सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अक्तूबर, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

30 अक्टूबर पुण्यतिथि पर डॉ राजू पांडे को याद कर रहे हैं बसंत राघव "सत्यान्वेषी राजू पांडेय के नहीं होने का मतलब"

डॉक्टर राजू पांडेय शेम शेम मीडिया, बिकाऊ मीडिया, नचनिया मीडिया,छी मीडिया, गोदी मीडिया  इत्यादि इत्यादि विशेषणों से संबोधित होने वाली मीडिया को लेकर चारों तरफ एक शोर है , लेकिन यह वाकया पूरी तरह सच है ऐसा कहना भी उचित नहीं लगता ।  मुकेश भारद्वाज जनसत्ता, राजीव रंजन श्रीवास्तव देशबन्धु , सुनील कुमार दैनिक छत्तीसगढ़ ,सुभाष राय जनसंदेश टाइम्स जैसे नामी गिरामी संपादक भी आज मौजूद हैं जो राजू पांंडेय को प्रमुखता से बतौर कॉलमिस्ट अपने अखबारों में जगह देते रहे हैं। उनकी पत्रकारिता जन सरोकारिता और निष्पक्षता से परिपूर्ण रही है।  आज धर्म  अफीम की तरह बाँटी जा रही है। मेन मुद्दों से आम जनता का ध्यान हटाकर, उसे मशीनीकृत किया जा रहा है। वर्तमान परिपेक्ष्य में राजनीतिक अधिकारों, नागरिक आजादी और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के क्षेत्र में गिरावट महसूस की जा रही है। राजू पांंडेय का मानना था कि " आज तंत्र डेमोक्रेसी  इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी में तब्दील हो चुकी है ,जहां असहमति और आलोचना को बर्दाश्त नहीं किया जाता और इसे राष्ट्र विरोधी गतिविधि की संज्ञा दी जाती है।" स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि व्याधियो

कहानीकार रमेश शर्मा की कहानी : बड़प्पन

नवभारत मध्यप्रदेश सृजन अंक समस्त एडिशन वह दिसम्बर की एक सुबह थी जब बड़ी दीदिया ने अचानक खबर भिजवाई कि वे आज आ रही हैं ।उनके आने की खबर पाते ही बड़ी भाभी और मझली भाभी का मुंह मुझे उतरा हुआ नज़र आने लगा । मौसम बदले पर बड़ी दीदिया को लेकर दोनों भाभियों के भीतर का मौसम कभी खुशगवार न हो सका ।   माँ के जाने के बाद बड़ी दीदिया ने मेरे लिए माँ की जगह इस तरह ले ली थी कि माँ के जाने का दुःख धीरे धीरे मेरे जीवन से तिरोहित होता गया था । फिर एक दिन आया जब बड़ी दीदिया की शादी हुई और वे मुझे छोड़कर अपने  ससुराल चली गयीं । उनका जाना हमेशा मुझे मेरे जीवन से माँ के चले जाने का एहसास कराता रहा । बड़ी दीदिया की बात ही कुछ और है ...वे तो बहुत कम उम्र में ही बड़ी हो गयी थीं । इतनी बड़ी कि हम उनके बड़प्पन का पीछा करते हुए जीवन में बहुत पीछे रह गए । इतने पीछे कि बस आज तक उनका पीछा ही कर रहे हैं ।   'क्या बड़ी दीदी का दिल दुनिया में इतना बड़ा है कि किसी और का दिल उससे बड़ा हो ही नहीं सकता ?' आज शेल्फ में किताबें ढूँढ़ते ढूँढ़ते पुराने नोट बुक में मेरा खुद का लिखा कुछ ऐसा मिल गया कि लगा  जैसे मैं उन शब्दों को पहली बार

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विचारों का उजाला इन्हीं आलेखों के माध्यम से लोगों को रास्ता दिखाने का आज एक म

जीवन से विदा लेती ध्वनि : रमेश शर्मा की कहानी

1 अक्टूबर 2023 देशबन्धु के समस्त एडिशन में रविवारीय साहित्य पृष्ठ पर रमेश शर्मा की लिखी कहानी "जीवन से विदा लेती ध्वनि" प्रकाशित हुई है। यह कहानी भूलवश उमाकांत मालवीय के नाम से देशबन्धु न्यूज पोर्टल में प्रकाशित हो गयी है। लेखक द्वारा संपादक के संज्ञान में लाये जाने पर उन्होंने ई पेपर में इसे ठीक कर दिया है। कहानी : जीवन से विदा लेती ध्वनि ----------------------------------- ■ रमेश शर्मा    देशबन्धु 2.10.2023 अंक में भूल सुधार 'बाबू जी धीरे चलना... प्यार में ज़रा संभलना....!'  वह जिस शख़्स के पीछे सड़क पर चल रहा था उसके सेल फोन में उस वक्त यह फिल्मी गीत बज रहा था । यूं तो इस धुन को उसने पहले भी सुन रखा था पर इसे उस शख़्स के पीछे चलते हुए उस वक्त सुनना न जाने क्यों आज उसे अच्छा लगने लगा । उसे हमेशा लगता कि  हर चीज की एक नियत जगह होती है दुनियां में,  और उस नियत  जगह पर उस चीज की खूबसूरती अपने आप बढ़ जाती है । सुबह का यह समय रायगढ़ की गज़मार पहाड़ी के नीचे घूमती हुई चिकनी सडकों पर चलते हुए यूं भी कितना खूबसूरत हो जाया करता है। इस समय में इस धुन को सुनते हुए लगा उसे  कि कुछ चीजे