चित्र : नगर निगम रायगढ़ ऑडिटोरियम से साभार |
त्योहारों के आते ही कस्बों, गांवों की गलियों में कवियों की नई फौज तैयार होने लगती है। यही वह मौसम होता है जब इनकी डिमांड बढ़ने लगती है। मौसम के अनुरूप कवियों की यह नई उपज लगातार अपने लिए इन्हीं अवसरों, जगहों की तलाश में भी लगी हुई दिखाई पड़ती है। ये टोली प्रतीक्षा में भी रहती है कि कहीं से कोई बुलावा आए तो वहां चलें।बुलावे पर पूरी टोली वहां उतर जाती है। कविता को फुलझड़ियों की तरह छोड़ना इनका शगल होता है। खूब चिल्ला चिल्ला कर एक ही पंक्ति को बार बार दोहराते हुए इन्हें सुना जा सकता है।कई बार कविता की एक एक पंक्ति को बहुत तेज आवाज में किसी आचार्य की तरह श्रोताओं को समझाने की कोशिश करते हुए भी इन्हें मंच पर देखा जा सकता है।
स्वयं अपने श्रोताओं से ताली बजाने का आग्रह करते हुए भी इन्हें कोई संकोच करते हुए कभी देखा नहीं गया है। कविता के नाम पर सब कुछ होता है पर दुर्भाग्य यह है कि कविता ही वहां अनुपस्थित रह जाती है । जरूरी नहीं कि जोर जोर से ताली बजाई जाए,मजे लेने के लिए वाह वाह का शोर मचाया जाए तो कविता वहां उपस्थित ही हो।
कविता से वैचारिकी का गहरा संबंध है पर इस तरह के शोर शराबों से वैचारिकी का कोई संबंध हो, इस पर संदेह ही है।कविता के बहाने इस तरह के शोर शराबे के बीच कविता का अनुपस्थित होना एक विचारणीय प्रश्न है।
कविता के नाम पर आई हुई श्रोताओं की भीड़ जब अपने अपने घरों को लौटती है तो वैचारिकी के नाम पर अपने साथ वह कुछ लेकर नहीं जाती। मंच के नीचे श्रोताओं की भीड़ भूनी हुई मूंगफली के बीज गटक कर उसके छिलकों का ढेर भर वहां छोड़ जाती है।
नासमझी की वजह से जिस मंचीय कविता को कविता के लिए लोकप्रिय बनाने का माध्यम समझा जाता है दरअसल उस कविता में वैचारिकी के नाम पर कुछ भी नहीं होता।वे कविता के नाम पर छोड़ी गई फुलझड़ियां भर होती हैं जहां जीवन या वैचारिकी के लिए कोई स्पेस नहीं रह जाता। वे क्षणिक मनोरंजन के लिए भर होती हैं ,वह भी सबके लिए नहीं। दुर्भाग्य से इसे ही कविता मान लिए जाने की भूल किए जाने के कारण कविता की जो शक्ति है उसका क्षरण निरंतर हुआ है और यह क्षरण दिनों दिन और तेजी से हो रहा है। वीर रस के वायवीय शोर, मंचीय फूहड़ता और तुकबंदी में रची पगी तथाकथित कविता के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि ऐसी कविताओं के कवियों को लाखों रुपये का पैकेज देकर लोग फिर क्यों बुलाते हैं?
दरअसल बाज़ार की आंखों से जब आप कला, साहित्य को आंकने की कोशिश करते हैं तब आप वैचारिकी को त्याग रहे होते हैं। बाज़ार आज के तथाकथित फायर ब्रांड नेताओं के मुकाबले गांधी को गिराने की जितनी भी कोशिश करे , गांधी की वैचारिकी या गांधी के जीवन मूल्य आज भी कीमती हैं । उसका आकलन बाज़ार कभी भी नहीं कर सकता। वैचारिक कविता और मंचीय कविता के सम्बंध में भी यही बात सामने आती है। कला और साहित्य को बाज़ार की आंखों से देखने वाला कविता की वैचारिकी से कोसों दूर होता है। वह उसे समझ नहीं सकता जिस तरह कि गांधी को लोग समझ नहीं पाते।
इसे इस तरह भी समझें कि एक तरफ एक प्रसिद्ध कत्थक नृत्यांगना का नृत्य हो और दूसरी तरफ आइटम डांस रख दिया जाए तो बाज़ार और भीड़ का रूख आइटम डांस की तरफ ही होगा। पर क्या उससे कत्थक जैसे क्लासिकल नृत्य कला का मूल्य कम हो जाएगा? यह शाश्वत सत्य है कि जो मूल्यवान है , उसकी अमरता अक्षुण्ण है। बाज़ार की आंखों से देखकर कोई नासमझी का परिचय दे तो फिर वह उसकी समस्या है।
आज सोशल मीडिया का दौर है। सोशल मीडिया ने भी इस तरह की बिना वैचारिकी वाली कविताओं को लिखने पढ़ने वाले कवियों की नई फौज पैदा की है जो गांवों कस्बों में विभिन्न अवसरों पर मंच पर चढ़कर एक नया दृश्य खड़ा कर रहे हैं। एक बात मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहूंगा कि कविता अपनी वैचारिकी से कभी समाज या लोगों से दूर नहीं होती बल्कि कविता का सतहीपन उसे आत्महीन कर देता है। आत्महीन और बिना वैचारिकी वाली कविताओं के बहुत निकट आकर भी श्रोता जब अपने घरों को खाली हाथ लौटते हैं तब यह कविता के अलोकप्रिय होने का सशक्त प्रमाण है। इन माध्यमों से भी कविता को बहुत नुकसान पहुंच रहा है । बिना वैचारिकी वाली आत्महीन कविताएं ही कविता की दुनिया को धीरे धीरे दीमक की तरह नष्ट कर रही हैं यह घोर चिंता का बिषय है। इस दौर में कवि हो जाना कितना आसान हो चुका है जबकि जनसरोकारिता और वैचारिकी से युक्त कविताओं का कवि कर्म आज भी बहुत कठिन है। उसके लिए आत्मा युक्त कविताओं का होना बेहद जरूरी शर्त है।
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रमेश शर्मा
श्रीकुंज, रायगढ़
7722975017
बहुत सुंदर आलेख
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख है, निश्चय ही जिस तरह का लोग कविता के प्रति स्वांग रचते हैं, वहां कविता होती नहीं है। बेहतरीन लेख , हार्दिक बधाई
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