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तीन महत्वपूर्ण कथाकार राजेन्द्र लहरिया, मनीष वैद्य, हरि भटनागर की कहानियाँ ( कथा संग्रह सताईस कहानियाँ से, संपादक-शंकर)

 


■राजेन्द्र लहरिया की कहानी : "गंगा राम का देश कहाँ है"

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हाल ही में किताब घर प्रकाशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण कथा संग्रह 'सत्ताईस कहानियाँ' आज पढ़ रहा था । कहानीकार राजेंद्र लहरिया की कहानी 'गंगा राम का देश कहाँ है' इसी संग्रह में है। सत्ता तंत्र, समाज और जीवन की परिस्थितियाँ किस जगह जा पहुंची हैं इस पर सोचने वाले अब कम लोग(जिसमें अधिकांश लेखक भी हैं) बचे रह गए हैं। रेल की यात्रा कर रहे सर्वहारा समाज से आने वाले गंगा राम के बहाने रेल यात्रा की जिस विकट स्थितियों का जिक्र इस कहानी में आता है उस पर सोचना लोगों ने लगभग अब छोड़ ही दिया है। आम आदमी की यात्रा के लिए भारतीय रेल एकमात्र सहारा रही है। उस रेल में आज स्थिति यह बन पड़ी है कि जहां एसी कोच की यात्रा भी अब सुगम नहीं रही ऐसे में यह विचारणीय है कि जनरल डिब्बे (स्लीपर नहीं) में यात्रा करने वाले गंगाराम जैसे यात्रियों की हालत क्या होती होगी जहाँ जाकर बैठने की तो छोडिये खड़े होकर सांस लेने की भी जगह बची नहीं रह गयी है। साधन संपन्न लोगों ने तो रेल छोड़कर अपनी निजी गाड़ियों के जरिये सड़क मार्ग का सहारा ले लिया,कुछ लोग हवाई जहाज में उड़ गए , पर गंगा राम जैसे लोग डिब्बे के दरवाजे पर लटककर आज भी यात्रा करने को मजबूर हैं।

स्लीपर या एसी कोच पर यात्रा कर रहा निहायत स्वार्थी मध्यवर्ग अपनी रिजर्व्ड सीट पर दो इंच की जगह छोड़ने को भी तैयार नहीं कि गंगा राम जैसा कोई यात्री कुछ देर के लिए अपने कूल्हों को वहां टिका ले। यात्रियों की बढ़ती संख्या के मद्देनज़र सरकार रेल में सुविधाएँ बढ़ाने की जगह उसे घटाना शुरू करे तब गंगा राम जैसा आम आदमी कहाँ जाए? जनरल डिब्बे में कई बार जाने की थका देने वाली कोशिश के उपरांत स्लीपर कोच में दो बर्थ के बीच फर्श की खाली जगह पर सोकर यात्रा कर रहे गंगा राम को सुबह सुबह जिस तरह की उपेक्षा और दुत्कार से भरे ताने सुनने को मिलते हैं वह भी इस कहानी में ध्वनित होता है। यात्रा के दरमियान जनरल डिब्बे से जुड़े जितने भी दृश्य हैं बहुत भयावह और थका देने वाले दृश्य हैं-

◆गंगाराम ने देखा और सोचा कि डिब्बे के दरवाजे के सरिये से लटक कर चलना और डिब्बे के भीतर होना लगभग एक समान है◆

◆गंगाराम अब गलियारे में खड़े थे। असहाय से।सोच में डूबे हुए। खरीद लेते हैं लोग। पैसे से। दूसरों का हक। अपने लिए । पैसे वाले। अचानक उन्हें लगा कि रेल जैसे एक देश है । एक दौड़ता हुआ देश। जिसमें जिसके पास जितना पैसा है वह उतना ही अधिक सुख खरीद लेता है। दूसरों के हिस्से के सुख। अपने लिए। और जिनके पास पैसा नहीं होता वह ताकते रहते हैं सुख के लिए और देश उनके लिए जनरल क्लास से अधिक कतई नहीं बचता। देश जिसको उनसे छीन लेते हैं अमीर लोग। उन सब से जो गंगाराम जैसे हैं।◆

कहानी का अंत कुछ इस तरह हुआ है-

गाड़ी में सवेरे उजास पैवस्त हो गया था। लोग जाग गए थे जाग रहे थे और अपनी अपनी बर्थ छोड़कर टॉयलेट की तरफ जाने लगे थे तथा वे बीच गलियारे में लेटे आदमी के कारण इधर से उधर व उधर से इधर निकलने में थोड़ी असुविधा महसूस कर रहे थे और अपनी उस असुविधा को अपने संग वालों को सुना रहे थे कुछ इस तरह से जैसे वे किसी बड़े भारी कष्ट को झेल कर आए हों। 

गंगाराम गलियारे में लेटे-लेटे उन लोगों की बातें सुन रहे थे और उनकी वह बातें सुनकर उन्हें एक अनोखे तरह का सुख मिल रहा था। इतना सुख पाने के हकदार तो वे थे ही।

इस संग्रह में आम जन जीवन की समस्याओं से जुड़ी ऎसी और भी कई महत्वपूर्ण कहानियाँ हैं जिनकी समाज को आज बहुत जरूरत है।

■ मनीष वैद्य की कहानी : "गाथा अभी खत्म कहाँ हुई!"

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कहानी संग्रह  "सत्ताईस कहानियाँ" में मनीष वैद्य की एक महत्वपूर्ण कहानी 'गाथा अभी खत्म कहाँ हुई' भी शामिल है। यह जो गाथा है वह शोषण और अत्याचार की गाथा है।आज से डेढ़-दो सौ साल पीछे चले जाईये तब भी वही गाथा थी, वर्तमान में पाँव टिका लीजिए गाथा तब भी वही चल रही। कहानी में आठ मजदूरों के खदान में दबकर मर जाने की घटना के इर्द गिर्द शोषण का समूचा परिदृश्य आंखों के सामने फ़िल्म की तरह आता जाता है।खदान जिसमें सुरक्षा मानकों की कहीं कोई व्यवस्था नहीं है, न इस बात को लेकर कोई चिंता है क्योंकि उसका मालिक एक रसूखदार नेता, मंत्री  है जिसको सरकार या प्रशासन की कोई परवाह नहीं।यूं भी रसूखदारों की एक समानांतर सत्ता होती है इसलिए सत्ता का नियंत्रण उन पर कमोबेश नहीं ही होता।

नटों की बस्ती से आने वाले इन आठ मजदूरों के परिवार की दारुण कथा इस कहानी में उभरकर आती है। कहानीकार ने डेढ़ सौ साल पीछे जाकर नटों की बस्ती से आने वाली एक महिला पात्र रेशमा के बहाने राजा रजवाड़ों की सामंती धूर्तता, क्रूरता,तानाशाही को जिस खूबसूरती के साथ कहानी में बुनी गयी घटनाओं के माध्यम से उभारा है उससे आज की सामंती व्यवस्था स्वतःजाकर जुड़ती है।राजा की शर्त अनुसार

दो पहाड़ों के बीच बंधी रस्सी पर चलकर करतब दिखाने वाली नट स्त्री रेशमा जब शर्त जीतने की अंतिम पायदान पर होती है तब राजा रस्सी को कटवा देता है।शर्त अनुसार उसे अपना आधा राज्य चले जाने का डर सताने लगता है । वह धोखे पर उतर जाता है। फिर दो पहाड़ों के बीच की खाई में गिरकर रेशमा की जान चली जाती है। और तब से रेशमा की आत्मा उन पहाड़ों में भटकती रहती है । आज भी गाथा वही है।कुछ भी नहीं बदला।कहानी में जगह जगह बहुत खूबसूरत संवाद हैं, उसका आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।मनीष वैद्य की कहानियाँ बहुपठित होने के साथ साथ गम्भीर कथ्य पर केंद्रित होती हैं। यह भी एक जरुरी और गम्भीर कथानक युक्त कहानी है जो घटनाओं की बुनावट और संवाद की खूबसूरती के लिए अलग से चिन्हित होती है।कहानी को परिकथा के सौवें अंक से भी आप पढ़ सकते हैं।

■हरि भटनागर की कहानी : 'आपत्ति'

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हरि भटनागर की कहानी आपत्ति यूं तो एक सुअरानी से जुड़ी कथा है जो एक अपार्टमेंट के नीचे शरणागत होकर आस पड़ोस के घरों से निकले जूठन में से अपने भोजन की व्यवस्था में लगी हुई दिखाई पड़ती है। उस सुअरानी के जीवन में भी ऐसा दिन आता है कि बच्चों को जन्म देने के बाद उनकी सुरक्षा में ही वह घर से निकल नहीं पाती। घर से न निकल पाने की वजह से वह दाने-दाने को तरसते लगती है। वह अगर सुरक्षा का ख्याल न रखे तो आस पड़ोस के बाट जोहते खूंखार कुत्ते उसके बच्चों को अपना शिकार बना लेंगे।सुरक्षा की चिंता में भूख और प्यास के जन्म लेने की यह कहानी दरअसल आज की वर्तमान शासन व्यवस्था की दुश्वारियों से उपजी घटनाओं का एक व्यापक चित्रण ही है।परिवार के लिए दो वक्त की रोटी की व्यवस्था  करने की जुगत में कोई अगर बाहर निकले तो उसकी और उसकी अनुपस्थिति में घर के सदस्यों की सुरक्षा आज खतरे में पड़ने लग जाती है। खूंखार कुत्तों, भेड़ियों का खौफ़ इस कदर बढ़ चुका अब कि चारों तरफ एक असुरक्षा का भाव पैदा हो चुका है।

कहीं बलात्कार हो जाए, कहीं लिंचिंग हो जाए, कहीं हत्या हो जाए, कुछ भी सम्भव है।

सुअरानी भोजन की तलाश में एक दिन जब घर से निकलती है तब खूंखार कुत्ते बच्चों पर आक्रमण करने उसके ठीहे पर घूसने लगते हैं। कहानी का सूत्रधार जब इस पर आपत्ति करता है तो कुत्ते उसी पर आक्रमण करने लग जाते हैं।

आज की व्यवस्था ऐसी है कि इन चीजों की कोई मुखालफत करे, इनके बिरुद्ध कोई आपत्ति दर्ज करे तो तंत्र उसी की लिंचिंग करने पर आमादा हो जाता है।

सुअरानी और कुत्तों जैसे प्रतीकों , बिंबों के माध्यम से आज की वर्तमान व्यवस्था, सत्ता तंत्र की ज्यादती की शानदार पड़ताल इस कहानी में मिलती है। घटनाओं की बुनावट , संवाद और कथ्य, कहानी को रुचिकर और सशक्त बनाते हैं।कहानी में सूत्रधार की पत्नी ,बेटी और सुअरानी के बीच कुछ ऐसे प्रसंग हैं जहां सुअरानी के लिए उनके भीतर उपजे उपेक्षा के भाव अंततः करुणा में बदल जाते हैं। एक तरह से संवेदना के पुनर्स्थापन की भी यह कथा है।

हरि भटनागर की लिखी यह एक सशक्त कहानी है जिसे उन्होंने रवीश कुमार को समर्पित किया है।



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