स्व.रघुनंदन त्रिवेदी मेरे प्रिय कथाकाराें में से एक रहे हैं ! आज 17 जनवरी उनका जन्म दिवस है।
आम जन जीवन की व्यथा और मन की बारिकियाें काे अपनी कहानियाें में मौलिक ढंग से व्यक्त करने में वे सिद्धहस्त थे। कम उम्र में उनका जाना हिंदी के पाठकों को अखरता है। बहुत पहले कथादेश में उनकी काेई कहानी पढी थी जिसकी धुंधली सी याद मन में है ! आदमी काे अपनी चीजाें से ज्यादा दूसराें की चीजें अधिक पसंद आती हैं और आदमी का मन खिन्न हाेते रहता है ! आदमी घर बनाता है पर उसे दूसराें के घर अधिक पसंद आते हैं और अपने घर में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! आदमी शादी करता है पर किसी खूबसूरत औरत काे देखकर अपनी पत्नी में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! इस तरह की अनेक मानवीय मन की कमजाेरियाें काे बेहद संजीदा ढंग से कहानीकार पाठकाें के सामने प्रस्तुत करते हैं ! मनुष्य अपने आप से कभी संतुष्ट नहीं रहता, उसे हमेशा लगता है कि दुनियां थाेडी इधर से उधर हाेती ताे कितना अच्छा हाेता !आए दिन लाेग ऐसी मन: स्थितियाें से गुजर रहे हैं , कहानियां भी लाेगाें काे राह दिखाने का काम करती हैं अगर ठीक ढंग से उन पर हम अपना ध्यान केन्दित करें। रघुनंदन त्रिवेदी जी काे श्रद्धांजलि सहित आज उनकी एक कहानी हम दोनों आपके लिए प्रस्तुत है।
हम दोनों- रघुनन्दन त्रिवेदी
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"मैंने कमरे में घुटन -सी महसूस की ।सामने टीवी पर गले की खिच्-खिच् दूर करने वाली गोली का विज्ञापन आया ।गोली खाकर एक बाबू ने साफ शब्दों में रिश्वत मांगी ।'नो खिच् -खिच् ।' फिर छोटी- सी विज्ञापन फिल्म में बाथरूम के नलके औरत की कमर से बेहतर बताए गये । फिर एक आदमी ने आसान सा उत्तर देकर हजारों रुपये के इनाम जीते । फिर पौरुष बढ़ाने वाली गोली के बारे में बताया गया ।फिर खबरों में गणेश जी ने दूध पिया और मैं घबराकर कमरे से बाहर आ गया ।
'उठे क्यों ?' वही सवाल था उसका ।
'डर गया था ।' वही जवाब था मेरा ।
'दूध पीते गणेश जी को देखकर ?' वह हँस रहा था ।
'नहीं , उन बच्चों के बारे में सोचकर जिन्हें दूध तो क्या , साफ पानी भी पीने को नहीं मिलता ।' मेरा तर्क था ।
'अच्छा बताओ ,तुम किन-किन चीज़ों से डरते हो ?' वह मेरे डर से सुख पाने के लिए पूछने लगा ।
'क्या तुम गिनोगे ?' मैंने पूछा ।
'हाँ ।' ढीठ होकर उसने कहा ।
'उस दोस्त से जो सड़क पार करते हुए मेरी ओट ले लिया करता है ।' मैंनें डर गिनाने शुरू किए ।
'और ?'
'उस दोस्त से जो बुरे दिनों में खोजने पर नहीं मिलता ।'
'और ?'
'अपने शहर के सबसे अच्छे कवि से जो मारुति में बैठकर आता है , जिसकी एक जेब में कविता होती है और दूसरी जेब में मंत्री के फोन नम्बर ।'
'और ?'
'होली और ईद के दिन से , जब सड़कों पर पुलिस तैनात होती है । दीवाली की रात से , जब शहर की दुकानें इतनी सजी होती हैं कि उनके आगे गुजरते भी शर्म -सी आती है ।'
'और ?'
'अपने हिंदू होने से ।'
'क्यों , इसमें क्या खतरा है ?' हँसी रोककर उसने अपना आश्चर्य जताया ।
'क्योंकि हिंदू होने के कारण मुसलमान नहीं हूं और मुसलमान नहीं होना भी खतरे की बात है ।'
'पर यहाँ तो हिंदू ज्यादा हैं , वे तुम्हें बचा लेंगे ।'
'शायद नहीं '।
'क्यों ?'
'क्योंकि वे अयोध्या से लौटकर गर्वित थे और मैं शर्मिंदा । ' मैंने स्पष्ट किया ।
'अच्छा बताओ , तुम्हें इन सब से ज्यादा डर किससे लगता है ?'
'सच कहूं तो तुमसे ।'
'क्यों , मुझसे क्यों ?' उसे आश्चर्य हुआ ।
'क्योंकि यह दुनिया मैं तुम्हारे भरोसे छोड़कर जाऊँगा । ' मैंनें कहा ।
'लेखक क्या इतने डरपोक होते हैं ?' उसने पूछा ।
'दूसरों का मुझे पता नहीं , लेकिन मैं डरपोक हूँ ।' मैंने कबूल किया और उसके ठहाके सुनने लगा ।■■
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