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समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग

अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तोडती है और श्वेत नागरिकों जिनके प्रति समाज में अच्छी धारणाएं हैं ,उनकी अमानवीयता को सामने लाती है ।अश्वेत महिला आलियाह का भाई कोफ़ी जो कि एक इनोसेंट सा युवा है , उसके ऊपर मिथ्या चोरी का आरोप लगाकर जिस तरह पुलिसिया अत्याचार के दृश्य कहानी में अमिता के सामने घटित होते हैं,उसके लिए वे दिल दहला देने वाले दृश्य हैं । श्वेतों द्वारा अश्वेतों के ऊपर हो रही बर्बरता को वह करीब से देखती है । रोती तडपती आलियाह का चेहरा ,जिसके पीछे पीछे चलते हुए वह अपने को सुरक्षित महसूस करती है , वह आलियाह भी इन श्वेतों के मध्य कितना निरीह है और असुरक्षित है ,उसका एहसास उसे होता है ।अश्वेत विली जिसे आते जाते वह कोई मवाली या गुंडा समझती रही, उसी विली ने उसे तब बचाया जब श्वेतों ने उस पर यौनिक आक्रमण किया । यह कहानी अपनी महीन बुनावट और अश्वेतों की बस्ती के जीवंत दृश्यों के चलते भी मुझे अच्छी लगी ।

'परदेश के पड़ोसी' कहानी अमेरिकी जीवन में ब्याप्त दो अलग मुल्कों के लोगों के बीच, पड़ोसी होकर भी संबंधों की विरलता का ऐसा सूक्ष्म चित्रण प्रस्तुत करती है कि हमें कोफ़्त सी होने लगती है । कहानी में जीवन के  अत्यंत आकर्षक और जीवंत चित्रण हैं पर लेखिका ने रिश्तों के मध्य जो रिश्तों की मृतप्राय अवस्था है उसे बड़ी बारीकी से बुनकर सामने रखने का प्रयास किया है । कहानी के अंत में ऐसा भावुक और मन को विचलित कर देने वाला दृश्य  आता है कि पड़ोसियों के मध्य रिश्तों के स्थापन को लेकर मन की बेचैनी सघन होने लगती है | यह कहानी दरअसल मन के विज्ञान की कहानी है जो मनुष्य के बीच डिरेल हो चुके रिश्तों को तकनीकी रूप से धुरी पर लाये जाने का आग्रह करती है ।दोनों अच्छी कहानियों के लिए उन्हें बधाई।

■सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत

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विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के पन्ने  पलटते-पलटते लमही पत्रिका के एक अंक में सर्वेश सिंह की कहानी रोशनियों के प्रेत पर नजर गई । मैं सर्वेश जी को नहीं जानता ,इससे पहले सर्वेश सिंह की कोई कहानी मैंने पढ़ी है या नहीं मुझे याद भी नहीं , पर इस कहानी के माध्यम से उनके भीतर के कथाकार से मेरा परिचय हुआ । बिल्कुल  नए तरीके से लिखी गई यह कहानी भीतर से बहुत बेचैन कर देती है। व्यवस्था और मानवीय पतन की पराकाष्ठा को रेखांकित करती हुई यह कहानी समाज में अपनी मानवीय संवेदना के साथ जीते हुए किसी व्यक्ति के भीतर एक डर पैदा करती है । यह डर महज कहानी की काल्पनिक घटनाओं से उपजा डर नहीं है बल्कि यह डर आज की व्यवस्था और मानवीय पतन से प्रत्यक्ष तौर पर किसी मनुष्य को अंतर संबंधित कर देने वाला डर है । किसी घटना दुर्घटना या प्राकृतिक आपदाओं के उपरांत बिछी हुई लाशों के हाथ-पैर या गला काट कर सोना चांदी रुपये-पैसे  घड़ियाँ या सोने की चैन निकाल लिए जाने की घटनाएं तो हमारे समाज में सामान्य घटनाओं में गिनी जाने लगी हैं, पर यह कहानी उससे आगे की बात करती है। देह की भूख इस समाज में रोटी की भूख से भी आगे निकल चुकी है। सुंदर स्त्री देह की प्राप्ति की कल्पना में रात दिन डूबा प्रेतों के एक नए समाज का अभ्युदय आज सर्वाधिक चिंता का बिषय है । ये प्रेत समाज /तंत्र/व्यवस्था के हर उस जगह पर विद्यमान हैं जहां से हम उजाले की उम्मीद में जीते हैं । रात के अंधेरों में इन प्रेतों की अतृप्त इच्छाएं इन्हें इस कदर हैवान बना देती हैं कि मनुष्य के रूप में  मौजूद ये जिंदा प्रेत किसी सुंदर स्त्री की लाश को भी अपनी हवस मिटाने का साधन बना लेते हैं । समाज में बलात्कार की घटनाओं की सघनता इन जिंदा प्रेतों की ही देन है । कहानी में घटनाओं के चित्रण की स्वाभाविकता भी भीतर एक खलबली पैदा करती हुई चलती है।

कहानियां तो इन दिनों बहुत लिखी जा रही हैं  और उसे निजी संबंधों के स्तर पर आलोचकीय स्वीकृति भी मिल रही है पर महज आलोचकीय स्वीकृति ही  किसी कहानी को  पठनीय नहीं बनाती पाठकीय स्वीकृति भी  किसी कहानी के लिए  अधिक जरूरी विषय है । कहानी पढ़कर लगने लगता है कि आज का मनुष्य अब जिंदा प्रेतों में बदल चुका है। बहुत हद तक यह बात सच भी लगती है।


■आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा" (परिकथा जुलाई अगस्त २०२१)

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परिकथा के अंक जुलाई अगस्त 2021 में आदित्य अभिनव की एक कहानी छिमा माई छिमा प्रकाशित हुई है। आदित्य अभिनव पहले से कहानियां लिख रहे हैं और उनकी  कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। उनकी यह कहानी पढ़ते हुए उनके भीतर के कथाकार को जानने समझने का एक अवसर भी मिलता है। दरअसल इस कहानी की अंतर्वस्तु, कहानी को पढ़ते समय जितनी सरल लगती है उस पर ठहर कर  सोचने पर उतनी ही जटिल होने लगती है। 

इलाहाबाद रह रहे प्रोफेसर चंदन  द्वारा गांव में दुर्गा मूर्ति निर्माण के लिए चंदे के रूप में  अपने संजू चाचा को मनीआर्डर के माध्यम से 1000 रुपए भेजे जाने से शुरू हुई यह कहानी उस 1000 रुपए के खर्च होने के साथ ही समाप्त होती है। रुपयों के खर्च होने के इस दरमियान कहानी कई रोचक संवादों और एक गरीब परिवार के दारुण दृश्यों को अपने साथ लेते हुए चलती है। मनीआर्डर के रुपए गिनते हुए पिता को देखकर जरूरतमंद बच्चों के भीतर की आस जागने लगती है । उन दृश्यों को कथाकार ने एक सधे हुए अंदाज में सघन मानवीय संवेदना  के साथ जिस तरह बुना है,  पाठक को स्वत: ही महसूस होने लगता है कि इस रुपये को दुर्गा चंदे पर खर्च होने के बजाय परिवार के जरूरतमंदों की बुनियादी आवश्यकताओं पर ही खर्च हो जाना चाहिए। इन बुनियादी जरूरतों में जहां बीमार मां को दवाइयों के साथ पाव भर  दूध चाहिए, वहीं बच्चों को चिथड़े हो चुके कपड़ों की जगह  तन ढकने को नए कपड़े और पढ़ने को किताबें चाहिए।

पैसे उन्हीं जरूरतों पर खर्च होते हैं और थोड़े बहुत जो बचते हैं, संजू उसे आत्म संतोष में  अपने नशे पर खर्च कर जाता है।

अंततः नशे में जब उसे ध्यान आता है कि उसने दुर्गा मूर्ति के लिए भेजे गए चंदे के पैसे को परिवार की जरूरतों पर खर्च कर दिए हैं तो वह अपराध बोध से ग्रसित होने लगता है  और निर्माणाधीन दुर्गा मां की मूर्ति के सामने जाकर बार-बार क्षमा मांगता है। 

ये बच्चे तेरे ही रूप हैं मां ! बीमार माई तेरा ही हिस्सा है मां

छिमा माई छिमा।

कहानी के क्लाइमेक्स पर यह दृश्य मन को झकझोरता है ।

गरीब बच्चों का एक मजबूर बाप और एक बीमार मां का मजबूर बेटा संजू के भीतर मजबूरी वश रुपए खर्च कर लेने का जो अपराध बोध जन्मता है,  इस क्षमा में वह अपराध धुलने लगता है। कहानी एक बड़ा संदेश देती हुई खत्म होती  है कि धर्म कर्म  के नाम पर जितने गैर जरूरी खर्चे समाज में प्रचलित हैं उनसे अभावग्रस्त जरूरतमंद लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हो सकती  हैं ।

छोटी-छोटी घटनाओं को रोचक संवादों के माध्यम से ठेठ देशज भाषा में सघन बुनावट के साथ प्रस्तुत करना किसी कथाकार के लिए एक चुनौती भरा काम है और इस चुनौती का निर्वहन आदित्य अभिनव ने ठीक ढंग से किया है। अभिनव के पास कहानी को प्रस्तुत करने की अपनी एक मौलिक शैली भी है जिसमें कोई भाषाई या शिल्प की जटिलता नहीं है । इसलिए एक फ्लो में बहती कहानी की पठनीयता को लेकर मन  में कहीं कोई रुकावट महसूस नहीं होती।

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रमेश शर्मा

टिप्पणियाँ

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