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ग्राम उत्थान, सामाजिक समरसता,लोकचेतना और गांधी जी का शिक्षा दर्शन

गांधी जी के शैक्षिक दर्शन में जाने से पूर्व उनके मूल दर्शन को समझने की कोशिश  करें तो यह बात स्पष्ट होती है कि उनका उद्देश्य अंग्रेजों की राजनैतिक दासता से मुक्ति के साथ साथ स्वतंत्रता के उपरान्त देशज परम्पराओं का नवीनीकरण करते हुए शैक्षिक , नैतिक , आर्थिक ,आध्यात्मिक स्तर पर भी देश को प्रगति के पथ पर ले जाना था, इसके केंद्र में ग्राम उत्थान उनका प्रमुक्ष ध्येय था। स्वतंत्रता आन्दोलन के समूचे इतिहास पर नजर डालें और उसका एक सम्यक विवेचन करें तो यह बात ध्यातब्य है कि जहां अन्य लोग हिंसा /अहिंसा किसी भी  साधन के माध्यम से जहां केवल और केवल अंग्रेजों से स्वतंत्रता चाहते थे वहीं गांधी की दृष्टि उनसे कहीं ब्यापक थी । वे स्वतंत्रता के साथ साथ उस स्वतंत्रता के मूल्यों की रक्षा हेतु लोकसमाज में शैक्षिक , नैतिक , आर्थिक ,आध्यात्मिक स्तर पर एक पूर्व तैयारी भी चाहते थे ताकि देश में जब पुनर्सृजन की कहानी लिखी जाए तो ये पूर्व तैयारियां देश की उन्नति के लिए लिखी गई उस कहानी को पुख्ता करें । उनकी यह दृष्टि ही उन्हें दूसरों से अलग करती है।

गांधी इस बात को जानते थे कि किसी भी देश और उसकी समाज ब्यवस्था के सुसंचालन के लिए लोक विचार और लोकचेतना की जड़ों का मजबूत होना कितना अहम् है और उनकी नजर में इन जडों को मजबूत करने की शक्ति केवल लोक शिक्षा में है ।गांधी की नजर से देखें तो शिक्षा वह अमोघ अस्त्र है जो अक्षर-ज्ञान से आगे बढ़कर अपने देश-समाज की परम्पराओं, जीवन-बोध और जीवन-मूल्यों का अभिज्ञान कराते हुए उसके अनुरूप राष्ट्रोत्थान एवं समाजोत्थान की दिशा में लोगों को जागरूक एवं सक्रिय  करता है। 

लेकिन अंग्रेजों ने अपने शासन-तंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए यहाँ पर एक ऐसी शिक्षा पद्धति की नींव रखी जो शिक्षित वर्ग को लोकजीवन से विमुख करने वाली थी और जिसके माध्यम से यह शिक्षित वर्ग अंग्रेजों के अधीनस्थ काम करने को प्रेरित भी हुआ । उस दरमियान परिस्थितियाँ भी ऎसी बनीं कि राजा राम मोहन राय जैसे जानकार और देश में गहरी आस्था रखने वाले लोग अंग्रेजी शिक्षा के इस अँधेरे पक्ष को भांप नहीं सके  और देश की प्रगति के लिए इस शिक्षा पद्धति को आवश्यक समझ लिया । उसके बाद के कतिपय भारतीय बुद्धिजीवी भी इस अंग्रेजी शिक्षा की वकालत में खड़े होते गये। 

वह समय भी आया जब मैकाले की इस अंग्रेजी शिक्षा की बुराईयाँ दिखने लगीं और उसके जन विरोधी चरित्र को पहचानने का कार्य भी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से शुरू होने लगा। ‘बंग-दर्शन’ नाम की पत्रिका में 1878 में बंकिमचंद का ‘लोक शिक्षा’ नाम से जो लेख छपा था, उसमें उन्होंने अंग्रेजी भाषा एवं शिक्षण के नाम पर दी जाने वाली वैज्ञानिक एवं आधुनिक शिक्षा को अपर्याप्त बताते हुए इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया था कि ‘‘हमारा विश्वास है कि व्याकरण और रेखागणित का ज्ञान मानसिक उन्नत्ति के लिए जरूरी होते हुए भी व्यावहारिक जीवन के मसलों से जूझने में सम्पूर्ण रूप से सहायक नहीं है। हमें लगता है कि इन तथ्यों और मसलों से राममोहन राय से लेकर श्रीमान् फटिकचंद तक पाश्चात्य रंग में रंगे हुए सभी प्रतिष्ठित लोग इससे अवगत नहीं हैं या इसकी उपेक्षा करते आये हैं। …… अंग्रेजी शिक्षा के कारण शिक्षितों और अशिक्षितों के बीच कोई सहानुभति, कोई संवाद नहीं है। शिक्षित समुदाय अशिक्षित समुदाय के दिल की धड़कन को महसूस करने में असमर्थ है। यही नहीं शिक्षित, अशिक्षित की तरफ नजर उठाकर भी नहीं देखते। कृषक राम की अगर खेत जोतते-जोतते थककर मौत भी हो जाती है, तो हमें क्या? कृषक राम कैसे जीवन-यापन करता है, उसकी रूचि क्या है, अॅग्रेजीयत के रंग में रंगे बंगाली युवकों को इन सवालों से कोई मतलब नहीं। कृषकराम भाड़ में जाए, हमें इससे क्या मतलब ?’’

बंकिम चंद के इस कथन से स्पष्ट है कि मैकाले की इस शिक्षा पद्धति ने समाज में विघटन पैदा करना आरम्भ कर दिया था। इस विघटन को गांधी अपनी पैनी नजर से देख रहे थे । जो शिक्षा ग्रामीण लोकजीवन को समृद्ध करने के बजाय उसकी प्रगति में रूकावट पैदा करे वह शिक्षा गांधी की नजर में जनविरोधी शिक्षा थी जो समाज में प्रेम और समरसता लाने के बजाय विभिन्न वर्गों के मध्य खायी पैदा करने का काम कर रही थी ।

बंकिम चंद तो यह मान ही रहे थे कि मैकाले की यह शिक्षा पद्धति जनविरोधी है जो समाज में श्रमिक वर्ग को उपेक्षित करने और एक नया प्रभु वर्ग पैदा करने का कार्य कर रही है | गांधी उसके आगे जाकर इसकी बुराईयों को भांप रहे थे । गांधी की नजर में ऎसी शिक्षा देश को पुनः पुनः गुलामी की ओर ले जाने का एक ऐसा खतरनाक हथियार था जिसका विरोध करना वे जरूरी समझते थे।  

इसके विकल्प के रूप में गांधी ने शिक्षा का एक नया मॉडल प्रस्तुत किया । उन्होंने तकली और चरखे के माध्यम से शिक्षा को एक नए नवाचार से जोड़कर लोगों के सामने न केवल प्रस्तुत किया बल्कि उसे अपने जीवन में आत्मसात कर इसके लिए जनमानस को इस दिशा में प्रेरित करने का कार्य भी किया। गांधी का यह स्पष्ट मानना था कि जिस दिन भारत के गाँव गरीबी से मुक्त होंगे उस दिन असली स्वराज आएगा। इसी ध्येय  को लेकर शिक्षा में उन्होंने तकली और चरखे को जोड़ा | गांधी की नजर में चरखा न केवल आर्थिक आजादी एवं गरीबी से मुक्ति का प्रतीक है,बल्कि वह अहिंसा, लघु एवं कुटीर उद्योगों की पक्षधरता का भी प्रतीक है । उनका नजरिया इसे लेकर स्पष्ट था कि अगर हर हाथ को काम मिलेगा तो सबके पास अपनी ब्यस्तता और आर्थिक आजादी रहेगी और इसके फलस्वरूप समाज में वैमनस्यता और हिंसा को पाँव पसारने का मौका नहीं मिलेगा । समाज में अगर हिंसा और वैमनस्यता न होगी तो समरसता और प्रेम का विस्तार होगा जिससे देश की प्रगति के नए रास्ते खुलेंगे।

अगर थोड़ा गहरायी में जाकर समझने की कोशिश करें तो गांधी ने तकली और चरखे का आविष्कार तालीम के दो रूप में किया था । तकली और चरखा एक तो बच्चों के सामूहिक खेल का साधन थी और दूसरा प्रारम्भ से ही स्वालंबन का आधार भी थी। गांधी मानते थे कि यदि कर्म प्रधान शिक्षा में चरखे के माध्यम से युवाशक्ति कर्म में लीन रहेगी तो वह एकाग्र रहेगी , अनुशासित रहेगी । गांधी अनुशासन को चरित्र निर्माण की पहली सीढ़ी मानते थे । उनकी नजर में वही शिक्षा कारगर थी जो चरित्र निर्माण करे , उनका नजरिया स्पष्ट था कि चरित्रवान नागरिक स्वावलम्बी और स्वाभिमानी होता है जिनकी देश को हमेशा जरूरत रहती है। शिक्षा में तकली और चरखा के प्रयोग को उसी चरित्र की प्राप्ति के लिए साधन के रूप में गांधी जी द्वारा देखा गया । देश में गांधी ऎसी चरित्रवान युवा शक्ति चाहते थे जो अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति के आँखों के आंसू पोछ सके।         

गाँधीजी ने अपने शिक्षा दर्शन में सबसे पहले माध्यम के सवाल को महत्वपूर्ण  मानते हुए इस बात पर बल दिया कि भारत के विभिन्न प्रांतों में शिक्षा देने का काम प्रांतीय भाषाओं अर्थात उनकी मातृभाषाओं में किया जाना चाहिए। उनकी नजर में अंग्रेजी भाषा के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा के स्थान पर मातृभाषा के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा सहज और स्वाभाविक थी। 

‘इंडियन ओपिनियन’ पत्रिका के 19-8-1910 के अंक में अपने एक आलेख में गांधी ने लिखा था -  

 ‘‘हम लोगों में बच्चों को अंग्रेज बनाने की प्रवृति पाई जाती है। मानोँ उन्हें शिक्षित करने का और साम्राज्य की सच्ची सेवा के योग्य बनाने का वही सबसे उत्तम तरीका है। हमारा ख्याल है कि समझदार से समझदार अंग्रेज भी यह नहीं चाहेगा कि हम अपनी राष्ट्रीय विशेषता, अर्थात परम्परागत प्राप्त शिक्षा और संस्कृति को छोड़ दें अथवा यह कि हम उनकी नकल किया करें। इसलिए जो अपनी मातृभाषा के प्रति, चाहे वह कितनी ही साधारण क्यों न हो इतने लापरवाह हैं, वे एक विश्वव्यापी धार्मिक सिद्धान्त को भूल जाने का खतरा मोल ले रहे हैं।’’

फरवरी 1916 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में भी उन्होंने देश के उपस्थित गणमान्य लोगों के बीच बगैर किसी संकोच के यह बात कही थी – ‘‘इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अॅग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यन्त अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है। ….. मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगा । हमारी भाषा ही हमारा प्रतिबिम्ब है और इसलिए यदि आप मुझ से यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किये ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसार से उठ जाना ही अच्छा है। …… यदि पिछले पचास वर्षों में हमें देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा दी गई होती, तो आज हम किस स्थिति में होते ! हमारे पास एक आजाद भारत होता, हमारे पास अपने शिक्षित आदमी होते जो अपनी ही भूमि में विदेशी जैसे न रहे होते, बल्कि जिनका बोलना  जनता के हृदय पर प्रभाव डालता।’’

मातृभाषा में शिक्षा को लेकर वे लगातार देश में सक्रिय रहे। जगह जगह उन्होंने इस हेतु लोगों को जागृत किया। 15 अक्टूबर 1917 को बिहार के भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में भाषण देते  हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था – ‘‘मातृभाषा का अनादर माँ के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है, वह स्वदेश भक्त कहलाने लायक नहीं है। बहुत से लोग ऐसा कहते सुने जाते हैं कि ‘हमारी भाषा में ऐसे शब्द नहीं जिनमें हमारे ऊँचे विचार प्रकट किये जा सकें। किन्तु यह कोई भाषा का दोष नहीं। भाषा को बनाना और बढ़ाना हमारा अपना ही कर्तव्य है। एक समय ऐसा था जब अंग्रेजी भाषा की भी यही हालत थी। अंग्रेजी का विकास इसलिए हुआ कि अंग्रेज आगे बढ़े और उन्होंने भाषा की उन्नति की। यदि हम मातृभाषा की उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्धान्त रहे कि अंग्रेजी के जरिये ही हम अपने ऊँचे विचार प्रकट कर सकते हैं और उनका विकास कर सकते हैं, तो इसमें जरा भी शक नहीं कि हम सदा के लिए गुलाम बने रहेंगे। जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकेगा।’’

एक अन्य अवसर पर गाँधी जी ने विदेशी भाषा द्वारा दी जाने वाली शिक्षा से होने वाली हानियों का उल्लेख करते हुए कहा था  – ‘‘माँ के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने से अन्य हानियाँ भी होती है। शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अन्तर पड़ गया है। हम जनसाधरण को नहीं पहचानते। जनसाधरण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और हमसे डरते हैं। यदि यही स्थिति अधिक समय तक रही तो एक दिन लार्ड कर्जन का यह आरोप सही हो जाएगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है।’’

गांधी किताबी ज्ञान से अधिक कर्म और अनुभव आधारित ज्ञान को अधिक महत्त्व देते थे । अक्षर-ज्ञान की तुलना में हाथ की शिक्षा को प्राथमिकता देते हुए उन्होंने कहा था - ‘‘मेरी राय में तो इस देश में, जहाँ लाखों आदमी भूखों मरते हैं, बुद्धिपूर्वक किया जाने वाला श्रम ही सच्ची प्राथमिक शिक्षा या प्रौढ़ शिक्षा है। …. अक्षर-ज्ञान हाथ की शिक्षा के बाद आना चाहिए। हाथ से काम करने की क्षमता – हस्त-कौशल ही तो वह चीज है, जो मनुष्य को पशु से अलग करती है। लिखना-पढ़ना जाने बिना मनुष्य का सम्पूर्ण विकास नहीं हो सकता, ऐसा मानना एक वहम ही है। इसमें कोई शक नहीं कि अक्षर-ज्ञान से जीवन का सौंदर्य बढ़ जाता है, लेकिन यह बात गलत है कि उसके बिना मनुष्य का नैतिक, शारीरिक और आर्थिक विकास हो ही नहीं सकता (हरिजन-सेवक 15-03-1935)।

आज तमाम शिक्षाविदों , बुद्धीजीवियों ,लेखकों और समाजकर्मियों के लिए यह सोचने का बिषय है कि कंप्यूटर को तकली और चरखे का विकल्प बनाकर क्या आज की शिक्षा भारत को एक चरित्रवान और सामाजिक समरसता वाला देश बना पा रही है ?

आज शिक्षा में कंप्यूटर और सूचना तकनीक ने भले ही काम और प्रगति के नए रास्ते खोले हैं पर इस नए अनुप्रयोग ने हमारी शान्ति, हमारी सामाजिक समरसता, हमारे चरित्र और सनातन मूल्यों को तहस नहस अधिक किया है । सायबर अपराध और हिंसा इसी तकनीक की देन कहें तो गलत न होगा । सोते जागते मन की जो शान्ति मनुष्य के लिए जरूरी है वह एक तरह से छीन गयी है । मनुष्य अनेक रोगों से अधिक ग्रस्त हुआ है। 

शिक्षा में लोक की खुशहाली के लिए जिन आर्थिक आजादी और जीवन मूल्यों को लेकर गांधी जी ने अपने शिक्षा दर्शन में एक सपना देखा था वह भले ही आज अधूरा है और एक सपने की तरह हमें लगता है पर एक दिन ऐसा आएगा कि उधर हमें लौटना ही पड़ेगा । शिक्षा में गांधी का दर्शन भले ही आज हास्यास्पद लगे पर एक दिन ऐसा आएगा कि यही हमारे लिए अंतिम विकल्प होगा।

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रमेश शर्मा , 92 श्रीकुंज, बोईरदादर, रायगढ़ [छत्तीसगढ़]

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