जब किसी मुद्रित कहानी पर फिल्म बनती है और वह पर्दे पर आकार लेती है तो मुद्रित कहानी और फिल्म में बदलाव अवश्यंभावी हो जाता है ।कहानी पाठकीय मनोभावों और वैचारिक जरूरतों के मद्देनजर लिखी जाती है जिस पर लेखक का एकाधिकार होता है पर जब वही कहानी फिल्म का आकार ग्रहण करती है तो उसे बाजार की जरूरतों के अनुसार अपने भीतर बहुत कुछ समाहित करना होता है । कहानी का शीर्षक 'दो बहनें' से पटाखा में बदल जाने की घटना को भी हम इसी संदर्भ में देख सकते हैं । राजस्थान के मित्र चरण सिंह पथिक जी की कहानी जो छह सात वर्ष पूर्व समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशित हुई थी ,उस पढ़ी हुई कहानी के अंश अभी भी जेहन में हैं और जब इस फिल्म को देखकर लौटना हुआ तो कहानी और फिल्म में हुए आंशिक बदलाव को भी देखने समझने का अवसर हाथ लगा। करीब 25-30 साल पहले जब प्रेमचंद की कहानियों पर किरदार और तहरीर जैसे सीरियल के रूप में लघु फिल्म बने और उनका दूरदर्शन पर प्रसारण किया गया तब भी उन्हें बहुत गौर से मैंने देखा था। चूँकि वे छोटे-छोटे आधे घण्टे की फ़िल्म हुआ करती थीं और बाजार की जरूरतों के बजाए दर्शकों की वैचारिक जरूरतों पर अधिक ध्