पूजा कुमारी नई पीढ़ी की प्रतिभाशाली कवयित्रियों में से एक हैं ।
उनकी कविताओं में स्त्री चेतना की अनुभूतियां इस तरह घुलमिलकर आती हैं कि मनुष्य
जीवन के अनुभवों से उनकी तारतम्यता का एहसास सहज ही होने लगता है। एक स्त्री के भीतर उठती इन अनुभूतियों में विवेक और भावनाओं का सम्यक संतुलन पूजा की कविताओं
को पुष्ट करता है। अपनी भावनाओं और विचारों के मिले जुले आवेगों के साथ एक लड़की को
जिस तरह जीवन को देखना चाहिए, वह सम्यक
दृष्टि पूजा के भीतर नैसर्गिक रूप में विद्यमान है और वही दृष्टि उनकी कविताओं के
माध्यम से हम तक पहुंचती भी है । एक लड़की का संघर्ष इन कविताओं में गुंजित होता हुआ भी हमें सुनाई देता है।
कविताएं जीवन और समाज की बेहतरी को ध्यान में रखकर ही रची जाती हैं, उस बेहतरी में एक स्त्री की भूमिका का स्थापन किस तरह सुस्पष्ट
हो, पूजा की ज्यादातर कविताएं इसी भूमिका के स्थापन की ओर आगे बढ़ती हैं। उनकी
कविताओं में जीवन मूल्यों के प्रति आस्था बहुत सहज तरीके से शामिल होती चली जाती
है, जो एक तरह से किसी कवयित्री के लिए कविता धर्म का
निर्वहन भी है।पूजा की कविताओं में सहजता भले दिखाई पड़े, पर विचार विवेक और आवेगों
का एक तीखापन भी साथ साथ चलता है ।
आईए पूजा की कविताओं से आज रूबरू होते हैं..
(1) मां की पायल
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मैं अपनी उम्र से
बड़ी
तुम्हारे खयाल में
छोटी हूं
टूटते बिखरते सपनों
को
सहेजते-सहेजते खुद
सपना हो गयी हूँ
तुम्हारे शब्दों
में..
अब मेंहदी रचे हाथ
महावर सने पांव पर
रीझकर नहीं कहती
मैंने प्रेम चुना है
चूंकि प्रेम!
अन्धेरे और उदासी का
पर्याय है मेरे लिए
इन दिनों हंसने लगी
हूँ बेतहाशा
फफक कर रोने वाली
बात पर भी
शूल सी चुभ रही है
सीने में
गिरवी पायलों की धुन
पिता के तानों से भी
ज्यादा
तुम्हारी,मेरी सम्मिलित प्रार्थनाएं
लौट आती हैं हर बार
विफलता का सावन लिए
आसमान क्रूरता से
देखता रहता है
संभलते ही
प्रत्याशाओं का
वितान ताने
फिर खड़ा होता है
कोई सपना
तुम सी अपराजित
योध्दा की बेटी होने का फर्ज निभाने
निकल पड़ती हूँ मैं
पहले से भी ज्यादा साहस लिए
मेरी माँ!
समर्थता का हाथ
पकड़े
मैं तुम्हारे लिए
पायल नहीं
पांव बनना चाहती हूँ
जिसपर खड़ी होकर तुम
देख सको
अपनी और मेरी,साझे की
सुन्दर दुनिया
!
(2) प्रेम
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जब तुम लिखोगे प्रेम
मैं रोटी लिखूंगी
रोटी के लिए
बाजार में उतरी हुई
औरत लिखूंगी
रोटी के लिए दम
तोड़ता जीवन लिखूंगी
जब तुम लिखोगे
प्रेम में सजी
कजरारी आंखें
मैं बाबा की बूढ़ी
आंखों का जवान सपना लिखूंगी
छोटे भाई के माथे पर
पड़ी
बड़ी बड़ी सलवटें
लिखूंगी
जब तुम लिखोगे
सोने चांदी की
बेड़ियों से सजी धजी दुल्हन
मैं आजादी लिखूंगी
बित्ते भर जमीन और
मुट्ठी भर अनाज के लिए हमें लड़ना पड़ता है हर रोज
तो अब तुम ही कहो
तुम्हारे प्रेम में
मैं कैसे लिखूँ
प्रेम?
(3) लड़कियां
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मेरे बेहद निजी कोने
में
हर वक़्त विचरती हैं
दुनिया की सारी
आजाद खयाल लड़कियां
जो नापसंद बात पर
अड़ जाती हैं
हर गलत को आंखें
तरेरती हैं
संघर्ष करती हैं
टूटती हैं
बिखरती हैं
खुद को सहेज कर
फिर चलती हैं
आंखों में मुट्ठी भर
सपने लिए
वे तर्क करते हुए
मुझे बेहद प्रिय
लगती हैं
ये आजाद खयाल
लड़कियां
हर हदें तोड़ कर
करती हैं प्रेम
पर खुद के प्रेम में
सबसे अधिक होती हैं
इन आजाद खयाल
लड़कियों के साथ चलकर
पुरूष अपने भाग्य पर
इतराता जरूर है
हमसफ़र बनने के नाम
पर सहम जाता है
उनके तर्क से दिखती
है
घर की व्यवस्था
चरमराई सी
और परम्परा को पीठ
पर ढोते हुए स्त्री की कमर सीधी !
(4) हम तुम्हें माफ नहीं करेंगे
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खून के वो धब्बे
आज भी मौजूद हैं
जो तेरी नाकामियों
को ढकने के लिए बहे थे
चीखती दीवारें
तेरे हत्यारे होने
की गवाह हैं
हैवानियत से सने
तेरे विचार
मखौल उड़ाने वाला
तेरा ढंग
तेरे हिटलरी सत्ता
का अन्त लेकर आयेगा
तेरे अय्याश खयालों
ने
जाने कितने घरों को
बेवा बनाया है
तू आदमियत घोट जाने
वाला
हृदयहीन नर पिशाच है
देश को अन्धेरे में
ढकेल कर
हमारी आत्मा को बेचा
है
धर्म की आड़ में
कराई है हत्या
भय की खेती की है
किया है भरोसे का खून
धर्म की धुन्ध में
लड़ रहे लोग
अपना हिसाब कर लेंगे
पर हम तुम्हें माफ
नहीं करेंगे
उन तमाम बातों के
लिए
जो अब तक नागवार
गुजरी हैं
(5) प्रेमिकाएं धरती की संतप्त आत्माएँ हैं
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तुमनें धरती जीती
श्रेय अपने पौरुष को
दिया
इतराए अपने नाम के
शिखर बनाएं
हारे तो दागदार हुई
प्रेमिका की चूनर
उनकी हॅंसी में
आसुओं का अंश था
आसुओं में मरी हुई
इच्छाएँ
तुम्हारे संग घोर
अवसाद में खड़ी रहीं
तुम ओढ़नी का कोर
भिगाते रहे
वो तुममें साहस भरती
रहीं
उन्होंने वर्जनाएं
तोड़ी तुम्हें चुना
चुनी आजादी, सपनों का आसमां
तन-मन सौप दी चाहत
में
छली गयीं अनगिनत बार
तुम्हारी जीत का
सेहरा कभी उनके माथे नहीं सजा
हार की नाॅंव में
बिठाई गयी हर बार
तुम टूटे तो हिम्मत
बनीं
ऊपर उठे तो बेड़ी
मानीं गयीं
या बना दी गयी दूसरी
औरत
प्रेमिकाएं धरती की
संतप्त आत्माएँ हैं
जिनके हिस्से बसंत
नहीं पतझड़ आया
आयी दुनिया भर की
रूखाई
(6) तुम अकेली नहीं
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फूट फूट कर रोई हो
सारी विफलताऍं याद
कर
ढूँढ रही किताबों के
ढेर से
अपने होने का अर्थ
तुम अकेली तो नहीं
हर बार छली गयीं
प्रेम में
लेकिन प्रेम रही
प्रेम से प्रेम और
घृणा साथ- साथ किया
टूटने बिखरने बिसराए
जाने वाली
तुम अकेली नहीं
तुमसे पहले भी
स्त्री ने आहुति दी
स्वाहा कर दिया जीवन
पर मिलेगी नहीं
ऐतिहासिक दस्तावेजों
में
तुम अकेली नहीं
जिसके पिता ने साथ
तो दूर
आशिर्वाद देना भी
बन्द कर दिया
माँ अब भी मनौती पे
मनौती किए जा रही
तुम अकेली नहीं
दुनिया की नज़र में
किरकिरी सी चुभ रही
तुमसे पहले अनगिनत
नाम दफ्न है
धरती और आकाश के
सीने में
तुम अकेली नहीं
जिसका दम घुट रहा
अकेलेपन से
जो मुक्त होना चाहती
है
जो लड़ रही भीतर-
भीतर बाहर- बाहर
खुद को समेटो मेरी
जान!
हॅंसो तुम्हारी
हॅंसी से रोशनी बिखरनी है
चलो जाने कितनी
मंजिलें तुम्हें पाना चाहती हैं !
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©पूजा कुमारी
शोधार्थी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
8601315078
अच्छी कविताएं। स्त्री संघर्ष इन कविताओं में मुखर हुआ है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविताएँ, दीदी! आप स्त्री-संघर्ष और संवेदना को डूब कर स्वर दे रही हैं। यह प्रक्रिया अनवरत जारी रहे ऐसी शुभेच्छा है! ढेरों बधाई एवं शुभकामनाएँ आपको!
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