रायगढ़ को कला, साहित्य, सांस्कृतिक सभ्यता और ओद्योगिक स्थापना इत्यादि किन्हीं भी क्षेत्रों में जिन भी प्रतीकों के माध्यम से अब तक हम जानते-समझते रहे हों, अगर उन प्रतीकों में रायगढ़ की जीवन रेखा कही जाने वाली केलो नदी हमसे कहीं छूट रही हो तो समझिये कि हमसे बहुत कुछ छूट सा रहा है । जबकि आदि काल से देश दुनियाँ में नामचीन जगहों की पहचान उन क्षेत्रों में बहने वाली नदियों से ही अक्सर हुआ करती रही है, ऐसे में रायगढ़ शहर अपने परिचय की इस सांस्कृतिक परम्परा से भला कैसे बाहर हो सकता है ? प्रयागराज का जिक्र होते ही जिस तरह गंगा नदी हमारी चेतना में बह उठती है, बिलासपुर का नाम लेते ही अरपा नदी हमारी स्मृतियों को जिस तरह छूने लगती है , जिस तरह इन्द्रावती नदी का नाम आते ही समूचा बस्तर हमारी आँखों के सामने आ जाता है , ठीक उसी तरह रायगढ़ शहर भी केलो नदी के साथ नाभिनालबद्ध है।
केलो नदी रायगढ़ छत्तीसगढ़ |
समय के साथ सांस्कृतिक सभ्यता की अपनी इस जीवन यात्रा में आज से तीस-चालीस साल पहले जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो जिन घटकों को अपने बचपन और किशोरावस्था के बहुत करीब पाता हूँ उन गिने-चुने घटकों में केलो नदी का वह चमकदार अस्तित्व भी शामिल है। चालीस साल पहले की नदी का वह चमकदार चेहरा इतना सुंदर है कि अगर हम इसे मानवीकृत कर किसी सुन्दर स्त्री के रूप में दिखा सकें तो कोई भी नवयुवक उस चेहरे में अपनी प्रेमिका की छवि को देखना चाहेगा । लाखा और लुड़ेग के घने जंगलों की पहाड़ियों के बीच से होकर बहती केलो नदी के एकांत में समय के केनवास पर जीवन की अनेक कहानियाँ अब भी स्मृति में लिखीं गई मिलती हैं। उन कहानियों को पढ़ें तो वहां किसान मिलते हैं , ग्रामीण आदिवासी मिलते हैं , अपने मटके में जल भरकर जाती हुई ग्रामीण स्त्रियाँ मिलती हैं , उस कालखंड में हम जैसे नवयुवकों के साथ-साथ हमारे बाप-दादा और भी न जाने कितने अनगिनत पात्र मिलते हैं । तीस चालीस साल पीछे मुड़कर देखो तो नदी के साथ इन पात्रों के मानवीय रिश्तों की खूशबू आने लगती है । लुड़ेग (लैलूंगा) की हरी भरी पहाड़ियों से निकलकर लाखा होते हुए रायगढ़ शहर के बीचोंबीच आ पहुँचने वाली केलो नदी का स्वच्छ एवं मनोरम तट आज भी मेरी स्मृतियों में ज़िंदा है। मुझे याद है , इस नदी पर चांदमारी रायगढ़ के निकट बजरंग बली नामक घाट पर बचपन में स्नान करते हुए कई बार इसके जल को अंजुरी में लेकर उसे हम पी भी लिया करते थे । इस घटना से इसके जल की तत्कालीन स्वच्छता का आकलन खुद-बखुद हो जाता है।आज जब इन्हें याद करते हुए चालीस साल पुरानी बातें कहने-सुनाने का समय है तो परिस्थितियाँ बहुत बदल चुकी हैं । लुड़ेग या लाखा की पहाड़ियों में न वो घनी पहाड़ियां बची हैं न वो केलो नदी का मूल स्वरूप बचा है। वह समूचा क्षेत्र अब ओद्योगिक क्षेत्र में तब्दील हो चुका है । जब कोई नदी किसी ओद्योगिक क्षेत्र की जद में आती है तो सबसे पहले नदी और मनुष्य के मानवीय संबंधों में प्रतिघात होता है । जिस नदी को कभी हम प्यार से दुलारते थे उसके जल का आचमन तक कर लिया करते थे , अब वह हमारा ध्यान तक नहीं खींच पाती । उसकी सुन्दरता को हमारी निजी और स्वार्थपूर्ण जरूरतों ने विद्रूप कर दिया है । आज जब कभी केलो का तट या उसके ऊपर बनी पुल से होकर गुजरता हूँ तो वह बहुत जर्जर और बूढ़ी लगती है । जल की धाराएं इतनी पतली हो गईं हैं जैसे अब-तब सूख पड़ेंगी । दोनों किनारा गन्दगी से इतना भरा पड़ा है कि वहां पाँव रखने का मन अब नहीं होता । यद्यपि अब भी शहर के मध्य बेलादुला और जूटमिल स्थित कयाघाट मोहल्ले की एक बड़ी आबादी अपने दैनिक जीवन की समस्त निस्तारी के लिए केलो पर ही निर्भर है पर उनकी यह निस्तारी , उन्हें नदी से उस तरह नहीं जोड़ती कि उस जुड़ाव में नदी को संरक्षित करने का भाव हो। अब तो आलम यह है कि उद्योग और शहर का समस्त प्रदूषित जल केलो मैय्या की धार में मिला दिया जाता है और लोग उफ्फ तक नहीं करते । लाखा के पास केलो डेम बन गया है जो महज पिकनिक स्पॉट के रूप में चिन्हित है , जहां लोग यदा कदा पहुँचते हैं और अंततः जल को प्रदूषित करने की दिशा में अपनी भूमिका तय कर आते हैं । कई वर्षों बाद भी डेम पर अब तक नहर नहीं बने इसलिए डेम का पानी फसलों के लिए अब भी काम में नहीं आ रहा , इसलिए एक तरह से केलो का रिश्ता किसानों से उस तरह नहीं रह गया जैसा किसी जमाने में हुआ करता था । केलो डेम का जल उद्योगों के काम ही आ रहा है जिनका केलो नदी से कोई मानवीय रिश्ता कभी रहा ही नहीं । शहर के चांदमारी मोहल्ले के निकट बहती केलो नदी पर एक पचधारी नामक स्टॉप डेम भी बना है जहां से फिल्टर के माध्यम से शहर को पेयजल की आपूर्ति होती है , इस डेम में बड़ी मात्रा में युवक-युवतियां आज भी कभी-कभार गरमी में स्नान करने चले जाते हैं। शहर से थोड़ा बाहर नदी का यह तटीय क्षेत्र कुछ हद तक स्वच्छ है जो लोगों से उसके मानवीय रिश्तों के बचे होने का संकेत देता है।
शहर में कुछ ऐसे संगठन भी हैं जो “केलो मैय्या की आरती” के नाम पर साल में एकाध बार लोगों की भीड़ इकठ्ठा करके कोई उत्सव जैसा आयोजन करते हैं , पर ऐसे आयोजन नदी से उनके आत्मिक रिश्ते का एहसास नहीं करा पाते क्योंकि नदी को सचमुच बचाने के प्रति उनमें कोई प्रतिबद्धता नजर नहीं आती। छठ पूजा के समय में भी बिहारी समुदाय के लोगों की भारी भीड़ केलो तट पर नजर आती है पर इस भीड़ ने भी कभी नदी के दर्द को समझने की कोशिश नहीं करी । उनका सम्बन्ध बस छठ पूजा तक ही सीमित रह गया है।
देखा जाए तो नदी के साथ हमारा जो आत्मिक रिश्ता था , उस रिश्ते का क्षरण सघन रूप में हुआ है। इस रिश्ते के क्षरण के यद्यपि कई कारण हैं, पर जो मूर्त कारण है, वह बड़ी मात्रा में गाँवों के शहरीकरण का है जिस पर अब किसी का बस नहीं रहा। शहरीकरण से ही तमाम समस्याएं पैदा हुईं हैं जो नदियों के प्रदूषण का कारण बनी हैं।
इस प्रदूषण पर यद्यपि पूरी तरह काबू नहीं पाया जा
सकता पर नदी के साथ उन पुराने रिश्तों को याद करते हुए हमें इतना तो जरूर करना
चाहिए कि हम इसे अपने स्तर पर प्रदूषित न करें। विभिन्न
उत्सवों पर मूर्ति विसर्जन को नदी के बजाय उन तालाबों में या नालों में करें जो
हमारे लिए बहुत उपयोगी न हों। नदी में कूड़ा वगेरह डालने की जो हमारी आदत है उस
आदत को बदलने की हम कोशिश करें। केलो के जल को बचाने एवं उसे संरक्षण प्रदान करने के
लिए हमें नए सिरे से इस बात पर विमर्श को ले जाने की
आज जरूरत है । पारिस्थितिक तंत्र को हमारी नदियाँ ही साम्यावस्था में रख सकती हैं , इसलिए
हर शहर में अपने स्तर पर नदियों को बचाने का सामूहिक प्रयास ही एकमात्र विकल्प है। अंत
में केलो नदी पर लिखी अपनी इस कविता से मैं अपनी बात खत्म कर रहा हूँ –
केलो नदी का शोक गीत
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कल कारखानों वाले
शहर के बीचों बीच
कोई नदी
जैसे शहर का बोझ अपनी पीठ पर लादे
सरक रही है
कछुए की तरह धीरे धीरे !
रंगरूप से जुदा
अपना झुर्रियों भरा चेहरा लिए
चुपचाप खड़ी वह
जैसे अंतिम सांसे गिन रही हो
यह नदी
जो हमारे पूर्वजों की
अंतिम निशानी है
उससे होकर गुजरता
हूं जब कभी
तो लगता है
कोई नदी
जैसे टूट रही हो भीतर
ही भीतर
अपनी पीठ पर लादे किसी पुल को !
नदी के दर्द से बेखबर
देखता हूं इस शहर को
देखता हूं लदने को सजधजकर
बांए खड़ा दूसरा पुल
और तीसरा हो रहा
तैयार !
इस पर गढ़ने को अर्थ
की ऊंची मीनारें
वे कह रहे हैं
एक और पुल की जरूरत है
आयातित भीड़ के लिए !
सुनता हूं
जैसे कोई शोक गीत
बज रहा है उसके भीतर
उसकी कलकल करती आवाज
जैसे यात्रा पर गई हो
नहीं लौटने के लिए कभी
जैसे कोई थकी मांदी उदास नदी
पूछ रही हमसे
लाद तो दोगे पुल पर पुल
ले आओगे कई शहरों का बोझ ढोकर यहां
पर कहीं चल बसी मैं
दूसरी केलो
कहां से लाओगे कहो तो ?
(जगदलपुर से निकलने
वाली लेखन-सूत्र पत्रिका के अगस्त 2006-जुलाई
2007 अंक में
प्रकाशित कविता)
- रमेश शर्मा
जिंदल के आने से पूर्व केलो का पानी इतना साफ और निर्मल था कि उसे हम अपनी अंजुरी में लेकर अपनी प्यास बुझाया करते थे। बरसात के दिनों में न जाने कितनी बार उसे तैर कर पार करते थे। अब तो इसे देखकर मन अवसाद से भर जाता है। बहुत दुख होता है।
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