डॉ. चंद्रिका
चौधरी हमारे छत्तीसगढ़ से हैं और बतौर सहायक प्राध्यापक सरायपाली छत्तीसगढ़ के एक शासकीय कॉलेज में हिंदी बिषय का अध्यापन करती हैं । कहानियों के पठन-पाठन में उनकी गहरी
अभिरुचि है। खुशी की बात यह है कि उन्होंने कहानी लिखने की शुरुआत भी की है । हाल
में उनकी एक कहानी 'घास की ज़मीन' साहित्य अमृत के जुलाई 2023 अंक में प्रकाशित हुई है।उनकी कुछ और कहानियाँ प्रकाशन की कतार में
हैं।
उनकी लिखी इस
शुरुआती कहानी के कई संवाद बहुत ह्रदयस्पर्शी
हैं । चाहे वह घास और जमीन के बीच रिश्तों के अंतर्संबंध के असंतुलन को लेकर हो, चाहे बसंत की विदाई के उपरांत विरह या दुःख में पेड़ों से पत्तों के पीले होकर झड़ जाने की बात हो,ये सभी संवाद एक स्त्री के परिवार और समाज के बीच रिश्तों के
असंतुलन को ठीक ठीक ढंग से व्याख्यायित करते हैं।
सवालों को लेकर
एक स्त्री की चुप्पी ही जब उसकी भाषा बन जाती है तब सवालों के जवाब अपने आप उस
चुप्पी में ध्वनित होने लगते हैं। इस कहानी में एक स्त्री की पीड़ा अव्यक्त रह जाते हुए भी पाठकों के सामने व्यक्त
होने जैसी लगती है और यही इस कहानी की खूबी है।
घटनाओं की
तारतम्यता, भाषागत शिल्प और
संवादों के प्रस्तुतिकरण में भी रचनाकार ने अपने शुरुआती कहानी में जिस कौशल का
परिचय दिया है वह भी आशान्वित करता है।
स्त्री जीवन से
जुड़े इस तरह के कथ्य पर बहुत सी कहानियां पहले भी लिखी गई हैं पर संवाद, घटनाओं और बिम्बों के नए प्रयोग से कहानी एक नई ताजगी के साथ
पाठकों तक पहुंचती है।
कहानी की बुनावट में , मसलन कहानी की घटनाओं के संयोजन में कहीं-कहीं आंशिक दोहराव जैसी स्थितियां जरूर बनी हैं जिसके कारण पठनीयता की लय पर कहीं कहीं हल्की सी रुकावट महसूस होती है पर गौर करने वाली बात यह है कि कहानी को पढ़ने की उत्सुकता अंत तक मन में बनी रहती है। शुरुआती लेखन में बहुत से उतार चढ़ाव आते हैं पर रचनाकार अपने स्वयं के अनुभवों से इन छोटी मोटी कमियों को आगे चलकर दूर कर लेता है। बहरहाल उनकी यह कहानी सुंदर और पठनीय है । आगे उनकी और भी कहानियाँ हमें पढ़ने को मिलेंगी, यह उम्मीद तो उनसे की ही जा सकती है। कथा लेखन की दुनिया में आने के लिए चंद्रिका को अनुग्रह परिवार की बधाई और शुभकामनाएं।कहानी को पढ़िए और अपनी प्रतिक्रियाओं से हमें अवगत भी कराईए।
- रमेश शर्मा
डॉ. चंद्रिका
चौधरी की कहानी : घास की ज़मीन
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उसकी पनीली आँखें
मेरी ओर उठी थीं। शायद उसे आभास हो गया था कि मैं बार-बार उसकी ओर ताक रही हूँ ।
सामान्य होते हुए भी, उस चेहरे पर कुछ
खास आकर्षण था। आकर्षण उसके साँवले रंग, गोल चेहरे,पतले होंठ, ऊपर की ओर फैल कर उठी नाक में नहीं था। आकर्षण था, उसकी त्रिकुटी पर मिली भौंहों का, जो चपटे माथे पर कुछ ज्यादा लंबी जान पड़ती थीं और जिनके नीचे मीन
अक्षियों पर पानी तैर रहा था, जिनमें किसी भी भाव वाले को अपने साथ बहा लेने की कशिश थी।
परिवर्तनशील दुनिया में चीजें स्थिर कहाँ रहती हैं या तो बह जाती हैं या बहा लेती
हैं।
वह परीक्षा कक्ष
में पैंतालीस मिनट बाद आई थी, हड़बड़ाई हुई-सी। जैसे बीच राह में रुके किसी यात्री से, उसकी आखिरी बस छूट रही हो और उसने उसे पकड़ने की चाह में अपने पाँव
को ही पंख बना लिए *हों* । उत्तरपुस्तिका और उपस्थिति पत्रक संबंधित सारी
औपचारिकताएँ वह भरने लगी, कलम की गति बहुत
तेज़ थी। शुरुआत में मेरा ध्यान उसकी हड़बड़ाहट पर गया। बाद में उसके चेहरे पर, लिखती हथेली पर और पाँव पर नजर पड़ी। तीन-तीन ऊँगलियों पर बिछियाँ
पहने उन साँवले पाँवों पर लगी मेहँदी, गौर से देखने पर ही दिख रही थी, पर चाँदी के पायल की चमक बढ़ गई थी। हथेली से लेकर कोहनियों तक लगी
मेहँदी, हल्दी *का*
पीलापन लिए कलाइयों में नग जड़े पीले कंगन, मखमली लाल चूड़ियाँ, दोनों हथेलियों की ऊँगलियों पर चमचमाती अंगूठियाँ, उसकी नवविवाहिता होने को प्रमाणित कर रही थीं। माथे पर लगी सिंदूर
की लंबी रेखा, ऊपर की ओर सँवारे
हुए बालों पर भी, मध्य भाग में
लालिमा बिखेर रही थी। परीक्षा कक्ष में कुल पचास परीक्षार्थी पाँच कतारों में बैठे
थे। वह कमरे के ठीक मध्य की तीसरी पंक्ति पर, तीसरे नंबर पर बैठी थी। मेरी कुर्सी उसके टेबल से कुछ दायीं ओर, सामने लगी थी, इसलिए उसे आसानी से देखा जा सकता था। मुझे लगा उसकी झुकी पलकें
आँसुओं के बोझ से भारी हैं। कुछेक क्षण में कुछ बूँदें भी टपकती दिखाई देतीं। मेरे
साथ के परिवीक्षक का ध्यान पूरे कमरे के परीक्षार्थियों पर था, किंतु उसकी आँसू भरी आँखें देख लेने के बाद, मेरा ध्यान उसी पर केंद्रित था।
इस बार उसने मुझे
देखते हुए ताड़ लिया। सचमुच उसकी आँखों में अश्रु भरे थे। मैंने अपना देखना बंद
नहीं किया। कई सवाल मेरी आँखों ने उठाए। वह भी बार- बार इस तरह निहार रही थी, जैसे मेरे सारे सवाल वह समझ रही हो। मुझे झेंप नहीं हुई उसे बार-
बार देखने में । लेकिन वह झेंपने लगी थी, मानो कह रही हो 'मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।' उसकी कलम लगातार चल रही थी। आँसुओं से लदी आँखों के साथ कोई कैसे
लिख सकता है, मुझे हैरत होती।
परीक्षा कक्ष में बैठे आधे परिक्षार्थियों की उत्तरपुस्तिका में मुझे हस्ताक्षर
करने थे। प्रारंभ के पैंतालीस मिनटों में मैंने सभी उत्तर पुस्तिकाओं में
हस्ताक्षर कर लिए थे। केवल उसी की बची थी। मैं उठी, उसके समीप जाकर खड़ी हुई। उसने अपना उपस्थिति पत्रक आगे कर दिया।
नामांकन क्रमांक के ठीक नीचे नाम लिखा था-मीनाक्षी। जिस तरह उसके पूरे चेहरे में
मछली के समान आँखें बहुत खूबसूरत थीं। उसी तरह उसके पूरे व्यक्तित्व को सँभाले हुए
था उसका नाम। कई बार, भीतर ही भीतर, मैंने वह नाम पुकारा। उसने मेरी तरफ देखा, सुनने के लिहाज से। संभवतः मेरी निःशब्द आवाज़ उस तक पहुँची थी।
जवाब में मैं मुस्करा दी। अक्सर मुस्कराहट का जवाब मुस्कराहट ही होता है, पर उसके लिए वह इतनी सस्ती नहीं थी। हाँ, आँसुओं को वह कमोबेश खर्च कर रही थी। तब शायद उसके लिए मुस्कराहट
की तुलना में आँसू अधिक सस्ते थे या फिर उन आँसुओं को वह शब्द नहीं दे पाई थी अब
तक। बयाँ होने के बाद ही शब्दों का मूल्य आँका जाता है। पर जिन शब्दों को स्वर
नहीं मिलते, वे भी शून्य में
तैरते रहते हैं। कई तो आपस में टकरा कर ख़त्म हो जाते हैं। जो संघर्ष करके बच जाते
हैं उनका अस्तित्व पारखी आँखों में बचा रहता है। मेरे स्वर रहित शब्दों को उन मीन
आँखों ने बचाया था। मीठी वाणी कानों को तृप्त करती है। भावनाएँ सीधे दुखती रग पर हाथ रखती हैं। कभी-कभी वे वाणी से नहीं आँखों से
अभिव्यक्त हो जाया करती हैं।
तीन घण्टे पूरे
होते ही हमने सारी उत्तर पुस्तिका संगृहित कर लीं। मेरे बाहर निकलते ही वह पीछे हो
ली। मुझे रोक, सामने खड़े होकर
उसने अभिवादन करके कहा- "मैडम! क्या आप मुझसे कुछ पूछना चाहती हैं?"
"हाँ, यदि तुम जवाब
देना चाहो तो।" मैंने लापरवाही से कहा।
" पर जिंदगी के पास हर सवाल का जवाब तो नहीं हो सकता?" उसने उन्हीं पनीली आँखों से मुझे देखा, जिन पर जवाब की जगह सवाल तैर रहे थे।
" जिंदगी के पास ही जवाब होता है, हाँ, जो मृत है, वह मौन हो जाता है सदैव के लिए।" एक फीकी मुस्कान मेरे होंठों
पर बिखर गई।
"कई ज़िंदगियाँ मौन ही जी लिया करती हैं, क्योंकि उनकी आवाज़ की कोई कीमत नहीं होती।" उसकी बुझी आवाज़
में निराशा का घोल था।
"कीमत आवाज़ की नहीं होती होगी, पर उस जज़्बे की होती है, जो हमेशा समाधान नहीं खोजते।"
" यदि समाधान न मिले तो कोई समस्या क्यों कहे? जवाब की चाह में ही तो सवाल उठाए जाते हैं?" उसकी बुझी आवाज़ में कुछ तेजी थी।
"ज़िंदगी स्वयं जवाब है, सवाल भी वही है। जीवन के अस्तित्व के ओर और छोर, यही सवाल- जवाब हैं। बल्कि इस दुनिया का निर्माण भी इन्हीं दोनों
के वजूद पर हुआ है।" उसके चेहरे के बदलते भाव पढ़ने की कोशिश करते मैंने कहा।
"पर कुछ जवाबों के मुँह नहीं होते मैडम।"
"सवाल फिर भी आँखों के कटघरे पर खड़े रहते हैं।" मैं उसे खोलना
चाहती थी। उसकी नज़र किसी उम्मीद से मेरे चेहरे पर टिकी रही।
" हर जवाब समाधान नहीं होता पर उनमें से कुछ ज़िंदगी दे जाते हैं
मीनाक्षी। " मैंने कलाई की घड़ी पर नज़र डालते हुए दृढ़ता से कहा। रुलाई
रोकने की कोशिश में उसके होंठ थरथराए। वह कुछ कहने को हुई कि सीढ़ी से उतरती भीड़
हम तक पहुँच गई। ऊपर के परीक्षा कक्षों से सैकड़ों विद्यार्थी एक साथ छूटे थे।
परीक्षा तीन बजे शुरू हुई थी, अब छ: बजकर सात मिनट हो चुके थे। मैंने उससे विदा लेनी चाही, पर तब तक वह भीड़ का हिस्सा बन चुकी थी। उत्तर पुस्तिकाएं जमा करने, मैं परीक्षा नियंत्रण कक्ष की ओर बढ़ गई। महाविद्यालय से घर तक के
पंद्रह मिनट के रास्ते तक, वे पनीली आँखे
मेरे साथ थीं, अपनी उन बूँदों
के साथ जो शायद बरसना नहीं चाहती थीं, पर उन आँखों में उन्हें सहेजने की अधिक क्षमता भी नहीं थी। वृक्ष
भी कहाँ सँभाल पाते हैं, वसंत के जाने के
दु:ख में पीली हुई पत्तियों को, आखिर झड़ा ही देते हैं। पर नवविवाहिता मीनाक्षी के जीवन में तो
वसंत ने अब प्रवेश किया है, फिर बूँद- बूँद झरते आँसुओं का दु:ख क्या है? कितने बेचैन करते हैं वे प्रश्न, जिनके उत्तर मिलने की उम्मीद ही ना हो। उन पनीली आँखों के साथ खड़े
प्रश्नों को अपनी आँखों से उतार फेंकना चाहती थी मैं, ताकि मेरे उजाले उसके अंधेरों से बचे रह सकें। बड़ी शिद्दत से
मैंने अपने जीवन में उजाले पाए हैं। पर जिसके जीवन का बड़ा हिस्सा अंधेरों में बिता
है, उसके लिए दूसरों
के अंधेरे पहचानना जितना सरल होता है, उतना ही कठिन होता है, उन्हें खुद से झटक देना। बहते आँसुओं को पोंछने वाली हथेली ही तो
होती है, चाहे वह अपनी हो
या परायी। पर जिन हथेलियों को नमी का अहसास होता है, वे सदैव सूखे में नहीं रह सकतीं। मेरी हथेली भी उस नमी तक पहुँचना
चाहती है। पर कैसे? वह बी.ए.अंतिम
वर्ष की स्वाध्यायी छात्रा है। पहले से कोई जान-पहचान भी नहीं । परीक्षा कक्ष में
कुछ घण्टों की मुलाक़ात और चंद मिनटों की बातचीत से केवल इतना ही समझ पाई कि उसे
कोई समस्या है। पर क्या? जिस हड़बड़ाहट से
वह आई थी, उसी हड़बड़ाहट के
साथ चली गई। आधार पाठ्यक्रम हिंदी भाषा व अंग्रेजी की परीक्षा हो चुकी थी। आज
समाजशास्त्र विषय का पहला पेपर था, दूसरा पेपर दो दिन बाद है। महाविद्यालय में हजारों नियमित व
स्वाध्यायी परीक्षार्थी परीक्षा में शामिल होने आते हैं, किस कक्ष में ड्यूटी लगेगी, नहीं पता। उससे फिर मिलना संभव होगा कि नहीं, पता नहीं।
मार्च के महीने
से दिन की थकावट बढ़ने लगती है। सूर्य की तपन से अलसाया, थका-हारा दिन, इस वक्त सोने की तैयारी में है। रात की नींद अब धीरे- धीरे उचट रही
है। मैंने गाड़ी घर के गेट पर रोकी। उतरते ही,अंधेरा होने के पहले पोर्च, बगीचे व बाहर की सारी बत्तियाँ मैंने जला दी। शायद बाहर फैलते
अंधेरे की चपेट से अपने भीतर को बचाना चाहती थी। मेरे अंधेरों को मुझसे शिकायत
रहती होगी कि क्यों मैंने उन कोनों पर टिमटिमाती लौ रख दी, जहाँ उन्होंने सूर्य की किरणों को भी पहुँचने से रोके रखा है? मैं उस लौ को मीनाक्षी के अंधेरे कोनों तक पहुँचाना चाहती हूँ।
किन्तु चाहने व कर पाने के मध्य बड़ा फ़ासला होता है और दो फ़ासलों के बीच का सफर
ही, भविष्य तय करता
है।
कुछ समय बाद हाथ
में कॉफी का कप लिए मैं बगीचे में लगी कुर्सी पर आ बैठी। रात हो चुकी है, सामने बिछी हरी- हरी घास, बल्ब की रोशनी से चमकती हुई अपने बीच आने का न्यौता दे रही है। ओस
की नन्हीं बूँदें, छोटी-छोटी, पतली पत्तियों पर चढ़ने लगी हैं।
" कई ज़िंदगियाँ मौन ही जी लिया करती हैं ।" उसके शब्द अब तक
मेरे कानों में गूँज रहे हैं। मैं उठकर घास पर चलने लगी। घास भी तो मौन ज़िंदगी
जीती है। उसे खूंद दो, काट लो, उखाड़ दो वह उफ्फ़ भी न करेगी। सुबह- शाम, केवल अपने आँसुओं को निथारकर वह अपनी पीड़ा दिखाने की कोशिश करती
है। रौंदा जाना, अपने मौन को शब्द
न दे पाना या फिर अपनी चाह के अनुसार जगह न बदल पाना, न जाने उसके दु:ख का कारण क्या है? हो सकता है, जितनी ज़मीन उसे उगने के लिए दी जाती है, वह उसके लिए पर्याप्त न हो। घास की कई किस्में होती हैं। पर लोग
उन्हीं किस्मों को रोपना पसंद करते हैं, जो न ज्यादा बढ़े न फैले; केवल आँखों को भाये, पैरों को ठण्डकता दे। उसकी जगह पहले से निर्धारित है; घर के बगीचे की क्यारियों में, बहती नदी के किनारों पर, उपजाऊ खेतों में पर केवल मेड़ों पर। जैसे ही वह नियत जगह से बाहर
पसरी; कथित मर्यादा, संस्कृति व परंपरा की कैंची चलनी शुरू हो जाती है। पूजा स्थल की
पवित्रता के लिए, यज्ञ- हवन की
पूर्णता के लिए, घर के शुद्धिकरण
के लिए,प्रथम देव के पूजन के लिए उसकी
आवश्यकता तय है। परंतु कीट-पतंगों से लेकर विशालकाय जीवों का उदर पोषण करने वाली
की भूख को, समझने वाला कोई
नहीं, इसलिए शायद वह
बार-बार उखाड़ दिए जाने के बाद भी, हर बार अपनी जड़ें बचा लेती है, ताकि अपनी भूख, कभी तो समझा सके। हवा के ठण्डे झोंके ने मुझे छूकर जगाया, विचारों के बिस्तर पर, मेरा देर तक सोना शायद उसे पसंद नहीं आया। मैं कप लिए घर के भीतर
दाख़िल हो गई।
दो दिन बाद ठीक 2:30 बजे, परीक्षा नियंत्रण
कक्ष में मुझे कक्ष क्रमांक 20 के परीक्षार्थियों के रोल नंबर की सूची व उपस्थिति पत्रक दिया गया।
सूची में लिखा था बी. ए. अंतिम वर्ष, समाजशास्त्र द्वितीय । मेरा माथा ठनका। मैंने वहीं, टेबल पर अन्य सभी कागजात रख दिए, केवल उपस्थिति पत्रक हाथ में लिए नाम तलाशने लगी। तेईसवें परीक्षार्थी
का नाम था मीनाक्षी। मन किसी अनजानी खुशी से आनंदित हो उठा। परीक्षा कक्ष में
मीनाक्षी का आना, तीन बजकर
पैंतालीस मिनट पर हुआ। हम दोनों ने एक दूसरे को देखा, मैं मुस्कराई, उसने भी औपचारिकता पूरी की। उसी हड़बड़ाहट के साथ वह जल्दी-जल्दी
लिखने लगी। परीक्षा के बाद, कक्ष के बाहर सीढ़ियों के ठीक ऊपर उसने मुझे पुकारा-
"मैडम! " मैं घूमी, किनारे खड़ी हो गई।
"कैसी हो?"
"वैसी, जैसा नहीं होना
चाहिए।" उसकी आँखें भर आईं।
"इन्हीं भरी आँखों का कारण जानना है मुझे ।" मैंने सीधे कहा।
"ऐसी समस्या जिसे मैं कह नहीं सकती।" उसका स्वर उदास था।
"कही जाने के बाद ही समस्या हल होती है। " मैंने सलाह देने के
तर्ज़ में कहा।
"कुछ समस्याएं सदैव यथावत् रहती हैं मैम।" वह तटस्थ थी।
"किसी ने कहा है कि हर समस्या अपने साथ समाधान लेकर आती है।"
"पर किसी ने यह नहीं कहा कि कुछ समस्याएँ जान लेकर भी जाती
हैं।" उसकी नज़रें कहीं दूर कुछ खोज रही थीं।
" समस्याएं जान नहीं लेतीं, हम स्वयं लेते हैं । हाँ, आरोप हम परिस्थितियों पर लगाते हैं।" उसके चेहरे पर व्यंग्य
भरी मुस्कान थी, वह मेरी बात से
सहमत नहीं थी। मैंने बात आगे बढ़ाई-" उसी तरह, जिस तरह परिस्थितियाँ मनुष्य द्वारा बनाई जाती हैं। परिस्थितियाँ
मनुष्य को नहीं बनातीं।"
" मेरी समस्या का समाधान नहीं है मैम, इसलिए क्या चुप रहना सही नहीं है?"
"चुप रहकर आँसू बहाने से ज्यादा अच्छा, अभिव्यक्ति है। "
"पर परिणाम?"
"जो भी हो, हर काम परिणाम
सोचकर नहीं किया जाता।"
" दुनिया सिर्फ परिणाम देखती है , कार्य नहीं ।"
"पर कार्य से परिणाम बदले जा सकते हैं। "
वह मुस्कराई।
परंतु यह मुस्कान बहुत महँगी थी, जो बड़ी मुश्किल से होंठों के कोरों पर कुछ क्षण के लिए दिखी, फिर मुखड़े पर वही वीरानगी।
" आप जिस जगह हो वहाँ से यह सब कहना बहुत आसान है, पर मैं जहाँ खड़ी हूँ, वहाँ से कोई भी इन बातों को स्वीकार नहीं करेगा।" बड़ी सहजता
से उसने यह बात कह दी। दुनिया की तरह उसने भी केवल मेरी सफलता देखी, उसके पहले का संघर्ष न वह देख सकती थी न देखने की ज़रुरत समझती थी।
" पर नकारात्मक सोच हमें हराती है मीनाक्षी।" मन की तरह मेरी
आवाज़ भी भारी थी।
" सोच इतनी सकारात्मक भी नहीं होनी चाहिए मैम, कि सामने से आती मौत भी दिखाई न दे।" उसके चेहरे का रंग सुर्ख
हो गया।
"फिर भी कहूँगी….नकारात्मकता में पतन है।"
"पर पतन में ही चरम है।"
"और चरम क्या है तुम्हारी दृष्टि में? "
"वह अंतिम बिंदु, जिसके बाद कोई कहानी अधूरी नहीं रहती। या तो पूरी कर दी जाती है या
अधूरी ही ख़त्म ।" उसके शब्दों से ज्यादा कठोर उसकी सूखी आँखें थीं, जिन पर अब नमी की जगह तटस्थता थी। उसने अपनी कलाई की घड़ी देखी।
"फिर मिलते हैं मैम" कहकर तेजी से सीढियाँ उतर गई। मैं चुप
खड़ी, उसे जाते हुए
देखती रही। मिलने की एक गुंजाइश छोड़ गई वह। वह जानती है कि शायद हम दोबारा नहीं
मिल सकेंगे। कितने कक्षों में कितनी परीक्षाएँ चल रही हैं। न उसने मेरा मोबाइल
नंबर माँगा न मैंने उसका। बस पकड़ने की हड़बड़ी में चली गई। पर मेरी सोच में उसकी
अनकही समस्याएं समा गयीं, जो गाहे- बगाहे
कई निरुत्तर प्रश्न खड़ा कर देती हैं। किसी दूसरे को लेकर खुद से किए जाने वाले
सवालों के जवाब नहीं मिलते, यह मैं जानती हूँ। पर फिर भी प्रश्नों के दरमियान, प्रत्येक पर ठहरकर उत्तर ढूँढने की असफल कोशिश करना, इन दिनों मेरी फ़ितरत बन गई है।
कई दिन बीत गए, परीक्षाएँ होती रहीं,वह नहीं मिली। एकाएक आज जब परीक्षा कक्ष से उत्तर पुस्तिका लिए
बाहर निकली, कुछ दूर चलते ही
एक जानी- पहचानी आवाज़ कानों से टकराई।
" मैडम सुनिए।" उसने उस भीड़ में भी मुझे ढूँढ लिया था। मैं
पीछे मुड़ी। सामने वही खड़ी मिली। बुझी- बुझी सी, परेशान।
"पेपर कैसे बना?"
"कुछ ख़ास नहीं ।"
"और कितने पेपर बचे हैं ?"
"केवल एक, हिंदी साहित्य
का।"
"बढ़िया, फिर तुम्हें यहाँ
आना नहीं पड़ेगा।"
उसका चेहरा मुरझा
गया, जैसे कोई फूल, बिना रोशनी- पानी के खिलकर भी कुम्हला जाता है। वह चुप खड़ी थी।
"आखिर तुम कुछ बताती क्यों नहीं? "
"क्या बताऊँ?"
"अपनी समस्याएँ, जिसने तुम्हें मुरझा दिया है।"
"यही की मैं एक बेटी, एक पत्नी और एक बहू हूँ ।" खिसियानी मुस्कान के साथ वह बोली।
"यही तो ताकत है, हर स्त्री की।"
"जो ताकत होती है, वही कमज़ोरी भी होती है।" उसने अपना मुँह भीड़ की तरफ कर लिया, जिससे पूरा बरामदा भरा था।
"पर चुनाव हमारा खुद का होता है। "
"होता होगा, पर हर शब्द उसी
अर्थ के साथ, हर जगह प्रयुक्त
नहीं होते। जिन्हें आप अपनी ताकत कहती हैं, वही मेरी कमज़ोरियां हैं, मेरी समस्याएँ हैं।"
"तुम हर बात खुलकर क्यों नहीं कहतीं?"
"पहली बार तो इतनी खुली हूँ।"
"मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकती हूँ।"
"जो आप कर रही हैं वही।"
"मैं क्या कर रही हूँ?" मैंने विस्मय से पूछा।
"मुझे सुन रही हैं।" वह मुस्कुरा दी।
"इससे क्या मिलेगा?"
"आत्मिक संतुष्टि, कि कोई है जो मेरी समस्याएँ जानना चाहता है। आगे बढ़ती दुनिया के
पास इन सब के लिए वक्त नहीं होता।"
"खैर, मैं चलती हूँ मैम, बस छूट जाएगी।" वह जाने के लिए पलटी।
"बस आ जाएगी भी तो कह सकती हो?" मैंने कहा।
"वह तो आप कहेंगी, कहा ना हर शब्द का चयन वह जगह तय करती हैं जहाँ पर हम खड़े होते
हैं।" उसने पलटकर कहा। कुछ लोगों का जाना फिर आने के लिए होता है इसलिए मन को
अधिक नहीं दुखाता। मैं उसे जाते हुए देखती रही, फिर मिलने की अनंत संभावनाओं के साथ.....। मेरी ड्यूटी उसके कक्ष
में लगे न लगे, वह मुझे ढूँढ
लेगी, ऐसी आशा बँध गई
अब। मैंने मन में यह ठान लिया था कि अंतिम परीक्षा के दिन उसे ढूँढकर सब कुछ पूछ
लूँगी। गाड़ी में साथ लेकर उसके घर तक जाऊँगी।
कुछ दिन बाद मेरे
हाथ में फिर वही उपस्थिति पत्रक आया, परीक्षा कक्ष में पहुँचकर मैं बेसब्री से उसकी प्रतीक्षा करने लगी।
आज अंतिम पेपर है उसका- हिंदी साहित्य द्वितीय। मेरी दृष्टि बार-बार कलाई की घड़ी
पर जाती। 3:10, 3:20, 3:35, 3:50 समय लगातार गुज़रता जाता। वह कहाँ रुका है किसी के लिए ,जो आज रुकेगा, पर आज वह बीत नहीं रहा था, बल्कि भाग रहा था। काश आज उसकी ऊँगली मेरे हाथ में होती। दरवाजे पर
प्यून या किसी अन्य के आते ही मुझमें ऊर्जा भर जाती, मेरी आशा भरी निगाहें कुछ पल वहाँ ठहरकर निराश लौट आतीं। मैं बार-
बार उसके टेबल के पास जाती। उपस्थिति पत्रक पर उसके दस्तखत देखती । वह सभी दिन
उपस्थित थी, फिर आज क्या हुआ ? मन, मनो भारी हो
जाता। दृष्टि किसी प्रत्याशा में तीन घण्टे दरवाजे के आस-पास चक्कर लगाती रही। पर
वह नहीं आई। कदम बेहिस व्याकुलता के साथ उठकर चौखट तक जाकर, हताश लौट आते। लाल स्याही से उसकी उपस्थिति पत्रक पर अनुपस्थित
लिखतीं ऊँगलियां काँपी, पर स्याही ने
अपना काम कर दिया। क्या मीनाक्षी घास जैसी ही बिछ गई होगी, सभ्य समाज की ज़मीन पर, रौंदे जाने के लिए? क्योंकि उसे उतनी ही ज़मीन मिली होगी, जितने में वह अपने सपने नहीं बो सकती थी, और उससे अधिक में फैलकर सपने बोने की मंजूरी, उसे न मिली होगी? फिर प्रश्नों की एक लहर, मस्तिष्क में ज्वार की तरह आई और चली गई।
सारी उत्तर
पुस्तिकाएं लिए जब कक्ष से बाहर निकली, किसी के न पुकारने की आवाज़ ने मुझे क्षण भर ठिठका लिया, लेकिन पीछे पलटने की हिम्मत न जुटा सकी। उसकी आँखों की नमी, आज मैंने अपनी आँखों में महसूस की।
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डॉ. चंद्रिका चौधरी
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी,
स्व. राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह शासकीय महाविद्यालय सरायपाली, जिला- महासमुंद (छ.ग.)
Email-
drchandrikachoudhary@gmail.com
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