समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं
दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं -सोचना!
सोचना उन अँधेरों के बारे में
जिनका स्याहपन तुम्हें छू तक नहीं पाया।
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है अगर स्मृति शेष कुछ तो
तोड़कर अपना मायाजाल
याद करना वह पसीना
जिसे तुम भूल चुके हो।
विभिन्न प्रकार के विचार जो किसी कविता में चलकर आते हैं कविता की आत्मा होते हैं जबकि उससे जुड़ी कलाएं कविता की सुंदरता को अभिव्यक्त करती हैं। विचार और कलाओं का यह क्रम किसी कविता को जस्टिफाई करने में सहायक होता है। इस क्रम के लिहाज से भी देखा जाए तो उनकी कविताएं जस्टिफाई होती हुई नजर आती हैं और उनका प्रभाव पाठकों को उनकी कविताओं से जोड़ता भी है।
ममता की कविताओं में एक किस्म की वैचारिक साफ़गोई है । चाहे स्कूली बच्चों का दुख दर्द हो,विरासत के छूटने बिछड़ने का दर्द हो, सामाजिक असंतुल से उपजी पीड़ा हो या स्त्री मन के भीतर चल रहे द्वंद्व से जन्मा दुःख हो, सारी बातें विचार और भाव में रची पगी होकर तरल रूप में पाठकों तक पहुंचती हैं। उनकी कविताओं में स्त्री के भीतर उमड़ता प्रेम भी कुछ पंक्तियों में इस ख़ूबसूरती से अभिव्यक्त हुआ है कि पाठक अचंभित हो सकते हैं। इन पंक्तियों में प्रेम का एक उद्दात्त रूप दृश्यमान होता है-
"इनकी खुशनसीबी देख ख़याल आता है
काश कि होती कहीं मैं भी
इस अलमारी के बीच इन किताबों के दरमियाँ
करती तुम्हारा इन्तज़ार
बेतरह!"
बहरहाल मानवीय आक्रोश, संवेदना और प्रेम में रची पगी ममता जयंत की इन कविताओं को अनुग्रह के पाठक यहां पढ़ सकते हैं-
■ शायद खोज पाऊँ कभी
भोर के कलरव में
रोज चले आते हैं
अलसाई आँखें लिए
बीनते हैं सपने उस प्रांगण में
जहाँ बिखरी पड़ी हैं उनकी आशा की किरणें
नहीं आते सब अकेले
कुछ लाते हैं खुद से बड़ी ज़िम्मेदारी भी साथ
जिसका भार बस्ते के बोझ से कहीं ज़्यादा है
निभाते हैं बड़ी तन्म्यता से
नहीं छोड़ पाते अकेला उस साथ को
उठाई है जिसके हँसने-रोने खाने-पीने
खोने -बिछुड़ने की ज़िम्मेदारी
सचमुच!
उनकी उम्र से
कहीं ज़्यादा बड़ी है ये अदायगी
छ: साल की बहन निभाती है
तीन साल के भाई की माँ का धर्म
ओझल हो निकल जाते हैं मेरी आँखों से
सम्भालने उन नन्हें पाँवों को
जिन्होंने सीखा है अभी-अभी चलना
नहीं आया जिन्हें निवाला चबाना
भूल जाते हैं अपनी भूख-प्यास
जब पड़ता है उनका मैला उठाना
मेरे हर प्रश्न का उत्तर है उनकी पीली आँखों में
उलझ कर रह जाते हैं सवाल
उनके लरज़ते बालों में
अबोध मन ज्यादा नहीं बस इतना जानता है
घर कोई नहीं कमरे में ताला है
जिस ताले का बोझ भी है
इसी बस्ते पर है
न मालूम
ताला कमरे की सांकल पर लगा है
या लगा है इनकी किस्मत पर
शायद खोज पाऊँ कभी इन तालों की चाबी!
■ ख़्वाहिश
ये किताबें हैं या तुम्हारी प्रेमिकाएँ
जो झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशे से तुम्हें
निहारती हैं उम्मीद भरी निगाहों से
एक बेआवाज़ मिलन की चाह लिए
और तुम देकर दिलासा करते हो आश्वस्त
आने वाली छुट्टी के नाम पर
ये छुट्टी कौन सी होगी पता नहीं
किसी रविवार तीज-त्यौहार
या किसी नेता-राजनेता की मौत पर मनाए गए शोक की
इससे नहीं है उनका कोई लेना-देना
उन्हें तो बस तुम्हारा साथ चाहिए
उनका ये भरोसा झूठा नहीं है
कि पाते ही वक्त पुकारोगे नाम से
पलटोगे पन्ना दर पन्ना कई-कई बार
पहुंचोगे शब्द से अर्थ तक
इनकी खुशनसीबी देख ख़याल आता है
काश कि होती कहीं मैं भी इस अलमारी के बीच
इन किताबों के दरमियाँ
करती तुम्हारा इन्तज़ार
बेतरह!
■गुब्बारे
हमारे सपने
हिलियम के उन गुब्बारों जैसे थे
जिन्हें माँ उड़ने के भय से
बाँध देती थी धागे से हाथों में
हम कर मशक्कत खोल देते तुरंत ही
वे स्वछंद विचरते आसमानी हवा में
पल भर को उड़ जाते हम भी फुग्गे संग
और लौटते ही ठिठक जाते
उनके वापस न आने के भय से
फिर हमें सिखाया गया
खिलौने खेलने को होते हैं उड़ाने को नहीं
उसके बाद नहीं उड़ने दिया एक भी गुब्बारा
बाँध लिए सब मन के धागों से
पता नहीं
वे हमसे खेल रहे थे या हम उनसे
पर जुड़े थे सब अन्तस से
अब भीतर ही पड़े हैं सारे के सारे
सजीले रंगों के सुंदर गुब्बारे!
■मनुष्य न कहना
अभी मैंने पेश नहीं किए
अपने मनुष्य होने के प्रमाण
न ही साबित की अपनी मनुष्यता
इसलिए तुम मुझे मनुष्य न कहना
न कहना खग या विहग
क्योंकि उड़ना मुझे आया नहीं
मत कहना नीर क्षीर या समीर भी
क्योंकि उनके जैसी शुद्धता मैंने पाई नहीं
न देना दुहाई
धरा या वसुधा के नाम की
चूंकि उसके जैसी धीरता मुझमें समाई नहीं
हाँ कुछ कहना ही चाहते हो
पुकारना चाहते हो सम्बोधन से
तो पुकारना तुम मुझे एक ऐसे खिलौने
की तरह
जो टूटकर मिट्टी की मानिंद
मिल सकता हो मिट्टी में
जल सकता हो अनल में
बह सकता हो जल में
उड़ सकता हो आकाश में
उतर सकता हो पाताल में
ताकि तुम्हारे सारे प्रयोगों से बचकर
दिखा सकूँ मैं अपनी चिर-परिचित मुस्कान
दुखों से उबरने का अदम्य साहस
और एक सम्वेदनशील हृदय
इसके सिवा एक मनुष्य
और दे भी क्या सकता है
अपनी मनुष्यता का साक्ष्य?
■पतंगें
आकाश में उड़ती पतंगे
नहीं जानतीं अंकुश का अर्थ
वे जानती हैं खुली हवा में विचरना
और छूना आसमान की ऊँचाईयों को
पतंगें
नहीं महसूस पातीं
उस हाथ के दबाव को
जो थामे रखता है उनकी डोर अपने हाथ में
पतंगें
लड़ना नहीं जानतीं
उन्हें लड़ाया जाता है
वे जानती हैं सिर्फ मिलना-जुलना
और बढ़ना एक-दूसरे की ओर
पतंगें
नहीं पहचान पातीं उस धार को
जिससे मिलते ही कट जाती है ग्रीवा
पतंगें
नहीं जानतीं लुटने मिटने कटने का अर्थ
वे देखना चाहती हैं दुनिया को ऊँचाई से
उनका ऊँचा-नीचा होना निर्भर है
मुट्ठी में कसे धागे के तनाव पर
पतंगें
नहीं थाम पातीं अपनी ही डोर अपने हाथ में
विजय और वर्चस्व की उम्मीदों को संजोए
आ गिरती हैं इक रोज़ ज़मीन पर
अँधेरों उजालों के बीच
उठती-गिरती कटती-लुटती
भरती हैं फिर-फिर उड़ान
■तुम भगवान् तो नहीं
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मैंने रहने को मकाँ माँगा
तुमने मन्दिर दे दिया
मैंने भूख का नाम लिया
तुमने भगवान का ज़िक्र छेड़ दिया
मैंने विनोद की बात की
तुमने वन्दना का राग अलापा
मैंने अनाज की तरफ़ देखा
तुमने अर्चना की ओर इशारा किया
मैंने प्रार्थना में प्राण बचाने की मुहिम छेड़ी
तुमने पूजा में समय बिताने की विधि बताई
क्या सचमुच!
मन्दिर, पूजा, अर्चना और वन्दना
कर देते हैं पेट की आग को ठण्डा
क्या दीपक बन जाता है ठिठुरती सर्दी में अलाव
क्या तपती गर्मी में पसीना बन जाता है पानी
क्या मन्दिर का प्रसाद बन सकता है मजदूर की दिहाड़ी
अगर नहीं
तो जितना अन्तर है भूख और भगवान् में
बस उतना ही फासला है मेरे और तुम्हारे बीच
कहीं मैं भूख तुम भगवान तो नहीं?
■कहर
हम कुदरत की लूट में उस हद तक माहिर हैं
जहाँ हवा ज़हर बन जाती है
जमीनें बंजर हो जाती हैं
जंगल तबाह हो जाते हैं
नदियाँ सूख जाती हैं
बढ़ जाती है अशांति
अपने अंतिम स्तर तक
रहती है जिसमें हमारी एक बड़ी भूमिका
हमारी यही खूबी हमें बाजार से जोड़ती है
आज स्वार्थ हमारा सबसे बड़ा सिद्धांत है
अन्याय सबसे बड़ा हथियार
आ पहुँचे यहाँ तक अपना असंतोष लिए
कि खड़े हैं कुदरत के समानांतर
विकास का भ्रम पाले
हमारी हवस के संग-संग
बढ़ रहा है उसका भी कहर
हमारे लोभ पर भारी है उसका कोप
कल ऐसा न हो
सभ्यता और असभ्यता के इस युद्ध में
वह पार कर जाए अपनी पराकाष्ठा
और हम शान्त हो जाएँ मुनाफ़े की भूख से!
■बहेलियों के नाम
जब तुम हमारी अयोग्यता की बात करो
तो अपने उस अनाचार की भी करना
जिससे तुम साधते रहे निशाना
और हम होते रहे शिकार
तुम्हारी ग़ुलेलों का
सोचना!
सोचना उन अँधेरों के बारे में
जिनका स्याहपन तुम्हें छू तक नहीं पाया
देखकर हमारी चमकीली आँखें
मत समझ लेना सुख का पर्याय
गर हो कोई पैमाना सच का
तो मापना हमारे उस द्वंद्व को
जो उपजा है तुम्हारे छद्म से
न देखना
सिर्फ देखने के लिए
पढ़ना एक बार समझने के लिए
बचा है स्मृति शेष कुछ तो
तोड़कर अपना मायाजाल
याद करना वह पसीना
जिसे तुम भूल चुके हो।
~ ममता जयंत
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■ परिचय
21 सितंबर को दिल्ली में जन्मीं युवा कवयित्री , आलोचक ममता जयंत पेशे से अध्यापिका हैं और दिल्ली में ही रहती हैं।शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों के लिए उन्होंने कुछ उल्लेखनीय कार्य किये हैं।
विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती आयी हैं। 'बाल सुमन माला' शीर्षक से उनका एक बाल कविता संग्रह प्रकाशित है। इसके अलावा पांच साझा काव्य संग्रहों में भी उनकी कविताएं शामिल की गई हैं।
बेहतरीन कविताएं।
जवाब देंहटाएंममता जयंत की सारी रचनाएं यथार्थ के धरातल पर रुक कर रची गई हैं। थोड़ा थम कर अगर सोचें समझें और महसूस करने की कोशिश करें तो लगता है कि ममता जी का समाज की संवेदनाओं से एक गहरा नाता है एक गहरा रिश्ता है और उन तमाम रिश्तों को ही वो रफ्ता रफ्ता सिचतीं सहेजती नज़र आती हैं।
हटाएंमैं इन कविताओं का लंबे समय से साक्षी रहा हूं। बेहतरीन। बहुत शुभकामना 🌹🌹
जवाब देंहटाएंममता जी रचनाओं में दबे, कुचलों की पीड़ा सहजरूप से अभिव्यक्त होती है...इसकी सभी रचनाएँ मनुष्य के सन्त्रासों की मुक्ति के लिए उद्घोष हैं। ममता जी अपनी कविताओं में कविता की आधारभूत, व्यवाहरिक तथा नैसर्गिक संरचना स्थापित करती हैं।
जवाब देंहटाएंभुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ।