सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

गजेंद्र रावत की कहानी : उड़न छू

गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।

            
कहानी 'उड़न छू' : गजेन्द्र रावत


....एक तो महामारी ऊपर से कमबख्त लॉकडाउन ! जहां दुनिया-भर  की हालत पतली हो गई थी, वहीं उपजी परिस्थियों ने अम्बा को भीतर से तोड़कर रख दिया था। शुरुआत में ही वो टी॰वी॰ में देख रहा था....लॉकडाउन की अनिश्चितता में घबराकर उस जैसे सैकड़ों प्रवासी मजदूर शहर छोडकर चल पड़े अपने गाँव-देहात की ओर....पैदल-पैदल...उन्हें रास्ते की मुश्किलों के साथ पुलिस भी निर्ममता से पीट रही थी...ये सब देख कर वो कांप गया, बुरी तरह खौफ खा गया। उससे आगे देखा नहीं गया, टी॰वी॰ बंद कर दिया फिर कभी नहीं खोला। वैसे भी वो कैद था एक छोटी-सी चार-दीवारी में ! उदासी भरे समय में वो उन दिनों को याद कर रहा था जब उसका रिक्शा ताबड़-तोड़ चलता था....वो मैट्रो-स्टेशन से सवारियाँ उठाता और निकल पड़ता शहर को नापने...गली-कूचों में, बाज़ारों में और दिन भर सड़कों के बिछे जाल पर फिरकनी-सा घूमता था।...क्या शाही दिन थे वे ! जम के मेहनत करते, खूब पसीना बहाते और कमाते, कभी-कभार शाम ढले पव्वा भी मार लेते !...अब न कोई बात करने को रहा। यारों-दोस्तों की शक्ल देखे भी हफ्तों हो जाते हैं। न कोई काम रहा, सारे धंधे चौपट हो गये...दो जून रोटी भी मय्य्सर नहीं...बहुत बुरे दिन आ गये हैं....उसने सोचते-सोचते आँखें बंद कर ली....

            साथ की चारपाई पर रुक्की बैठी हुई थी, साँवली, मोहनी-सी ! कद-काठी, नैन-नक्श...पुछो मत ! मुफ़लिसी की कहीं कोई छाप नहीं थी उसके चेहरे पर !...बस नूर था ! वो लॉकडाउन से पहले आई एक्सपोर्ट की कमीजों पर बटन टांक रही थी, तीन दिन से इसी काम में जुटी हुई थी। वहीं बैठे-बैठे नीचे देखते हुए धीमे से बोली, “ पैसे-धेले तो सब बराबर हो गये हैं। ये कमीजें...कैसे करेंगे ? ”

            अम्बा ने बुझी निगाहों से रुक्की की ओर देखा लेकिन कहा कुछ नहीं। एक चुप्पी, उदासी और अशुभ की आशंका दोनों के बीच खिंच गई।

            “ फैक्ट्री की तीन पर्चियाँ इकट्ठी हो गई हैं...कुल जमा डेढ़ हज़ार तो होंगे ही। ” रुक्की फुसफुसाई, “ लेकिन जाओगे कैसे...मुआ लॉकडाउन चल रहा है...बीमारी से तो लड़ लेंगे मगर....सामान सारा खत्म हो गया है, ये देखो सब डिब्बे खाली हैं...”

             उसी जरा-सी जगह के कोने में सिमटा था सामान...गैस का सिलेंडर, चूल्हा, पतीली, दीवार से सटे दो-चार बर्तन और कुछ प्लास्टिक के खाली डिब्बे...यही थी रसोई।

            “ सब खाली ! ” यह सुनकर अम्बा के अन्दर एक अजीब सी सनसनी भर गई, भीतर उदासी और घनीभूत हो गई। वो सोचने लगा...घर में सब खत्म ! रूपये-पैसे... उसने एक लंबी सांस खींची और ताकत जुटाकर बोला, “ मैं जाऊंगा, पर्चीयाँ दे देना। ”

            “ मुझे डर लग रहा है !...हर तरफ तो पुलिस लगी हुई है...कैसे जाओगे ? ” रुक्की की आवाज कांप रही थी, वो सहमी हुई थी।

            “ डरने से क्या होगा ! ” उसने सिर हिलाया और फुसफुसाया, “ पटरी-पटरी चला जाऊंगा......कल तक हो जाएंगी सारी कमीजें ?........लाला से भी बात कर लेना फोन से......”

           “ हाँ हाँ मैं कर लूँगी। ” डर अभी भी रुक्की के दिलो-दिमाग पर काबिज था, वो अब अम्बा के बारे में सोच रही थी....कैसे जायेंगे ? हाय राम !

            पूरा दिन बोझिल, हताश और चिंता में बीता। रात भी पहले जैसी नहीं रही कि दिनभर के थके-मांदे शरीर को पड़ते ही नींद आ जाती थी लेकिन अब जागी आँखों में बुरे-बुरे ख्याल पीछा ही नहीं छोडते और अगर जरा देर आँखें बंद हो भी जाएँ तो सपनों में डर,छटपटहट और बैचेनी इस कदर बढ़ जाती है कि घबरा के नींद खुल जाती है। अनिद्रा और अवसाद दिमाग में जमता रहता।

            वे जैसे तैसे लेट तो गए, बत्ती बुझा दी मगर आँखों में नींद का नामोनिशान नहीं था।...वे लगातार करवटें बदल रहे थे। अम्बा नीचे लेटी रुक्की की ओर देखने लगा, वो दुबकी हुई थी।....वो सोचने लगा.....पहले हम कितना प्यार करते थे, कैसे कहती थी रुक्की...तुमसे तो बस रात-दिन यही करवा लो....फिर हंस देती थी...अब कहाँ गई वो हंसी...वो प्यार...आलिंगन... देर तक अम्बा की आँखों में विगत स्मृतियाँ उभरती रहीं। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो ये सब गए जमाने की बातें हो।

            अम्बा सुबह-सुबह घर से निकल पड़ा, उसके मुंह पर मास्क और एक कंधे पर झोला लटक रहा था। फैक्ट्री मालिक के हाथों की बनी तीन पर्चीयां तथा उसका पता उसकी जेब में था। वो बस्ती के सँकरे रास्तों के जाल से गुजरता हुआ बाहर निकल आया। नजरें चौकन्नी और सावधान थी, चारों ओर देखते हुए उसने सामने के फ्लैटों की गलियाँ से जाना बेहतर समझा। दबे कदमों से बीचों-बीच आगे बढ़ता जा रहा था। फ्लैट पार हो गए तो कोठियाँ की कतारें शुरू हो गई। चारों तरफ सुनसान था। वो सड़कों पर आने से बच रहा था क्योंकि वहाँ पुलिस का पहरा होने की संभावना ज्यादा थी। कोठियाँ से बीच से गुजरता वो मेन सड़क तक पहुँच गया, जो मजबूरी थी, उसी को पार करने पर वो पटरी-पटरी जा पाता। उसने आड़ लेकर पहले सड़क के दोनों तरफ देखा।...हर ओर गहरी खामोशी फैली हुई थी। कहीं कोई ट्रैफिक नहीं था। दूर दूर तक आदमी न आदमी की जात !...एक तीखी सिहरन-सी उसके भीतर दौड़ गई। डर नई शक्ल अख़्तियार कर उसकी धड़कनों को बढ़ा रहा था। वो अपने घर से जितना दूर आ गया था, परेशानी और उलझनें उसी अनुपात में बढ़ती जा रही था। उसने एक बार फिर दोनों ओर देखा और दौड़ कर सड़क पार कर ली। सामने घने पेड़ों का छोटा-सा जंगल था वो पेड़ों के बीच से रास्ता बनाता रेल के ट्रैक पर पहुँच गया। पटरी की ऊँचाई चढ़ते हुए उसने दोनों ओर देखा, वहाँ सब खाली पड़ा था । उसने दाहिने से पटरी पकड़ ली और नाक की सीध में किनारे किनारे चलने लगा। घनी झाड़ियाँ के बीच से कभी सड़क का एक हिस्सा दिखाई दे जाता तो वो वहाँ पर अपनी चाल बढ़ा देता। सड़क की ओर से शोर सुनाई दिया, उसने झड़ियों के बीच से देखा सड़क पर पच्चीस-तीस की संख्या में पुलिस बल मोटरसाइकिलों पर सवार एक साथ निकल रहे थे।...मानो पूरी धरती पर उनका शासन चलता हो। अचानक अम्बा के मुंह से निकला, “पुलिस राज ! ” उसने डर से अपने मुंह पर हाथ रख लिया और उनके गुजरने तक सांस रोके झड़ियों की ओट में खड़ा रहा। कुछ और आगे जाकर अम्बा ने पटरी छोड़ दी।  उसे एक्सपोर्ट फैक्ट्री के मालिक का घर ढूँढने में अधिक परेशानी नहीं उठानी पड़ी। किस्मत अच्छी थी कि बिना किसी हील-हुज्जत के पर्चियाँ दी और पेमेंट मिल गई। बहुत दिनों बाद खुशी अम्बा के अंतरमन तक पहुंची थी। वो लौट गया, उसकी चाल में उमंग थी, फिर पटरी-पटरी हो लिया। वो अविराम चलता रहा। उसने बीच के फाटक से पहले झड़ियों के मध्य जगह बना कर सड़क की ओर देखा, वहाँ बस-स्टैंड का पिछला हिस्सा दिखाई दे रहा था, जहां कोई नहीं था। अपने पक्ष में परिस्थिति को पाकर वो सोचने लगा....रास्ता बदल लूँ...बस-स्टैंड के साथ के सब-वे से सड़क पार कर लूँगा....और आगे की बिल्डिंगों के बीचों-बीच से सीधा घर...आसान हो जाएगा...

            पक्का निश्चय करने के लिए अम्बा ने फिर एक बार झाड़ियों से बस-स्टैंड की ओर देखा और हिम्मत जुटाते हुये उस ओर कदम बढ़ा दिये। बस स्टैंड के सामने पहुंचा तो हक्का-बक्का रह गया, उसकी घिग्घी बांध गई। तीन पुलिस वालों ने एक लड़के को स्टैंड के भीतर मुर्गा बना रखा था। उसे देखते ही वे उस पर झपटे और घेरा बनाकर छप्पर के नीचे ले आये।

            अम्बा को टी॰वी॰ पर देखे मजदूरों की पिटाई के सीन याद आने लगे...

            “ कहाँ जा रहा है ? ” एक सिपाही ने पूछा और दूर से दो डंडे उसकी टांगों पर जड़ दिये। वो तिलमिला गया और दर्द से चीख उठा।

            दूसरा सिपाही डंडे से इशारा करते हुए बोला, “ स्साले सारे देश में लॉकडाउन चल रहा है और तू...चल मुर्गा बन जा। ”

            वो चुप खड़ा रहा।

            “ अबे मुर्गा क्यों नहीं बनता ! ” सभी सिपाही उससे दूरी बनाए हाथों में डंडे लिए खड़े थे।

            “ नहीं बनूँगा...” अम्बा अभी भी अपनी दर्द वाली जगह को मसल रहा था।

            वे तीनों इस तरह साफ-साफ हुक्म की अवेहलना पर लाल-पीले हो गए। गुस्से में एक ने अम्बा की दूसरी टांग पर लठियाँ चला दी।

            “ चल स्साले जेबें उलटी कर...” दूसरा सिपाई लाठी से उसे ठेलते हुए बोला।

            वो चुप खड़ा रहा।

            तीसरा सिपाही जो अब तक खामोश खड़ा था, अंधाधुंध उस पर लाठियाँ मारने लगा, “ स्साले समझता क्या है अपने आप को ! ”

            अंबा भीषण दर्द से चिल्लाता रहा और सिर को बाजुओं में छिपा कर बचाने की कोशिश करता रहा।

            “ चल जेबें उलट। ”

            उसने पतलून की दोनों जेबें उलट दी, वे खाली थी।

            “ ऊपर वाली तेरा बाप दिखाएगा। ”

            वे तीनों महामारी उन तक आने के डर से दूर खड़े थे।

            उसने ऊपर वाली जेब भी दिखा दी, वो भी खाली थी।

            “ कंगला साला ! अकड़ ऐसे रहा है जैसे लाखों रुपए लेकर चलता हो। ” वह सिपाही चिढ़ कर बोला, “ चल मुर्गा बन। ”

            स्टैंड के किनारे जो लड़का मुर्गा बना हुआ था उसने कानों पर से पकड़ ढीली छोड़ दी थी। वो सिपाहियों की गतिविधियों पर नज़र रखे हुए था।

            उन तीनों ने अम्बा पर घेरा डाल लिया था। उनमें से एक सिपाही बोला, “ अंदर की जेब दिखा...”

          पहले वो चुप खड़ा रहा फिर धीरे से बोला, “ अंदर कोई जेब नहीं है। ”

            “ मैं सब जानता हूँ स्सालों तुम्हें ! रहता कहाँ है तू ? ”

            “ बी-ब्लॉक की झुग्गियों में...”

            “ झुग्गियों में ! फिर यहाँ कहाँ मर रहा है ? ”

            वो चुप रहा।

            “ तुम स्साले झुग्गी वाले महामारी फैला रहे हो....अब तो तू मुर्गा बन जा बस। ”

            अचानक ही एक अजीब-सी अफरा- तफरी मच गई। स्टैंड के कोने में मुर्गा बना हुआ लड़का सब-वे की तरफ भाग खड़ा हुआ। तीनों सिपाहियों ने आव देखा न ताव उसको पकड़ने पीछे भाग पड़े।

            अम्बा के लिए गोल्डन चांस था।.....उसने देर नहीं की, भाग पड़ा विपरीत दिशा में रेल की पटरी की ओर.....

            वो पटरी-पटरी कुछ दूर तक तेजी से भागा फिर चलने लगा। वो अभी भी बार-बार पीछे देख रहा था कि कहीं कोई आ तो नहीं रहा। धीरे-धीरे वो आश्वस्त होता चला गया। अब उसकी चाल में जीत का गर्व और दो हज़ार के नोट की गर्मी थी। दर्द के बावजूद एक उमंग उसके भीतर करवटें ले रही थी....वो चलता जा रहा था और सोच रहा था......रुक्की को बताएगा......पुलिस को चकमा दिया..... दो हज़ार का नोट उसके जूते में है......वे तीनों के तीनों फुददू, साले भाग लिए लड़के के पीछे.....वो मन ही मन हँसा। एक ऊर्जा और विश्वास उसके भीतर जागने लगा। उसने आकाश की ओर देखा, सूरज सिर पर था। उसे याद आया अभी सड़क भी पार करनी है और रुक्की को बहुत सारी बातें बतानी हैं.....डेढ़ हज़ार के बदले दो हज़ार दे दिये हैं, अच्छा आदमी है लाला.......और हाँ सबसे जरूरी बात, अगर उड़न छू का चांस नहीं मिला होता, मैं तो फंस गया था, भला हो उस लड़के का...

            ......और उसने तेजी पकड़ ली।     

°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°                          

                                            गजेन्द्र रावत

                                            डब्ल्यू॰पी॰- 33सी,

                                            पीतम पुरा,

                                            दिल्ली-110034

                                            मों॰-9971017136°°

       Email~ rawatgsdm@gmail.com

टिप्पणियाँ

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुक...

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज...

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विच...

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवा...

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सो...

डॉ. चंद्रिका चौधरी की कहानी : घास की ज़मीन

  डॉ. चंद्रिका चौधरी हमारे छत्तीसगढ़ से हैं और बतौर सहायक प्राध्यापक सरायपाली छत्तीसगढ़ के एक शासकीय कॉलेज में हिंदी बिषय का अध्यापन करती हैं । कहानियों के पठन-पाठन में उनकी गहरी अभिरुचि है। खुशी की बात यह है कि उन्होंने कहानी लिखने की शुरुआत भी की है । हाल में उनकी एक कहानी ' घास की ज़मीन ' साहित्य अमृत के जुलाई 2023 अंक में प्रकाशित हुई है।उनकी कुछ और कहानियाँ प्रकाशन की कतार में हैं। उनकी लिखी इस शुरुआती कहानी के कई संवाद बहुत ह्रदयस्पर्शी हैं । चाहे वह घास और जमीन के बीच रिश्तों के अंतर्संबंध के असंतुलन को लेकर हो , चाहे बसंत की विदाई के उपरांत विरह या दुःख में पेड़ों से पत्तों के पीले होकर झड़ जाने की बात हो , ये सभी संवाद एक स्त्री के परिवार और समाज के बीच रिश्तों के असंतुलन को ठीक ठीक ढंग से व्याख्यायित करते हैं। सवालों को लेकर एक स्त्री की चुप्पी ही जब उसकी भाषा बन जाती है तब सवालों के जवाब अपने आप उस चुप्पी में ध्वनित होने लगते हैं। इस कहानी में एक स्त्री की पीड़ा अव्यक्त रह जाते हुए भी पाठकों के सामने व्यक्त होने जैसी लगती है और यही इस कहानी की खूबी है। घटनाओ...

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहान...

जीवन के उबड़ खाबड़ रास्तों की पहचान करातीं कहानियाँ

जीवन के उबड़ खाबड़ रास्तों की पहचान करातीं कहानियाँ ■सुधा ओम ढींगरा का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह चलो फिर से शुरू करें ■रमेश शर्मा  -------------------------------------- सुधा ओम ढींगरा का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘चलो फिर से शुरू करें’ पाठकों तक पहुंचने के बाद चर्चा में है। संग्रह की कहानियाँ भारतीय अप्रवासी जीवन को जिस संवेदना और प्रतिबद्धता के साथ अभिव्यक्त करती हैं वह यहां उल्लेखनीय है। संग्रह की कहानियाँ अप्रवासी भारतीय जीवन के स्थूल और सूक्ष्म परिवेश को मूर्त और अमूर्त दोनों ही रूपों में बड़ी तरलता के साथ इस तरह प्रस्तुत करती हैं कि उनके दृश्य आंखों के सामने बनते हुए दिखाई पड़ते हैं। हमें यहां रहकर लगता है कि विदेशों में ,  खासकर अमेरिका जैसे विकसित देशों में अप्रवासी भारतीय परिवार बहुत खुश और सुखी होते हैं,  पर सुधा जी अपनी कहानियों में इस धारणा को तोड़ती हुई नजर आती हैं। वास्तव में दुनिया के किसी भी कोने में जीवन यापन करने वाले लोगों के जीवन में सुख-दुख और संघर्ष का होना अवश्य संभावित है । वे अपनी कहानियों के माध्यम से वहां के जीवन की सच्चाइयों से हमें रूबरू करवात...

चक्रधर नगर स्कूल में जननायक रामकुमार जन्म शताब्दी वर्ष पर हुए शैक्षिक प्रतियोगिताओं के आयोजन

चक्रधर नगर स्कूल में जननायक रामकुमार जन्म शताब्दी वर्ष पर हुए शैक्षिक प्रतियोगिताओं के आयोजन ।  विभिन्न प्रतियोगिताओं के विजेता बच्चे हुए पुरस्कृत रायगढ़। 16 दिसम्बर। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पूर्व विधायक रामकुमार की स्मृति में उनके जन्म शताब्दी वर्ष पर शहर के अनेक संस्थानों में आयोजन हो रहे हैं। इसी कड़ी में जन्म शताब्दी आयोजन समिति के सहयोग से स्वामी आत्मानन्द शासकीय उ मा वि चक्रधरनगर में भी बच्चों के लिए स्लोगन,निबंध एवं भाषण प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। इन प्रतियोगिताओं के विजेता बच्चों को पुरस्कृत करने के लिए सोमवार 16 दिसम्बर को स्कूल में एक गरिमामय आयोजन सम्पन्न हुआ ।  मुख्य अतिथि नगर निगम पार्षद पंकज कंकरवाल, विशिष्ट अतिथि नगर निगम पार्षद कौशलेश मिश्र , वरिष्ठ रंगकर्मी अनुपम पाल एवं पूर्व विधायक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रामकुमार के परिवार से सुनील कुमार अग्रवाल की उपस्थिति में बच्चों ने अपनी स्पीच कला का बखूबी प्रदर्शन किया। स्लोगन प्रतियोगिता अंतर्गत कनिष्ठ वर्ग में शगुफ्ताह  प्रथम,नन्दिता मेहर द्वितीय एवं रितिका पाऊले तृतीय स्थान पर रहीं।क्षमा देवांगन को ...

दिव्या विजय की कहानी: महानगर में एक रात, सरिता कुमारी की कहानी ज़मीर से गुजरने का अनुभव

■विश्वसनीयता का महासंकट और शक तथा संदेह में घिरा जीवन  कथादेश नवम्बर 2019 में प्रकाशित दिव्या विजय की एक कहानी है "महानगर में एक रात" । दिव्या विजय की इस कहानी पर संपादकीय में सुभाष पंत जी ने कुछ बातें कही हैं । वे लिखते हैं - "महानगर में एक रात इतनी आतंकित करने वाली कहानी है कि कहानी पढ़ लेने के बाद भी उसका आतंक आत्मा में अमिट स्याही से लिखा रह जाता है।  यह कहानी सोचने के लिए बाध्य करती है कि हम कैसे सभ्य संसार का निर्माण कर रहे जिसमें आधी आबादी कितने संशय भय असुरक्षा और संत्रास में जीने के लिए विवश है । कहानी की नायिका अनन्या महानगर की रात में टैक्सी में अकेले यात्रा करते हुए बेहद डरी हुई है और इस दौरान एक्सीडेंट में वह बेहोश हो जाती है। होश में आने पर वह मानसिक रूप से अत्यधिक परेशान है कि कहीं उसके साथ बेहोशी की अवस्था में कुछ गलत तो नहीं हो गया और अंत में जब वह अपनी चिंता अपने पति के साथ साझा करती है तो कहानी की एक और परत खुलती है और पुरुष मानसिकता के तार झनझनाने लगते हैं । जिस शक और संदेह से वह गुजरती रही अब उस शक और संदेह की गिरफ्त में उसका वह पति है जो उसे बहुत प्...