसपास का कोई दिन
था।आलमारी में अपनी पोशाकों का मुआयना करते हुए उसने पाया कि इधर कई पोशाकों का
इस्तेमाल नहीं हुआ है।उसने पैंट और टीशर्ट पहन ली।
अगले दिन नया साल शुरू हो रहा
था।सभी जगहों पर चहल-पहल, आवाजाही की उम्मीद थी।दिन में
डौली भूषण के पास होलसेलर-सप्लायर का फोन आया, ‘मैडम, कल
मैं रोज से ज्यादा लगभग पांच सौ गुलाब के फूल भेजूंगा।बाकी दिन तो वे दस रुपये में
बिकते हैं,
लेकिन कल उनका कोई निश्चित दाम नहीं रहेगा।कल सभी
जगह वे बीस-तीस रुपये में बिकेंगे।आपके हाथों से वे पचास रुपये तक में बिक
जाएंगे।यदि पचास रुपये पर बिकने में दिक्कत आए, तब
चालीस में बेचिएगा।’
अगले दिन सुबह में ही डिलवरी
ऑटो से पांच सौ गुलाबों और ढाई सौ गुलदस्तों के चार-पांच बास्केट पहुंच गए थे।डौली
भूषण ने पचास-पचास रुपयों में गुलाबों को बेचना शुरू कर दिया था।लेने वालों की
कतार लग गई थी।कई लेने वाले सौ रुपये देकर दो गुलाब ले रहे थे।डौली हर लेने वाले
को ‘थैंक
यू’
कह रही थी और लेने वाले जैसे नए साल पर एक अपूर्व
उपहार पाने का सुख मिल जाने की खुशी में दिख रहे थे।
दोपहर होते-होते
होलसेलेर-सप्लायर को डौली भूषण का फोन मिला, ‘देखिए, सभी
फूल और गुलदस्ते निकल गए हैं।अभी शाम होने में समय है।काइंडली एक-दो और बास्केट
भेज दें तो वे भी निकल जा सकते हैं।’
होलसेलर सप्लायर ने थोड़ी भी देर
नहीं की थी और हड़बड़ी में फूल और गुलदस्ते के दो और बास्केट भेज दिए थे।
शाम का समय रहा होगा।नौजवान
लड़कों का एक जत्था ‘गिफ्ट-विफ्ट’ की
दुकान पर आ जमा था।कार्ड उलटे पुलटे जा रहे थे।फूल और गुलदस्ते चुने और छांटे जा
रहे थे।
एक नौजवान लड़के ने पहल की, ‘हम
यूनिवर्सिटी के सीनियर स्टूडैंट हैं।नए साल पर यहां गु्रप में घूमने आए हैं।हम
अपने गु्रप फोटो में आपको शामिल देखना चाहते हैं।आप फोटोग्राफी में शामिल होंगी?’
‘इसका
जवाब बहुत सिम्पल है।मैं यहां दुकान की जिम्मेदारी के लिए हूं, नए
साल की तफरीह के लिए नहीं।मैं शामिल नहीं हो पाऊंगी…।’ डौली
भूषण का बहुत साफ जवाब था और वह मुस्करा रही थी।
‘यदि
हम सभी एक एक गुलदस्ता खरीदें, तब…?’ एक
लड़का आगे बढ़ आया।
‘तब
भी नहीं’
डौली भूषण ने पुराने जवाब को दुहरा दिया।
ताजुब कि डौली भूषण के इनकार के
बावजूद जत्थे के लड़कों में से अधिकांश ने गुलदस्ते खरीदे।डौली भूषण ने ‘हैप्पी
न्यू इयर टू एवरी वन… थैंक यू’ कहा
और काउंटर पर ही जमी रही।
नए साल की बिक्री को युगेश भूषण
और उनकी पत्नी ने किसी भी एक दिन की बिक्री से ज्यादा पाया।यह नए साल की खुशी थी।
दुकान पर बिटिया डौली भूषण के
सक्रिय होने के बाद ‘गिफ्ट-विफ्ट’ के
जिस खुशगवार स्वर्णिम दौर की शुरुआत हुई थी, वह
दौर जारी था और उसमें नए नए मुकाम जुड़ रहे थे।
यह सर्दी के गुजर गए होने और
बसंत के आने के आसपास का कोई खुशनुमा दिन था।ग्राहकों से निबटकर डौली काउंटर पर
सहज हुई ही थी कि सामने एक जीप रुकती हुई दिखाई पड़ गई।
एक आदमी काउंटर पर आया, ओ
रीयली ब्यूटी फुल…
मैं न्यू सेंचरी हास्पिटल में एडमिनिस्ट्रेटर
हूँ।मेरे यहां हर महीने डॉक्टरों, स्टूडेंट
और ट्रेनिंग लेने वालों का सेमिनार होना है।मुझे हर महीना 200 गुलदस्तों
की जरूरत पड़ेगी।एक गुलदस्ता कितने का होता है?’
‘साढ़े
तीन सौ या चार सौ का’ डौली भूषण ने जवाब में सहजता
दिखाई।’
‘ओ, एक
गुलदस्ते के लिए पांच-पांच सौ रुपये का अलाटमेंट मिला है।मैं हरेक गुलदस्ते के लिए
पांच सौ दे दूंगा।आपको एक दिन पहले बता दूंगा, आप
गुलदस्ते तैयार रखिएगा।’ एडमिनिस्ट्रेटर इधर उधर नजरें
घुमा रहे थे और चौंक-चौंक कर काउंटर को देख रहे थे।
‘आप
बताइए,
आपके पास सबसे ज्यादा कीमती गिफ्ट आइटम्स कौन हैं?’ अगले
क्षण एडमिनिस्ट्रेटर महोदय सबसे अच्छे खरीदार बने हुए थे।
‘देखिए, विदेशी
अभिनेत्री की यह मूर्ति, यह इम्पोर्टेड दीवाल घड़ी जिसमें
बीच बीच में हर्ट का आकार उभरकर आता है और यह तीन अलग-अलग आकारों के लेडीज गौगल्स
का सेट।इससे ज्यादा महंगा कुछ भी नहीं है।’ डौली
भूषण शालीनता के साथ दिखाने-बताने लगी थी।
‘ये
तीनों गिफ्ट आइटम्स अलग-अलग पैक कर दें।कितने हो गए इनके?’ एडमिनिस्ट्रेटर
साहब ने निर्णय लेने में कुछ देर की थी और चारों तरफ देखते रहे थे जैसे कुछ और
ढूंढ रहे हों,
लेकिन अंतत: चुनाव कर लिया था।
डौली भूषण कैश मेमो पर लिखती
रही थी,
‘कुल सत्तावन हजार हुए, १०
प्रतिशत डिस्काउंट देकर कुल हुए इक्यावन हजार तीन सौ।बना कैश दूं मेमो?’
‘हां, हां’, एडमिनिस्ट्रेटर
साहब ने बेफिक्री से जवाब दिया था।
फिर उन्होंने रुपये चुकाए थे और
जल्दी से वापस जीप की तरफ चले गए थे।
‘मैंने
छोड़े नहीं हैं,
डियर, मैंने
ये गिफ्ट्स आपको देने के लिए ही खरीदे थे और आपको ही दे दिए हैं।आप इन्हें मेरी ओर
से रख लें।’
एडमिनिस्ट्रेटर साहब मुस्कराते हुए स्टीयरिंग पर
बैठ चुके थे।
‘मिस्टर
एडमिनिस्ट्रेटर,
माइंड योर कनडक्ट… ये
सामान दुकान से बिक चुके हैं और आपके हैं, इन्हें
आप ही ले जाएं।’
डौली भूषण ने पैकेट्स स्टीयरिंग पर बैठे इंजीनियर
को देना चाहा।
‘अरे, रख
भी लीजिए…’
एडमिनिस्ट्रेटर साहब ने पैकेट्स को वापस डौली भूषण
की ओर ठेला।
यह जैसे हवाओं के ठहर जाने का
क्षण था।
‘डर्टी
मैन,
रखो अपने सामान…’ डौली
भूषण ने पैकेट्स और गुलदस्ते स्टीयरिंग की ओर फेंका और खाली पड़े काउंटर की ओर
दौड़ी।
दौड़ते-दौड़ते उसने यह जरूर देखा
कि स्टीयरिंग पर बैठे शख्स ने पैकेट्स को दुबारा बाहर की तरफ ठेला था।पहले वे जमीन
पर गिरे थे,
फिर कड़-कड़ की कुछ आवाजें हुई थीं और जीप के पिछले
चक्के उनको रौंदते-चुचलते हुए आगे बढ़ गए थे।सड़क पर अब टूटे-फूटे, कुचले
हुए कुछ टुकड़े पड़े थे।
डौली भूषण के लिए यह एक
जद्दोजहद थी।हर महीने हो सकने वाली एकमुश्त बिक्री ध्वस्त हो गई थी।यह खयाल उसकी
सोच में एक लम्हे के लिए आया जरूर लेकिन तुरंत ही हवा में उड़ गया।इस बिक्री की ऐसी
तैसी…
उसके होठों पर एक बुदबुदाहट थी।
उसकी सोच में अब सिर्फ ‘गिफ्ट
विफ्ट’
का अपना काउंटर था।वह दौड़ते हुए आकर काउंटर पर
मौजूद हो गई।
आज भी डौली भूषण घर समय पर ही
पहुंची थी।युगेश भूषण और उनकी पत्नी ने रोज की तरह बिटिया का बैग पलटा तो पाया, आज
की बिक्री बहुत ज्यादा थी।
‘पापा, शोकेस
में कई गिफ्ट आइटम्स कब से पड़े थे, आज
एक सिरफिरे आदमी ने उन्हें खरीद लिया।’ डौली
भूषण का एक छोटा सा सधा हुआ जवाब था।
यह रोज की ही तरह गुजर रही एक
शाम थी।
परिचय
साहित्यिक पत्रकारिता और कथा–लेखन के क्षेत्र में एक सुप्रतिष्ठित व्यक्तित्व। प्रतिष्ठित साहित्यिक
पत्रिका परिकथा’ का विगत 17 वर्षों से संपादन। कृतियां – ‘थोड़ी सी स्याही’ (कविता–संग्रह), ‘पहिये’, ‘मरता हुआ पेड़’, ‘जगो देवता, जगो (सभी कहानी–संग्रह) ‘सड़क पर मोमबत्तियां’ (संपादकीय टिप्पणियों का संग्रह), ‘कहानी : परिद़ृश्य और प्रश्न’ (कथा–आलोचना)।
संपर्क : 96, फर्स्ट
फ्लोर,
ब्लॉक–III इरोज
गार्डन,
सूरजकुंड रोड, नई दिल्ली, फरीदाबाद
बार्डर,
फरीदाबाद–121009 मो.8588951684
(यह कहानी वागर्थ में प्रकाशित हुई थी )
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