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जीवन से विदा लेती ध्वनि : रमेश शर्मा की कहानी

1 अक्टूबर 2023 देशबन्धु के समस्त एडिशन में रविवारीय साहित्य पृष्ठ पर रमेश शर्मा की लिखी कहानी "जीवन से विदा लेती ध्वनि" प्रकाशित हुई है। यह कहानी भूलवश उमाकांत मालवीय के नाम से देशबन्धु न्यूज पोर्टल में प्रकाशित हो गयी है। लेखक द्वारा संपादक के संज्ञान में लाये जाने पर उन्होंने ई पेपर में इसे ठीक कर दिया है।

कहानी : जीवन से विदा लेती ध्वनि

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■ रमेश शर्मा   


देशबन्धु 2.10.2023 अंक में भूल सुधार

'बाबू जी धीरे चलना... प्यार में ज़रा संभलना....!'  वह जिस शख़्स के पीछे सड़क पर चल रहा था उसके सेल फोन में उस वक्त यह फिल्मी गीत बज रहा था । यूं तो इस धुन को उसने पहले भी सुन रखा था पर इसे उस शख़्स के पीछे चलते हुए उस वक्त सुनना न जाने क्यों आज उसे अच्छा लगने लगा । उसे हमेशा लगता कि  हर चीज की एक नियत जगह होती है दुनियां में,  और उस नियत  जगह पर उस चीज की खूबसूरती अपने आप बढ़ जाती है । सुबह का यह समय रायगढ़ की गज़मार पहाड़ी के नीचे घूमती हुई चिकनी सडकों पर चलते हुए यूं भी कितना खूबसूरत हो जाया करता है। इस समय में इस धुन को सुनते हुए लगा उसे  कि कुछ चीजें अपनी जगह अपने आप ढूँढ लेती हैं ! अगर हम उन्हें उनकी सही जगहों पर पा सकें तो कितना शुकून मिलता है । इस फ़िल्मी धुन को सुनने की खातिर ही उसने आगे जा रहे  उस शख्श के कदमों की रफ़्तार के साथ अपने कदमों की रफ़्तार को संयोजित करने का भरपूर प्रयास किया । कदमों को संयोजित करने की कोशिश में उसे बहुत सी बातें याद आने लगीं।  

" एडजेस्टमेंट करना तो कोई तुमसे सीखे सियो !" निया ने एक बार उससे सीरियस होकर कहा था । उसका एडजेस्टमेंट शब्द पर इतना जोर था कि वह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर वह कहना क्या चाहती है ? उसने निया से जिरह करना मुनासिब नहीं समझा कि आखिर उसे इस शब्द से आपत्ति क्यों है। इस तरह जिरह न करना भी उसकी परिस्थिति  के मुताबिक एक किस्म का एडजेस्टमेंट ही था।

एक बार सामान्य सी बातचीत के दौरान उसने उससे पूछा था - "मुक्ति का रास्ता कठिन क्यों होता है निया ? इतना कठिन कि हम हर जगह एडजेस्टमेंट करने को मजबूर हो जाते हैं । एक ही रास्ता बचता है हमारे पास, दुनियां में अपने कदमों को गतिशील रखना है तो खुद को भीतर से बदल डालो ।"


उसकी बातें सुनकर अचानक निया का चेहरा एक किताब की शक्ल का होने लगा था । एक ऐसी किताब जिसमें जीवन में मिले कठोर अनुभवों की कहानियां पढ़ी जा सकें ।

"मैं ऐसा नहीं मानती सियो !  हर जगह एडजेस्टमेंट करना सबके लिए संभव नहीं ।मेरे लिए तो बिल्कुल भी नहीं । 

इस तरह तो मुझे कभी मुक्ति नहीं चाहिए । चलो मान लिया कि बदलाव  जीवन जीने की एक कला है।सत्ता और दुनियावी रिश्तों से एडजेस्टमेंट का एक हुनर ! यह सोचकर हम  दूसरों के अनुरूप अपने को भीतर से हर वक़्त संपादित करते रहते हैं , पर यह तो अपने आपसे धोखा  हुआ सियो ! आखिर कब तक हम सेल्फ एडिटिंग का शिकार होते रहें ? कब तक अपने को धोखे में रखें? दुनियां को खुश रखने के लिए सेल्फ एडिटिंग का बोझ आखिर कोई क्यों ढोए सियो ? 

और इस एडजेस्टमेंट शब्द को लेकर उनमें  अक्सर मतभेद हो जाया करते थे ।

वह उस वक्त सोचता रहा .... क्या एडजेस्टमेंट की भी अपनी कोई खूबसूरत और रचनात्मक जगह होती है ? 

शायद होती हो, शायद नहीं भी ! पर अब तक उसने जो देखा समझा था, उससे तो यही लगा था उसे कि एडजेस्टमेंट की कोई सुन्दर जगह नहीं होती । आदमी अनिच्छा से, लालच से या  मजबूरी में एडजेस्टमेंट करता रहता है । जीवन भर । उसकी तरह। नौकरी की खातिर । नौकरी बचाने के लिए । 

उसे लगता है प्राइवेट संस्थान में काम करते हुए अगर वह एडजेस्टमेंट न करे तो उसकी नौकरी कभी भी चली जाए | सत्ता के सुर में सुर न मिलाने की वजह से कई मीडिया कर्मियों को उनके मालिक नौकरी से निकाल चुके थे। यह सब आज भी वह अपनी नंगी आँखों से देख रहा है । यह सोचकर ही उसके भीतर डर की एक चिड़िया आकर बैठ गयी थी ।

सामने चल रहा शख़्स अपने ही धुन में चला जा रहा था । सर्दियों का मौसम था । पुमा के स्पोर्ट्स शू उस शख़्स के पांवों के फिटनेस को जहां चुस्त दुरुस्त किये हुए थे वहीं उसने अपनी देह पर एक पश्मीने का शाल ओढ़ रखा था । चीजें उसके ऊपर कितना तो फब रही थीं । उसे फिर से महसूस हुआ कि हर चीज का अपनी सही जगहों पर होना भी कितना जरूरी है । दुधिया कलर का शाल ओढ़े उस ब्यक्ति के पीछे पीछे चलना आज उसे दोहरा शुकून दे गया था ।

"शुकून भी कितना दुर्लभ हो गया है जीवन में ।" - शुकून मिलने के इस दुर्लभ अनुभव ने चलते चलते उसके मन को इस  एहसास से भी भर दिया था ।

"बड़े शहर जेब कतरों की तरह होते हैं । वे हमें लुभाते हैं , चकित करते हैं और चुपके से हमारी जेब काट लेते हैं।" बाजू में चल रहे एक कस्बाई आदमी को एक दूसरे कस्बाई आदमी से यह कहते हुए उसने जब सुना तो उसके शब्दों से वह थोड़ा अचम्भित सा हुआ ।  चलते चलते वह सोचने लगा .... लोगों के पास न जाने किस-किस तरह के अनुभव होते हैं जिसे वे कितनी खूबसूरती से व्यक्त कर साझा भी कर लेते हैं । 

साझा करने की बात को लेकर उसके भीतर बहुत सी बातें फिर से आने जाने लगीं । वह सोचने लगा .... बातों का साझापन भी जीवन की कई  छोटी छोटी कहानियों को अपने साथ लेकर चलता है।

वह अपने भीतर भी कुछ टटोलने लगा । शायद कोई कहानी हो जिसे वह किसी से सुना सके । जीवन  की सारी कहानियाँ समझौतों में लिथड़ी हुईं मिलीं उसे ।

उसके मेनेजर का आदेश उसे याद आने लगा -"यह बात गाँठ बांधकर रख लो कि सत्ता के बिरूद्ध कोई टिप्पणी कहीं भी नहीं करनी किसी को । सत्ता कुमार्गी हो जाए तब भी उसकी हाँ में हाँ मिलाना , उसका सपोर्ट करना निहायत जरूरी है हमारे लिए । सबने कितनी बेशर्मी से उस दिन हाँ में हाँ मिलाया था ।

उसके बाद किस तरह उसके साथी और वह खुद भी सोशल मीडिया में सत्ता के पक्ष में माहौल बनाने के लिए ट्रोल आर्मी की भूमिका में आ गए थे ।  

यह सब कहानी वह किसे सुनाए? किस तरह साझा करे किसी से ?सुनते ही लोग थू करने लगेंगे उस पर । अचानक उसे लगा कि उसका ज़मीर मर चुका है । एक गालीबाज़ को, एक बलात्कारी को भी वह अब सही ठहराने  लगा है। उनके पक्ष में तर्क देने लगा है । सोचकर अचानक लगा उसे, जैसे  उसने अपने वजूद को ही किसी गलत जगह पर लाकर टिका दिया है । कुछ समय के लिए उसे अपने आप से घिन्न सी आने लगी ।  

आसमान में सूरज निकल चुका था । सडकों पर चहल पहल बढ़ गयी थी । उसके आगे-आगे चलने वाला शख़्स अब अपने गन्तब्य को जा चुका था । उसके जाने के साथ साथ "बाबू जी धीरे चलना, प्यार में ज़रा संभलना......" वाले गीत की ध्वनि भी उससे  विदा ले चुकी थी । उस वक्त उसके मन में कुछ इस तरह के भाव आ-जा रहे थे कि उसे लगने लगा जैसे अचानक उसके जीवन में किसी ध्वनि का इंतकाल हो चुका है ।

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