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छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव



अब आप नहीं हैं

हमारे पास,

कैसे कह दूं

फूलों से चमकते तारों में 

शामिल होकर भी आप

चुपके से नींद में आते हैं 


जब सोता हूँ

उड़ेल देते हैं

ढ़ेर सारा प्यार


कुछ मेरी पसंद की 

अपनी कविताएं

सुनाकर

लौट जाते हैं पापा

और मैं फिर

पहले की तरह

आपके लौटने का

इंतजार करता हूँ

          - बसन्त राघव 

आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है।

डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विचारों का उजाला इन्हीं आलेखों के माध्यम से लोगों को रास्ता दिखाने का आज एक माध्यम बना है। पंडित मुकुटधर पांडेय की कविताओं, उनके आलेखों को प्रकाश में लाने का सबसे महत्वपूर्ण कार्य सर्वप्रथम डॉक्टर बलदेव ने ही किया । उनके द्वारा किये गए शोध पूर्ण कार्यों का सहारा लेकर अनेक लोगों ने कालांतर में मुकुटधर पांडेय पर काम किया , पर यह दुःखद प्रसंग है कि ज्यादातर लोगों ने उनका उल्लेख करना जरूरी नहीं समझा। उन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा की समृद्धि को लेकर भी कई मौलिक कार्य किये, जिनके लिए उन्हें आजीवन याद किया जाता रहेगा।

"रायगढ़ का सांस्कृतिक वैभव" नामक किताब में अनेक महत्वपूर्ण आलेख  दर्ज हैं। रायगढ़ की कला ,रायगढ़ का साहित्य, रायगढ़ का इतिहास जैसे जरूरी विषयों पर केंद्रित उनका एक जरुरी आलेख हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं-

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ.बलदेव 

नौ-योजन दूर गतस्त सुमतः पुर रायगढस्य खलूत्तरतः 

गढ़ पर्वत नामक एक गिरि विलसत्यति सुन्दर उच्चतर :

 एको केलो नाम कल्लोलिनी यं स्वरै स्वरै परिक्रम्य भाति 

 निर्यठ्न्धं मन्द मन्दं बहति तारूण्य श्री मानिनी भामि

              केलो अर्थात् केलि अर्थात् रायगढ़ नगर का जीवन स्पन्दन जो नगर के उत्तर में पूर्व - पश्चिम मीलों फैले गढ़- पर्वत की परिक्रमा करती , उसी प्रकार आगे बढ़ती है , जैसे कोई मान किए भामिनी अपने गत यौवन को याद करती रहती है . आखिर याद करने लायक क्या है इस छोटे से शहर में ? रायगढ़ पूर्वी मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले का सदर मुकाम है . रियासत काल में भी राजधानी यही थी . रायगढ़ नदी - नालों , पहाड़ों से घिरा हुआ गजमार पर्वत पर स्थित हनुमान मंदिर से देखो तो रात में यह मायानगरी सा प्रतीत होता है राजा भूपदेव सिंह के जमाने में [ 1894-1917 ) यहां की कुल आबादी दसेक हजार की थी , वर्तमान में एक लाख के करीब है . यहां सभी भाषा , प्रान्त , धर्म व जाति के बन्धु मिलकर भारतीय समाज की रचना को मूर्त करते नजर आते हैं. रायगढ़ का गर्भ भाग ही " शहर " है , बाकी झुग्गी - झोपड़ियों की गंदी बस्तियां , सारंगढ़ धर्मजयगढ़ , खरसिया रोड तक फैली हुई है , न यहां पक्की सड़के हैं , न नल , न पाखाने , न ही समुचित विद्युत व्यवस्था खर्राघाट से कयाघाट तक गरीबों की जमात है , जो पट्टा मिलने पर जब कभी उनके मालिकों द्वारा बेदखल किये जा सकते हैं . यहां की इंच इंच जमीन पर धन - कुबेर काबिज है . चाहे मीट्ठूमुड़ा हो या अतरमुड़ा , रामभांठा हो या बोइरदादर हर कहीं गरीबी और गंदगी का आलम है . यहां की आबादी का नब्बे प्रतिशत छत्तीसगढ़ियों का है , जो मजदूर , चपरासी , बाबू एवं मास्टर है , बेरोजगार पान ठेले वाले और अपाहिजों के रूप में फूट पाथों पर फैले हुए हैं , दस प्रतिशत लोग बाहरी हैं , नेता , अफसर और व्यापारी हैं , चमत्कारी हैं , यही रक्षक और यही भक्षक हैं , इन्हीं के हाथ में शहर का ही नहीं पूरे जिले का शासनतंत्र है .

रेखांकित करने लायक यहां बहुत सी बाते हैं , इस छोटे से शहर में ? यहां की सरज़मी ऐसी कि कोई भी कलम लगाओ पलक मारते ही पल्लवित पुष्पित होने लगती है , भले ही वह अमरवेली या विष वेल क्यों न हो ? रायगढ़ रथयात्रा, गणेश मेला ,झूला मेला , रामलीला , दुर्गा पूजा आई हॉस्पिटल , पॉलिटेक्निक कॉलेज , जूटमिल के लिए ख्यात हे , सट्टा , कालाबाजारी , मिलावट की संस्कृति आदि के लिए भी यह कम ख्यात नहीं रायगढ़ चांवल इमारती लकड़ी , वनोपज , खनिज सम्पदा और सोने की तस्करी के लिए प्रसिद्ध है अखबार की सुर्खियां बतलाती हैं , बरसात के दिनों यहां से रोजाना एक करोड़ रूपये के कच्चे सोने की तस्करी होती है , ईब और मांड की सहायक नदियों में 92 % शुद्ध सोना पाया जाता है . रायगढ़ के आसपास दो हवाई पट्टियां हैं , एक तो उर्दना में है जो पुलिस बल के घेरे में है , दूसरी समीपस्थ ग्राम कोड़ातराई में है , इसे ही विकसित किया जाना चाहिए , बेचारे तस्कर , डाक और एक्सप्रेस गाड़ी की यात्रा से बोर हो चुके हैं . दूसरी ओर मंत्रियों को भी सुविधा होगी रायगढ़ आने में भोपाल से हजार मील  दूर रायगढ़ आने में मंत्रियों को कष्ट न होगा तो किसे होगा . मुख्यमंत्री तो शायद ही रायगढ़ आवें , जो आया सो गया . या जब उन्हें पूरा विश्वास हो जाता है , कि मुख्यमंत्री के रूप में यह उनकी यात्रा अंतिम है , तब आवेंगे. याने मुख्य मंत्रियों के लिए रायगढ़ शुरू से ही अभिशप्त नगर रहा है , ऐसा ज्योतिषियों का कहना है , लेकिन वर्तमान मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह इसके अपवाद निकले . देखे नए राज्य की नई सरकार और उसके मुख्यमंत्री के लिए रायगढ़ कितना शुभ होता है। तस्करी की बात बीच में ही छूट गई थी तस्कारों को अपने माल की चिंता नहीं होती . निकालने के बारहों रास्ते हैं , जो सीधे यू.पी. बिहार , महाराष्ट्र उड़ीसा , यहां तक कि आंध्र की ओर निकल जाते हैं . चौकियों पर इनके ड्रायव्हरों की बड़ी इज्जत ये स्कूली बच्चों को भले ही रौंदते शहर पार कर जाय , न पुलिस को परवाह न आबकारी को आबकारी तो आदिवासियों की पीठ ही देखती है , जहां उसके चाबुक चमकते हैं , घने जंगलों और पहाड़ों को काटकर देव दुर्लभ सुख भोगने वाले नेता अफसर और ठेकेदारों की यहां कमी नहीं है . इन्हीं की बदौलत मध्यप्रदेश का सर्वाधिक खूबसूरत सर्किट हाऊस बदसूरत दिखने लगा है राजपरिवार की अदूरदर्शिता स्थानीय लोगों की उदासीनता और राजस्व विभाग की मेहरबानी के कारण यह सब हुआ है , हो रहा है जहां बच्चों के लिए खेल के मैदान , स्कूल बगीचे , पार्क चिड़ियाघर झूलाघर , अप्पूघर होने  थे वहां मोटे सेठों के बगीचे और इंटरप्राइजेज हैं . बच्चों के लिए शाला में जगह नहीं समुचित शिक्षा व्यवस्था नहीं, शिक्षकों के लिए आवास व्यवस्था नहीं , स्कूल कालेज तो हैं , इसके बाद भी बौद्धिक सन्नाटा है . कभी कभी प्रोफेसर व्यास नारायण पांडेय ,प्रो. के.के.तिवारी, एन . एस . एस . के माध्यम से कुछ दिनों के लिये युवा शक्ति में जागरूकता कर देते हैं इसके बाद तुलसीदास जी की यह पंक्तियां चरितार्थ होती हैं - सबसे भले मूढ़ मति , जिन्हें ब्यापै जगत गति" 

कभी संतुष्ट न रहने वाले किस्म के बुद्धिजीवी कहते हैं भ्रष्ट अफसर नेता और व्यापारियों के चलते ही यहां के राष्ट्रीय कार्य रूके हुए हैं मसलन स्टेडियम का काम धीमे गति से शुरू हुआ है , आकाशवाणी का होना और न होना बराबर है . कार्यक्रम अधिकारी को तो इतना भी पता नहीं है कि यहां कवि , लेखक , कलाकार और बुद्धिजीवी रहते भी हैं कि नहीं , जबकि इनमें से कई एक राष्ट्रीय स्तर के विद्वान हैं दूरदर्शन नाम मात्र का है , केलो परियोजना जैसा महत्वपूर्ण काम तक तो रूका हुआ है , जिससे हजारों एकड़ भूमि का सिंचित होना और लोगों का करोड़पति होना तय है . राजनीति और व्यापार पर वर्तमान में पूंजीपतियों का वर्चस्व है . एक समय समूचे जिले की राजनीति में दखल रखने वाले ठाकुर बन्धुओं की तूती बोलती थी.  पिछले 30-35  वर्षों से यहां वणिक भाईयों का विधान सभा क्षेत्र में वर्चस्व है पूर्व विधायक रामकुमार अग्रवाल ने ग्रामीण क्षेत्रों में ठोस कार्य किया था जिसे आज भी याद किया जाता है . इधर विधायक कृष्ण कुमार गुप्ता नये सिरे से शिक्षा के विकास में लगे हुए हैं. राज्य सभा सदस्य सुरेन्द्र कुमार सिंह सांस्कृतिक क्षेत्र के लिए चिंतित दिखाई देते हैं .विकास कार्यों में तेजी आई है ,  इनके बरख्सा  नंद कुमार साय  और सांसद विष्णु देव साय भी पहले के अपेक्षा ज्यादा सक्रिय हैं. गृहमंत्री श्री नद कुमार पटेल ने ग्रामीण अंचलों का तो कायाकल्प किया ही है रायगढ़ शहर के सांस्कृतिक गतिविधियों के उन्नयन में भी शिरकत करते नजर आते हैं .

इस शहर की महिलाओं में भी राजनैतिक और सामाजिक चेतना का विकास हुआ है यहां के उर्वशी सिंह और सीताबाई कर्मोकार,श्रीमती शीला तिवारी कृष्णा चर्तुवेदी,चतुर बाई भी कम सक्रिय नहीं हैं, लेकिन सुचित्रा त्रिपाठी , सुनीता पांडेय , रामप्यारी स्वर्णकार,विजय शारदा साव, श्रीमती चन्द्रकला देवांगन आदि सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं.

सेठ किरोड़ीमल ने शहर को शहर जैसा बसाया था सदर में किला नुमा गद्दी , स्टेशन के सामने विशाल नटवर हाई स्कूल, पॉलीटेक्निक कालेज, नेत्र और महिला चिकित्सालय तथा मुख्य चिकित्सालय की विशाल इमारतें किसने बनवायी ? उनके मुनीम तक के नाम से यहां कॉलेज है , सुनते हैं तत्कालीन मुख्यमंत्री और सेठ जी के बीच काफी छनती थी वे दोनों ही आम के आम गुठली के दाम के अर्थ को जानते थे सेठ किरोड़ीमल दानवीर थे गौरीशंकर मंदिर और बूजी भवन उनके दानशीलता की ही लहराती कीर्ति पताकाएं हैं , स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कवि बंदे अली फातमी और अमरनाथ तिवारी का कहीं नामो निशान नहीं है.  प्रजा मंडल की स्थापना करके राजशाही जमाने में राजनैतिक चेतना को जगाने वाले लोग कहां गये पता नहीं , सबसे पहले यहां एक ही जूट मिल था म.प्र . का इकलौता जूट मिल जहां बिहारी भाईयों का वर्चस्व था और जो यहीं के होकर रह गये . वर्तमान में करोड़ों की लागत से स्थापित जिंदल स्ट्रीप्स है, जो कई महत्वाकांक्षी समाजोपयोगी कार्यों के लिये कटिबद्ध है , किन्तु केलो से पानी लेने के मामले में जो विवाद के घेरे में आ गया है . स्थानीय लोगों को यदि नियुक्ति देकर न्यायोचित कार्य कर सकें तो एक सराहनीय कार्य होगा. वैसे रायगढ़ नगर के सौंदर्य और कला संस्कृति के उन्नयन में उनका योगदान महत्वपूर्ण है. इसी प्रकार के कई महात्वाकांक्षी कल - कारखाने स्थापित हो रहे हैं जिससे नव जवानों को निराशा ही मिलती है , यहां ट्रेड यूनियन अपनी पहचान कब बनायेगा यह कहा नहीं जा सकता . वैसे रायगढ़ में काम धंधों की कमी नहीं है एक एक सजोर युवक के पास दो दो चार - चार धंधे हैं इन्हीं को कार से लेकर बस और छोटे - मोटे उद्योग के लिये सरकारी कर्ज मिल सकती है . यां तो जो दादागिरी करके यह दिखा दे कि वह भी कुछ है या फिर अपना मनी वेट पर विश्वास कर सके. स्थानीय नवयुवकों में न बाजुओं का जोर है न पैसों का, तो नौकरी कहां से पायेंगे ? किस बिसात पर उद्योग धंधे लगायेंगे ? अगर छोटा - मोटर कर्ज मिल गया तो ये चार दिन में ही " चाट " जायेंगे . यहां कई अंग्रेजी और देशी शराब की दुकानें हैं , जुआ और सट्टा के कई कई चलते फिरते केन्द्र हैं ये सब नामी गरामी लोगों द्वारा संचालित किये जा रहे हैं इनकी खिलाफत कौन नेता या अफसर करेगा ? वैसे रायगढ़ अफसर , डॉक्टर और वकीलों के लिये स्वर्ग है रसखान की इच्छा रखने वाले  कितने हैं इनकी कौन गिनती करे " जो पशु हों तो कहां बस मेरो , चरौं नित नंद के गांव मझारन " पत्रकार यहां अपेक्षाकृत अधिक खुश हैं सुनते हैं कुछेक की माहवारी बंधी हुई है जुआ- चित्ती , रंडीबाजी की साधारण से साधारण घटना रंगीन शक्ल में छपती हैं आये दिन गरीब शिक्षक , कर्मचारी , पंचगण इनके प्रकोप के शिकार होते रहते हैं . पत्रकारों में गुरूदेव " काश्यप " चौबे, की अलग पहचान है।  वारेन दा की कुलम को आज भी याद करते हैं सीताराम पाटिल, अखिल पांडेय, सत्यनारायण वासुदेव, सुभाष त्रिपाठी, अनिल रतेरिया, विनोद उपाध्याय, राज कुमार गुप्ता, राजेन्द्र. अग्रवाल, हेंमत थवाईत, दम-खम रखते हैं. चौबे की अलग पहचान पाटिल सुभाष दम - खम रखते हैं . छुटभैया किस्म के नेता और पत्रकार वर्तमान गंभीर किस्म के प्रशासनिक . अधिकारियों के चलते हैरान हैं.

 कार्यकर्ताओं में सुभाष पांडे , राजू उपाध्याय , गणेश कछवाहा , परमजीत वासु एडव्होकेट , विजय अग्रवाल , संतोष राय , रोशन अग्रवाल इस शहर के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं . युवा नेता श्री जगदीश मेहर म . प्र . वस्त्र निगम के अध्यक्ष पद पर रहते हुए कोसा उद्योग के सांस्कृतिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं. ' आदिवासी युवा नेता कमरीश सिंह गौड़ भी अपने बलबूते पर कुछ न कुछ इस शहर के लिये कर रहे हैं. इन सभी कार्यकर्ताओं के बीच रजनीकांत मेहता की अपनी अलग इज्जत है कुल मिलाकर अन्य कस्बाईनुमा शहरों के जो हालात हैं उनसे बहुत हटकर रायगढ़ नहीं है . इतना लंबा - चौड़ा मंगलारण का मकसद यही था कि रायगढ़ भी एक जीता - जागता शहर है , तब यह अन्य शहरों से किन - किन बातों में अपना अलग वैशिष्ट्य अलग पहचान रखता है ? और नर्तन सर्वस्व के लेखक राजा चक्रधर सिंह को ऐसा क्यों लिखना ? --यं स्वरै स्वरै परिक्रम्य भाति,  निर्यद्वंधं मन्द मन्दं बहति तारूण्य श्री मानिनी भामिनीव ? केलो गत यौवन को क्यों याद करती रहती है ? दरअसल रायगढ़ पुरातत्व , नृत्य संगीत साहित्य और कला के लिये न केवल प्रदेश न केवल देश , वरन समूचे विश्व में ख्यात है और इसे यदि छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी तो बात की शुरूआत गढ़ पर्वत और महानदी की सहायक केलो से ही क्यों न की जाय ?

पुरातत्व : 

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आदि मानव के आरंभिक चरण जहां भी पड़े हों , लेकिन उसकी आदिम सभ्यता और संस्कृति के अवशेष रायगढ़ के आसपास की दुर्गम पहाड़ियों के शैलाश्रयों और केलो नदी की रेत में ही पाये जाते हैं , डॉ . सांकलिया तथा पं . लोचन प्रसाद पाण्डेय जैसे ख्यातिलब्ध पुरातत्व वेत्ता रायगढ़ के आसपास के क्षेत्र को आदिम सभ्यता का केन्द्र मानते हैं , भले ही ईब और मांड की सहायक नदी " सोन " की रेत जैसी केलो की रेत , स्वर्णकण नहीं उगलती तथापि उसके तटकछार क्वार्ट झाईट पत्थर से बने पुराश्म युगीन उपकरणों से पड़े हैं , ये भले ही घिस चुके हैं लेकिन आकृति से परशु , खुरचनी , हस्तकुठार और कुल्हाड़ियों की पहचान उकेरती नजर आती हैं , इसी प्रकार रायगढ़ के आसपास विश्व प्रसिद्ध सिंघनपुर की गुफाएं , बसनाझर और कबरा पहाड़ के शैलाश्रय हैं . इनकी निकटतम दूरी 12 कि . मी . और अधिकतम दूरी 20 कि.मी. है . कबरा पहाड़ के शैल चित्र पूर्वमुखी हैं जबकि सिंघनपुर की गुफाओं के शैलचित्र दक्षिण मुखी हैं । इनतीनों शैलाश्रयों में आदिमानव द्वारा बादामी पत्थर पर उकेरे गए चित्र हैं , इनमें गोह , सरीसूप वनभैसा , हाथी , हिरण शिकार तथा चक्र के रेखांकन हैं एक चित्र में स्पष्ट रूप से आखेट का दृश्य है , बहुत से मनुष्य एक बड़े पशु पर आक्रमण • दिखलाये गये हैं गति को प्रदर्शित करने वाला  यह सहज - सरल अंकन आदि मानव की मूल प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालता है . एक अन्य चित्र में कोई पशु एक मनुष्य पर भेड़ या बकरे जैसा आक्रमण करता चित्रित है , इन दोनो चित्रों में एक गहरा अंतः संबंध है , एक तो उसकी अदम्य जीजिविषा को प्रदर्शित करता है , तो दूसरा उसकी असहाय अवस्था को जिसके कारण उसे समूह में रहना पड़ा ताकि वह सबल हो पशुओं के भक्ष बनने के बजाय पशु ही उसका भक्षण बने इन शैल चित्रों का समय विद्वान  बीस से पचास हजार वर्ष पुराना बताते हैं और इसकी तुलना स्पेन के भित्ती चित्रों और नील घाटी के भाण्ड चित्रों से बतलाते हैं , पुरातात्विक दृष्टि से रायगढ़ विश्व के मानचित्र पर स्पष्ट रूप से अंकित है . कविवर भवानी शंकर पड़ेगी ने अपने सहयोगी मित्रों के साथ इन आरण्यक संपदाओं का सर्वेक्षण किया था वर्तमान में अनुपम दासगुप्ता और रवीन्द्र मिश्रा जैसे प्रबुद्धजन इनके संरक्षण के लिये चिंतित दिखाई देते हैं . वैसे इस क्षेत्र में पं . लोचन प्रसाद पांडेय ने पूर्व में काफी कुछ लिख दिया है और वह हमारे लिये अमूल्य धरोहर है , 

इतिहास :

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ऐतिहासिक दृष्टि से भी रायगढ़ का अपना अलग स्थान है रायगढ़ राज्य के अस्तित्व के पूर्व भी यहां छोटे छोटे राज्य थे रायगढ़ की पहाड़ियों पर मिलूगढ़ कर्मागढ़ , दियागढ़ , नवागढ़ जैसे पहाड़ी किलों के संकेत मिलते हैं जो हजार वर्ष पूर्व के लगते हैं . राजिम के एक शिला लेख में टेरम राठ और तमनार जैसे प्राचीन परगनों का उल्लेख मिलता है जो कि रायगढ़ के आसपास ही हैं . 

केलो के तट प्रदेश में मुर्गापाठ है जहां कभी बैरागढ़िया राजकुमार मदनसिंह ने अपने बाहुबल से तीन सौ वर्ष पूर्व नवागढ़ी का निर्माण अपने मंत्री का सिर काट कर किया था यह वीर भूमि है , यहां खरगोश भी शिकारी कुत्ते पर झपट्टा मार सकता था . गढ़वाटे सो मारा जाय की कहावत यहीं चरितार्थ हुई थी . राजा ने मंत्री से भूमि पूजा का विधि - विधान पूछा मंत्री भूमि पूजा की विधि बतलाने के लिये जैसे ही नतमस्तक हुआ , राजा ने तलवार की एक ही वार से उसका सिर काटकर भूमि पूजा कर दी . राजा मंत्री से ज्यादा होशियार , ज्यादा चौकस और ज्यादा नीतिवात था मंत्री आज भी माझी देवता के रूप में राज परिवार से पूजापा पाता है . सेन्ट्रल प्राविन्सेज गजेटियर (ई . एम . ब्रेट ) के अनुसार इस परिवार में मदनसिंह , तखतसिंह , बेटसिंह ,दिरीपसिंह , जुझारसिंह , देवनाथ सिंह , घनश्याम सिंह , भूपदेवसिंह जैसे आठ शासक हुए . बाद में नटवर सिंह उनके मरणोपरांत उनके मझले भाई चक्रधर सिंह तदोपरांत उनके पुत्र ललित कुमार सिंह अन्य तीन याने कुल ग्यारह शासक हुए । रायगढ़ संबलपुर के अठारह गढ़जातों में एक था संबलपुर के इतिहास में दुर्जय सिंह का नाम दिया गया है जिसे प्रथम बार राजा की पदवी मिली थी , उसके राज ध्वज में बाझ का चिन्ह अंकित था लेकिन इस राजा का उल्लेख अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता इस वंश में जुझार सिंह (1800-1832)  बड़ा ही पराक्रमी साहसी और दूरदर्शी राजा हुआ , उसने मराठों के बढ़ते प्रभाव को देखकर सन् 1800 ई . में ईस्ट इंडिया कं . से समझौता कर अपने राज्य को बचा लिया था . इसके पुत्र देवनाथ सिंह बड़ा भारी कूटनीतिज्ञ था , उसने संबलपुर के बागी राजा सुन्दरसाय और उदयपुर के शिवराज सिंह को गिरफ्तार करने में अंग्रेजों की मदद की थी . इसने अजीत सिंह के विद्रोह को कुचलकर पुरस्कार में बरगढ़ परगना भी प्राप्त किया था . इतिहास साक्षी है रायगढ़ स्टेट 1857 के विद्रोह में अंग्रेजों का मददगार रहा . 1862 में पिता की मृत्यु के बाद घनश्याम सिंग गद्दी पर बैठा अयोग्यता के कारण वह अंग्रेजों का सामंत बन बैठा , उसके बाद उनके पुत्र भूपदेव सिंग शासक हुए जो प्रजावत्सल न्यायप्रिय और गुणी शासक थे . उन्होंने ब्रिटिश सरकार को रेल्वे लाइन के लिये पैंतीस मील की लंबी जमीन देकर राय बहादुर का फतवा हासिल किया था . उनके समय गुजराती , मारवाड़ी , सिंधी और पंजाबियों को राज्य में व्यापार करने की अनुमति मिली . 

नृत्य संगीत :

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राज्य भूपदेव सिंह ने अपने द्वितीय पुत्र नन्हे महाराज के जन्मोत्सव पर मोतीमहल का निर्माण कराया और गणोशोत्सव को राजकीय उत्सव के रूप में प्रारंभ किया इसके देशव्यापी ख्याति मिली एक महीने तक चलने वाले इस महोत्सव में छोटे बड़े कलाकार देश के कोने कोने से आते थे तलवार की धार पर नृत्य करने वाले नेपाल के दरबारी कलाकार श्री गिरधारी लाल का उन्होंने अपने दरबार में सन् 1912 में सम्मान किया था . इसी प्रकार उन्होने सन् 1916 में आचार्य जगन्नाथ भानू को दरबार में साहित्यार्चा साहित्याचार्य की उपाधि से विभूषित किया था . उनके दरबार में अनंत राम पांडेय जैसे बाल भारती के सुलेखक कवि , आलोचक मौजूद थे . उनके यहां कलगी तुर्रा शेरो शायरी का प्रचलन था , इन्होंने लोक और शास्त्रीय कलाओं को अपने दरबार में फलने का यथेष्ठ अवसर दिया इसी पृष्ठ भूमि पर राजा चक्रधर सिंह ने नृत्य और संगीत को नया आयाम दिया . पं . मुकुटधर पांडेय के शब्दों में सन् 1931 में जब चक्रधर सिंह को राज्याधिकार प्राप्त हुआ तब गणेशोत्सव में चार चांद जड़ गये थे . उसकी सांस्कृतिक छवि निखर उठी थी . रायगढ़ की घरा ललित कलाओं की क्रीड़ा भूमि बन गई थी . 

नन्हे महाराज , अर्थात् चक्रधर सिंह बचपन से ही नृत्य संगीत के प्रति अनुरक्त थे . उन्होंने अपने चाचा लालनारायण सिंह ठाकुर , लक्ष्मण सिंह और मुनीर खां से तबले की , पं . शिवनारायण और पं . सीताराम से नृत्य की तथा नन्हें बाबू से गायन की शिक्षा ली थी . नृत्य और संगीत के कारण ही उन्होंने राजकुमार कालेज रायपुर से सदा के लिये नाता तोड़ दिया था . इतना ही नहीं रायगढ़ स्टेट कोर्टस् आफ वार्ड के अंतर्गत चला गया था . साहित्य के क्षेत्र में पं . महाबीर प्रसाद द्विवेदी , लोचन प्रसाद पांडेय और डॉ . बल्देव प्रसाद मिश्र उनके पथ प्रदर्शक रहे राजा चक्रधरसिंह के शासनकाल में रायगढ़ नृत्य संगीत और साहित्य का त्रिवेणी संगम बन गया . उन्होंने बादल महल और टाऊन हाल का निर्माण कलाओं के विकास के लिये करवाया था . अन्य विधाओं की अपेक्षा उन्होंने कत्थक नृत्य के विकास में ऐतिहासिक योगदान दिया है . उन्होंने जयपुर से पं . जयलाल , लखनऊ से अच्छन महाराज और अन्य शताधिक आचार्यों को बुलवा कर कार्तिक राम , कल्याणदास फिरतूदास अनुजराम और बर्मन लाल जैसे गम्मत में नाचने वाले बाल कलाकारों को कत्थक जैसे शास्त्रीय नृत्य की उच्च शिक्षा दिलवाई जो आगे चलकर देश के मशहूर नर्तक हुए रायगढ़ दरबार में लखनऊ और जयपुर दोनो घरानों की शिक्षा शिष्यों को लेनी पड़ती थी , राजा साहब प्रमुख आचार्यों को अपने द्वारा अविष्कृत नृत्यांगों के प्रेक्टिकल हेतु सभा मध्य बुलाते , फिर उसके स्वयं करके दिखलाते . इतना ही नहीं गुरूओं को भी मौलिक प्रतिभा के प्रकाशन के लिये यथेष्ट अवसर देते इससे दोनो घरानों की शैलियों की शुद्धता शिष्यगण नहीं रख सके और दोनो घरानों की खुली टकराहट होने लगी . इस टकराहट से एक नई शैली का जन्म हुआ जिसे हमने कभी रायगढ़ कत्थक घराना के नाम से प्रचारित किया था और जिसके लिये हमें खुसट आचार्यों का कोपभाजन बनना पड़ा . इतना ही नहीं साहित्य के महाबलियों का प्रकोप भी हमें सहना पड़ा . जिसने हमारे एक लेख को हिन्दी के एक सुलेखक के नाम और पुस्तक को एक अपढ़ व्यक्ति के नाम छपवा दी . लेकिन इसमें उसका कोई दोष नहीं था , मैंने तो श्रद्धा भाव से उस महान् कलाकार के जीवन को केन्द्रित करके वह कथित पुस्तक लिखी थी ।

साप्ताहिक दिनमान के 26 फरवरी से 5 मार्च 83 के अंक में रायगढ़ का कत्थक घराना शीर्षक लेख लिखकर हमने इसकी निम्न विशेषताएं बतलाई हैं , वैसे हाथरस से निकलने वाली पत्रिका संगीत में एक वर्ष पूर्व ही कत्थक घराने पर विस्तार से हमने लेख लिखा था हमने इसकी निम्न विशेषतायें बतलाई हैं :-

" रायगढ़ घराने के अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार राजा साहब द्वारा निर्मित नये - नये बोल और चक्करदारपरण है जो नर्तन सर्वस्व तालतोय निधि , रागरत्न , मंजूषा मुरजपर्ण- पुष्पाकर और तालबल पुष्पाकर में संकलित हैं उनके शिष्य अधिकांशतया उन्हीं की रचनायें प्रदर्शित करते हैं , इस उपक्रम के द्वारा गत भाव और लयकारी में विशेष परिवर्तन हुए यहां कड़कबिजली दलबादल किलकिलापरण जैसे सैकड़ों बोल प्रकृति के उपादानों झरनों , बादलों और पशु पक्षियों आदि के रंग ध्वनियों पर आधारित हैं जाति और स्वभाव के अनुसार इनका प्रदर्शन किया जाय तो ये मूर्त हो उठते हैं . इसी प्रकार यहां से 283 मात्राओं तक के तालों की रचना हुई जो एक ऐतिहासिक घटना है . ये बोल इतने ध्वन्यात्मक हैं कि पढ़न्त के साथ ही अर्थछबियां खुलने लगती हैं और भाव प्रदर्शन के साथ ही रस निष्पत्ति होने लगती है यहां का ठाट न तो जयपुर जैसे बड़ा है न लखनऊ जैसे छोटा , हवा में लहराते हुए केतु के प्रतीक त्रिपटाक हस्त का अत्यधिक महत्व है इसलिये राजा साहब उसे ठाट की जगह त्रिपटाक हस्त कहना अधिक पसंद करते थे और अपने कुल देवता मुर्गापाठ की विजयध्वजा के रूप में प्रयुक्त करते थे . अभिजात्य संस्कारों से जुड़े यहां के कत्थक में लोक नृत्य का लालित्य उद्दाम आवेग और जीवन स्पन्दन है राजा चक्रधर सिंह के नाम पर म . प्र . शासन ने चक्रधर नृत्य केन्द्र की स्थापना कर एक प्रशंसनीय कार्य तो किया ही है इससे रायगढ़ घराने पर एक स्पष्ट मुहर लग जाती है 

सांस्कृतिक विरासत : 

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राजा साहब में मौलिक प्रतिभा की कमी नहीं थी , वे कई भाषाओं के जानकार थे तथापि उनके दरबार में व्याकरणाचार्य पं . सदाशिव दास शर्मा , साहित्याचार्य भगवानदास सप्ततीर्थ शारदा प्रसाद , कविवर जानकी वल्लभ शास्त्री , भूषण महाराज जैसे इक्कीस महापंडित समादृत होते थे , राजा साहब ने इनकी सहायता से दर्जनों ग्रंथ का निर्माण किया इसमें नर्तन- सर्वस्व 108 किलो तालतोय निधि 28 किलो मूरजपर्ण पुष्पाकर और रागरत्न मंजुषा अप्रकाशित विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ हैं , पं . मुकुटधर पांडेय के शब्दों में राजा चक्रधरसिंह रायगढ़ नगरी के भोज थे राजा साहब ने संस्कृत भाषा को अत्यधिक सम्मान दिया था . उत्कल कालिदास पं . सदाशिवदास शर्मा के ये उद्गार अत्यन्त सटीक हैं -

या श्री गीवर्णि कान्ताकर कलित ललब्दल्लकी         

                                                   मण्डयन्ती   

  स्वर्गगां मंगचुम्ब मृदुलतर मरूल्लिहय मानालकान्ता  

  सा डेड लैग्वेज कल्पाभरगंण ललना भारतीय चेत्वां 

  निसंगीतालयं सा मुखर यतु यशोगीतिका गीततानै


     अकबर और वाजिदअली शाह की भांति ही राजा चक्रधर सिंह नृत्य और संगीत के महान संरक्षक और सर्जक थे बीसवीं सदी का शायद ही कोई बड़ा कलाकार होगा जो रायगढ़ दरबार में सहादृत न हुआ होगा देश के कोने - कोने से आए हुए कलाकार , बाजीगर तवायफें और लोक कलाकारों का उनके दरबार में जमघट लगा रहता था तंत्रीनाद कवित्त रस में डूबे राजा अपने समय के प्रख्यात तबला वादक और ताण्डव नृत्य के अद्वितीय नर्तक थे इसीलिए 1939 में अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में भारतीय नरेशों के सामने वाइसराय ने उन्हें संगीत सम्राट की उपाधि से विभूषित किया था , विष्णु दिगम्बर और पं . ओंकारनाथ ठाकुर की उन पर बड़ी कृपा दृष्टि थे बालक मनहर बर्वे ने उनके टाऊनहाल में अपनी श्रेष्ठ कला का परिचय दिया था . इन्हीं सब गुणों के कारण राजा साहब अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन के दो दो बार अध्यक्ष चुने गये थे . एक समय था जब उनके शिष्य कार्तिक , कल्याण फिरतू महाराज और बर्मन लाल की पूरे देश में धूम थी . फिरतू महाराज के छोड़ अन्य तीनों को मध्यप्रदेश की संस्कृति विभाग ने शिखर सम्मान से सम्मानित किया था इन्हीं के बलबूते राजा चक्रधरसिंह अपने ग्रंथ नर्तन सर्वस्व में यह गर्वोक्ति कर सके .


        गानं मनोज्ञा नटनं वर वादनस्व 

        भावान्दु सायूर्यभिनय सरसं नटानाम् 

        अद्यापि भारत कला परिक्षणार्थं 

         दृग्गोचरं भवति रायगढ़ समस्त 


       राजा चक्रधर सिंह में वे सारे गुण थे जो वाजिद अली शाह में थे परिणाम स्वरूप राज - काज  ठप्प पड़ गया , राज कर्मचारी राजा साहब की ऐय्यासी में शरीक थे और मौका पाते ही खजाना लूट लेते थे , यहां तक कि मतवाला मंडल कलकत्ता के एक सदस्य कविवर मनोहर प्रसाद मिश्र भी इनकी गिरफ्त में आ गये जिनकी कविताएं सरस्वती जैसी श्रेष्ठ पत्रिका में सन् 1918 से 1920 तक छपती रहीं , इन बातों से सेनानी कवि बंदे अली फातमी ने जोश में लिख मारा -


       सी.पी. का यह लखनऊ हिजड़ों का यह धाम

       ऐसे रायगढ़ नगर को बारम्बार प्रणाम , 


           फिर क्या था , कवि का हाथ तोड़ दिया गया . इसके पूर्व लोक कलाकार लाला फूलचंद भी पिट गये थे , परन्तु वह पिटना बांसुरी फूंकने के कारण था . " सन्नाटा " शीर्षक कविता की प्रेरणा शायद भवानी प्रसाद मिश्र को ऐसी ही घटनाओं से मिली होगी , उस समय साहित्य के लिये " चक्रधर पुरस्कार " चलता था रामकुमार वर्मा और रामेश्वर शुक्ल " अंचल " जैसे युवा कवि यह पुरस्कार प्राप्त कर चुके थे . सुमधुर गीतकार किशोरी मोहन त्रिपाठी की तब घोर उपेक्षा हुई थी राजशाही जमाने में कुछ बुराईयों के साथ साथ अच्छाईयां भी थीं . वयोवृद्ध आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को यहां से 50 रूपये का मासिक पेंशन स्वीकृत था और तब अज्ञेय सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन जैसे बम बनाने वाले क्रांतिकारी कवि का शरण्य रायगढ़ दरबार ही था , जहां उनके बहनोई कर्मचारी थे और यह सब घटित हुआ केलो के तट पर , जिसके मूक साक्ष्य बादल महल और मोती महल हैं जो आज भी खंडहर होने से बचने के लिये सरकार की ओर निगाहें लगाये हुए हैं . रायगढ़ के अवदान की घोर उपेक्षा हो चुकी है राजा साहब द्वारा प्रणीत ग्रंथों के प्रकाशन पं . लोचन प्रसाद पांडेय तथा पं . मुकुटधर पांडेय साहित्य पीठ की स्थापना चक्रधर संगीत विद्यालय तथा राजमहल का अधिग्रहण करने के लिये अभी भी समय है . यदि यहां संगीत नाट्य अकादमी की स्थापना की जावे तो वे सारे बिखरे सूत्र फिर जुड़ सकते हैं और आने वाली पीढ़ियों का भी यथेष्ठ मार्गदर्शन हो सकता है इसमें संदेह नहीं आज भी यहां श्री चक्रधर ललित कला केन्द्र लक्ष्मण संगीत विद्यालय एवं वैष्णव संगीत विद्यालय में शताधिक छात्र - छात्रायें नियमित शिक्षा ले रहे हैं , राज्य सभा सदस्य सुरेन्द्र कुमार सिंह , भानुप्रताप सिंह , विजय बहादुर सिंह , वेदमणि सिंह , जगदीश मेहर , राजेन्द्र विश्वकर्मा , मनहरण सिंग ठाकुर , राधेलाल गजभिये , निमाईचरण पंडा , चन्द्रकला देवागंन , दिलीप षड़ंगी . , वासंती वैष्णव ,सुरेश दुबे संगीत केविकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं .


     राजा अब नहीं हैं , उसका खंडहर है , चक्रधर सिंह नहीं हैं , फटेहाली की जिन्दगी काटते उनके ज्येष्ठ पुत्र राजा ललित सिंह हैं . मेरे मित्र " पापा" की कविता याद आ रही है - 


 ·   कहां गया संगीत , वादन , गायन नृत्य का समाहार 

     कहां गया दरबार कहां गए कलाकार 

     कितना अजनबी हो गया है शहर 

     तोते की तरह आंखे फेरकर किस वृक्ष की डाल में 

                                                   बैठ गया 

      चांदी जड़ी मूठ की आखिरी छड़ी , हवा में   

                                                   उछालता , 

      तेज कदमों से चलता ललित सिंह 

      ढूंढता है अपने खोए हुए शहर को ।

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                                  डॉबलदेव

जन्म : 27 मई, 1942

शिक्षा : एम.ए. हिन्दी, पीएच.डी., डिप्लोमा इन असमिया।

प्रमुख कृतियाँ : ‘वृक्ष में तब्दील हो गई औरत’, ‘विश्वबोध’, ‘छायावाद एवं अन्य श्रेष्ठ निबन्ध’, ‘रायगढ़ में कत्थक’, ‘ढाई आखर’, ‘भगत की सीख’, ‘छायावाद एवं पं. मुकुटधर पाण्डेय’ आदि।

सम्मान : ‘चक्रधर सम्मान’, ‘पं. मुकुटधर पाण्डेय सम्मान’ आदि।

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प्रस्तुति:-बसन्त राघव

पंचवटी नगर,मकान नं. 30

कृषि फार्म रोड,बोईरदादर, रायगढ़,

छत्तीसगढ़,basantsao52@gmail.com मो.नं.8319939396

टिप्पणियाँ

  1. बहुत बढ़िया लेख है, आज डा बलदेव सर के पुण्य तिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि , उनके द्वारा मिला स्नेह सदैव याद आता है

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