सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

पत्रिका लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

परिकथा सितंबर - दिसम्बर 2024 अंक पर एक टिप्पणी - अनुज कुमार

भारतीय डाक व्यवस्था की मेहरबानी हुई और देर से ही सही, लेकिन दुरुस्त ढंग से ‘परिकथा’ का नया अंक (संयुक्तांक : सितम्बर-दिसम्बर, 2024) आख़िरकार कल मुझे मिल गया। विषय-सूची देखकर मन खिल उठा। हर बार की तरह इसबार भी पत्रिका के संपादक शंकर जी ने यह सिद्ध कर दिया है कि साहित्य की दुनिया में जो दो-चार पत्रिकाएँ अच्छा काम कर रही हैं, उनमें ‘परिकथा’ अगली सफ़ में बैठी हुई है। इससे पहले कि मैं पत्रिका पर मुक़म्मल बात शुरू करुँ, मैं कहना चाहता हूँ कि पत्रिका का संपादकीय ‘भूखे पेट सोने वाले लोगों’ की जिस मौलिक समस्या को रेखांकित करता है, वह वास्तव में पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का दावा करने वाले देश के लिए गहरी चिन्ता का विषय है।  पूर्व संपादकीय की परम्परा की नींव 1969 में मार्कण्डेय ने अपनी ‘कथा’ पत्रिका से डाली थी। यह इत्तफ़ाक ही है कि मैंने उसी ‘कथा’ पत्रिका का पाँच वर्षों तक संपादन किया था। ‘परिकथा’ ने उस परम्परा को आगे बढ़ाया है। आप विषय-सूची देखकर स्वयं ही अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यह अंक कितना समृद्ध है। इसमें आलेख हैं, कविताएँ हैं, पुस्तक समीक्षाएँ हैं, कहानियाँ हैं, और भी बहुत कुछ है : लेकिन ब...

गाँधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक

गांधीवादी विचारों को समर्पित मासिक पत्रिका "गाँधीश्वर" एक लंबे अरसे से छत्तीसगढ़ के कोरबा से प्रकाशित होती आयी है।इसके अब तक कई यादगार अंक प्रकाशित हुए हैं।  प्रधान संपादक सुरेश चंद्र रोहरा जी की मेहनत और लगन ने इस पत्रिका को एक नए मुकाम तक पहुंचाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की है। रायगढ़ के वरिष्ठ कथाकार , आलोचक रमेश शर्मा जी के कुशल अतिथि संपादन में गांधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक बेहद ही खास है। यह अंक डॉ. टी महादेव राव जैसे बेहद उम्दा शख्सियत से  हमारा परिचय कराता है। दरअसल यह अंक उन्हीं के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित है। राव एक उम्दा व्यंग्यकार ही नहीं अनुवादक, कहानीकार, कवि लेखक भी हैं। संपादक ने डॉ राव द्वारा रचित विभिन्न रचनात्मक विधाओं को वर्गीकृत कर उनके महत्व को समझाने की कोशिश की है जिससे व्यक्ति विशेष और पाठक के बीच संवाद स्थापित हो सके।अंक पढ़कर पाठकों को लगेगा कि डॉ राव का साहित्य सामयिक और संवेदनाओं से लबरेज है।अंक के माध्यम से यह बात भी स्थापित होती है कि व्यंग्य जैसी शुष्क बौद्धिक शैली अपनी समाजिक सरोकारिता और दिशा बोध के लिए कितनी प्रतिबद्ध दिखाई देती ह...