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हान कांग को साहित्य का नोबल पुरस्कार और विजय शर्मा का आलेख बुकर साहित्य और शाकाहार

कोरिया की सबसे बडी और मशहूर किताब की दुकान का नाम है "क्योबो" जिसमें तेईस लाख किताबें सजी रहती हैं। इस पुस्तक भंडार की हर दीवार पर किताबें सजी हैं, लेकिन एक दीवार दशकों से सूनी है। उस पर टंगे बोर्ड पर लिखा है "साहित्य के नोबेल विजेता कोरियाई लेखक के लिये आरक्षित"। आज उस बोर्ड का सूनापन दूर हुआ है। कोरियाई साहित्य प्रेमियों की उस इच्छा को वहां की लेखिका हान कांग ने आज पूरा किया है। इस वर्ष 2024 में साहित्य का नोबल पुरस्कार कोरिया की उपन्यासकार हान कान्ग को मिला है। जब उन्हें 2015 में बुकर पुरस्कार मिला था तो उन पर प्रख्यात लेखिका विजय शर्मा ने एक महत्वपूर्ण आलेख लिखा था। उस आलेख को आज उन्होंने सोशल मीडिया पर साझा किया है। इस आलेख को पढ़कर कोरियाई उपन्यासकार  हान कान्ग  के लेखन के सम्बंध में हमें बहुत कुछ जानने समझने के अवसर  मिलते हैं। उनका आलेख यहाँ नीचे संलग्न है- बुकर, साहित्य और शाकाहार विजय शर्मा इस साल 2015का मैन बुकर इंटरनेशनल पुरस्कार कोरिया की उपन्यासकार हान कान्ग को मिला है। यह पुरस्कार उन्हें उनके उपन्यास ‘द वेजीटेरियन’ के इंग्लिश अनुवाद के लिए मिला है। असल...

क्या गांधी कोई राजनीतिज्ञ हैं?

यूथ और गांधी के बीच का राजनैतिक परिदृश्य यूथ को गांधी के निकट ले जाने की कोशिश के किसी भी उपक्रम में विभिन्न दिशाओं से  यह सवाल खड़ा होने लगता है कि गांधी राजनीतिज्ञ हैं या नहीं? यूथ को गांधी से आखिर किस तरह जोड़ा जा सकता है? राजनीति कोई अस्पृश्य बिषय नहीं है । कोई दो राय नहीं कि विचारों के दायरे में हर आदमी राजनीति की परिधि से बाहर भी नहीं है। जो कोई मतदान करने जाता है , किसी न किसी दल को अपना समर्थन देता ही है। यहां यह समझना होगा कि उसका समर्थन कई बार परिस्थिति जन्य होता है। लोकहित में, जिसे वह उचित समझता है उस वक्त समर्थन कर देता है। उसकी पक्षधरता यहां किसी राजनीतिक खांचे में कैद न होकर अपने विचारों के भीतर कैद होती है। किसी व्यक्ति के इस आचरण को राजनीति के दायरे में लाकर परिभाषित करना न्यायसंगत होगा, मुझे ऐसा नहीं लगता। व्यक्तिवादी राजनीति की परिभाषा उस जगह अधिक सुसंगत लगती है जब व्यक्ति अपने विचारों की कैद से मुक्त होकर या अपने स्वयं के विचारों से मुक्त होकर एक पक्ष तय करके दृढ़ता से खड़ा नज़र आता है। आम आदमी जो चेतना और विवेक के स्तर पर अपनी जगह दृढ़ है , उसकी पहली प्राथमिकता राजनी...

गांधी दर्शन युवा पीढ़ी तक कैसे पहुँचे

  साहित्य की आँखों से गांधी दर्शन को समझना   --  रमेश शर्मा  ---------------------------------------------- गांधी के जीवन दर्शन को लेकर जब भी बातचीत होती है तो हम उसे बहुत सैद्धांतिक, परम्परागत और सतही तरीके से आज की पीढ़ी तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं । और बात चूंकि बहुत सैद्धांतिक और परम्परागत होती है, इसलिए आज की पीढ़ी उसे उस तरह आत्मसात नहीं करती जिस तरह से उसे किया जाना चाहिए ।   दरअसल गांधी के जीवन दर्शन को लेकर सैद्धांतिक और किताबी चर्चा न करके अगर हम उनकी जीवन शैली को लेकर थोड़ी प्रेक्टिकल बातचीत करें तो मेरा अपना मानना है कि उनके जीवन दर्शन को नयी पीढ़ी तक हम थोड़ा ठीक ढंग से संप्रेषित कर पाएंगे।   गांधी जी की जीवन शैली की मुख्य मुख्य बातों को भी हमें ठीक ढंग से समझना होगा। दरअसल गांधी दर्शन का जिक्र जब भी होता है तो सत्य, अहिंसा, करूणा, दया, प्रेम, त्याग, धार्मिक-सौहाद्र इत्यादि जो बातें हैं वो उठने लगती हैं । इन बातों पर जब हमारी नजर जाती है तो हमें लगता है कि गांधी जी बहुत आदर्शवादी थे और उनके आदर्श को आत्मसात कर पाना संभव नहीं है । जबकि ऐसा...

ग्राम उत्थान, सामाजिक समरसता,लोकचेतना और गांधी जी का शिक्षा दर्शन

गांधी जी के शैक्षिक दर्शन में जाने से पूर्व उनके मूल दर्शन को समझने की कोशिश  करें तो यह बात स्पष्ट होती है कि उनका उद्देश्य अंग्रेजों की राजनैतिक दासता से मुक्ति के साथ साथ स्वतंत्रता के उपरान्त देशज परम्पराओं का नवीनीकरण करते हुए शैक्षिक , नैतिक , आर्थिक ,आध्यात्मिक स्तर पर भी देश को प्रगति के पथ पर ले जाना था, इसके केंद्र में ग्राम उत्थान उनका प्रमुक्ष ध्येय था। स्वतंत्रता आन्दोलन के समूचे इतिहास पर नजर डालें और उसका एक सम्यक विवेचन करें तो यह बात ध्यातब्य है कि जहां अन्य लोग हिंसा /अहिंसा किसी भी  साधन के माध्यम से जहां केवल और केवल अंग्रेजों से स्वतंत्रता चाहते थे वहीं गांधी की दृष्टि उनसे कहीं ब्यापक थी । वे स्वतंत्रता के साथ साथ उस स्वतंत्रता के मूल्यों की रक्षा हेतु लोकसमाज में शैक्षिक , नैतिक , आर्थिक ,आध्यात्मिक स्तर पर एक पूर्व तैयारी भी चाहते थे ताकि देश में जब पुनर्सृजन की कहानी लिखी जाए तो ये पूर्व तैयारियां देश की उन्नति के लिए लिखी गई उस कहानी को पुख्ता करें । उनकी यह दृष्टि ही उन्हें दूसरों से अलग करती है। गांधी इस बात को जानते थे कि किसी भी देश और उसकी समाज ब...

शिक्षा, समाज, साहित्य और बच्चा : समग्रता में देखने के लिए स्वस्थ नज़रिए की ज़रूरत【4 नवम्बर 2023, दैनिक क्रांतिकारी संकेत में प्रकाशित आलेख】

  ■समाज की नज़र से बच्चों को देखने का नज़रिया कितना सही ■हिंदी कहानियों के जरिये एक जरुरी विमर्श की कोशिश --------------------------------------------------------------------- समाज की नजर में बच्चा कौन है ? उसे कैसा होना चाहिए ?जब इस तरह के सवालों पर बहुत गहराई में जाकर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है तो इसका जवाब बहुत आसानी से हमें नहीं मिलता । सीधे तौर पर तो कतई नहीं कि हम किसी किताब में इसका कोई बना बनाया जवाब ढूँढ लें । आम तौर पर बच्चे की प्रतिछवि आम लोगों के मनो मष्तिष्क में जन्म से लेकर चौदह साल तक की छोटी उम्र से अंतर्संबंधित होकर ही बनती है । इसका अर्थ यह हुआ कि बच्चे का सम्बन्ध सीधे सीधे उसकी छोटी उम्र से होता है । यह धारणा आदिकाल से पुष्ट होती चली भी आ रही है । "समाज की नजर में बच्चा" को लेकर मेरा यह जो विमर्श है दरअसल आदिकाल से चली आ रही इसी धारणा को जीवन की कसौटी पर परीक्षण किए जाने के इर्द गिर्द ही केन्द्रित है । इस परीक्षण की प्रविधियां क्या हों? कि इसे  बेहतर तरीके से समझा जा सके, यह भी एक गम्भीर प्रश्न है जो हमारे साथ साथ चलता है । इस सवाल का जवाब कुछ हद तक हिंदी ...

कस्बों, गांवों में जन्मी स्वयंभू कवियों की नई फौज और कविता की अनुपस्थिति

चित्र : नगर निगम रायगढ़ ऑडिटोरियम से साभार त्योहारों के आते ही कस्बों, गांवों की गलियों में कवियों की नई फौज तैयार होने लगती है। यही वह मौसम होता है जब इनकी डिमांड बढ़ने लगती है। मौसम के अनुरूप कवियों की यह नई उपज लगातार अपने लिए इन्हीं अवसरों, जगहों की तलाश में भी लगी हुई दिखाई पड़ती है। ये टोली प्रतीक्षा में भी रहती है कि कहीं से कोई बुलावा आए तो वहां चलें।बुलावे पर पूरी टोली वहां उतर जाती है। कविता को फुलझड़ियों की तरह छोड़ना इनका शगल होता है। खूब चिल्ला चिल्ला कर एक ही पंक्ति को बार बार दोहराते हुए इन्हें सुना जा सकता है।कई बार कविता की एक एक पंक्ति को बहुत तेज आवाज में किसी आचार्य की तरह श्रोताओं को समझाने की कोशिश करते हुए भी इन्हें मंच पर देखा जा सकता है। स्वयं अपने श्रोताओं से ताली बजाने का आग्रह करते हुए भी इन्हें कोई संकोच करते हुए कभी देखा नहीं गया है। कविता के नाम पर सब कुछ होता है पर दुर्भाग्य यह है कि कविता ही वहां अनुपस्थित रह जाती है । जरूरी नहीं कि जोर जोर से ताली बजाई जाए,मजे लेने के लिए वाह वाह का शोर मचाया जाए तो कविता वहां उपस्थित ही हो। कविता से वैचारिकी का गहरा संबंध ...

केलो नदी Kelo Nadi : रायगढ़ की जीवन रेखा ‘केलो’ का शोक गीत

रायगढ़ को कला , साहित्य , सांस्कृतिक सभ्यता और ओद्योगिक स्थापना इत्यादि किन्हीं भी क्षेत्रों में जिन भी प्रतीकों के माध्यम से अब तक हम जानते-समझते रहे हों , अगर उन प्रतीकों में रायगढ़ की जीवन रेखा कही जाने वाली केलो नदी हमसे कहीं छूट रही हो तो समझिये कि हमसे बहुत कुछ छूट सा रहा है ।   जबकि आदि काल से देश दुनियाँ में नामचीन जगहों की पहचान उन क्षेत्रों में बहने वाली नदियों से ही अक्सर हुआ करती रही है , ऐसे में रायगढ़ शहर अपने परिचय की इस सांस्कृतिक परम्परा से भला कैसे बाहर हो सकता है ? प्रयागराज का जिक्र होते ही जिस तरह गंगा नदी हमारी चेतना में बह उठती है,  बिलासपुर का नाम लेते ही अरपा नदी हमारी स्मृतियों को जिस तरह छूने लगती है , जिस तरह इन्द्रावती नदी का नाम आते ही समूचा बस्तर हमारी आँखों के सामने आ जाता है , ठीक उसी तरह रायगढ़ शहर भी केलो नदी के साथ नाभिनालबद्ध है। केलो नदी रायगढ़ छत्तीसगढ़  समय के साथ सांस्कृतिक सभ्यता की अपनी इस जीवन यात्रा में आज से तीस-चालीस साल पहले जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो जिन घटकों को अपने बचपन और किशोरावस्था के बहुत करीब पाता हूँ उन गिने-चुने घट...