शिक्षा, समाज, साहित्य और बच्चा : समग्रता में देखने के लिए स्वस्थ नज़रिए की ज़रूरत【4 नवम्बर 2023, दैनिक क्रांतिकारी संकेत में प्रकाशित आलेख】
■समाज की नज़र से बच्चों को देखने का नज़रिया कितना सही
■हिंदी कहानियों के जरिये एक जरुरी विमर्श की कोशिश
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समाज की नजर में बच्चा कौन है ? उसे कैसा होना चाहिए ?जब इस तरह के सवालों पर बहुत गहराई में जाकर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है तो इसका जवाब बहुत आसानी से हमें नहीं मिलता । सीधे तौर पर तो कतई नहीं कि हम किसी किताब में इसका कोई बना बनाया जवाब ढूँढ लें । आम तौर पर बच्चे की प्रतिछवि आम लोगों के मनो मष्तिष्क में जन्म से लेकर चौदह साल तक की छोटी उम्र से अंतर्संबंधित होकर ही बनती है । इसका अर्थ यह हुआ कि बच्चे का सम्बन्ध सीधे सीधे उसकी छोटी उम्र से होता है । यह धारणा आदिकाल से पुष्ट होती चली भी आ रही है । "समाज की नजर में बच्चा" को लेकर मेरा यह जो विमर्श है दरअसल आदिकाल से चली आ रही इसी धारणा को जीवन की कसौटी पर परीक्षण किए जाने के इर्द गिर्द ही केन्द्रित है । इस परीक्षण की प्रविधियां क्या हों? कि इसे बेहतर तरीके से समझा जा सके, यह भी एक गम्भीर प्रश्न है जो हमारे साथ साथ चलता है । इस सवाल का जवाब कुछ हद तक हिंदी कहानियों में ढूंढा जा सकता है। चूंकि साहित्यिक कहानियां , साहित्य केन्द्रित सिनेमा आदि ,मनुष्य जीवन को कई सिरे से समझने बूझने की दृष्टि प्रदान करती हैं इसलिए साहित्य के माध्यम से जीवन को देखने समझने का नजरिया भी अपने आप में हमें एक बहुआयामी दिशा की ओर ले जाता है।
कोई बच्चा हमें संस्कारी लगता है , तो कोई बच्चा अपराध की शरण में जाने का हमें आभास कराता है , कोई बच्चा अपने बचपन को भलीभांति जीता है तो किसी बच्चे के जीवन में बचपन अदृश्य सा जान पड़ता है , जीवन की संघर्षमय और प्रतिकूल परिस्थितियाँ उसे समय से पहले ही वयस्क बना देती हैं । कोई बच्चा पढने में तेज जान पड़ता है तो कोई इस रेस में पिछड़ा हुआ दीखता है । इन सबके पीछे ऐसे कौन से कारण हैं जिसे समाज कभी समझने की चेष्टा नहीं करता और बच्चा और बचपन को लेकर अपनी बनी बनायी धारणा पर ही कायम रहता है।
बच्चों के ऊपर लिखी गई कतिपय हिन्दी कहानियाँ कुछ हद तक इन सवालों का जवाब ढूँढने में हमारी सहायता करती हैं । बच्चे के जन्म के बाद उसका सामना उसके परिवार से होता है जो कि समाज की इकाई है । उस परिवार के परिवेश से उसकी अन्तः क्रिया आरम्भ होकर धीरे धीरे उसके आस पड़ोस से होते हुए आगे जाकर बृहद समाज से अंतर्संबंधित होती है । बच्चे के जीवन में समाजीकरण की यह घटना ही उसके अन्तः और बाह्य रूपाकार गढती है । बच्चे के समाजीकरण में जो प्रवृत्तियाँ कारक होती हैं लगभग वैसी ही प्रवृत्तियों को बच्चा ग्रहण करता है । उसके संस्कारी होने या अपराधी बनने में उसका समाजीकरण बड़ी भूमिका अदा करता है । शायद इसलिए माँ बाप अपने बच्चों को अच्छी संगति करने पर जोर देते हुए दिखाई देते हैं । माँ बाप द्वारा अपने बच्चों को दी गई ऎसी सलाहियत यद्यपि सतही लगती हैं क्योंकि ये सिर्फ अपने बच्चों तक ही सीमित होकर रह जाती हैं और उनमें एक सामूहिक प्रेरणा का भाव नहीं झलकता । इसका अर्थ ये कि समाज इन बातों के प्रति उदासीन रहते हुए बहुत सी बातें अपने स्तर पर निर्धारित कर लेता है और बच्चों के भाग्य से उसे जोड़ देता है कि फलां बच्चे को संस्कारी बनना था इसलिए वह संस्कारी बन गया और फलां बच्चे को अपराधी बनना था इसलिए वह अपराधी बन गया । ये बातें सच के करीब नहीं लगतीं । इन बातों में माता पिता ,परिवार , आस पड़ोस और बृहद समाज की भूलें परिलक्षित होती हैं जिस पर विचार किया जाना आवश्यक है । समाज में यह धारणा भी बहुत घर कर चुकी है कि संपन्न और अच्छे कहे जाने वाले परिवारों के बच्चे अच्छे और संस्कारी बनते हैं जबकि स्लम बस्ती के बच्चे आम तौर पर अपराधिक प्रवृत्ति के होते हैं । इन धारणाओं का कभी भी सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता । ऎसी धारणाएं समाज में चली आ रही भूलों को उजागर करती हैं और उसे कटघरे में भी खड़ा करती हैं । इन धारणाओं की पड़ताल करती हिन्दी कहानियां बच्चे को समझने का एक बड़ा अवसर हमें देती हैं ।जयशंकर प्रसाद की कहानी छोटा जादूगर की चर्चा करें तो छोटा जादूगर के रूप में एक ऐसे बालक से हमारा सामना होता है जिसका जीवन विसंगतियों से भरा हुआ है, इसके बावजूद जीवन मूल्यों को साथ लिए वह सतत संघर्ष कर रहा है । एक तरफ देशप्रेम के लिए उसके पिता जेल में बंद हैं तो दूसरी तरफ उसकी माँ घर में बीमार है और खाट पर पड़ी पड़ी अपने आखरी दिनों की प्रतीक्षा में है । उस घर में कमाने वाला कोई नहीं है । पारिवारिक विपन्नता ने उस बच्चे को समय से पहले ही जिम्मेदार और व्यस्क बना दिया है जो अपने खिलौनों से जादू जैसा खेल दिखाकर दो पैसे जुटाता है जिससे माँ की दवाईयां और घर के खर्च का प्रबंध होता है।किसी बच्चे का समय से पहले ही व्यस्क हो जाना, जो कि अमूर्त होता है, समाज उसे कई बार देख नहीं पाता। समाज को लगता है कि बच्चों को इस तरह के कामों में संलग्न नहीं होना चाहिए जो कि उसके बचपन को अधिक्रमित करते हैं । दरअसल जयशंकर प्रसाद छोटा जादूगर कहानी में समाज के उसी नजरिये पर ही प्रहार करते हैं जिसका नजरिया एकांगी है , जो बच्चों से यह तो चाहता है कि उसका बचपना उसकी गतिविधियों में बरकरार रहे पर समाज अपनी जिम्मेदारियों को या तो देख नहीं पाता या फिर उसे देखना ही नहीं चाहता।
बच्चा अपने परिवार , अपने आसपडोस से उपजी परिस्थितियों से जो अनुभव ग्रहण करता है, वही अनुभव उसे बच्चा बनाए रख सकता है ,वही अनुभव उसे समय से पहले वयस्क भी बना देता है। सवाल यह उठाया जा सकता है कि साहित्यिक कहानियों में प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ एक संघर्षशील बच्चे को ही परिपक्व होता हुआ क्यों दिखाया जाता है ? क्या समस्त अनुकूल परिस्थितियों के होते कोई बच्चा मानसिक और वैचारिक स्तर पर परिपक्व नहीं हो सकता ? शायद इसका जवाब भी हिन्दी की साहित्यिक कहानियों से ही निकलकर आता है । दरअसल जीवन का प्रतिकूल संघर्ष बच्चे के बचपन को अधिक्रमित करता है और उसे वह अनुभव देता है जो किसी अनुकूल परिस्थिति वाले बच्चे को नहीं मिल पाता । चूँकि अनुभव ही जीवन में सबसे बड़ा गुरू होता है , वही बच्चे को बच्चा रहने देता है तो वही बच्चे को छोटी उम्र में ही वयस्क और जिम्मेदार बना देता है जैसा कि जयशंकर प्रसाद की कहानी छोटा जादूगर में अपने अनुभव से वयस्क होते बच्चे को हम देखते हैं ।भीष्म साहनी की कहानी गुलेलबाज लडका में हम एक ऐसे बच्चे को देखते हैं जो साधारण श्रमिक परिवार से है और अपनी सामान्य गतिविधियों से अपराधिक और हिंसक होने का आभास देता है । वही लडका अनुकूल परिस्थितियों की संगति के साथ अपनी इस हिंसक छवि को स्वयं तोड़ता भी है । बाज से मैना के बच्चों की सुरक्षा करते हुए उसके भीतर छुपी हुई संवेदना एकाएक हमें दिखाई देने लगती है । दरअसल समाज को इसी नजरिये को विकसित करने की आवश्यकता है जिसके जरिये किसी बच्चे की भीतरी दुनियां को ठीक ढंग से देखा जा सके । गहन संवेदना हर बच्चे में होती है , कई बार उदय प्रकाश की नेलकटर जैसी कहानी में अपनी माँ को खोते हुए बच्चे के भीतर सघन रूप में गठित होते हुए हम उस संवेदना को महसूस कर सकते हैं।उस संवेदना को देखे जाने और उसे बचाए जाने के प्रति जो एक गहन उदासीनता है , वह जैनेन्द्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य में लक्षित की जा सकती है। समाज की ओर से किसी बच्चे को उसके भाग्य के साथ जोडकर देखना भी अपनी जिम्मेदारियों से जी चुराने जैसा है । यह प्रवृत्ति सघन रूप में समाज में पसरी हुई भी दिखाई देती है जो किसी बच्चे को समग्र रूप में देखे समझे जाने में बहुत बाधक भी है।
आज जरूरत है कि समाज किसी बच्चे को उसकी समस्त अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ देखे-समझे और फिर कोई धारणा विकसित करे । कोई सुव्यवस्थित , सुविकसित और उपयुक्त धारणा ही बच्चों के बचपन को बचाए जाने के प्रति किसी ठोस पहल का आरम्भिक बिंदु है । ऎसी सुव्यवस्थित , सुविकसित धारणाएं समाज हिन्दी साहित्य की कहानियों और फिल्मों के माध्यम से ग्रहण कर सकता है । इनका प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में भी एक बड़े बदलाव का माध्यम बन सकता है । यह तथ्य कुछ हद तक सत्य है कि बच्चे के जीन्स में वंशानुगत रूप से कुछ चीजें प्रवाहमान होती हैं जिसके कारण वह अपने अल्प या कुशाग्र बुद्धि के होने का आभास कराता है पर ऐसे तथ्यों को भी बच्चे की उचित अन्तः क्रिया और समाजीकरण से झुठलाया जा सकता है । बच्चों को लेकर समाज में यह विमर्श सतत चलते रहना भी चाहिए ताकि बच्चों को लेकर बनी बनाई खांचों में गढ़ी गई पारम्परिक धारणाएं टूटें और कुछ नई बातों को बच्चों के जीवन से जोड़ा जा सके।
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रमेश शर्मा, 92 श्रीकुंज, रायगढ़ छ. ग.
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