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परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवारों

रघुनंदन त्रिवेदी की कहानी : हम दोनों

स्व.रघुनंदन त्रिवेदी मेरे प्रिय कथाकाराें में से एक रहे हैं ! आज 17 जनवरी उनका जन्म दिवस है।  आम जन जीवन की व्यथा और मन की बारिकियाें काे अपनी कहानियाें में मौलिक ढंग से व्यक्त करने में वे सिद्धहस्त थे। कम उम्र में उनका जाना हिंदी के पाठकों को अखरता है। बहुत पहले कथादेश में उनकी काेई कहानी पढी थी जिसकी धुंधली सी याद मन में है ! आदमी काे अपनी चीजाें से ज्यादा दूसराें की चीजें  अधिक पसंद आती हैं और आदमी का मन खिन्न हाेते रहता है ! आदमी घर बनाता है पर उसे दूसराें के घर अधिक पसंद आते हैं और अपने घर में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! आदमी शादी करता है पर किसी खूबसूरत औरत काे देखकर अपनी पत्नी में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! इस तरह की अनेक मानवीय मन की कमजाेरियाें काे बेहद संजीदा ढंग से कहानीकार पाठकाें के सामने प्रस्तुत करते हैं ! मनुष्य अपने आप से कभी संतुष्ट नहीं रहता, उसे हमेशा लगता है कि दुनियां थाेडी इधर से उधर हाेती ताे कितना अच्छा हाेता !आए दिन लाेग ऐसी मन: स्थितियाें से गुजर रहे हैं , कहानियां भी लाेगाें काे राह दिखाने का काम करती हैं अगर ठीक ढंग से उन पर हम अपना ध्यान केन्दित करें।

'सुबह सवेरे' न्यूज मेगेज़ीन भोपाल एवं इंदौर एडिशन में प्रकाशित कहानी: 'उम्मीद' ■रमेश शर्मा

■कहानी : उम्मीद  मनुष्य के जीवन में इतने प्रश्न हैं कि धरती इन प्रश्नों का भार उठाते हुए अपने एकांत में कराहती भी होगी । धरती का कराहना हम सुन नहीं पाते अन्यथा हम सुनकर चकित होते । संभव है करूणा से भर उठते । चारों तरफ प्रश्नों का एक झुण्ड है। घर के बाहर प्रश्न ,घर के भीतर प्रश्न। सोते-जागते हर समय प्रश्न ही प्रश्न । हालात ऐसे हो चुके कि कहीं टहलने निकलो तो भी प्रश्न पीछे दौड़ते चले आते हैं । लगता है जैसे उन्हें भी घर से बाहर निकल कर घूमना पसंद हो।  इस घटना को घटित हुए बहुत दिन नहीं हुए जब मिश्रा जी अपने डॉगी टोक्यो को साथ लेकर कालोनी की सूनी सडकों पर टहलने निकले थे । उस दिन उनके सामने मोहल्ले की एक लड़की बतियाते हुए अपनी ही रौ में बेसुध चली जा रही थी । उसकी बातचीत के दरमियान आवाज़ की तीव्रता कुछ इस कदर तेज थी कि सुनकर उन्हें याद आया....., एक प्रश्न दिमाग में उठने लगा .... इसका नाम कहीं भुलेनी तो नहीं? यह सोचकर ही मिश्रा जी के दिमाग में एक और प्रश्न घूमने लगा कि उन्हें आखिर कब और कैसे पता चला कि उसका नाम भुलेनी है? उन्होंने दिमाग में बहुत जोर डाला पर ऎसी कोई जानकारी चलकर उनके पास नहीं आ सक

दैनिक न्यूज़ मेगेज़ीन 'सुबह सवेरे' भोपाल एवम इंदौर एडिशन में प्रकाशित कहानी ■ अधूरी चिठ्ठी , लेखक-रमेश शर्मा

■ अधूरी चिठ्ठी  ------------------------------------------------------------------- सड़क के किनारे अपने कदमों को बढाता हुआ वह चल रहा था । थका-मांदा उदास । मन में विचार आ-जा रहे थे। यह क्रम है कि खत्म ही नहीं हो रहा था । इस अजनबी शहर ने उदासी और हताशा के सिवाय उसे आज तक कुछ दिया ही नहीं। फिर भी यहाँ से जाने को उसका मन आखिर क्यों नहीं होता ? यह एक अजीब सा सवाल था जो चलते-चलते उसके मन में उठने लगा था । वह जाना भी चाहे तो आखिर कहाँ जाए ? जाने के लिए कोई जगह भी तो नियत हो। उसके मन में उपजे इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। जवाब के फेर में पड़े बिना ही वह चला जा रहा था। फरवरी का महीना। आसमान में धूप खिली हुई।एक बात अच्छी घट रही थी कि देह पर पड़ने वाली धूप की आंच देह को भली लग रही थी।सुबह के दस बज रहे होंगे जब इस तरह सडकों पर वह भटक रहा था।  नज़र उठाकर उसने इधर उधर देखा ....सड़क किनारे रखे कचरे के डिब्बे पर चढ़कर बच्चे खेल रहे थे। उनकी देह पर मैले कुचैले कपड़े न जाने कब से पड़े थे । उनके लिए यह सिर्फ खेल भर नहीं था । खेल के साथ साथ वे अपनी जरूरत की चीजें भी वहां ढूँढ़ रहे थे।उसने गौर से देखा ...एक बच्चा ब्

सुबह सवेरे अखबार में प्रकाशित कहानी: रेस्तरां से लौटते हुए

छुट्टी का  दिन था । वीकली ऑफ । उनके लिए छुट्टी का दिन याने मौज मस्ती का दिन। खाना पीना घूमना ।  एक ने कहा 'चौपाल जायेंगे , वहां लंच लेंगे ।'  'नहीं यार चौपाल नहीं , आज नारियल नेशन जायेंगे ।' - दूसरे ने झट से उसकी बात काटते हुए कह दिया  । दोनों की बातें सुनकर तीसरे ने हँसते हुए कहा 'तुम लोग भी न..... वही घिसी पिटी जगह ! अरे जीवन में जायका बदलने की भी सोचो , किसी नयी जगह की बात करो , ये क्या उसी जगह बार बार जाना ।'  तीसरे की बात सुनकर दोनों हक्का बक्का उसकी ओर देखने लगे थे ।उन दोनों को लगा कि यह सच बोल रहा है । पर  पहले ने बदलाव शब्द सुनकर आहें भरी और कहने लगा .... हमारे जीवन में बदलाव कहाँ है दोस्त ! वही रोज रोज का घिसा पिटा काम । सुबह हुई नहीं कि बीबी को नींद से जगाओ, टिफिन तैयार करवाने के लिए कहो। फिर बाथ रूम में जाकर हबड़ तबड़ नहाकर निकलो । कपड़े पहनो और भाग लो कम्पनी की बस पकड़ने। यार अब तो लगता है जैसे इसी रूटीन पर चलते चलते जिन्दगी के ऊपर जंग की एक परत जम गयी है । यह सब कहते कहते उसके चेहरे से नीरसता का भाव टपक पड़ा ।  दूसरा ज्यादा सोचता नहीं था । मानो उसकी सोच

कहानीकार रमेश शर्मा की कहानी : बड़प्पन

नवभारत मध्यप्रदेश सृजन अंक समस्त एडिशन वह दिसम्बर की एक सुबह थी जब बड़ी दीदिया ने अचानक खबर भिजवाई कि वे आज आ रही हैं ।उनके आने की खबर पाते ही बड़ी भाभी और मझली भाभी का मुंह मुझे उतरा हुआ नज़र आने लगा । मौसम बदले पर बड़ी दीदिया को लेकर दोनों भाभियों के भीतर का मौसम कभी खुशगवार न हो सका ।   माँ के जाने के बाद बड़ी दीदिया ने मेरे लिए माँ की जगह इस तरह ले ली थी कि माँ के जाने का दुःख धीरे धीरे मेरे जीवन से तिरोहित होता गया था । फिर एक दिन आया जब बड़ी दीदिया की शादी हुई और वे मुझे छोड़कर अपने  ससुराल चली गयीं । उनका जाना हमेशा मुझे मेरे जीवन से माँ के चले जाने का एहसास कराता रहा । बड़ी दीदिया की बात ही कुछ और है ...वे तो बहुत कम उम्र में ही बड़ी हो गयी थीं । इतनी बड़ी कि हम उनके बड़प्पन का पीछा करते हुए जीवन में बहुत पीछे रह गए । इतने पीछे कि बस आज तक उनका पीछा ही कर रहे हैं ।   'क्या बड़ी दीदी का दिल दुनिया में इतना बड़ा है कि किसी और का दिल उससे बड़ा हो ही नहीं सकता ?' आज शेल्फ में किताबें ढूँढ़ते ढूँढ़ते पुराने नोट बुक में मेरा खुद का लिखा कुछ ऐसा मिल गया कि लगा  जैसे मैं उन शब्दों को पहली बार

जीवन से विदा लेती ध्वनि : रमेश शर्मा की कहानी

1 अक्टूबर 2023 देशबन्धु के समस्त एडिशन में रविवारीय साहित्य पृष्ठ पर रमेश शर्मा की लिखी कहानी "जीवन से विदा लेती ध्वनि" प्रकाशित हुई है। यह कहानी भूलवश उमाकांत मालवीय के नाम से देशबन्धु न्यूज पोर्टल में प्रकाशित हो गयी है। लेखक द्वारा संपादक के संज्ञान में लाये जाने पर उन्होंने ई पेपर में इसे ठीक कर दिया है। कहानी : जीवन से विदा लेती ध्वनि ----------------------------------- ■ रमेश शर्मा    देशबन्धु 2.10.2023 अंक में भूल सुधार 'बाबू जी धीरे चलना... प्यार में ज़रा संभलना....!'  वह जिस शख़्स के पीछे सड़क पर चल रहा था उसके सेल फोन में उस वक्त यह फिल्मी गीत बज रहा था । यूं तो इस धुन को उसने पहले भी सुन रखा था पर इसे उस शख़्स के पीछे चलते हुए उस वक्त सुनना न जाने क्यों आज उसे अच्छा लगने लगा । उसे हमेशा लगता कि  हर चीज की एक नियत जगह होती है दुनियां में,  और उस नियत  जगह पर उस चीज की खूबसूरती अपने आप बढ़ जाती है । सुबह का यह समय रायगढ़ की गज़मार पहाड़ी के नीचे घूमती हुई चिकनी सडकों पर चलते हुए यूं भी कितना खूबसूरत हो जाया करता है। इस समय में इस धुन को सुनते हुए लगा उसे  कि कुछ चीजे

रमेश शर्मा की कहानी : 'अपने अपने हिस्से का गाँव'

  रमेश शर्मा की कहानी : 'अपने अपने हिस्से का गाँव' --------------------------------------------- रिटायर्ड आई.ए.एस ऑफिसर प्रताप मिश्र का ओहदा जितना बड़ा रहा है उनके जीवन की कथा उतनी ही छोटी है। प्रताप मिश्र के पिता गाँव के मालगुजार स्व.लवकुश मिश्र का एक समय गाँव में साठ एकड़ से ऊपर जमीन थी । इतनी ज्यादा जमीनों के मालिक होकर भी उनके पिता ने उन्हें सिविल सर्विस की नौकरी की तैयारी के सिलसिले में जब शहर भेजा तो उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि एक दिन उनका बेटा शहर का होकर ही रह जाएगा । पिताओं के सपने बड़े होते हैं पर वे बड़े सपने सच होकर एक दिन पिता और बेटों के बीच दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं । सिविल सर्विस की तैयारी करते-करते शहर में उनके तीन साल कब गुजर गए उन्हें पता ही नहीं चला । तीन साल बाद दूसरे अटेम्प्ट में जब सिविल सर्विस के तहत उनकी पोस्टिंग हुई तो उन्हें ओड़िसा के भुवनेश्वर जैसे बड़े शहर में काम करने का अवसर मिला। काम तो पता नहीं उन्होंने क्या किया , पर इस अवसर को उन्होंने भुनाया खूब ! फिर ओड़िसा के कई शहरों में घूमते-घामते आईएएस की नौकरी में ठाट से उनके दिन निकलते चले गए । समय बदल