जीवन के पूर्वाद्ध में घटी अच्छी बुरी घटनाओं से मुक्ति और नए रास्तों के पुनर सृजन का संदेश : गोविंद निहलानी की फ़िल्म दृष्टि
बहुत दिनों बाद 1990 में बनी गोविंद निहलानी की फ़िल्म "दृष्टि" दोबारा देखी। इस फ़िल्म को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भी मिला हुआ है । डिम्पल कपाड़िया और शेखर कपूर के किरदार, विवाह बन्धनों में बंधे मध्यवर्गीय भारतीय स्त्री-पुरूषों के जीवन की कहानियों को ही साफगोई से अभिब्यक्त करते हैं । स्त्री पुरूषों के पारिवारिक जीवन में घटित हो रही हर घटना/परिघटना को सही नजरिए और खुलेपन के साथ देख पाने की दृष्टि पर केंद्रित यह फ़िल्म वैवाहिक जीवन के एक विमर्श की तरह भी है जो मनुष्य की भीतरी दुनियाँ का खाका भी खींचकर सामने रखती है। स्त्री पुरुष के वैवाहिक जीवन में न जाने कितने उतार-चढ़ाव, अच्छे बुरे दिन आते जाते रहते हैं। संबंधों को बचाए रखने के लिए न जाने कितने समझौते करने पड़ते हैं।लड़ाई झगड़े ,प्रेम मोहब्बत , नोंक झोंक , मस्ती यायावरी जैसी न जाने कितनी बातें जीवन में होती हैं। ये सब जीवन के विविध रंग हैं जिनसे मिलकर जीवन आकार ग्रहण करता है। कोई भी फिल्म देखिये तो जीवन के इतने सारे रंगों में से कुछ न कुछ रंग फिल्म के भीतर दिखाई पड़ जाते हैं । दृष्टि फ़िल्म में भी स्त्री पुरुष के वैवाहिक जीवन से जु