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हान कांग को साहित्य का नोबल पुरस्कार और विजय शर्मा का आलेख बुकर साहित्य और शाकाहार

कोरिया की सबसे बडी और मशहूर किताब की दुकान का नाम है "क्योबो" जिसमें तेईस लाख किताबें सजी रहती हैं। इस पुस्तक भंडार की हर दीवार पर किताबें सजी हैं, लेकिन एक दीवार दशकों से सूनी है। उस पर टंगे बोर्ड पर लिखा है "साहित्य के नोबेल विजेता कोरियाई लेखक के लिये आरक्षित"। आज उस बोर्ड का सूनापन दूर हुआ है। कोरियाई साहित्य प्रेमियों की उस इच्छा को वहां की लेखिका हान कांग ने आज पूरा किया है।

इस वर्ष 2024 में साहित्य का नोबल पुरस्कार कोरिया की उपन्यासकार हान कान्ग को मिला है। जब उन्हें 2015 में बुकर पुरस्कार मिला था तो उन पर प्रख्यात लेखिका विजय शर्मा ने एक महत्वपूर्ण आलेख लिखा था। उस आलेख को आज उन्होंने सोशल मीडिया पर साझा किया है। इस आलेख को पढ़कर कोरियाई उपन्यासकार  हान कान्ग के लेखन के सम्बंध में हमें बहुत कुछ जानने समझने के अवसर  मिलते हैं। उनका आलेख यहाँ नीचे संलग्न है-

बुकर, साहित्य और शाकाहार

विजय शर्मा

इस साल 2015का मैन बुकर इंटरनेशनल पुरस्कार कोरिया की उपन्यासकार हान कान्ग को मिला है। यह पुरस्कार उन्हें उनके उपन्यास ‘द वेजीटेरियन’ के इंग्लिश अनुवाद के लिए मिला है। असल में उन्होंने इसे कोरियन भाषा में लिखा है जिसका इंग्लिश अनुवाद डेबोराह स्मिथ ने किया है। अब इस पुरस्कार में कुछ परिवर्तन हुआ है, इस साल से मैन बुकर इंग्लिश में अनुवादित इंग्लैंड में प्रकाशित सर्वोत्तम कृति को दिया जाएगा।

हान कान्ग का उपन्यास पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रतिरोध में तथा समाज की अनमनीय प्रथाओं पर है, लेकिन यह शाकाहार की वकालत भी करता है। उपन्यास मनुष्य की संवेदनशीलता की बात करता है, कोमलता और निर्मलता की बात करता है। माँसाहार से हान का तात्पर्य मनुष्य की हिंसात्मक प्रवृति से है, उसकी संवेदनहीनता से है, शोषण की उसकी प्रकृति से है। असल में इस पुस्तक के बीज उन्हें कवि यी शेंग की एक कविता की पंक्ति से मिले। यह आधुनिकतावादी कवि अपनी इस कविता में कहता है कि एक मनुष्य को वनस्पति होना चाहिए। इस कविता को ले कर इस कवि की खूब आलोचना हुई थी क्योंकि इस कविता द्वारा कवि सांस्कृतिक विचारधारा से विरोध प्रकट कर रहा है। कवि के इसी विश्वास को आधार बना कर हान कान्ग ने 1997 में ‘द फ़्रूट ऑफ़ माय वुमन’ नाम से एक कहानी लिखी। इस कहानी की नायिका एक पौधे में परिवर्तित हो जाती है। ‘द वेजीटेरियन’ में वे इसे ही और अधिक ज्वलंत रूप में प्रस्तुत करती हैं। हान कान्ग के अनुसार किसी रचना को केवल सांस्कृतिक सीमाओं में रिड्यूस करके नहीं देखा जाना चाहिए। क्योंकि विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से जुड़े पाठकों तक पहुँचने के बाद किसी रचना का एक ही अर्थ नहीं रह जाता है। वे कहती हैं कि उनका उपन्यास केवल कोरिया की पितृसत्ता के लिए नहीं है, वह समस्त मानव जाति के लिए है।

सिर्फ़ भोजन के लिए किसी जानवर को मारना जबकि तमाम शाक-सब्जी उपलब्ध है। मात्र भोजन के लिए किसी खूबसूरत शरीर को क्यों नष्ट करना! किसी और ने भी पूछा है अगर आप जानवर मार सकते हैं तो मानव-भक्षण क्यों नहीं? भोजन के लिए आदमी को मारना क्यों गलत है? आदमी की माँ का माँस तो आदमी के शरीर के लिए और अधिक मुफ़ीद होगा। लेकिन हम ऐसा नहीं करते हैं क्योंकि यह संवेदनशीलता का मामला है। हान कान्ग के अनुसार भी ‘द वेजीटेरियन’ मनुष्य की मूल प्रवृति से जुड़ा प्रश्न है। यह उसकी कोमलता और निर्मलता का प्रश्न है। यह उसके दोहरे मापदंडों का प्रश्न है। माँसाहार के द्वारा वे मनुष्य की हिंसात्मक प्रवृति से अधिक संवेदनशीलता और शोषण जैसे मुद्दों को रेखांकित करना चाहती हैं। उन्होंने इसके द्वारा मानव जीवन में अबोधता की सण्भावना और असंभावना के उस शाश्वत प्रश्न को उठाया है जो सौंदर्य और हिंसा में गडमड हो गया है। यह प्रश्न किसी एक स्थान का न हो कर सार्वभौमिक मनुष्यता का है। उनके अनुसार उनका यह उपन्यास हिंसा और अद्या के इसी प्रश्न के आस-पास घूमता है।

हान कान्ग की नायिका योन्ग-हाई एक सामान्य घरेलू स्त्री है। एक दिन वह बहुत बेचैन करने वाला स्वप्न देख कर उठती है। स्वप्न में वह खुद को भयंकर जीव में बदलता देखती है। उपन्यास में नायिका अपनी बात, अपने मन में चलने वाले विचारों को अभिव्यक्त नहीं करती है वरन उसकी दशा का वर्णन तीन अन्य लोग – उसका पति, उसका बहनोई तथा उसकी बड़ी बहन करती है। वह एक बार अपने स्वप्न के विषय में अपने पति को बताती है। उसके पति को उसमें या उसके स्वप्न में कोई रूचि नहीं है अत: स्वप्न भी विस्तार नहीं पाता है। एक दिन उसका पति देखता है कि वह फ़्रिज से निकाल कर खाने का सब सामान बाहर फ़ेंक रही है। किचेन का फ़र्श प्लास्टिक बैग्स और एयरटाइत कंटेनरों से पटा हुआ था। फ़र्श पर पति के पैर धरने की जगह न थी। वह देखता है सब फ़ैला हुआ है, शाबू-शाबू बनाने के लिए रखा गौमांस, सूअर का पेट, बछड़े की रान, वैकुम-पैक्ट बैग में रखी समुद्रफ़ेनी, उसकी सास की लाई हुई ईल के कतले, पीली डोर से बँधे सूखे मैंढ़क, बिना खुले जमे हुए...

जब पति चीख कर पूछता है कि वह क्या कर रही है तो उत्तर मिलता है, ‘उसने एक स्वप्न देखा है।’ और वह पति की उपस्थिति को अनदेखा करते हुए सारा कुछ उठा कर कूड़े के डिब्बे में डाल देती है। कोई पति भला कैसे सहन करेगा ऐसी उपेक्षा, ऐसी बरबादी! गौमांस, सूअर का गोश्त, मुर्गी के टुकड़े और तो और करीब 200,000 वॉन की कीमती समुद्री नमकीन ईल। सब कूढ़े के ढ़ेर में! जरूर इस स्त्री का दिमाग चल गया है। योन्ग-हाई की माँ को जब उसके शाकाहारी होने का पता चला तो उसे समझ में नहीं आया यह स्त्री कैसे जीवित रहेगी। पति के बॉस की पार्टी में उसके मांसाहार न करने पर पति की खूब किरकिरी हुई। घर पर पारिवारिक पार्टी में उसका पिता उसे जबरदस्ती गोश्त खिलाने का प्रयास करता है, चाँटा मारता है। पिता-भाई से पार न पा कर वह अपनी कलाई काट लेती है।उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ता है।

पति उससे पूछता है, ‘तुम कह रही हो कि अब से तुम गोश्त नहीं खाओगी?’ उसने स्वीकृति में सिर हिलाया। ‘ओह, सच में? कब तक?’ आध्चर्यचकित पति का प्रश्न था। पत्नी का उत्तर उससे भी अधिक अनोखा था, ‘मैं समझती हूँ...सदा के लिए।’इतना ही था तो कोई बात नहीं शायद पति उसका आदी हो जाता मगर शाकाहारी होने के साथ-साथ योन्ग हाई को सैक्स से भी अरूचि हो जाती है, वह पति को पास नहीं आने देती है। पूछने पर कहती है कि उसे पति के शरीर से माँस की बदबू आती है। अब भला ऐसी पत्नी का कोई क्या करे। इससे पहले वह पति की हर इच्छा बिना किसी ना-नुकुर के माना करती थी। अब वह उसके किसी काम की न थी अत: वह उससे छुटकारा पा लेता है, उसे तलाक दे देता है। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी!

पति उसकी जिद देख कर हैरान था। उसे मालूम था कि  अतीत में शाकाहारी होना इतना विरल भी नहीं था। लोग विभिन्न कारणों से शाकाहारी होना चुनते हैं। कभी एलर्जी से छुटकारा पाने के लिए, कभी पर्यावरण से दोस्ताना व्यवहार करने के लिए गोश्त खाना छोड़ते हैं। बुद्धिस्ट सन्यासी इसका प्रण करते हैं क्योंकि उनका धार्मिक प्रण प्राणी मात्र को हानि न पहुँचाना है। युवतियाँ वजन घटाने के लिए यह करती हैं। अपच से नींद न आने के कारण भी लोग माँसाहार छोड़ देते हैं। योन्ग हाई का पति सोचता है कि बुरी आत्मा के प्रभाव से भी लोग माँस खाना छोड़ देते हैं। लेकिन उसकी पत्नी के द्वारा यह किया जाना उसे पत्नी की हठधर्मी के अलावा और कुछ नहीं लगता है। उसका मानना है कि केवल पति की इच्छा के विरुद्ध जाना ही इसका एकमात्र कारण है। उसकी समझ के बाहर है कि अभी तक जो स्त्री इतनी सामान्य थी वह अचानक इतनी विद्रोही कैसे बन गई।

योन्ग हाई को परिवार वाले मानसिक रोगी मान कर मानसिक रोगियों के अस्पताल में भरती कर देते हैं। उसे निर्जन काला, अंधकारमय जंगल दीखता है। वह डरी हुई है। चारो ओर उसे खून, खून टपकते माँस के लोथड़े दीखते हैं। गोश्त और टपकते खून से वह खुद को घिरा पाती है, उसे अपने कपड़े खून से सने-रंगे नजर आते हैं। उसे अपने मुँह में, अपनी त्वचा पर बस खून-ही-खून दीखता है। बचपन से अपने पिता की क्रूरता उसका पीछा करती आ रही है। उसे याद आता है कि कैसे एक बार उनके पालतू कुत्ते विटनी ने उसे काट लिया था। रिवाज के अनुसार पिता ने कुत्ते को गाड़ी में बाँध कर गोल-गोल घुमा-घुमा कर मार डाला था। सारे समय बच्ची को यह क्रूर वीभत्स दृश्य देखते रहने को मजबूर किया था। बच्ची को निरंतर देखती कुत्ते की आँखें उसकी आत्मा पर घुप जाती हैं। इतना भी होता शायद बच्ची भूल जाती लेकिन शाम को उसी कुत्ते के गोश्त को पका कर समारोह मनाया जाता है। बच्ची जब वह गोश्त खा रही है उसे कुत्ते की आँखें याद आ रही हैं। अट्ठारह वर्ष की उम्र तक पिता उसे बराबर मारता था, शादी के बाद भी वह गोश्त न खाने पर उसे थप्पड़ मारता है, जबरदस्ती उसे गोश्त खिलाने का प्रयास करता है।

माँसाहार छोड़ देने का नतीजा होता है, योन्ग हाई का वजन गिरने लगता है। उसकी त्वचा रूखी-सूखी हो जाती है। मार्केस भी अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड’ में कहते हैं शाकाहारी का चेहरा सपाट होता है। लेकिन कुछ लोगों को शाकाहारी लोगों के मुँह पर एक तरह की आभा, एक तरह की कांति नजर आती है। शाकाहारी व्यक्ति गरिमापूर्ण, नरम, अधिक स्त्रीगुणपूर्ण, कम आक्रमक, अधिक ग्रहण करने वाला होता है। अलग-अलग लोगों के अलग-अलग विचार! विचार करना होगा, परीक्षण करना होगा कि यह सब कहाँ तक सही है। मगर यह सही है कि शाकाहार आपके शरीर में एक तरह का रासायनिक परिवर्तन लाता है और माँसाहार दूसरी तरह का। हमारे यहाँ तीन तरह के भोजन की बात होती है: सात्विक, राजसी और तामसिक। ऐसा कहा जाता है कि सात्विक भोजन ताजा, सुस्वादू और ऊर्जावान होता है। राजसी भोजन मिर्च-मसाले से भरपूर होता है तथा शरीर में रजस यानि क्रोध, गर्मी पैदा करता है, जबकि तामसी भोजन सड़ा-गला, बासी होता है और खाने पर आलस्य उत्पन्न करता है।

खैर लौटे योन्ग हाई की ओर। अस्पताल में उसे बलपूर्वक खिलाने-पिलाने की चेष्टा की जाती है। उसकी नाक और गले में ट्यूब डाल कर उसके भीतर खाना-पीना डालने की कोशिश की जाती है। उपन्यास दिखाताहै कि आज समाज में व्यक्ति की इच्छा-अनिच्छा का कोई स्थान, कोई सम्मान नहीं है। यह लोगों की असंवेदनशीलता को भी प्रकट करता है। जो भी व्यक्ति समाज की प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध एक भी कदम उठाता है समाज उसका दमन करता है।

शाकाहार अथवा माँसाहार व्यक्ति का अपना चुनाव होना चाहिए, किसी परिवार, समाज का थोपा हुआ नहीं। यह पूरा मामला संवेदनशीलता से जुड़ा हुआ है। जैन धर्म माँसहार ही नहीं किसी भी हिंसा की वकालत नहीं करता है इसीलिए वे सूरज डूबने से पहले खा लेते हैं ताकि कोई जीव खाने के साथ न चला जाए। सांस लेने में भी वे जीव हत्या के विरुद्ध हैं अत: नाक-मुँह कपड़े (मोपती) से बाँध कर रखते हैं। वैसेवक्त के साथ बदल रहा है जैन समाज।

यहाँ मुझे अपने सामने हुई दो बातें याद आ रही हैं। हमारे एक परिचित पंजाबी ने एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण लड़की से प्रेम विवाह किया। पति बनते ही माँग की कि पत्नी उसके लिए गोश्त पकाए। उन्होंने न केवल उससे जबरदस्ती गोश्त पकवाया वरन गर्दन पकड़ कर जबरदस्ती उसे गोश्त खिलाया भी। शुरु में वह उलटी कर देती पर बाद में खुशी-खुशी (!) यह काम करने लगी। मेरी एक अन्य रिश्तेदार ने माँसाहारी पति के साथ खुद स्वाद से माँसाहार शुरु कर दिया और एक अन्य रिश्तेदार ने शाकाहार पति की राह अपनाई। वाह रे प्रेम! दूसरा वाकया मेरी एक मुसलमान छात्रा का है। वह समझ नहीं पाती थी कि जिस बकरे को इतनाकीमती मेवा खिला कर इतने प्यार से पाला-पोसा जाता है, उसे ही काट कर कैसे खाया जाता है, कैसे खाया जा सकता है। मगर मायके में आपत्ति करने पर माँ से प्रताड़ना मिलती थी, ससुराल में तो कुछ बोलने का सवाल ही नहीं उठता है।यह गौर करने वाली बात है कि हर बार स्त्री ही परिवर्तित होती है, पुरुष के अनुरूप बदलने का प्रयास करती है। हाँ, हान कान्ग के उपन्यास ‘द वेजीटेरियन’ की नायिका ऐसा नहीं करती है और उसकी कीमत चुकाती है।

व्यक्ति को संवेदनहीन बनाने, क्रूर बनाने के लिए उसे हत्या करने की शिक्षा दी जाती है। ‘तमस’ में आरएस एस की शिक्षा का अंग है मुर्गा काट पाना। मगर जो असंवेदनशीलता सिखाए वह शिक्षा कैसे हो सकती है? शिक्षा वह है जो आदमी को मनुष्य बनाए उसे संवेदनशील बनाए। उसे जीव मात्र का सम्मान करना सिखाए। उसके भीतर प्रेम, आदर, गर्व का भाव जगाए। संपूर्ण प्रकृति के प्रति प्रेम, आदर भाव रखना सिखाए। जीवन का सम्मान करना सिखाए न कि उसे नष्ट करना! जीवन लेने का अधिकार हमारा नहीं है, किसी का नहीं है, किसी का नहीं होना चाहिए।

दक्षिण कोरिया पूर्वी एशिया का ह्यूमन डेवलपमेंट में सर्वाधिक विकसित देश है। वहाँ की विकसित तकनीकि वस्तुएँ सारे विश्व में उपयोग की जाती हैं। उपन्यास ‘द वेजीटेरियन’ इसी समाज की अनमनीय संरचना, व्यवहार की अपेक्षाओं तथा संस्थानों की कार्य पद्धति को एक-एक कर असफ़ल होता दिखाता है। यहाँ शाकाहार चुनाव न हो कर एक तरह का पागलपन है। काफ़्काई शैली के इस उपन्यास को पढ़ना एक भयंकर दु:स्वप्न से गुजरना है। उपन्यास के अंत आते-आते नायिका न केवल माँस खाना छोड़ देती है वरन हर प्रकार का खाना छोड़ देती है और आत्महंता बन जाती है। ‘द वेजीटेरियन’ की नायिका न केवल माँसाहार त्याग देती है वरन स्वयं पेड़ बन जाना चाहती है। वह दावा करती है कि उसे भोजन नहीं चाहिए, वह उसके बिना जी सकती है। बस उसे अगर कुछ चाहिए तो केवल पानी और सूर्य की रोशनी चाहिए। काश! उसके पास कोई उच्चतर विजन होता, कोई मूरिंग होती, कोई एंकरिंग होती, कोई सहारा होता, कोई दर्शन होता, तो वह इस तरह समाप्त न होती। आधुनिक जीवन की विसंगतियों पर कटाक्ष करता खूबसूरत शैली में, सुंदर चित्रण के साथ व्यक्ति की स्वतंत्रता की अभिलाषा को ले कर लिखा गया यह उपन्यास ‘द वेजीटेरियन’ अपने अंत में पाठक के मुँह में एक कसैला स्वाद छोड़ जाता है।वह आशा करता है, काश ऐसा न होता! हान कान्ग स्वयं स्वीकार करती हैं कि मनुष्य की प्रवृति बचपन से ही उनके लिए एक उलझा हुआ प्रश्न रही है। वे मनुष्य की पवित्रता और हिंसा को ले कर अनिश्चित हैं। वे देखती है कि वह भी आदमी है जो अपनी जिंदगी के विषय में एक पल भी बगैर सोचे हुए खाई में गिरे बच्चे को बचाने के लिए छलांग लगा देता है और वह भी आदमी है जो हिंसा के उपकरण जमा करता है। वे अस्पतालों मेंरक्तदान करने वालों की भीड़ देखती हैं और ऐसे लोगों को स्मरण कारती हैं जिन्होंने युद्ध और हिंसा के समय घायल हुए लोगों की सेवा के लिए अपना घर-बार सब कुछ छोड़ दिया, जबकि ग्वांग्जो आंदोलन काल में इन्हीं के हाथों में हिंसा से भरे क्रूर हथियार थे। वे प्रश्न करती है कि आदमी एक-दूसरे के प्रति ऐसा कैसे कर सकता है? आगे बढ़ कर वे पूछती हैं कि हम इस हिंसा के लिए क्या कर सकते हैं?

बुद्ध का कथन है, ‘अत्याचार के सामने सारे जीव काँपते हैं, सबको मौत से भय लगता है, सब जीवन से प्रेम करते हैं, दूसरों में स्वयं को देखो, तब तुम किसको चोट पहुँचा सकते हो, कौन-सी हानि पहुँचा सकते हो?’शाकाहार दूसरे जीव को न्यूनतम चोट पहुँचा कर जीवन का सलीका है। माँसाहार एक प्रकार की क्रूरता है। जीव हत्या क्रूरता है। विज्ञान करता है कि यदि किसी को मारा जाए तो मरने से पहले उसके शरीर में तमाम नकारात्मक रसायन उत्पन्न होते हैं।जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने दुमुँहेपन की भर्त्सना करते हुए लिखा है, ‘हम रविवार को प्रार्थना करते हैं ताकि जिस राह पर हम चल रहें हैं उस पर रोशनी हो; हम युद्ध से त्रस्त हैं, हम लड़ना नहीं चाहते हैं और फ़िर भी हम मरे हुओं का भक्षण करते हैं।’लियोनार्डो द विन्ची ने भी कहा है, ‘एक समय आएगा जब मेरी तरह मनुष्य जानवरों की हत्या वैसे ही देखेगा जैसे अभी जानवर आदमी की हत्या देखता है।’

1978 के नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार आइज़क बाशविक सिंगर अपने जीवन के अंतिम कई दशकों में शाकाहारी हो गए थे और इसे वे अपनी रचनाओं में घोषित भी करते थे। अपनी कहानी ‘द स्लॉटरर’ में वे एक ऐसे कसाई का कथानक प्रस्तुत करते हैं जो जानवरों के प्रति अपनी दया और अपने पेशे में उन्हें मारने के बीच तालमेल बैठाने की जद्दोजहद में है। सिंगर मानते हैं कि माँसाहारी होने का अर्थ है सारे आदर्शों तथा सारे धर्मों को नकार देना, ‘हम अधिकारों और न्याय की बात कैसे कर सकते हैं, यदि हम मासूम जीव का खून बहाते हैं।’ जब उनसे पूछा जाता कि क्या वे स्वास्थ्य के कारणों से शाकाहारी बन गए हैं, तो उनका उत्तर होता, ‘यह मैंने मुर्गी के स्वास्थ्य के लिए किया है।’‘द लेटर राइटर’ में उन्होंने लिखा है, जानवरों के संबंध में सारे लोग नाजी हैं। जानवरों के लिए यह एक शाश्वत ट्रेब्लिंका (एक नाजी यातना शिविर का नाम) है। 1986 में स्टीवन रोजेन की ‘फ़ूड फ़ॉर स्पिरिट: वेजीटेरियनिज्म एंड द वर्ल्ड रिलीजंस’ की भूमिका में सिंगर ने लिखा कि जब एक आदमी भोजन के लिए किसी जानवार को मारता है तो वह न्याय के लिए अपनी भूख को अनदेखा कर रहा होता है। मनुष्य दया के लिए प्रार्थना करता है, परंतु वह यह दूसरों को देने में इच्छुक नहीं है। तब वह ईश्वर से दया की अपेक्षा क्यों करता है? यह उचित नहीं है, जो आप देने की इच्छा नहीं रखते हैं, उसकी अपेक्षा करना। यह असंगत है। वे कभी भी असंगत या अन्याय स्वीकार नहीं कर सकते हैं। यदि वह भगवान की ओर से आए तब भी नहीं। अगर ईश्वर की ओर से आवाज आए कि वह शाकाहार के विरोध में है। तब उनका कहना होगा कि मैं इसके पक्ष में हूँ। इस बात को ले कर वे इतनी दृढ़ता से अनुभव करते हैं कि ईश्वर तक का विरोध करने को तत्पर हैं।

हान कान्ग कहती हैं, बीसवीं सदी ने अपने घाव केवल कोरिया पर ही नहीं, पूरी मानवता पर छोड़े हैं। उनका जन्म 1970 में हुआ और उन्होंने 1910 से 1945 के दौर का जापान नहीं देखा, न ही कोरिया का वह युद्ध जो 1950 से 1943 तक चला। उन्होंने 1993 से लिखना प्रारंभ किया तब से आज तक लिखना उनके लिए एक निरंतर प्रश्न है। जीवन क्या है? मृत्यु क्या है? मैं कौन हूँ? आदि प्रश्नों से वे जूझ रही हैं। उनके अनुसार इन बातों की चेतना दुनिया की सबसे भयावह बात है। ये शाश्वत प्रश्न हर संवेदनशील व्यक्ति को बेचैन करते हैं। आप सब भी इस पर विचार करें।

डॉ.विजय शर्मा 


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डॉ. विजय शर्मा, 326, न्यू सीतारामडेरा, एग्रिको, जमशेदपुर 831009

मो. नं. 8789001919

ईमेल: vijshain@yahoo.com

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समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सो...

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहान...

ज्ञान प्रकाश विवेक, तराना परवीन, महावीर राजी और आनंद हर्षुल की कहानियों पर टिप्पणियां

◆ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी "बातूनी लड़की" (कथादेश सितंबर 2023) उसकी मृत्यु के बजाय जिंदगी को लेकर उसकी बौद्धिक चेतना और जिंदादिली अधिक देर तक स्मृति में गूंजती हैं।  ~~~~~~~~~~~~~~~~~ ज्ञान प्रकाश विवेक जी की कहानी 'शहर छोड़ते हुए' बहुत पहले दिसम्बर 2019 में मेरे सम्मुख गुजरी थी, नया ज्ञानोदय में प्रकाशित इस कहानी पर एक छोटी टिप्पणी भी मैंने तब लिखी थी। लगभग 4 साल बाद उनकी एक नई कहानी 'बातूनी लड़की' कथादेश सितंबर 2023 अंक में अब पढ़ने को मिली। बहुत रोचक संवाद , दिल को छू लेने वाली संवेदना से लबरेज पात्र और कहानी के दृश्य अंत में जब कथानक के द्वार खोलते हैं तो मन भारी होने लग जाता है। अंडर ग्रेजुएट की एक युवा लड़की और एक युवा ट्यूटर के बीच घूमती यह कहानी, कोर्स की किताबों से ज्यादा जिंदगी की किताबों पर ठहरकर बातें करती है। इन दोनों ही पात्रों के बीच के संवाद बहुत रोचक,बौद्धिक चेतना के साथ पाठक को तरल संवेदना की महीन डोर में बांधे रखकर अपने साथ वहां तक ले जाते हैं जहां कहानी अचानक बदलने लगती है। लड़की को ब्रेन ट्यूमर होने की जानकारी जब होती है, तब न केवल उसके ट्यूटर ...

'नेलकटर' उदयप्रकाश की लिखी मेरी पसंदीदा कहानी का पुनर्पाठ

उ दय प्रकाश मेरे पसंदीदा कहानी लेखकों में से हैं जिन्हें मैं सर्वाधिक पसंद करता हूँ। उनकी कई कहानियाँ मसलन 'पालगोमरा का स्कूटर' , 'वारेन हेस्टिंग्ज का सांड', 'तिरिछ' , 'रामसजीवन की प्रेम कथा' इत्यादि मेरी स्मृति में आज भी जीवंत रूप में विद्यमान हैं । हाल के दो तीन वर्षों में मैंने उनकी कहानी ' नींबू ' इंडिया टुडे साहित्य विशेषांक में पढ़ी थी जो संभवतः मेरे लिए उनकी अद्यतन कहानियों में आखरी थी । उसके बाद उनकी कोई नयी कहानी मैंने नहीं पढ़ी।वे हमारे समय के एक ऐसे कथाकार हैं जिनकी कहानियां खूब पढ़ी जाती हैं। चाहे कहानी की अंतर्वस्तु हो, कहानी की भाषा हो, कहानी का शिल्प हो या दिल को छूने वाली एक प्रवाह मान तरलता हो, हर क्षेत्र में उदय प्रकाश ने कहानी के लिए एक नई जमीन तैयार की है। मेर लिए उनकी लिखी सर्वाधिक प्रिय कहानी 'नेलकटर' है जो मां की स्मृतियों को लेकर लिखी गयी है। यह एक ऐसी कहानी है जिसे कोई एक बार पढ़ ले तो भाषा और संवेदना की तरलता में वह बहता हुआ चला जाए। रिश्तों में अचिन्हित रह जाने वाली अबूझ धड़कनों को भी यह कहानी बेआवाज सुनाने लग...

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवा...

फादर्स डे पर परिधि की कविता : "पिता की चप्पलें"

  आज फादर्स डे है । इस अवसर पर प्रस्तुत है परिधि की एक कविता "पिता की चप्पलें"।यह कविता वर्षों पहले उन्होंने लिखी थी । इस कविता में जीवन के गहरे अनुभवों को व्यक्त करने का वह नज़रिया है जो अमूमन हमारी नज़र से छूट जाता है।आज पढ़िए यह कविता ......     पिता की चप्पलें   आज मैंने सुबह सुबह पहन ली हैं पिता की चप्पलें मेरे पांवों से काफी बड़ी हैं ये चप्पलें मैं आनंद ले रही हूं उन्हें पहनने का   यह एक नया अनुभव है मेरे लिए मैं उन्हें पहन कर घूम रही हूं इधर-उधर खुशी से बार-बार देख रही हूं उन चप्पलों की ओर कौतूहल से कि ये वही चप्पले हैं जिनमें होते हैं मेरे पिता के पांव   वही पांव जो न जाने कहां-कहां गए होंगे उनकी एड़ियाँ न जाने कितनी बार घिसी होंगी कितने दफ्तरों सब्जी मंडियों अस्पतालों और शहर की गलियों से गुजरते हुए घर तक पहुंचते होंगे उनके पांव अपनी पुरानी बाइक को न जाने कितनी बार किक मारकर स्टार्ट कर चुके होंगे इन्हीं पांवों से परिवार का बोझ लिए जीवन की न जाने कितनी विषमताओं से गुजरे होंगे पिता के पांव ! ...