जीवन में ऐसी परिस्थितियां भी आती होंगी कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
(हंस जुलाई 2023 अंक में अख्तर आजाद की कहानी लकड़बग्घा पढ़ने के बाद एक टिप्पणी)
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हंस जुलाई 2023 अंक में कहानी लकड़बग्घा पढ़कर एक बेचैनी सी महसूस होने लगी। लॉकडाउन में मजदूरों के हजारों किलोमीटर की त्रासदपूर्ण यात्रा की कहानियां फिर से तरोताजा हो गईं।
दास्तान ए कमेटी के सामने जितने भी दर्द भरी कहानियां हैं, पीड़ित लोगों द्वारा सुनाई जा रही हैं। उन्हीं दर्द भरी कहानियों में से एक कहानी यहां दृश्यमान होती है।
मजदूर,उसकी गर्भवती पत्नी,पाँच साल और दो साल के दो बच्चे और उन सबकी एक हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा। कहानी की बुनावट इन्हीं पात्रों के इर्दगिर्द है।
शुरुआत की उनकी यात्रा तो कुछ ठीक-ठाक चलती है। दोनों पति पत्नी एक एक बच्चे को अपनी पीठ पर लादे चल पड़ते हैं पर धीरे-धीरे परिस्थितियां इतनी भयावह होती जाती हैं कि गर्भवती पत्नी के लिए बच्चे का बोझ उठाकर आगे चलना बहुत कठिन हो जाता है। मजदूर अगर बड़े बच्चे का बोझ उठा भी ले तो उसकी पत्नी छोटे बच्चे का बोझ उठाकर चलने में पूरी तरह असमर्थ हो चुकी होती है।
किसी किसी के जीवन में बहुत विकट परिस्थितियां भी आती होंगी । ऐसी किसी विकट परिस्थिति का सामना किए बिना इस कहानी की घटनाएं बहुत अविश्वनीय लग सकती हैं। कई बार जीवन की ठोस सच्चाईयां भी काल्पनिक लग सकती हैं। पर जब आपके पास कोई विकल्प ही न हो तो आप क्या करेंगे?
मजदूर दंपत्ति भी 5 साल के बड़े बच्चे को, जब वह सोया हुआ रहता है रास्ते में छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं। इस घटना की परिस्थितियों को कथाकार अख्तर आजाद ने बड़ी संजीदगी से कहानी में इस तरह बुना है कि उसकी स्वाभाविकता बची हुई लगती है। घटनाओं के दृश्य और संवाद इतने मार्मिक हैं कि पाठक को बेचैन कर सकते हैं।
जीवन की त्रासदी यहीं खत्म नहीं हो जाती। उन्हें मीलों आगे चलने में अपने छोटे बच्चे की कुर्बानी भी देनी पड़ती है। पत्नी अब पूरी तरह चलने में असमर्थ है ।उसके पांव में छाले पड़ गए हैं । वह गर्भवती है। मजदूर जो दो साल के बच्चे को पीठ पर लादे चल रहा है , उसकी जगह उसे अब गर्भवती पत्नी को लादकर चलना है।दो साल के बच्चे को त्यागने का निर्णय उनके लिए इतना कठिन निर्णय है कि उसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
वे बच्चे को रास्ते में किसी को देना चाहते हैं ,पर लेने को कोई तैयार नहीं होता।
उस कालखंड में दंपत्ति की मनः स्थिति को कहानी में बहुत मार्मिक तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
नदी किनारे एक जगह जहां आसपास घनघोर जंगल भी है , वे रात बिताते हैं । जंगली जानवरों की आवाजें भी वहां गूंज रही हैं।बड़े बच्चे को खो देने के बाद शरीर और मन के दर्द से बेहाल पत्नी जब सो जाती है तो पति को दिल पर पत्थर रखकर कठोर निर्णय लेना पड़ता है। वह छोटे बच्चे को नदी में जाकर बहा देता है।
सुबह होती है तो पति को जीवन का सबसे बड़ा और कठिन झूठ बोलना पड़ता है कि जब मेरी भी आंख लग गयी तब रात में बच्चे को लकड़बग्घा उठाकर नदी की ओर ले गया। उन विकट परिस्थितियों में एक माँ का रोना बिलखना पाठक को बेचैनी से भर सकता है।
यह कहानी महज कोलाज भर नहीं है। इस तरह की परिस्थितियां उस दरमियान घटित भी हुई हैं और लोगों के सामने नहीं आ सकी हैं।
कई बार कहानियां ऐसे दृश्य रच जाती हैं जिसे कोई भी सूचना तंत्र सामने नहीं ला सकता।
■कहानी को स्थूल नजरिये से देखना कहानी के साथ न्याय नहीं है~【तरुण भटनागर की कहानी ज़ख्मेकुहन】
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तरुण भटनागर की कहानी ज़ख्मेकुहन हंस के मार्च 2020 अंक में है । इस कहानी की कुछ लोगों ने यह कहकर आलोचना की है कि लेखक ने फैन्टसी" के नाम पर कहानी में ऐसी घटनाओं को शामिल किया है जो स्वीकार्य नहीं हैं । जिन घटनाओं पर लोगों को आपत्ति है उनमें अंग्रेजी विषय पढ़ाते समय विघ्न के नाम पर परिंदों की चहचहाहट रोकना, परिंदों के घोंसलों को तहस- नहस करना, पेड़ के नीचे चूहे मारने की दवा जमीन में डाल कर परिंदों को मरवाना इत्यादि। पाठकों की आलोचना में आगे जो कहा गया है वह यह कि लेखक अपनी कहानी में एक नीम पेड़ की बात करता है जिसे वह भारी - भरकम विशाल पेड़ के साथ उसकी शाखाओं को चारों ओर फैलने की बात करता है.. और उस पर परिंदे आकर न बैठ सकें इसलिए उसे भी अंग्रेजी शिक्षक के माध्यम से कटवा देता है । पाठकों को इस बात पर भी आपत्ति है कि कहानीकार बारिश और चिड़ियों से प्रेम करने वाले बच्चे को सजा देता है । पाठक का सवाल है कि क्या अंग्रेजी पढ़ाने वाला अध्यापक इतना निर्दयी होता है... ? पाठकीय आपत्ति यह भी है कि कहानीकार अपनी कहानी में उस बच्चे को सिर्फ इसलिए बेंत से मारता है , सजा देता है कि वह बच्चा चहकती चिड़ियों को ,खेत को , बारिश को देखता है। यह पाठकीय आरोप भी मढ़ दिया जाता है कि कहानीकार उस मासूम बच्चे जो खेत, चिड़ियों - बारिश से प्यार करता है उसका एक हाथ भी बस में कटवा देते हैं। सवाल यह भी उठाया गया है कि यह कैसी कहानी है?जिसमें जीवन नहीं है, प्यार नहीं है, आसमान नहीं है, पेड़ का जीवन नहीं है चिडियों की उड़ान - चहचहाहट नहीं है, बच्चों की मासूमियत नहीं है.?
कहानी जखमें कुहन पर सोशल मीडिया पर कुछ इसी तरह की प्रतिक्रिया पढ़कर मेरी भी जिज्ञासा हुई कि मैं भी इस कहानी को पढूं। यह कहानी थोड़ी लंबी है, 16 पेज की।
कहानी को देखने समझने का सबका अपना-अपना नजरिया होता है। आज कहानी उस दौर में आ गई है जब कहानी में बहुत सारे प्रयोग हो रहे हैं । जब कहानी को हम स्थूल रूप में देखने की कोशिश करेंगे तो कहानी के प्रति नजरिया भी हमारा स्थूल ही होगा । जब अंग्रेजी शिक्षक को हम अंग्रेजी शिक्षक ही मान लेंगे, जब परिंदों को हम परिंदा ही मान लेंगे ,जब चूहे मारने की दवा को हम चूहे मारने की दवा ही समझ लेंगे, अंग्रेजी की पढ़ाई के दरमियान विघ्न के रूप में दूर से आ रही आवाजों को हम आवाज ही समझ लेंगे , जब बस में कटे हुए हाथ को हम कटा हुआ हाथ ही मान लेंगे, जब गुंडा कुत्ता को हम गुंडा कुत्ता ही मान लेंगे तो कहानी के प्रति हमारा नजरिया जाहिर है एकदम स्थूल ही होगा। यह कहानी, कहानी की घटनाओं को स्थूल रूप में देखने के बजाय उन्हें आज के सामाजिक तंत्र में आरोपित करके देखने की मांग करती है। आज का कारपोरेट कल्चर एक विशेष किस्म के वर्ग को प्रमोट करता है और इस वर्ग में शामिल होने के लिए आज एक ऐसी दौड़ दौड़ी जा रही है जहां हर किस्म की अमानवीयता की गूंज सुनाई देती है। यूं भी अंग्रेजियत की संस्कृति कारपोरेट कल्चर का एक सिंबॉल ही है जहां किसी किस्म की संवेदना के लिए जगह ही नहीं है । इस कल्चर की अमानवीयता को दिखाने के लिए ही कहानीकार ने विभिन्न फेंटेसी का सहारा लिया है।
मारे जाने वाले वे परिंदे आज हमें अनेक रूपों में दिखते हैं चाहे वह सड़कों पर भटकने वाला मजदूर हो, चाहे नौकरी से निकाले जाने वाला मजदूर । ये घटनाएं मृत्यु ना होकर भी मृत्यु के समतुल्य ही हैं। इन मजदूरों के साथ कारपोरेट कल्चर जिसमें उच्च और मध्यवर्ग दोनों शामिल हैं हर किस्म की अमानवीयता बरतता है। कहानी में निजी बस और सरकारी बस का जो जिक्र है वह सीधे-सीधे कारपोरेट वर्ग और साधारण वर्ग के बीच भेद को दिखाता है।
यह जो कटा हुआ हाथ है ,कारपोरेट वर्ग द्वारा मजदूरों, श्रमिकों आम लोगों के हक को काटे जाने का प्रतीक है। साधारण वर्ग अपने कटे हुए हकों के कारण जीवन से एकदम लहूलुहान है। आम लोगों के हिस्से को गुंडा कुत्ता जैसे समाज के खूंखार लोग छीन कर ले जा रहे हैं । कहानी में हक ( जो कि कटे हुए हाथ के रूप में कुत्ते के जबड़े में कैद है) को छीनने के विरुद्ध भी प्रबल प्रतिरोध की घटना है, जो कि सरकारी बस के लोगों के द्वारा एकजुट होकर गुंडा कुत्ते के बिरूद्ध लड़ा जाता है।
एक आदमी के हाथ कट जाने वाली घटना कारपोरेट कल्चर के लिए एक बहुत साधारण घटना है जिसके लिए वह उफ्फ तक नहीं करता और अपनी गति में ही वह आगे निकल जाता है।
यह अमानवीयता समाज के हर कोने में दृश्य मान है। जिसे कहानी समझाने की कोशिश करती है।
कहानी का मूल पात्र सुंदर जो कि सर्वहारा वर्ग का प्रतीक है अंत में शहर से गांव की ओर लौट जाना चाहता है। वह भी इसलिए क्योंकि गांव में अभी भी थोड़ी बहुत संवेदना बची हुई है।
असल में सच्चाई यह है कि आज समाज की वास्तविक घटनाएं जीवन को हमसे दूर ले गई हैं, कहानी इसी सच्चाई को उभारती है और जब यह सच्चाई उभरकर सामने आती है तो पाठक को थोड़ी तिलमिला हट होती है। कई बार लोग सच को स्वीकार नहीं कर पाते और उस सच्चाई को ही नकारने की कोशिश करते हैं। यह नकार ही असल में उनकी नजर में कहानी को आलोचना के दायरे में लाती है। यह कहानी को देखने का एकदम स्थूल नजरिया है जबकि कहानी को अगर सूक्ष्म तरीके से देखें परखे तो यह कहानी हमें जीवन के करीब ले जाने की कोशिश करती है । समाज में व्याप्त हर अमानवीयता के विरुद्ध हमारे भीतर एक आक्रोश पैदा करती है। दरअसल यही सूक्ष्म नजरिया ही कहानी का असल पक्ष है जिसे देख पाना हर पाठक के लिए संभव भी नहीं है।
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रमेश शर्मा
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