युवा पीढ़ी की कुछेक नई कथा लेखिकाओं की कहानियाँ हमारा ध्यान खींचती रही हैं । उन कथा लेखिकाओं में एक नाम परिधि शर्मा का भी है।वे कम लिखती हैं पर अच्छा लिखती हैं। उनकी एक कहानी "मनीराम की किस्सागोई" हाल ही में परिकथा के नए अंक सितंबर-दिसम्बर 2024 में प्रकाशित हुई है । यह कहानी संवेदना से संपृक्त कहानी है जो वर्तमान संदर्भों में राजनीतिक, सामाजिक एवं मनुष्य जीवन की भीतरी तहों में जाकर हस्तक्षेप करती हुई भी नज़र आती है। कहानी की डिटेलिंग इन संदर्भों को एक रोचक अंदाज में व्यक्त करती हुई आगे बढ़ती है। पठनीयता के लिहाज से भी यह कहानी पाठकों को अपने साथ बनाये रखने में कामयाब नज़र आती है।
■ कहानी : मनीराम की किस्सागोई
-परिधि शर्मा
मनीराम की किस्सागोई बड़ी अच्छी। जब वह बोलने लगता तब गांव के चौराहे या किसी चबूतरे पर छोटी मोटी महफ़िल जम जाती। लोग अचंभित हो कर सोचने लगते कि इतनी कहानियां वह लाता कहां से होगा। दरअसल उसे बचपन में एक विचित्र बूढ़ा व्यक्ति मिला था जिसके पास कहानियों का भंडार था। उस बूढ़े ने उसे फिजूल सी लगने वाली एक बात सिखाई थी कि यदि वर्तमान में हो रही समस्याओं का समाधान तुम्हारे हाथ में न हो तो भूत में जाकर उसके कारण खोजो और यदि कारण और निवारण दोनों ही तुम्हारी समझ से परे हो जाएं, तो फिर अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए एक काल्पनिक कहानी बना लो, जिसमें वर्तमान से जुड़ी समस्याओं के ऐसे काल्पनिक कारण शामिल करो जिनका समाधान नामुमकिन हो।
मनीराम ने पढ़ाई की थी पहली तक की, वह भी बिना पास किए। पर आसपास के बहुत से जिले घूम चुका था वह । बंगाली, उड़िया, छत्तीसगढ़ी, मराठी और थोड़ी बहुत तेलुगु भी जानता था। आंध्र प्रदेश में एक पांच मंजिला बिल्डिंग के निर्माण कार्य में मजदूरी करते हुए पांच महीने बिताने के बाद वह थोड़ा-सा तेलुगु सीख गया था। तेलुगु सिनेमा की एक पिक्चर भी देखी थी उसने थियेटर में, जो पूरी की पूरी तेलुगु भाषा में थी। उड़िया इसलिए जानता था क्योंकि वह बंगाली-जैसी ही भाषा है, एकदम मिलती जुलती। जब वह मछलियां बेचने एक सेठ के साथ उड़ीसा गया था, तब उसने पाया कि उड़िया सीखने योग्य भाषा थी, बंगाली जैसी मिठास लिए। बंगाली इसलिए जान गया था क्योंकि बचपन से विस्थापन के बाद भारत आ बसे बंगालियों के बीच वह रहा। उसके गांव की आधी आबादी तो बंगालियों की ही थी जो बाद में वहीं के आदिवासियों को सभ्यता सिखाने का दावा करते। यह कुछ हद तक सच भी था क्योंकि उनका रहन-सहन और उनकी संस्कृति आदिवासियों से भिन्न थी। बंगालियों के मुख उत्थान की ओर थे और विस्थापन के दुख से उबर कर उन्होंने जल्द ही धन कमाने के अवसर भी तलाश लिए। कला उनकी रगों में थी। कस्बे के मूल आदिवासी जब तक जागते, तब तक उन्होंने पाया कि बंगालियों ने अल्पकाल में ही अपनी जड़ें मजबूती से जमा लीं थीं और फलने-फूलने लगे थे। वे ठीक ठीक विरोध भी नहीं कर पाए कभी। इसका कोई स्पष्ट कारण तो समझ में आया नहीं कभी मनिराम को, मगर दो-एक किस्से जरुर याद आते हैं। जैसे कि धनिया आदिवासी की दोनों लड़कियों ने वहीं पास के गांव के दो बंगाली भाईयों से घर से भाग कर शादी कर ली थी। धनिया भला व्यक्ति था और सभी को उससे सहानुभूति थी। जब वह बहुत बूढ़ा और असहाय हो गया तब गांव वालों ने तय किया कि उसके दामादों को गांव में आने जाने दिया जाएगा बशर्ते वे उसकी ठीक से देखभाल करें। वैसा ही हुआ भी। धनिया की बेटियां गांव में आने जाने लगीं और फिर से लोगों के साथ घुल-मिल गयीं। बात आया राम गया राम हो गई।
छत्तीसगढ़ी बोलना वह इसलिए जानता था क्योंकि वह था ही शुरु से छत्तीसगढ़ का , लरिया बोली उसके खून में था। रही बात मराठी की, तो ये उसे तब थोड़ी-सी सीखनी पड़ी थी, जब वह एक मराठी लड़की को भगाकर लाया। जब वह सेठ के साथ महाराष्ट्र के मछली बाजार में गया था तब वह दिखी थी उसे। गेहूं जैसे रंग की। उसे देखते ही मनीराम के मन में सुखीराम सेठ के घर पर पहली बार सुना एक गीत बजने लगा, "रूप तेरा मस्ताना....", उस मस्ताने रुप वाली लड़की का नाम था मीनाक्षी। मराठी लड़की को लरिया बोली सिखाते सिखाते वह खुद थोड़ी-सी मराठी सीख गया था। इन सब के अलावा एक और भाषा थी जिसे वह सिर्फ समझ पाता था मगर बोल बिल्कुल नहीं पाता। वह थी हिंदी । एक बार जब वह जगदलपुर के मैडिकल कालेज में गया था तब उसने पाया कि सभी छात्र-छात्राएं हिंदी में बात कर रहे थे। बंगाली लड़के लड़कियां धड़ल्ले से हिंदी बोल रहे थे। शायद ऐसा इसलिए था क्योंकि वे पढ़ रहे थे। उसके अपने जीवन में उसे कभी हिंदी बोलने की आवश्यकता पड़ी ही नहीं। जिस राज्य में रहता, ज्यादातर उसी राज्य की भाषा बोलनी पड़ती। उन छात्रों को सुनने देखने के पहले तक वह सोचता था कि जाने वह कौन सा देश है जहां हिंदी बोली जाती होगी। उसके अनुसार हिंदी बोलना पढ़े-लिखों के चोंचले हैं।
जब विपुल सिंह की नज़र उस पर पहली बार पड़ी, तब मनीराम हमेशा की तरह मनगढ़ंत कहानियां सुनाकर सीमेंट और ईंट ढोने वाली आदिवासी लड़कियों और महिलाओं का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहा था। विपुल सिंह उसके पास आकर जोर से गरजा, "काम में ध्यान दो काम में, हम यहां जान की बाज़ी लगा कर रखवाली करें और तुम लोग काम रोक कर गप्पे लड़ाते रहो!"
उसकी आवाज़ सुनकर लड़कियां तितर बितर हो गईं और वह खुद भी जल्दी जल्दी सीमेंट घोलने लगा।
मजदूरों ने आपस में कानाफूसी की, "लगता है नई तैनाती है इधर, गुस्से वाला आदमी लगता है"। विपुल सिंह की घनी मूंछों और रौबदार गठीले लंबे शरीर से सभी डरते और जब तक वह ड्यूटी पर होता तब तक सभी मजदूर ईमानदारी से काम करते। वह टैंकर पर खड़ा बंदूक निशाने पर साधे खड़ा रहता। उसकी दिली ख्वाहिश थी कि पुल-निर्माण का कार्य जल्दी खत्म हो। बिहार का रहने वाला विपुल सिंह सभी से हिंदी में बात करता। इससे पहले उसकी ड्यूटी चैक पोस्ट पर लगी थी। गाड़ियों की धर-पकड़ से वह वैसे भी ऊब गया था। यह नया काम मुश्किल होते हुए भी बेहतर लग रहा था उसे।
विपुल सिंह की ड्यूटी खत्म होते ही जब कोई दूसरा फौजी आता तब मनीराम को राहत मिलती। वह एक बार फिर अपने किस्से कहानियों का पिटारा खोल बैठ जाता। काम करते हुए भी मुंह चलता रहता और अन्य सभी सुनते। कम उम्र की मजदूर लड़कियां उसकी बातें सुनकर "हीही" कर हंस देतीं। वह उनकी "हीही" सुनकर दोगुने आत्मविश्वास से अपनी कहानी जारी रखता। उसकी कहानियों में कभी राजा होता तो कभी चोर, कभी कोई दैत्य होता तो कभी कोई देवी। वह कभी एक ऐसे लालची व्यक्ति की कहानी सुनाता जिसने ईश्वर से वरदान में मांगा कि वह जो चाहे वही हो जाए, ईश्वर ने तथास्तु कह दिया मगर फिर एक बार गुस्से में आकर उसने अपनी ही पत्नी से कह दिया कि जा तू राक्षसी बन जा और वह सचमुच राक्षसी बनकर उसे खा गई थी।
कभी वह एक तोता और मैना की कहानी सुनाता जो सैकड़ों वर्षों से एक सोने के पिंजरे में कैद थे और एक राजकुमारी के छू लेने से आजाद हो गये।
एक बार तो उसने ऐसी लंबी कहानी सुनाई कि सुनने वालों की बड़ी अच्छी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। कहानी शुरू हुई एक बात करने वाले हारमोनियम से जो कोई भी बटन दबाए जाने पर हर बार एक ही ध्वनि निकालता, "प्रतापगढ़ की राजकुमारी बेवफा है।" बेवफा राजकुमारी वाली बात उस देश से होते हुए आसपास के अन्य देशों तक पहुंची और फिर वहां से प्रतापगढ़ पहुंच गयी। प्रतापगढ़ के राजा की कोई बेटी नहीं थी। जब राजा को हारमोनियम वाली खबर मिली तब उन्होंने छानबीन की। हारमोनियम और उसके मालिक को दरबार में पेश करवाया गया। पता चला कि उसने हारमोनियम प्रतापगढ़ से आए एक युवक से ही खरीदा था। बहुत छानबीन करने पर भी उस युवक का पता न चला मगर यह जरूर पता चला कि रानी कभी-कभी छुप-छुप कर किसी से मिलने जाती है। जब राजा ने थोड़ी और पतासाजी की तब समझ में आया कि वह किसी किशोरी से मिलने जाती है। राजा को लगा कि वह रानी की बेटी है और रानी ही असली बेवफा है। पर रानी ने जो कहा उसे सुनकर राजा अवाक रह गया । रानी कहने लगी कि जब एक बार राजा पड़ोसी देश के जंगल में शिकार करने गए थे तब वहां जिस युवती से उन्हें प्रेम हुआ था वह बाद में इसलिए गायब हो गई थी क्योंकि वह कोई युवती नहीं बल्कि एक राक्षसी थी। ये राजकुमारी उसी राक्षसी की बेटी है। राजा अपनी बेटी को देख बेहद प्रसन्न हुए और उसे अपने महल में ले आए परन्तु उन्हें शक था कि राक्षसी की बेटी राक्षसी ही निकलेगी। तब उन्होंने गुप्त रूप से उस युवक का पता लगाया जिसने हारमोनियम बेचा था। दो वर्ष बाद एक दिन उस युवक का पता चल ही गया। युवक का नाम था श्याम। राजा स्वयं उससे मिलने गए। उस युवक ने बताया कि राजकुमारी एक राक्षसी है। हर पांच वर्षों में एक बार अपने असली रूप में आ कर लोगों का शिकार करती है। युवक ने कहा कि मैंने यह हारमोनियम अपने गुरु से प्राप्त किया था जिन्होंने इस हारमोनियम को जन-कल्याण के लिए उपयोगी बता कर इसकी हिफाजत करने को कहा और स्वयं मृत्यु को प्राप्त कर गये। तब श्याम ने उसे संभाल कर रख दिया पर एक दिन जब उत्सुकतावश वह उसे बजाने लगा तब हार्मोनियम गाने लगा, " प्रतापगढ़ की राजकुमारी बेवफा है।" वह भागता हुआ गुरूजी के बेटे के पास गया जिसने उसे बताया कि प्रतापगढ़ की राजकुमारी वास्तव में एक राक्षसी है, मगर यदि उसे राक्षसी कहा गया तो भेद खुल जाते ही वह लोगों के जान की प्यासी हो जाएगी , इसलिए उसे राक्षसी की जगह बेवफा कहा गया है। राजा यह सब सुनकर घबरा गया और अपने सलाहकारों से समाधान मांगने लगा। सभी ने तय किया कि राजकुमारी को राजधानी के मुख्य चौराहे पर धोखे से ले जाया जाएगा और बांधकर जला दिया जाएगा। मगर गुप्तचरों ने यह बात रानी तक पहुंचा दी जिन्हें अपनी सौतेली बेटी से मोह था। उनकी अपनी कोई बेटी जो नहीं थी। रानी ने अपनी बेटी को छुड़ाने का बंदोबस्त कर दिया और एक जादूगरनी की मदद से राजकुमारी को रूप बदलने की कला सिखाई। वह महल से बाहर निकल गई और आजाद घूमने लगी। अब वह राक्षसी लोगों को खा जाती और फौरन रूप बदल लेती। उसे कोई पकड़ न पाता। राजा के गुप्तचरों ने बताया कि उस राक्षसी का असली नाम भ्रष्टाचार है और वह हर पांच वर्षों में फरेब का एक नया मुखौटा ओढ़े झूठे वायदे करने आती है और लोगों को खा जाती है।
मनीराम की लोकप्रियता दिनों दिन बढ़ती जा रही थी। एक बार एक उभरती पार्टी के कार्यकर्ता की नजर उस पर पड़ ही गई। उसने तय कर लिया कि मनीराम जैसे उभरते नेता को पार्षद बनाना होगा। उसने मनीराम से दोस्ती शुरू कर दी। उसके लिए मुर्गा मटन और देशी महुआ वाली दारू का इंतज़ाम किया। बहला फुसलाकर उसने मनीराम को अगले चुनाव में खड़े होने को राज़ी कर लिया। अगला चुनाव चार वर्ष दूर था। मगर पार्टी नयी थी इसलिए काम पहले से शुरू कर दिया गया था। वह कभी कभार काम काज छोड़ उस पार्टी कार्यकर्ता के साथ दारु के मोह में इधर-उधर नारे लगाने या लोगों से मिलने चला जाता। मगर उभरती पार्टी को लोग वोट देंगे, ऐसा उसे कभी न लगा।
पुल-निर्माण का कार्य शुरू होने की खबर भर जब आई थी तब हर किसी को यकीन था कि हर बार की तरह इस बार भी निर्माण कार्य असफल रहेगा। जरूर कोई बम विस्फोट होगा या बड़े वाहन जलाए जाएंगे। फिर डर कर पुल का काम रोक दिया जाएगा। मगर ऐसा नहीं हुआ। पुल आधे से अधिक तैयार हो चुका था। एक दिन पुल निर्माण कार्य के दौरान उसे एक नयी आदिवासी लड़की नजर आई। पता चला कि वह अनाथ थी। नाम था राधा। उसे देखकर सुखीराम सेठ के घर पर सुना वही गीत याद आया, "रूप तेरा मस्ताना, प्यार मेरा दीवाना, भूल कोई हमसे न हो जाए..."
लड़की काली थी। चेहरे पर फुंसियां भी थीं। मगर उसकी आंखें बड़ी बड़ी थीं और पलकें घनीं। मनीराम को एक बार फिर प्यार हो गया मगर वह ये सोचकर ठिठक गया कि पहली बीवी क्या कहेगी और अपने बच्चों को क्या मुंह दिखाएगा! फिजूल के लड़ाई झगडे उसे वैसे भी नापसंद हैं। बचपन में जब अपने मां बाप को झगड़ते देखता तो घर से निकलकर जंगल की ओर चला जाता जहां उसका एक पसंदीदा आम का वृक्ष था। वह उस वृक्ष के नीचे बैठकर बीड़ी पीता। बीड़ी पीना वह दस वर्ष की उम्र से ही सीख गया था।
राधा से वह अपना ध्यान हटाने की पूरी कोशिश करता मगर न चाहकर भी सुखीराम सेठ के घर सुना हुआ वह गीत उसके कानों में बज उठता। सुखीराम सेठ के यहां वह होश संभालने के बाद से ही काम कर रहा था। विवाह के बाद उनके यहां जाना आना कम हो गया था। अधिक पैसों की जरूरत थी। फिर उसने दूसरी जगहों पर मजदूरी करना शुरू कर दिया। सुखीराम सेठ की पत्नी का वह पसंदीदा नौकर था। गोल मटोल बंगाली भौजी उसे बहुत मानती। घर की छोटी मोटी मरम्मत का काम उसी पर छोड़ देती। कभी कभार चाय पानी का भी पूछ लेती। वह सुखीराम जी की कोई पुरानी कमीज़ वगैरह भी उसे दे देती।
सुखीराम सेठ जी ने शुरुआत के दिनों में दलाली का काम किया था। मुरारी की भक्ति में लीन उनकी पत्नी कहती कि सब गोविंद जी की कृपा से हुआ है। करोड़ों की सम्पत्ति गोविंद जी के कृपा करने से मिली हो, यह मान पाना आसान नहीं था फिर भी मनीराम सर हिलाकर हामी भर देता। एक दिन सेठ जी की पत्नी ने मोहनभोग का प्रसाद और एक कटोरे में रसगुल्ले दिए थे खाने को, वह हॉल की कुर्सी पर बैठा खा रहा था कि सेठजी अपने कुछ मित्रों से बतियाते हुए एक कमरे से बाहर निकल रहे थे। तब उनके एक मित्र ने उनकी चुटकी लेते हुए कहा था, " आप तो मारवाड़ी सेठ की सेवा करके मालामाल हो गये, हमारी ऐसी किस्मत कहां?"
किस्मत किस्मत की बात है। वरना मनीराम तो सुखीराम सेठ की वर्षों तक सेवा करके भी दरिद्र ही रहा।
एक बार नोटबंदी के दौरान उसके सेठ जी ने बहुत सारे पुराने नोट उसकी मदद से बदलवाए थे। पर उस वक्त भी मनीराम के मन में कोई लालच नहीं आया। मगर एक बार उसकी पत्नी ने उसे ताना मारा, जब वह अपने घर की छत की मरम्मत करने के बाद थककर आंगन में बैठा था, " घर में दाल सब्जी नहीं है", वह रसोईघर से ही बोलती हुई बाहर आई।
वह अपनी थकान की परवाह किए बिना फौरन उठा और आंगन में लगे कटहल के वृक्ष से एक कटहल काट लाया।
"यह लो, आज यही बना दो",वह हंसते हुए बोला।
तब पत्नी ने कहा, "क्यों तुम तो मछली बाजार से ताजी मछली लाने वाले थे आज?"
"नहीं आज नहीं जाऊंगा, वैसे भी जेब हल्की है, पहले थोड़ी कमाई कर लूं", वह सुनकर झेंप गया था।
तब वह मुंह बनाकर बोली थी, "यही दिन दिखाने लाए थे न मुझे?"
बस यह सुनकर मनीराम से रहा नहीं गया।उसने अपने मन में ठानी कि वह भी दूसरों की तरह अमीर बनेगा। उसने सेठ जी के यहां जाना बंद कर दिया और दूसरे कामों में लग गया। इस शहर से उस शहर मजदूरी करता फिरता।
पुल निर्माण कार्य शुरू होते-होते वह उसी में लग गया।
एक दिन उसे जानकारी मिली कि निर्माण के लिए जिन बड़ी बड़ी गाड़ियों का इस्तेमाल हो रहा था, वह सुखीराम सेठ जी की थीं। इतनी बड़ी बड़ी गाड़ियां! जब उसके मन में यह विचार उठा तब उसे इस बात का आभास भी हो गया कि वह धन दौलत की ओर आकर्षित हो रहा है जबकि पहले वह ऐसा बिल्कुल नहीं था। वह धन के बगैर भी खुश था और खुद को किसी सेठ से कम नहीं समझता था। इससे वह एक हृष्ट-पुष्ट जवान मजदूर था जो सदैव हंसता रहता था। पर अब वह कम हंसता और अधिक सोचता। अपनी परेशानी का एक हल निकाला उसने। वह राधा को अपने घर ले जाएगा दूसरी पत्नी बनाकर। जब राधा प्रेम-भाव से उसकी सेवा करेगी तो उसकी पहली पत्नी मीनाक्षी भी ऐहतियात बरतेगी और गुस्सा कम करेगी। पर उल्टे यदि वह नाराज़ होकर बच्चों के साथ मायके चली गई तो? यह तो उल्टी बात हो जाएगी। इससे अच्छा तो वह दो पैसे कमाके उसके पास ले जाए।
वह बड़ी मेहनत करने लगा। मगर हमेशा की तरह लोगों को जब तब किस्से सुनाता रहता। लोग भी चाव से सुनते। काम करते वक्त भी मनोरंजन होता तो उन्हें कष्ट कम होता। वह कह रहा था, "मगध देश में एक बार अकाल आया था। लोग भूख से मर रहे थे। वर्षा न होने की वजह से सारी फसलें बर्बाद हो गईं। इतना भयानक सूखा पड़ा था कि प्रजा तो प्रजा, राजा भी दाने दाने को मोहताज हो गया।
देश के एक प्रसिद्ध शिव मंदिर में एक पुजारी जी रहते थे जिनके पास इस समस्या का समाधान था। उनके पास एक ऋषि मुनि द्वारा दिया गया एक मंत्र था जिसका उच्चारण करके वे इंद्रदेव को प्रसन्न कर वर्षा करवा सकते थे, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया, उल्टे उन्होंने लोगों से कहा कि तुम लोगों ने जंगल काटे ही क्यों, देखो आज क्या हालत हो चुकी है। लोगों ने उनकी इस बात पर ध्यान नहीं दिया। पंडित जी के कुछ सेवकों को पता था कि पंडित जी के पास समस्या का समाधान है। उन्होंने ये बात राजा के कानों तक पहुंचा दी। राजा खुद पंडित जी के पास चलकर आया और मदद की गुहार लगाई। पंडित जी ने कहा कि मैं जिस मंत्र को जानता हूं उसकी मदद से इंद्र देव जी को प्रसन्न किया जा सकता है परन्तु मैं वह मंत्र नहीं बताऊंगा, न ही उसका उच्चारण या जाप करुंगा। राजा को क्रोध आ गया और उसने पंडित जी को बंदी बना लेने की धमकी दी। तब पंडित जी ने कहा,"ठीक है, आप मुझे छोड़ दीजिए, मैं मंत्र का उच्चारण करता हूं"
सभी ध्यान से सुनने लगे तो पंडित जी ने कहा,"जैसी करनी, वैसी भरनी, यही मंत्र है", फिर वे आगे बोले, "तुमने जंगल काटे और वर्षा नहीं हुई, अब यदि वृक्ष लगाओगे, तो शायद जीवन दान पाओगे"
पंडित जी की यह बात उचित थी परन्तु सभी को लगा कि असली मंत्र पंडित जी छुपा गये। राजा क्रोध से तमतमा गया, उसे लगा कि अहंकारी पंडित जी को प्रजा लोगों की चिंता नहीं है और उसने पंडित जी को मृत्यु दंड दे दिया।
मृत्यु दंड के बाद जब पंडित जी की लाश का मुआयना किया गया,तब उनकी कमर में एक चांदी का विचित्र ताबीज मिला जो एक गांव के एक आदिवासी ने अपने बिछड़े बेटे को उसके बचपन में दी थी। लोगों को पता चल गया कि पंडित दरअसल एक दलित का बेटा था जिसने ईश्वर की आराधना करने के लिए बचपन में ही गृहत्याग कर दिया था और बाद में उसे एक पुजारी ने गोद लिया था। उस दलित पंडित की आत्मा अब भी जंगल बचाने के लिए भटकती है। उद्योगपति उसके निशाने पर रहते हैं और जंगल बचाने के लिए वह आत्मा खून तक बहा सकती है। वही जंगलों में हिंसा करवाया करती है.. !
मनीराम की कहानियां जारी थीं और श्रोतागण बड़े ध्यान से सुन रहे थे कि तभी उसने देखा कि राधा किसी युवक के साथ मोटरसाइकिल पर बैठ कर आई है, वह युवक उसे वहां उतार कर वापस लौट गया । तब उसने धीरे से मजदूर लड़कियों से पूछा, "भाई हे का ओकर?"
"नी हीं..पति हे", एक लड़की ने छत्तीसगढ़ी में उत्तर दिया ।
"तो इसका मतलब यह कि राधा शादी-शुदा है और हिन्दू भी नहीं है क्योंकि सिंदूर नहीं लगाती है",वह मन ही मन सोचकर खींसियां निपोरने लगा कि तभी उसने दूर से विपुल सिंह को आते देख लिया और काम में जुट गया।
काम बढ़ने लगा तो मजदूरों को वहीं ईंट की अस्थाई झोपड़ियां बना कर रहने का हुक्म दे दिया गया। रात को सभी मजदूर सो रहे थे कि बंदूकें चलने की आवाजें आने लगीं। सभी डर गये। लड़कियां थर थर कांपने लगीं कि तभी ठेकेदार जो तब तक वहीं घूम रहा था, ऊंची आवाज़ में बोला, "ट्रेनिंग चल रही है फौजियों की, घबराओ नहीं सब सो जाओ।"
मनीराम का मन राधा वाले किस्से के बाद वहां कम लग रहा था। उसे मीनाक्षी और बच्चों की याद आ रही थी। वह सारी रात करवटें बदलता रहा। तीन बार उठकर मटके से पानी पी आया फिर भी प्यास न बुझी। उसने समस्या का कारण खोजा, "पानी अच्छा नहीं है यहां का।"
उस रात उसने प्यास न बुझा पाने वाले पानी का कारण खोजा।
अगली सुबह वह छुट्टी लेकर अपने घर चला गया।
घर बिल्कुल वैसा ही था। स्वर्ग वाली कोई बात नहीं थी वहां फिर भी आनंद और सुकून वैसा ही मिलता जैसा शायद स्वर्ग में होता हो। उसके एक लड़का और एक लड़की थी। लड़का गांव के ही प्राइमरी स्कूल में दूसरी में पढ़ रहा था और लड़की तो अभी दो वर्ष की ही थी। वह अपनी लड़की को गोद में लिए दिनभर उससे खेलता रहा। दोपहर को पत्नी ने प्रेम पूर्वक भोजन कराया मगर शाम होते होते पत्नी ने पूछ ही लिया, "कोई कमाई धमाई हुई इस बार या नहीं?"
उसने कमरे में दीवार की कील पर टंगी अपनी कमीज़ के पास जाकर उसकी जेब टटोली और उसमें से बीस रुपए का एक नोट छोड़ कर बाकी सारे नोटों की एक गड्डी बनाकर मीनाक्षी को दे दिए। पैसे कम थे पर मीनाक्षी अनपढ़ थी। जितने भी थे उसने संभालकर बक्से में रख दिए। उसे जरुरत पड़ने पर रुपए वह अपने बूढ़े ससुर से गिनवा लेती। मीनाक्षी के चेहरे पर संतुष्टि के भाव देखकर उसे अपने लायक होने पर यकीन हो गया। पर दो दिनों बाद ही घर की जरूरतें पूरी करते करते रुपए खत्म होने लगे तो मीनाक्षी के माथे पर चिंता की लकीरें खींचने लगीं।
जब बक्से में सौ रुपए का एक अंतिम नोट बचा तब तमतमाई मीनाक्षी का चेहरा देखकर मनीराम को बात समझ में आ गई कि अब काम पर लौटने का वक्त हो गया है। बीस रुपए का एक नोट अपनी जेब में भरे तीसरे दिन वह सुबह की पहली बस पकड़ कर चला।
साइट पर जाकर पता चला कि पुल-निर्माण का कार्य रोक दिया गया था। सुखीराम सेठ जी की गाड़ियां वहां नहीं दिखीं। कोई मजदूर नहीं दिखा। विपुल सिंह या दूसरा कोई फौजी भी वहां नहीं था। फौज का वह टैंकर क्षतिग्रस्त हालत में था। पास के गांव में जाने पर पता चला कि दो दिन पहले वहां हमला हुआ था। सभी मजदूर घबराकर काम छोड़ कर इधर उधर भाग गए। एक बिहारी जो वहां ड्यूटी पर तैनात था, उसके कंधे पर गोली मारी गई थी और घायल अवस्था में उसे अस्पताल पहुंचाया गया था।
वह लौट कर जब वापस पुल के पास से गुजर रहा था तब उसने देखा कि पुल का निर्माण लगभग पूरा होने को था।
मगर काम उतने से में ही रूक गया। यदि वह पुल उसके बचपन में ही बन गया होता तो वह भी विद्यालय जाकर पढ़ पाता।उस समय उसके अपने गांव में स्कूल नहीं था। उसके निरक्षर रह जाने का कारण यही पुल था।
वह सुखी राम सेठ जी के घर की ओर निकल पड़ा।
सेठ जी जो स्वयं परेशान थे, मनीराम को अनदेखा कर गए। वहां के अन्य नौकरों से पता चला कि उनकी तीन गाड़ियां बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दी गईं थीं। भारी नुक़सान हुआ था। उनकी पत्नी भी शोक में डूबी हुई जान पड़ी इसलिए वह उन्हें और अधिक परेशान नहीं करने के उद्देश्य से वहां से वापस लौट जाने को मुड़ा ही था कि सेठ जी की पत्नी ने आवाज लगाई,"अरे मनीराम! गुसलखाने के नल में कोई दिक्कत आ गयी है,जाकर देखो जरा।"
वह जाने को हुआ ही था कि सेठजी ने उसे देखते ही एक और हुक्म दे दिया, "चलो मेरे साथ, एक जगह जाना है।" कोई भी खतरे वाला या कोई और बड़ा काम होता तो सेठजी सुरक्षा की दृष्टि से उसे अपने साथ ले जाते।
वह सेठ जी के साथ बैंक गया जहां जाकर पता चला कि सेठ जी ने अपनी गाड़ियों का इन्श्योरेन्स करवाया था। अब कैसे करवाया था और उससे क्या होता होगा, यह तो उसे मालूम नहीं था मगर बैंक के अधिकारी से बात करने के बाद वे निश्चिंत हो कर लौटे थे।
उसने मौका देखकर सेठ जी से कह दिया, "सेठ जी, मुझे आप अपनी शरण में ही रखियेगा, मुझे भी जीवन में दो पैसे कमाने का रास्ता दे दीजिए, मेरी कमाई से घर की जरूरतें पूरी नहीं हो रहीं। पुल का काम भी छूट गया..."
पुल वाली बात सुनकर सेठ जी रुआंसे हो गये और उसकी ओर देखकर कहा,"ठीक है, तुम मेरे पास ही रहो, तुम्हारे लिए मैं कुछ न कुछ करुंगा", ऐसा कहते हुए उन्होंने पूरे दो हज़ार रुपए उसे दे दिए। फिर उसके साथ एक अच्छे होटल में जाकर खाना भी खाया।
दो हज़ार रुपए उसके लिए कम न थे पर उसकी जरूरतें बढ़ रहीं थीं। दो बच्चे, बूढ़े मां-बाप और पत्नी... खुद वह..कहां से पूरी होंगी इतने लोगों की जरुरतें मात्र दो हज़ार रुपए में। यह बात वही मनीराम सोच रहा था जो सुबह बीस का एक नोट लिए बस में बैठा था और फिर परिचालक से दस रुपए का टिकट कटवाया था। उसने सोचा, "जरूरतें प्यास की तरह होतीं हैं।"
धीरे-धीरे वह सुखी राम सेठ जी का ड्राइवर, एसिस्टेंट और कह सकते हैं कि दाहिना हाथ बन गया। अब मीनाक्षी को जब वह रूपयों का नोट देता तो रूपये महीने भर चल जाते। कुछ महीनों तक वह उसे देखकर गुस्सा नहीं करती मगर एक दिन उसने मुरझाया चेहरा लिए कह दिया, "आखिर कब तक इस मिट्टी के घर में रहेंगे? मोनू अब बड़ा हो रहा है, स्कूल जाने लगा है, उसके पढ़ने के लिए अलग कमरा होना चाहिए। बाबूजी भी बीमार रहने लगे हैं, उनके कमरे की टीन से बरसात में बहुत पानी टपकता है और गर्मी के समय कमरा बहुत तपता है। "
मनीराम वापस सेठ जी के घर लौट गया। उसने अपना दुखड़ा सेठ जी के आगे रोया। सेठ जी ने कहा, "तुम चिंता मत करो मैं कुछ करता हूं।"
मनीराम आश्वस्त हो गया मगर वह समझ गया था कि उसकी जरूरतें कभी खत्म नहीं होंगी। जरूरतें न बुझने वाले प्यास की तरह होतीं हैं जो चैन से जीने नहीं देतीं।
मनीराम सेठ जी के घर से निकल कर चौक के एक पान ठेले पर जा पहुंचा जहां पहले से ही कुछ मवाली मौजूद थे।
उसने उनके बीच जाकर कहना शुरू किया,
"एक बार की बात है",
सभी मनीराम की ओर देखने लगे। उनमें से अधिकांश मवाली मनीराम को जानते थे। सभी पास में पड़ी एक पुरानी बैंच पर बैठ गए। उसने कहना शुरू किया-
"एक बार की बात है, एक जंगल में एक बूढ़ा अपनी बूढ़ी औरत के साथ रहता था। दोनों शांति पूर्वक दिन बिता रहे थे कि एक दिन बूढ़े को किसी कारणवश दूसरे गांव जाना पड़ा। लौटते समय उसे बहुत प्यास लगी तो एक नदी के किनारे रुककर उसने पानी पिया। पानी पीकर उसने जैसे ही आंख उठाकर देखा तो पाया कि एक सुंदर अप्सरा खड़ी है। अप्सरा ने उससे कहा, "तुम एक भले व्यक्ति जान पड़ते हो, तुम्हें जब भी किसी वस्तु की जरूरत हो, तो तुम यहां आकर इस नदी का पानी पी लिया करो, तुम्हारी वह जरुरत पूरी हो जाएगी।"
बूढ़े को अपने घर का ख्याल आया। वहां खाने पीने की वस्तुओं की कमी थी, घर पर दाल सब्जी ख़त्म हो गये थे। जलाने की लकड़ियां भी खत्म हो गई थीं। उसने वह सब याद कर नदी का ढेर सारा पानी पी लिया और अपने घर लौट आया। घर आया तो बूढ़ी पत्नी ने बताया कि घर पर कोई खाने-पीने का बहुत सारा सामान और लकड़ियां छोड़ गया है। विस्मित हो कर बूढ़े ने बुढिया को सारी बात बताई।
बुढ़िया को यकीन न हुआ। उसने कहा, "तुम कल वहां फिर से जाओ, हमारे दिन बहुत कष्ट में बीते हैं, सारी जिंदगी इस कुटिया में गुजार दी, अब एक अच्छे घर की जरूरत है। पानी थोड़ा ज्यादा पीना ताकि ज्यादा बड़ा घर मिल सके।"
बूढ़ा नदी के पास जाकर बहुत सारा पानी पी आया। जब वह लौटा तो उसका पेट कुछ फूला हुआ था मगर उसकी कुटिया की जगह पर एक शानदार घर था।
कुछ दिनों तक वे उस घर में ख़ुशी-खुशी रहे फिर एक दिन बुढ़िया ने कहा, "शहर घूम आते यदि एक गाड़ी होती तो।
बूढ़ा फिर ढेर सारा पानी पी आया और उनके घर के सामने कई गाड़ियां खड़ी हो गईं। मगर इस बार बूढ़े का पेट कुछ अधिक भारी महसूस हो रहा था।
अगली बार धन और नौकर चाकरों की जरूरत महसूस हुई तो बूढ़ा फिर से नदी का बहुत सारा पानी पी आया।
एक बार बूढ़ी ने कहा, " मुझे सोने का महल चाहिए, जो कि इस शहर से भी बड़ा हो"
इस बार बूढ़ा नदी का इतना पानी पी गया कि पानी पीते पीते वहीं निढाल हो गया। वह होश खोने लगा। तभी वही अप्सरा दोबारा प्रकट हुई। बूढ़े की खराब हालत देखकर उसने कहा, "मुझे माफ़ कर देना भले आदमी, मैंने तुम्हें यह नहीं बताया था कि इस नदी का पानी पीकर तुम जितनी बार अपनी जरूरतों को पूरा करोगे, तुम्हारी जरूरतें उतनी ही बढेंगी।"
"तुम कौन हो आखिर? क्या नाम है तुम्हारा?"बूढ़े ने पूछा।
"मेरा नाम है तृष्णा, मैं एक शापित नारी हूं", ऐसा कहकर वह अंतर्ध्यान हो गई।
बूढ़ा गिरते-गिरते जब घर तक पहुंचा तो उसका घर शहर जितना विशाल महल बन चुका था। बूढ़ी उसे देखकर मुस्कुरा रही थी मगर बूढ़ा वहीं निढाल हो कर हमेशा के लिए सो गया।"
मनीराम की इस काल्पनिक कहानी को सुनकर मनचले लड़कों ने वाहवाही की और मनीराम शान से वहां से उठ कर जाने लगा। उसे याद आ रहा था वह दिन जब आम वृक्ष के नीचे बीड़ी पीते हुए उसे वह रहस्यमई बूढ़ा मिला था जिसके पास कहानियों का खजाना होता था और वह उसे कहानियां सुनाता था। वह बूढ़ा अब कहीं नहीं दिखता। मगर उसकी दी हुई सीख ने मनीराम की जिंदगी बदल दी थी।
------------------------------------------------------------------------------------------------
परिधि शर्मा पेशे से दंत चिकित्सक हैं । वर्तमान में मास्टर ऑफ डेंटल सर्जरी MDS (oral medicine and radiology) अंतिम वर्ष में अध्ययनरत हैं। उनकी कहानियाँ वागर्थ, समावर्तन,परिकथा,भास्कर रसरंग,अहा जिंदगी इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।
श्रीकांत वर्मा सृजनपीठ छत्तीसगढ़ के आयोजन में कहानी पाठ के अलावा रज़ा फाउंडेशन के आयोजन युवा 2024 पर दिल्ली में अपना वक्तब्य प्रस्तुत कर चुकी हैं।
संपर्क :
जुगल किशोर डेंटल क्लिनिकआर. के. टावर, दुर्गा पेट्रोल पम्प के सामने,न्यू मेडिकल रोड़ मलकानगिरी (ओड़िसा) पिन कोड - 764045
बहुत जबरदस्त कहानी है। पढ़ते समय खूब मजा आया
जवाब देंहटाएं