हम हिन्दी में पढ़ने लिखने वाले ज्यादातर लोग हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के कवियों, रचनाकारों को बहुत कम जानते हैं या यह कहूँ कि बिलकुल नहीं जानते तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । इसका एहसास मुझे तब हुआ जब ओड़िसा राज्य के संबलपुर शहर में स्थित गंगाधर मेहेर विश्वविद्यालय में मुझे एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में बतौर वक्ता वहां जाकर बोलने का अवसर मिला । 2 और 3 मार्च 2019 को आयोजित इस दो दिवसीय संगोष्ठी में शामिल होने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि जिस शख्श के नाम पर इस विश्वविद्यालय का नामकरण हुआ है वे ओड़िसा राज्य के ओड़िया भाषा के एक बहुत बड़े कवि हुए हैं और उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से ओड़िसा राज्य को देश के नक़्शे में थोड़ा और उभारा है। वहां जाते ही इस कवि को जानने समझने की आतुरता मेरे भीतर बहुत सघन होने लगी।वहां जाकर यूनिवर्सिटी के अध्यापकों से , वहां के विद्यार्थियों से गंगाधर मेहेर जैसे बड़े कवि की कविताओं और उनके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी जुटाना मेरे लिए बहुत जिज्ञासा और दिलचस्पी का बिषय रहा है। आज ओड़िया भाषा के इस लीजेंड कवि पर अपनी बात रखते हुए मुझे जो खुशी हो रही है वह मेरे लिए एक अलहदा अनुभव है । यह महज संयोग ही नहीं है बल्कि यह एक बड़ी समानता है कि हिंदी के प्रसिद्ध कवि संत कबीर की तरह उड़िया के प्रसिद्ध कवि गंगाधर मेहेर भी एक गरीब जुलाहा परिवार में ही पैदा हुए थे। मुझे जो जानकारी मिली उसके मुताबिक वे खुद कपड़ा बुनते थे और निकट के हाट बाज़ार में स्वयं बेचने भी जाते थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा को लेकर जो जानकारी मिली उसके मुताबिक़ उनकी शिक्षा दीक्षा बहुत कम हुई थी । साधारण परिवार में जन्म लेने तथा आर्थिक संसाधनों की कमी की वजह से अपने जिले से बाहर जाने का भी उन्हें कोई अवसर मिल नहीं सका । पर एक बात उनमें जरूर थी कि कम शिक्षा दीक्षा के बावजूद अपनी रूचि के बिषयों में कुशाग्रता का परिचय वे छोटी उम्र से ही देने लगे थे । उनकी कविता में जो सौंदर्य बोध है, वह सौन्दर्य बोध ओड़िया भाषा के अन्य कवियों में आसानी से सुलभ नहीं है । इसलिए कुछ लोग उन्हें “उड़िया साहित्य का कालिदास” भी कहते हुए मुझे मिले ।
कवि गंगाधर मेहेर
गंगाधर मेहेर का जन्म | Birth of Gangadhar Meher
कवि गंगाधर मेहेर का जन्म जिला संबलपुर के बरपाली गांव में 9 अगस्त 1862 को एक गरीब भुलिया (मेहेर) परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम चैतन्य और माता का नाम सेवती था। उनके पिता गांव के वैद्य भी थे। इस कारण लोग उनका आदर करते थे। मेहेर लोग मुखतः जुलाहा का काम करते हैं और करघे पर कपास और टसर की साड़ियां बनाते हैं। उनके परिवार में भी यही परम्परागत काम होता था।उन दिनों बरपाली गाँव बस दो-चार झोंपड़ियों वाला ही एक पुरवा था। पुरवे की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वहां एक पुराना बड़ का पेड़ था। लोग बताते हैं कि इसी बड़ पेड़ के कारण ही गांव का नाम बरपाली पड़ा।इसी गाँव में आगे चलकर इस कवि का लालन पालन हुआ।
यूनिवर्सिटी केम्पस में हम दोनों की उपस्थिति
गंगाधर मेहेर की शिक्षा | Education of Gangadhar Meherछह वर्ष की उम्र में वे गांव की पाठशाला में पढ़ने गए, पर जल्दी ही उन्होंने पाठशाला छोड़ दी। घर पर उनके पिता उन्हें पढ़ाने लगे। उन्होंने अपने बेटे को जगन्नाथ दास की लिखी हुई उड़िया की भागवत कथा सुनाई और प्राचीन कविता के कुछ पद्य पढ़ाने लगे। इन सब के साथ गणित विद्या में पारंगत करने हेतु वे उन्हें पहाड़ा भी रटवाने लगे। उसके बाद वे बरपाली ब्रांच स्कूल में दाखिल हुए, जहां प्राइमरी की दूसरी क्लास तक पढ़ाई होती थी । वहां पढ़ाई खत्म करने के बाद वे वर्नाकुलर मिडिल स्कूल में भर्ती हुए। वहां तीसरी क्लास उन्होंने पहले छह महीने में पास कर ली और अगले छह महीनों में चौथी क्लास। अभी वे पांचवीं क्लास में पढ़ ही रहे थे कि उन्हें स्कूल छोड़ देना पड़ा। जिन दिनों वे स्कूल में पढ़ते थे, उन दिनों भी उन्हें अपने पिता के साथ कपड़े बुनने के काम में हाथ बंटाना पड़ता था। उनकी लिखी आत्मकथा में ये सारी बातें दर्ज हैं । आत्मकथा में उन्होंने अपने विद्यार्थी-जीवन की कुछ रोचक घटनाएं भी लिखी हैं। जितने साल वे स्कूल में पढ़े, उनके पिता ने उनके बक्सों और किताबों पर केवल तीन रुपये आठ आने ही खर्च किए। उन्हें स्कूल में भी शायद इसलिए दाखिल किया गया था क्योंकि उन दिनों प्रखंड के अफसर उन व्यक्तियों को सजा देते थे, जो अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते थे । एक दूसरी घटना भी कुछ इसी तरह की है। बालक गंगाधर को कभी ढंग का एक कुरता तक नसीब नहीं हुआ था । एक बार उनके स्कूल में बड़े इंस्पेक्टर को आना था। उनके अध्यापक ने उनके पिता से कहा था कि इस मौके पर गंगाधर के लिए कोई ढंग की कमीज़ सिलवा दें। पिता तो मान गए और उन्होंने ऐसा किया भी पर दर्जी ने समय पर कमीज ही सीकर नहीं दी। बाद में वह कमीज फिर सिलाई ही नहीं गई। इन छोटी-छोटी घटनाओं से अंदाज लगाया जा सकता है कि कवि गंगाधर का बचपन कितनी गरीबी और कितने अभावों के रास्तों से होकर गुजरा होगा।
विद्यार्थियों और प्राध्यापकों के साथ हम दोनों
गंगाधर मेहेर का व्यक्तित्व | Personality of Gangadhar Meherस्कूल जीवन में वे जब तक रहे उस जीवन में ही उन्होंने वाल्मीकि, कालिदास, बाणभट्ट और भवभूति की रचनाओं के ईश्वरचंद्र विद्यासागर कृत अनुवाद भी पढ़े। धार्मिक ग्रंथ पढने का शौक उन्हें इस कारण भी लगा कि उनके दादा बड़े धार्मिक व्यक्ति थे और अपने पोते को प्रतिदिन दर्शन के लिए मंदिर के भीतर अपने साथ ले जाते थे । इस संगत के कारण उनमें भक्ति-भाव उत्पन्न हो गया और जीवन की परंपरागत मान्यताओं के प्रति उनमें आस्था पैदा हो गई। इसी कारण वे जीवन-भर सीधे सरल, ईमानदार और धर्म-भीरु भी बने रहेl लोग बताते हैं कि उन्होंने कभी भी बेईमानी या गलत तरीकों का सहारा अपने जीवन में नहीं लिया।
इन सबके बावजूद लोग कहते हैं कि वे दकियानूसी विचारों के कभी नहीं रहे। हर सामाजिक परिवर्तन का उन पर गहरा प्रभाव पड़ता रहा । समाज के विकास के साथ-साथ उनके विचारों का भी विकास होता गया। उनकी कविताओं के माध्यम से इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस समय ओड़िसा और देश की सामाजिक परिस्थितियाँ किस तरह बिषम हुआ करती थीं।
ओड़िया साहित्य के अध्येता इस बात का भी उल्लेख करते हैं कि कविता करने की प्रेरणा उन्हें अपने करघे और ढरकी से मिली । ढरकी को उधर-इधर चलाते समय जो आवाज उत्पन्न होती है, उससे एक लय बंध जाती है। फिर कपड़े पर डिजाइन बनाते समय और रंगों का संयोजन करते समय भी कलात्मक अभिवृत्ति का होना जरूरी हो जाता है। कहा जाता है कि करघे पर कपड़ा बुनते समय ही उनके मुख से कविताएं फूट पड़ती थीं।
गंगाधर मेहेर की कविताए | Poems of
Gangadhar Meher
उनकी शुरूवात में लिखी गयीं प्रारम्भिक रचनाएं कुछ छोटी-छोटी कविताएं ही थीं जिनमें “रसरलाकर” नामक कविता कुछ लंबी थी। इसमें अनिरुद्ध और उषा के प्रेम का वर्णन मिलता है । यह कविता 18वीं शताब्दी की प्राचीन उड़िया कविताओं की श्रृंगारिक शैली की कविताओं का प्रतिनिधित्व करता है। इसके बाद उन्होंने “अहल्यास्तव” लिखी। परंतु जल्दी ही वे उड़िया के महान कवि राधानाथ राय की कविताओं से प्रभावित हुए। उसके उपरान्त उनकी कविताओं ने एक नया मोड़ लिया।
1892 में उन्होंने “इंदुमती” लिखी जो कालिदास के रघुवंश में अज और इंदुमती के प्रसंग पर आधारित
है। इसकी बहुत अधिक प्रशंसा हुई। राधानाथ राय ने भी इसको बहुत सराहा जिससे उनको
बहुत प्रोत्साहन मिला। उनका दूसरा ग्रंथ था “उत्कल लक्ष्मी” जिसका कुछ अंश 1894
में प्रकाशित हुआ और शेष 1914 में। इसमें ओड़िसा के संबलपुर और उसके आसपास के जागीरों
के प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन है। इसमें कवि ने यह बताने की चेष्टा की है कि कुछ
इलाके यद्यपि राजनैतिक कारणों से अन्य प्रांतों में भले ही मिला दिए गए है, परंतु वास्तव में वे
उडीसा के ही हिस्से हैं । यह देखकर सचमुच आश्चर्य होता है कि उन दिनों एक छोटी-सी
जगह में रहने वाले बुनकर के मन में उड़िया-भाषी क्षेत्रो को उड़ीसा में लाने की
इच्छा उत्पन्न हुई। इस ग्रंथ से इन सीमावर्ती क्षेत्रों में, जिनमें छत्तीसगढ़ के
रायगढ़ जिले का कुछ हिस्सा भी शामिल है, उड़िया भाषा और साहित्य का बहुत प्रचार प्रसार
हुआ।
इस बीच उन्होंने कई छोटी-छोटी कविताएं लिखीं, जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं और फिर उनके संग्रह भी प्रकाशित हुए। उनका प्रसिद्ध ग्रंथ “कीचक वध” 1903 में जब प्रकाशित हुआ, उसके बाद रचनात्मक मौलिक कवि के रूप में उन्हें अत्यधिक ख्याति मिली। पर उस समय भी उनकी कविताओं पर 18वीं शताब्दी की श्रृंगार शैली का थोड़ा-बहुत प्रभाव शेष ही था।
1914 में प्रकाशित विशाल ग्रंथ 'तपस्विनी' और 1915 में प्रकाशित 'प्रणयवल्लरि' के माध्यम से कवि के रूप में उनकी मौलिकता को लोगों के बीच और मजबूती मिली।प्रणयवल्लरि उन्होंने कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम् को आधार बनाकर लिखी है, पर इसकी शकुंतला कालिदास की शकुंतला से एकदम भिन्न है। इसमें जो शकुंतला है वह कवि की की कल्पना में आदर्श नारी है और उस नायिका का प्रेम, कवि की कल्पना के भीतर जन्मा आदर्श प्रेम है।
गंगाधर मेहेर के कार्य | Works of Gangadhar Meher
इस बड़े कवि के जीवन की आजीविका किस तरह चली उसे जानना भी आज बहुत
दिलचस्प हो सकता है । सन् 1885 में वे सात रुपये मासिक पर बरपाली के एक जमीदार के
यहां काम पर लग गए थे । एक बात को लेकर एक दिन जमीदार से उनका झगड़ा भी हो गया।
जमीदार एक मामले में उनसे झूठी गवाही दिलवाना चाहता था पर वे इसके लिए तैयार नहीं
हुए और फिर जमींदार पर 300 रुपये जुर्माना
लग गया। पहले तो जमीदार उनसे बहुत नाराज हुआ पर कुछ दिन बाद उनकी सच्चाई और ईमानदारी से खुश होकर उसने उन्हें फिर
काम पर रख लिया और 1899 में अदालती मुहर्रिर ( judicial accountant )बनाए जाने के लिए उनके नाम की सिफारिश
भी उसने कर दी ।
1917 में रिटायर होने तक वे इसी पद पर काम करते रहे। जब वे रिटायर हुए तो उन्हें 35 रुपये मासिक वेतन मिल रहा था। रिटायर होने पर साढ़े बारह रुपये मासिक पेंशन उनका तय हुआ जिसके जरिये वे अपनी आजीविका चलाते रहे । अंततः 4 अप्रैल 1924 को ओड़िया भाषा के इस लीजेंड कवि ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
गंगाधर मेहेर यूनिवर्सिटी के कैंपस में कभी लोगों से जाकर इस कवि के बारे में बात करिए तो आपको लगेगा जैसे लोगों के मन के भीतर आज भी यह कवि जीवित है।
ओड़िया भाषा में रचित उनके तपस्विनी नामक महाकाव्य से उनकी एक अनुवादित कविता के साथ मैं अपनी बात पूरी कर रहा हूं-
मैं तो बिन्दु हूँ
अमृत-समुन्दर का,
छोड़ समुन्दर अम्बर में
ऊपर चला गया था ।
अब नीचे उतर
मिला हूँ अमृत- धारा से ;
चल रहा हूँ आगे
समुन्दर की ओर ।
पाप-ताप से राह में
सूख जाऊंगा अगर,
तब झरूंगा मैं ओस बनकर ।
अमृतमय अमृत-धारा के संग
समा जाऊंगा समुन्दर में ॥
- अनुवाद: डॉ. एच. के. मेहेर
गंगाधर मेहेर जैसे महत्वपूर्ण कवि पर आपने जरूरी जानकारियां साझा करके महत्वपूर्ण कार्य किया है। अनुग्रह दिनों दिन अपनी स्तरीय सामग्रियों के प्रकाशन से पाठकों के मध्य चर्चित होने लगा है।बधाई। ऐसा ही महत्वपूर्ण कार्य करते रहें
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शब्द चेतन
हटाएंबहुत ही शानदार प्रस्तुति।
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