भारतीय डाक व्यवस्था की मेहरबानी हुई और देर से ही सही, लेकिन दुरुस्त ढंग से ‘परिकथा’ का नया अंक (संयुक्तांक : सितम्बर-दिसम्बर, 2024) आख़िरकार कल मुझे मिल गया। विषय-सूची देखकर मन खिल उठा। हर बार की तरह इसबार भी पत्रिका के संपादक शंकर जी ने यह सिद्ध कर दिया है कि साहित्य की दुनिया में जो दो-चार पत्रिकाएँ अच्छा काम कर रही हैं, उनमें ‘परिकथा’ अगली सफ़ में बैठी हुई है।
इससे पहले कि मैं पत्रिका पर मुक़म्मल बात शुरू करुँ, मैं कहना चाहता हूँ कि पत्रिका का संपादकीय ‘भूखे पेट सोने वाले लोगों’ की जिस मौलिक समस्या को रेखांकित करता है, वह वास्तव में पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का दावा करने वाले देश के लिए गहरी चिन्ता का विषय है।
पूर्व संपादकीय की परम्परा की नींव 1969 में मार्कण्डेय ने अपनी ‘कथा’ पत्रिका से डाली थी। यह इत्तफ़ाक ही है कि मैंने उसी ‘कथा’ पत्रिका का पाँच वर्षों तक संपादन किया था। ‘परिकथा’ ने उस परम्परा को आगे बढ़ाया है। आप विषय-सूची देखकर स्वयं ही अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यह अंक कितना समृद्ध है। इसमें आलेख हैं, कविताएँ हैं, पुस्तक समीक्षाएँ हैं, कहानियाँ हैं, और भी बहुत कुछ है :
लेकिन बात सबसे पहले डॉ. शंभुनाथ से मृत्युंजय श्रीवास्तव की बातचीत की। यदि साहित्य संबंधी मौजूदा चुनौतियों को समझना हो तो शंभुनाथ जी के इस इंटरव्यू को जरूर पढ़ा जाना चाहिए। शंभु जी की यह बात मानीखेज है कि विचारों के बिना साहित्य संभव नहीं है। वे कहते हैं, “साहित्य हमें कल्पनाशील और विचारवान बनाता है और हमारी आलोचनात्मक सोच को समृद्ध करता है।” शंभुनाथ जी ने अपने इस इंटरव्यू में इस बात पर बल दिया है कि साहित्यकारों को सामाजिक रूप से सक्रिय होना चाहिए। साहित्य की चुनौतियों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि “मछली को बचाना है, तो पानी को बचाना होगा।” डॉ. शंभुनाथ एक विचारवान लेखक-संपादक हैं। अपनी इस बातचीत में उन्होंने आलोचना संबंधी सवालों का उत्तर देते हुए कहा कि “अच्छी आलोचना सौंदर्य की समझ देती है, मिथ्या प्रभेद, प्रभुत्व और अन्याय से लड़ने की ताक़त देती है।” साथ ही, वे आज की आलोचना को “प्रबंधन का मामला” बताकर अपना आक्रोष भी व्यक्त करते हैं, जिसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
और अब बात सूर्यनाथ सिंह के आलेख ‘विचारों की विदाई का मंगलगान’ की, क्योंकि यह आलेख खासा ध्यान खींचता है। सूर्यनाथ सिंह का यह कहना कि “सियासत ही समाज का मिज़ाज़ बनाती-बदलती है, और समाज का मिज़ाज़ देखकर सियासत का रंग-ढंग समझा जा सकता है”, बिल्कुल ठीक बात है। किन्तु, इस आलेख में एक महत्त्वपूर्ण घोषणा करके सूर्यनाथ सिंह ने बौद्धिक हलक़ों में लम्बी बहस की गुंजाइश रख छोड़ी है, वह यह है कि “दक्षिणपंथ विचारधारा नहीं, एक प्रवृत्ति है।” अपने इस आलेख में वे यह भी कहते हैं कि “आर्थिक ताक़त ही राष्ट्र की असली ताक़त है।” इस विचारोत्तेजक आलेख के लिए सूर्यनाथ सिंह साधुवाद के पात्र हैं।
इसी क्रम में, हरियश राय का आलेख ‘कथेतर गद्य का नया संसार’ विशेष पठनीय है। इस आलेख में वे यादवेन्द्र, अशोक भौमिक, लीलाधर मंडलोई और अरुण कुमार की पुस्तकों को सामने रखकर रोचक और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हैं। यादवेन्द्र की पुस्तक को सामने रखकर हरियश राय का यह बयान बहुत महत्त्व का है कि “हिन्दी में ऐसी क़िताबें ढूँढ़ने से बहुत मुश्किल से मिलती हैं जिनमें कट्टरपंथी ईरानी शासन…की क्रूरताओं को जाना समझा जा सके।” वे लीलाधर मंडलोई के संपादक रूप की चर्चा करते हुए कहते हैं कि मंडलोई जी के “संपादकीय में जीवन और समाज की धड़कन मौजूद रहती है।” साथ ही, हरियश राय लीलाधर मंडलोई के ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादकीय को “एक रचनात्मक दस्तावेज़” स्वीकार करते हैं। आगे वे अरुण कुमार की आलोचना दृष्टि की बात करते हुए अरुण जी की “आदिवासियत की अवधारणा” की सराहना करते हैं। वे कहते हैं कि अरुण कुमार की किताब “आलोचना के प्रगतिशील मूल्यों को सामने रखती है। हरियश राय का यह आलेख इसलिए भी विशेष है, क्योंकि यह विविध लेखकों की दृष्टि को समझने की आधार-भूमि तैयार करता है। जो लोग अरुण कुमार को ठीक से जानना चाहते हैं उनके लिए अरुण जी पर केन्द्रित कमलानंद झा का आलेख ‘अरुण कुमार की आलोचना-दृष्टि’ का भी विशेष महत्त्व होगा।
इस अंक में अनवर शमीम, शिरोमणि महतो, सुषमा सिन्हा, किरण मिश्रा, लालदीप आदि की पठनीय कविताएँ तो शामिल हैं ही, गौरीनाथ से आशीष सिंह की, राजेन्द्र राजन से उर्मिला साध की, राजेन्द्र लहरिया से प्रकाश कांत की और अवधेश प्रीत से मो. दानिश की बातचीत खासे महत्त्व की है। साथ ही, नमिता सिंह, रोहिणी अग्रवाल, प्रज्ञा और प्रेम शशांक द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षाएँ, इस अंक की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में देखी जाएँगीं।
क़िताबों पर की गयी चर्चा के अलावा, रुचि भल्ला की डायरी ‘विद्या की क़सम’ एक सुन्दर कृति बन पड़ी है।
अंक पठनीय और संग्रहणीय है, इसमें दो राय नहीं है, लेकिन बात तबतक नहीं बनेगी जबतक कि कहानियों पर चर्चा नहीं की जाए। इसबार कहानियों में गंभीर सिंह पालनी, कमलेश, रणीराम गढ़वाली, अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’ जैसे दिग्गज कथाकारों की कहानियाँ एकसाथ सम्मिलित की गयी हैं। इन कहानियों पर कुछ कहे जाने की मैं आवश्यकता नहीं समझता, क्योंकि पाठक जानते हैं कि इन कहानीकारों की कहानियाँ तो अच्छी होंगी ही, लेकिन मैं एक कहानी की बात जरूर करना चाहूँगा, वह कहानी है परिधि शर्मा की ‘मनीराम की क़िस्सागोई’। यह कहानी इसलिए भी चर्चा के लिए विशेष है क्योंकि एक तो परिधि कम लिखती है, अच्छा लिखती है और नयी कहानीकार है, और मैं मानता हूँ कि नये लोगों को विशेषत: पढ़ा जाना चाहिए। दूसरी बात यह कि परिधि शर्मा की कहानी ‘मनीराम की क़िस्सागोई’ गहरी संवेदना से संपृक्त कहानी है, ज़ाहिर है कि यह एक पठनीय कहानी है। इसी अंक में बकलम खुद की भी एक कहानी ‘कफ़नपोश’ शामिल है।
मैं एक विशेष बात का उल्लेख जरूर करना चाहूँगा कि हमेशा की तरह ‘परिकथा’ के संपादक शंकर जी ने अपने इस अंक में भी स्त्रियों को खासा स्थान दिया है, और मैं उनकी इस पहल की सराहना करता हूँ।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि ‘परिकथा’ का यह अंक मुझे तो दिख ही रहा है, आपको भी संग्रहणीय दिखेगा। मैं इस अंक के लिए शंकर जी को ख़ूब सारी बधाई देता हूँ।
@ अनुज कुमार दिल्ली
प्रसिद्ध युवा कथाकार के फेसबुक वॉल से साभार
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