सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

गांधी दर्शन युवा पीढ़ी तक कैसे पहुँचे

 


साहित्य की आँखों से गांधी दर्शन को समझना  

-- रमेश शर्मा 

----------------------------------------------

गांधी के जीवन दर्शन को लेकर जब भी बातचीत होती है तो हम उसे बहुत सैद्धांतिक, परम्परागत और सतही तरीके से आज की पीढ़ी तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं ।और बात चूंकि बहुत सैद्धांतिक और परम्परागत होती है, इसलिए आज की पीढ़ी उसे उस तरह आत्मसात नहीं करती जिस तरह से उसे किया जाना चाहिए । दरअसल गांधी के जीवन दर्शन को लेकर सैद्धांतिक और किताबी चर्चा न करके अगर हम उनकी जीवन शैली को लेकर थोड़ी प्रेक्टिकल बातचीत करें तो मेरा अपना मानना है कि उनके जीवन दर्शन को नयी पीढ़ी तक हम थोड़ा ठीक ढंग से संप्रेषित कर पाएंगे। गांधी जी की जीवन शैली की मुख्य मुख्य बातों को भी हमें ठीक ढंग से समझना होगा।दरअसल गांधी दर्शन का जिक्र जब भी होता है तो सत्य, अहिंसा, करूणा, दया, प्रेम, त्याग, धार्मिक-सौहाद्र इत्यादि जो बातें हैं वो उठने लगती हैं ।इन बातों पर जब हमारी नजर जाती है तो हमें लगता है कि गांधी जी बहुत आदर्शवादी थे और उनके आदर्श को आत्मसात कर पाना संभव नहीं है ।जबकि ऐसा नहीं है ।भले ही गांधी बाहर से बहुत आदर्शवादी दीखते हों हमें पर अपने चिंतन में वे बहुत व्यवहारिक थे , बहुत प्रेक्टिकल थे।  यह बात उनकी जीवन शैली से प्रमाणित होती है ।उनके जीवन शैली की जो प्रमुख बातें हैं उनमें  एक तो उनकी वेशभूषा , उनका रहन सहन , उनका खान पान, उनकी बातचीत , समय को लेकर उनके भीतर मौजूद उनका आत्मिक अनुशासन और समाज के प्रति उनके भीतर मौजूद त्याग की भावना इत्यादि सारी बातें उन्हें प्रेक्टिकल बनाती हैं।  आज जब हम अपनी तुलना उनके जीवन जीने की शैली से करते हैं तो उनकी जीवन शैली के जो घटक हैं उनसे हमारा कोई मेल जोल ही नहीं है । उनकी वेशभूषा को ही देख लें तो हमें महसूस होगा कि वह वेशभूषा उनकी न होकर उस समय के आमजनों की वेशभूषा थी जो उनके जीवन से उन्हें सीधे संलग्न करती थी , शायद इसलिए आमजन को गांधी से संवाद बनाने में कभी कोई हिचक महसूस नहीं होती थी । गांधी जी के जीवन की एक बड़ी विशेषता यह थी कि उन्हें संवाद बनाने पर गहरा विश्वास था, कभी उन्होंने अपने को आमजन से अलग करके देखने की कोशिश नहीं करी।उनका खानपान बहुत साधारण था , प्रकृति में उनदिनों जो भी चीजें सुलभ थीं उनके माध्यम से ही वे अपना दो वक्त का गुजारा कर लेते थे।  उनका यह व्यवहार ही उन्हें अधिक विश्सनीय बनाता था ।उनके  भीतर किसी किस्म का लालच नहीं था ।उन्होंने कहा भी था कि प्रकृति के पास वो सारी वस्तुएं हैं जो आदमी की जरूरतों को पूरा कर सकती हैं पर आदमी के लालच को प्रकृति कभी भी पूरा नहीं कर सकती ।यह बात उन्होंने आज से 70 - 80 साल पहले कही थी और जब हम आज देखते हैं तो उनकी बात कितनी सच लगती है ।  आज विकास के नाम पर प्रकृति का इस कदर दोहन हो रहा है कि वह लगभग विनाश के कगार पर है।तो यह उनके जीवन की एक ख़ास विशेषता थी कि उनके भीतर लालच था ही नहीं, अति न्यूनता में गुजारा करना , अति साधारणता में जनहितैषी जीवन जीना ही उनके जीवन का उद्देश्य था । अपने जीवन शैली में उन्होंने कभी भी, किसी भी मनुष्य के लिए अपने व्यवहार में हिंसा को जगह नहीं दी जबकि आम मनुष्य आए दिन अपने व्यवहार में हिंसा के विभिन्न तरीकों को जाने अनजाने अपनाता  रहता है।ऐसे कुछ उदाहरण मिलते हैं कि गांधी ने अपने शरीर से वस्त्र उतारकर जरूरतमंद को दान कर दिया।  तो यह जो उनके भीतर त्याग की भावना है , दया ,करूणा और प्रेम की भावना है, दरअसल ये सैद्धांतिक और आदर्श की बातें न होकर उनके भीतर के व्यवहारिक पक्ष को दिखाता है कि गांधी अपने जीवन में बहुत प्रेक्टिकल थे।  तो जब तक हम गांधी के इस व्यवहारिक और प्रेक्टिकल आधारित जीवन शैली पर बातचीत नहीं करेंगे तो चर्चा अधूरी रहेगी और बातें ठीक से संप्रेषित नहीं हो पाएंगी।  

गांधी दर्शन को और अधिक सुस्पष्ट तरीके से समझने बूझने के लिए मैं हिन्दी साहित्य के माध्यम से अपनी कुछ बातें रखने की कोशिश करूंगा।  साहित्य में मूलतः हमें दो प्रकार के दर्शन मिलते हैं , एक तो मार्क्सवादी दर्शन और दूसरा गांधी दर्शन।  इन दोनों ही दर्शन के बुनियादी फर्क को एक दूसरे के सापेक्ष जानने समझने की कोशिश करते हुए  कुछ बातें जो मुझे समझ में आती हैं वे यह हैं कि गांधी के दर्शन में कहीं भी उग्रता नजर नहीं आती।  एक कोमलता और करूणा से रचा पगा स्वर उनके दर्शन में उभरता है।  उनके दर्शन में उस तरह के संघर्ष का स्वर कहीं नहीं है जिससे हिंसा की संभावना निर्मित हो। जबकि मार्क्स के दर्शन में यह बात सामने आती है कि दुनियां के जितने शोषित पीड़ित वर्ग हैं वे एकजुट होकर शोषक वर्ग के खिलाफ अपने संघर्ष के स्वर को मुखरित करें ।  उनके दर्शन में उग्रता का भाव कहीं न कहीं ध्वनित होता है। याने मार्क्सवादी दर्शन शोषकों के खिलाफ संघर्ष के स्वर को बहुत सघन रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करता है  और जहां इस तरह के संघर्ष की स्थिति निर्मित होती है वहां कुछ न कुछ हिंसा की संभावना भी बनने लगती है।  तो गांधी और मार्क्सवादी दर्शन में ये मूल फर्क है , हाँ ये जरूर है कि दोनों ही दर्शन में शोषित पीड़ित लोगों के लिए संरक्षण का भाव है जो उन्हें करीब लाता है और हिन्दी साहित्य में कई जगह ये एकाकार होने भी लगते हैं

मैं इसे और स्पष्ट करने के लिए जैनेन्द्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पर कुछ बातें कहना चाहूँगा।  यह कहानी मध्य वर्ग के चरित्र को एक नए रूप में देखने समझने का एक अवसर हमें देती है।  इस कहानी में मध्य वर्ग का जो चरित्र है वह बहुत विश्वसनीय नहीं है।   गांधी दर्शन को इस कहानी में इसलिए भी हम देखने समझने की कोशिश करेंगे। इस कहानी में नैनीताल का दृश्य है। सर्दी के मौसम में शाम से लेकर रात के दृश्य हैं जब एक छोटा बच्चा मैले कुचैले कपड़ों में सर्दी और भूख से ठिठुरते हुए लेखक को रास्ते में मिलता है। लेखक को उस पर दया आती है , लेखक के एक मित्र वकील साहब भी उस वक्त उनके साथ होते हैं , दोनों में उस बालक को लेकर बातचीत भी होती है।  लेखक अपने मित्र से कहते हैं कि वकील साहब इस बच्चे को आप नौकर क्यों नहीं रख लेते , तो उनके मित्र कहते हैं कि अरे .... ग़रीबों का क्या भरोसा ... कल को ये चोरी भी कर सकता है।  इस बातचीत के उपरान्त भारी सर्दी के मौसम के बीच वे रात में अपने होटल चले जाते हैं।  सुबह जब वे जागते हैं तो कहीं से उन्हें खबर मिलती है कि एक बच्चा मरा पड़ा है।लेखक के मन में रात को सोते समय ये विचार उठते हैं कि इस बच्चे की हमें कुछ न कुछ सहायता करनी थी।   किन्तु सुबह जब उस बच्चे के मरने की खबर आती है तो लेखक को थोड़ा पछतावा होता है कि हम लोग चाहकर भी उसकी कोई सहायता नहीं कर सके। लेखक आगे कहते हैं कि अपना अपना भाग्य है , हर आदमी अपना भाग्य लेकर आता है उसके अनुसार ही उसका जीवन सम्पूर्ण होता है। इस कहानी में लेखक अपने माध्यम से एक द्वन्द प्रस्तुत करते हैं , यही द्वन्द आज के मध्य वर्ग पर एक बड़ा सवाल खड़ा करता है और इस सवाल में ही गांधी दर्शन के कई तत्व छिपे हुए हैं।  मसलन जो शोषित पीड़ित वर्ग है उस वर्ग की हमें सचमुच में कोई सहायता करते हुए दिखना चाहिए।उसे संदिग्ध नजरों से नहीं देखना चाहिए।  यह कहानी मनुष्य के नकली त्याग की भावना पर , उसके स्वार्थीपन पर, समाज के प्रति मनुष्य का एक जो दायित्व है उस दायित्व को पूरा न करने पर  सवाल खड़ा करती है और ऐसे समय गांधी अपने मानवीय दर्शन के साथ  हमारे सामने आ खड़े होते हैं। उच्च या मध्य वर्ग द्वारा निम्न वर्ग पर चोरी करने जैसी सम्भावना के आरोप जिस तरह मढ़  दिए जाते हैं उस प्रवृति पर यह कहानी सोचने पर विवश करती हुई हमें गांधी दर्शन के बहुत करीब ले जाती है।  

मंटो की एक कहानी है करामात। इस कहानी में जैसा कि एक गाँव में लोगों द्वारा चोरी का माल लूटकर अपने घरों में रखा गया होता है , और उसी सिलसिले में पुलिस का आना होता है। पुलिस के आते ही लोग अपने घरों में रखे लूट के सामानों को इधर उधर फेंकने लगते हैं। एक आदमी के पास दो शक्कर की बोरियां होती हैं जो कि लूट कर लाया गया होता है।  उस शक्कर को फेंकने में जब उसे परेशानी होती है तब उन बोरियों को पास के कुँए में वह डालने की कोशिश करता है।  पहली बोरी डाल लेने के बाद जब वह अफरा तफरी के बीच दूसरी बोरी डालने लगता है तो खुद कुँए में गिर जाता है और उसकी मौत हो जाती है।  कुँए के पास भीड़ जमा हो जाती है फिर उसे निकाला जाता है और कब्र में दफना दिया जाता है।दूसरे दिन जब उस कुँए से पानी निकाला जाता है तो उसका पानी मीठा होता है। पानी के मीठे हो जाने को लोगों द्वारा एक चमत्कार मान लिया जाता है, गोया उस दिव्य पुरूष के कुँए में गिरने से ही यह चमत्कार हुआ हो।  लोग उस मृत आदमी को दिव्य पुरूष मान लेते हैं और उसकी कब्र पर दिए जलाते हैं।अंधविश्वास पर प्रश्न को लें तो मार्क्सवादी दर्शन के करीब हम पहुँचते हैं और चोरी करना पाप है, उसका अंत बुरा ही होता है इस पर यदि विचार करें तो हमें गांधी याद आने लगते हैं। इस तरह गांधी और मार्क्स एक साथ यहाँ खड़े नजर आते हैं।

------------------------------------------------------------------

 

 

 

टिप्पणियाँ

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। ओमा द अक ने

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

गाँधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक

गांधीवादी विचारों को समर्पित मासिक पत्रिका "गाँधीश्वर" एक लंबे अरसे से छत्तीसगढ़ के कोरबा से प्रकाशित होती आयी है।इसके अब तक कई यादगार अंक प्रकाशित हुए हैं।  प्रधान संपादक सुरेश चंद्र रोहरा जी की मेहनत और लगन ने इस पत्रिका को एक नए मुकाम तक पहुंचाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की है। रायगढ़ के वरिष्ठ कथाकार , आलोचक रमेश शर्मा जी के कुशल अतिथि संपादन में गांधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक बेहद ही खास है। यह अंक डॉ. टी महादेव राव जैसे बेहद उम्दा शख्सियत से  हमारा परिचय कराता है। दरअसल यह अंक उन्हीं के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित है। राव एक उम्दा व्यंग्यकार ही नहीं अनुवादक, कहानीकार, कवि लेखक भी हैं। संपादक ने डॉ राव द्वारा रचित विभिन्न रचनात्मक विधाओं को वर्गीकृत कर उनके महत्व को समझाने की कोशिश की है जिससे व्यक्ति विशेष और पाठक के बीच संवाद स्थापित हो सके।अंक पढ़कर पाठकों को लगेगा कि डॉ राव का साहित्य सामयिक और संवेदनाओं से लबरेज है।अंक के माध्यम से यह बात भी स्थापित होती है कि व्यंग्य जैसी शुष्क बौद्धिक शैली अपनी समाजिक सरोकारिता और दिशा बोध के लिए कितनी प्रतिबद्ध दिखाई देती ह

'कोरोना की डायरी' का विमोचन

"समय और जीवन के गहरे अनुभवों का जीवंत दस्तावेजीकरण हैं ये विविध रचनाएं"    छत्तीसगढ़ मानव कल्याण एवं सामाजिक विकास संगठन जिला इकाई रायगढ़ के अध्यक्ष सुशीला साहू के सम्पादन में प्रकाशित किताब 'कोरोना की डायरी' में 52 लेखक लेखिकाओं के डायरी अंश संग्रहित हैं | इन डायरी अंशों को पढ़ते हुए हमारी आँखों के सामने 2020 और 2021 के वे सारे भयावह दृश्य आने लगते हैं जिनमें किसी न किसी रूप में हम सब की हिस्सेदारी रही है | किताब के सम्पादक सुश्री सुशीला साहू जो स्वयं कोरोना से पीड़ित रहीं और एक बहुत कठिन समय से उनका बावस्ता हुआ ,उन्होंने बड़ी शिद्दत से अपने अनुभवों को शब्दों का रूप देते हुए इस किताब के माध्यम से साझा किया है | सम्पादकीय में उनके संघर्ष की प्रतिबद्धता  बड़ी साफगोई से अभिव्यक्त हुई है | सुशीला साहू की इस अभिव्यक्ति के माध्यम से हम इस बात से रूबरू होते हैं कि किस तरह इस किताब को प्रकाशित करने की दिशा में उन्होंने अपने साथी रचनाकारों को प्रेरित किया और किस तरह सबने उनका उदारता पूर्वक सहयोग भी किया | कठिन समय की विभीषिकाओं से मिलजुल कर ही लड़ा जा सकता है और समूचे संघर्ष को लिखि

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था जहाँ आने

प्रीति प्रकाश की कहानी : राम को जन्म भूमि मिलनी चाहिए

प्रीति प्रकाश की कहानी 'राम को जन्म भूमि मिलनी चाहिए' को वर्ष 2019-20 का राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान मिला है, इसलिए जाहिर सी बात है कि इस कहानी को पाठक पढ़ना भी चाहते हैं | हमने उनकी लिखित अनुमति से इस कहानी को यहाँ रखा है | कहानी पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे कि यह कहानी एक संवेदन हीन होते समाज के चरित्र के दोहरेपन, ढोंग और उसके एकतरफा नजरिये को  किस तरह परत दर परत उघाड़ती चली जाती है | समाज की आस्था वायवीय है, वह सच के राम जिसके दर्शन किसी भी बच्चे में हो सकते हैं  , जो साक्षात उनकी आँखों के सामने  दीन हीन अवस्था में पल रहा होता है , उसके प्रति समाज की न कोई आस्था है न कोई जिम्मेदारी है | "समाज की आस्था एकतरफा है और निरा वायवीय भी " यह कहानी इस तथ्य को जबरदस्त तरीके से सामने रखती है | आस्था में एक समग्रता होनी चाहिए कि हम सच के मूर्त राम जो हर बच्चे में मौजूद हैं , और अमूर्त राम जो हमारे ह्रदय में हैं , दोनों के प्रति एक ही नजरिया रखें  | दोनों ही राम को इस धरती पर उनकी जन्म भूमि  मिलनी चाहिए, पर समाज वायवीयता के पीछे जिस तरह भाग रहा है, उस भागम भाग से उपजी संवेदनहीनता को

कोइलिघुगर वॉटरफॉल तक की यात्रा रायगढ़ से

    अपने दूर पास की भौगौलिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों को जानने समझने के लिए पर्यटन एक आसान रास्ता है । पर्यटन से दैनिक जीवन की एकरसता से जन्मी ऊब भी कुछ समय के लिए मिटने लगती है और हम कुछ हद तक तरोताजा भी महसूस करते हैं । यह ताजगी हमें भीतर से स्वस्थ भी करती है और हम तनाव से दूर होते हैं । रायगढ़ वासियों को पर्यटन करना हो वह भी रायगढ़ के आसपास तो झट से एक नाम याद आता है कोयलीघोघर! कोयलीघोघर ओड़िसा के झारसुगड़ा जिले का एक प्रसिद्द पिकनिक स्पॉट है जहां रायगढ़ से एक घंटे में सड़क मार्ग की यात्रा कर बहुत आसानी से पहुंचा जा सकता है । शोर्ट कट रास्ता अपनाते हुए रायगढ़ से लोइंग, बनोरा, बेलेरिया होते ओड़िसा के बासनपाली गाँव में आप प्रवेश करते हैं फिर वहां से निकल कर भीखमपाली के पूर्व पड़ने वाले एक चौक पर जाकर रायगढ़ झारसुगड़ा मुख्य सड़क को पकड लेते हैं। इस मुख्य सड़क पर चलते हुए भीखम पाली के बाद पचगांव नामक जगह आती है जहाँ खाने पीने की चीजें मिल जाती हैं।  यहाँ के लोकल बने पेड़े बहुत प्रसिद्द हैं जिसका स्वाद कुछ देर रूककर लिया जा सकता है । पचगांव से चलकर आधे घंटे बाद कुरेमाल का ढाबा पड़ता है , वहां र

समीक्षा- कहानी संग्रह "मुझे पंख दे दो" लेखिका: इला सिंह

शिवना साहित्यिकी के नए अंक में प्रकाशित समीक्षा स्वरों की धीमी आंच से बदलाव के रास्तों  की खोज  ■रमेश शर्मा ------------------------------------------------------------- इला सिंह की कहानियों को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि इला सिंह जीवन में अनदेखी अनबूझी सी रह जाने वाली अमूर्त घटनाओं को कथा की शक्ल में ढाल लेने वाली कथा लेखिकाओं में से एक हैं। उनका पहला कहानी संग्रह 'मुझे पंख दे दो' हाल ही में प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंचा है। इस संग्रह में सात कहानियाँ हैं। संग्रह की पहली कहानी है अम्मा । अम्मा कहानी में एक स्त्री के भीतर जज्ब सहनशील आचरण , धीरज और उदारता को बड़ी सहजता के साथ सामान्य सी लगने वाली घटनाओं के माध्यम से कथा की शक्ल में जिस तरह इला जी ने प्रस्तुत किया है , उनकी यह प्रस्तुति कथा लेखन के उनके मौलिक कौशल को हमारे सामने रखती है और हमारा ध्यान आकर्षित करती है । अम्मा कहानी में दादी , अम्मा , भाभी और बहनों के रूप में स्त्री जीवन के विविध रंग विद्यमान हैं । इन रंगों में अम्मा का जो रंग है वह रंग सबसे सुन्दर और इकहरा है । कहानी एक तरह से यह आग्रह करती है कि स्त्री का

परदेसी राम वर्मा की चर्चित कहानी : दीया न बाती

आज हम एक महत्वपूर्ण कथाकार परदेशी राम वर्मा जी पर चर्चा को केंद्रित करेंगे। 18 जुलाई 1947 को दुर्ग छत्तीसगढ़ के लिमतरा गांव में जन्मे परदेशी राम वर्मा देश के महत्वपूर्ण कथाकारों में से एक हैं ।वे पूर्व में सेना में भी रहे हैं और भिलाई स्टील प्लांट में भी उन्होंने काम किया है। रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर से मानद डी.लिट्. की उपाधि प्राप्त परदेशी राम वर्मा की अनेक किताबें प्रकाशित हुई हैं उनमें सात कथा संग्रह एवम तीन उपन्यास प्रमुख हैं । वे हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों ही भाषाओं में सम गति से लेखन करते हैं ।वर्तमान में वे अगासदिया नामक त्रैमासिक पत्रिका के संपादक भी हैं।उनकी कहानियों की देशजता और जनवादी तेवर उन्हें प्रेमचंद की परंपरा के कहानीकार के रूप में स्थापित करता है। उनकी इस कहानी को हमने हंस के जुलाई 2019अंक से लिया है। सत्ता और कॉर्पोरेट तंत्र की मिलीभगत और उनके षड्यंत्र से गांव आज कैसे प्रभावित हैं  कहानी इसे आख्यान की तरह हुबहू सुनाती है । सारे दृश्य आंखों के सामने फिल्म की तरह चलने लगते हैं। ग्रामीणों को विकास का सपना दिखाकर उनकी जमीनों को छीनना आज का नया खेल है। इस खेल में