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जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है।

कहानीकार जैनेंद्र कुमार 

अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से जोडकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होने की कोशिश करता है । इस कहानी में लेखक ने समाज के इसी नजरिये पर सवाल खडा करने की कोशिश की है। जैनेंद्र कुमार कहानीकार होने के पूर्व एक मनोवैज्ञानिक, विचारक और बुद्धिजीवी हैं इसलिए वे मनुष्य की प्रतिष्ठा को स्थापित करने की दिशा में अपनी सोच को कहानी के भीतर ले जाते हुए दिखाई देते हैं ।

इस कहानी से उपजे कुछ प्रश्न हैं जो इस रूप में सामने आते हैं ---

1.किसी बच्चे की अभावग्रस्तता उसका बचपन छीन लेती है , वह शिक्षा की मुख्य धारा से पूरी तरह अलग होकर समय से पहले ही जीवन की आजीविका के लिए संघर्ष को मजबूर हो जाता है । उसके इस संघर्ष में समाज कहीं भी सहभागी होता नजर नहीं आता जबकि समाज को उसे स्कूल शिक्षा से जोड़ने का कोई न कोई प्रबंध करते हुए उसके बचपन को बचाने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।

2.समाज में ऐसे अभावग्रस्त बच्चों के प्रति विश्वास की कमी क्यों है कि इस कहानी के वकील साहब की तरह हम उसे अपने घर में काम पर इसलिए नहीं रख सकते कि वह  चोरी कर सकता है । हम उसे हमेशा चोर उचक्का ही क्यों समझ लेते हैं? 

3. कई बार हम ऐसे बच्चों की सहायता करने की इच्छा मन में जगाते हैं पर फिर उस इच्छा के प्रति एक उदासीनता से घिर भी जाते हैं जिसे कि इस कहानी में लेखक के मित्र द्वारा दस का नोट निकालकर उसे पुनः अपने जेब में रख लेने की घटना के माध्यम से बयाँ करने की कोशिश हुई है।

4. बच्चों का कोई अपना भाग्य नहीं होता , समाज चाहे तो ऐसे अभावग्रस्त गरीब बच्चों का भाग्य बदल सकता है।

5.हमारे आसपास की दुनियां में इस तरह के बच्चे हर जगह दीखते हैं । उन बच्चों की नजरों में यह समाज किस रूप में दृश्यमान होता होगा , उसे जानने समझने की कोशिश हम नहीं करते । उनसे एक तरह की संवादहीनता के साथ हम चीजों को एकांगी होकर देखने परखने की भूल करते हैं । इस संवादहीनता को तोड़ने के लिए स्कूली शिक्षा में कौन से विकल्प खोजे जा सकते हैं ?

किसी कहानी के माध्यम से जो प्रश्न सामने आते हैं उन प्रश्नों का समाधान कहानीकार के पास नहीं होता ।उसका समाधान तो समाज के भीतर जाकर ही खोजा जा सकता है ।यह कोई व्यक्तिगत मसला नहीं है कि  विमर्शकार से ही उसका समाधान पूछा जाए, ना यह कोई लेखन का विषय है । यह तो निरंतर एक सामूहिक विमर्श का विषय है जिसके भीतर समाज को ही उतरने की जरूरत है। जब तक समाज में सामूहिक हित का भाव उत्पन्न नहीं होगा ऐसे प्रश्नों के जवाब प्राप्त नहीं किये जा सकते। वर्षों पहले किसी कहानीकार ने इस तरह की कोई कहानी अगर लिखी है तो उस कहानी के माध्यम से समाज के भीतर जाकर हम बहुत सारी परिस्थितियों पर बातचीत कर सकते हैं और इस पर निरंतर बातचीत होते रहनी चाहिए।

■रमेश शर्मा

टिप्पणियाँ

  1. बहुत वाजिब प्रश्न हैं, गंभीरता से पढ़कर आपने टिप्पणी की है, हार्दिक बधाई

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