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कहानीकार रमेश शर्मा की कहानी : बड़प्पन

नवभारत मध्यप्रदेश सृजन अंक समस्त एडिशन

वह दिसम्बर की एक सुबह थी जब बड़ी दीदिया ने अचानक खबर भिजवाई कि वे आज आ रही हैं ।उनके आने की खबर पाते ही बड़ी भाभी और मझली भाभी का मुंह मुझे उतरा हुआ नज़र आने लगा । मौसम बदले पर बड़ी दीदिया को लेकर दोनों भाभियों के भीतर का मौसम कभी खुशगवार न हो सका ।  

माँ के जाने के बाद बड़ी दीदिया ने मेरे लिए माँ की जगह इस तरह ले ली थी कि माँ के जाने का दुःख धीरे धीरे मेरे जीवन से तिरोहित होता गया था । फिर एक दिन आया जब बड़ी दीदिया की शादी हुई और वे मुझे छोड़कर अपने  ससुराल चली गयीं । उनका जाना हमेशा मुझे मेरे जीवन से माँ के चले जाने का एहसास कराता रहा । बड़ी दीदिया की बात ही कुछ और है ...वे तो बहुत कम उम्र में ही बड़ी हो गयी थीं । इतनी बड़ी कि हम उनके बड़प्पन का पीछा करते हुए जीवन में बहुत पीछे रह गए । इतने पीछे कि बस आज तक उनका पीछा ही कर रहे हैं ।  

'क्या बड़ी दीदी का दिल दुनिया में इतना बड़ा है कि किसी और का दिल उससे बड़ा हो ही नहीं सकता ?' आज शेल्फ में किताबें ढूँढ़ते ढूँढ़ते पुराने नोट बुक में मेरा खुद का लिखा कुछ ऐसा मिल गया कि लगा  जैसे मैं उन शब्दों को पहली बार पढ़ रहा हूँ । यह सवाल अरसे बाद मेरे जेहन में फिर से जीवित हो उठा था । मैंने कब लिखा था इसे ? मैं स्मृति पर जोर देता हुआ वहां से हट गया था।वह नोट बुक  शेल्फ में ही रह गयी थी  । कुछ किताबों को लिए मैं टेरेस पर आकर खड़े खड़े उनके पन्ने देर तक पलटता रहा। पन्ने पलटते पलटते अचानक मुझे याद आया कि जीवन में कभी एक लड़की से मुझे भी प्रेम हो गया था। मैं उस लड़की का चेहरा याद करने लगा । एक गोरी सी सुन्दर लड़की। ग्रामीण परिवेश में रची पगी । मुझे अजीब सा लगा कि उस लड़की का चेहरा तक मुझे अब ठीक से याद नहीं ।जीवन में आए पहले प्रेम की स्मृतियों का इस तरह धूमिल हो जाना कुछ देर के लिए मुझे थोड़ा परेशान कर गया।      

तब दीदिया ने सचेत किया था मुझे -'प्रेम करना बहुत आसान है वीरू,पर उसे निभाना सबके बस की बात नहीं|' 

समय बीता और मेरी अच्छी नौकरी ने मुझे शहर की राह पकड़ा दी । मैं शहर जाकर औरों की तरह शहरी बाबू बन गया। जीवन में घटनाएं इतनी तेजी से बदलती रहीं कि पिछली घटनाएं स्मृति से विलुप्त होती गयीं।अपने प्रेम को पीछे छोड़ आना भी इसमें शामिल रहा । बड़ी दीदिया गाँव आती तो उसकी आँखों में यह उम्मीद बची हुई होती कि मेरी शादी उसी लड़की से होगी जिससे मैंने कभी प्रेम किया था । पर उनकी सलाहियत की उपेक्षा करना भाभियों की आदत सी बन गयी थी । भाभियों का एक ही मकसद रह गया था कि ओ जो कहेंगी इस घर में वह नहीं होगा। मैं घर में कलह नहीं चाहता था । उस लड़की को लेकर भाभियों की मुखालफत को मैं भीतर से महसूस कर पा रहा था इसलिए धीरे धीरे उससे दूरी बनाकर मैंने अपने को उससे अलग कर लिया था । ऐसा करते हुए मुझे कोई ख़ुशी हुई हो या दुःख पहुंचा हो, यह बात भी मेरी स्मृति में अब कहीं नहीं बची।

आज बहुत दिनों बाद जब बड़ी दीदिया के गांव आने की खबर मैंने सुनी है तब से एक बेचैनी सी मन में उठने लगी है | 

'प्रेम करना बहुत आसान है वीरू पर उसे निभाना सबके बस की बात नहीं'-बड़ी दीदिया की वही पुरानी बात याद आ गयी है मुझे। आज लग रहा कि उनकी इन बातों में एक माँ की सलाहियत से ज्यादा चेतावनी भरा एक सन्देश छुपा था। बड़ी दीदिया जिन्होंने माँ के मरने के बाद मेरे लिए माँ की जगह ली, उनका सामना करने से मुझे इसलिए संकोच होता रहा है कि उनकी बातों का मैंने कोई मान नहीं रखा । मुझे लेकर पता नहीं उनके मन में क्या रहा आया, पर मुझे लगता है कि उनके मन में मेरी छवि एक कायर व्यक्ति की  होकर ही रह गयी होगी। मेरे भीतर पल रही इस धारणा ने मुझे उनसे अलग सा कर दिया । उनसे बचने की कोशिश में मैं भी मेरे और उनके बीच के रिश्ते को उस तरह बचा नहीं पाया, जिस तरह कि मुझे बचाकर रखना था । भीतर से बौना हुआ आदमी जीवन में और बौना होने लगता है। मेरे भीतर अपनी ही छवि को मैंने इस तरह बौना होते कभी नहीं देखा था जिस तरह अब मैं देखने लगा था।

जहां तक भाभियों की बात है , बड़ी दीदिया को लेकर उन्हें इस बात का भय सताने  लगा है कि कहीं पिता द्वारा विरासत में अपने बेंक अकाउंट में छोड़े गए चालीस लाख रुपयों में वे कहीं हिस्सेदारी न मांग लें । वे चाहती हैं कि बड़ी दीदिया मायका की ओर आँख  उठाकर भी  न देखें।

गाँव में माँ बाबूजी नहीं रहे । बड़ी दीदिया का आना किसी को पसंद नहीं यहाँ। वह आए तो आखिर किसके लिए आए ?

टेरेस में खड़े-खड़े आज सारी बातें मन में उमड़ घूमड़ रही  थीं कि ठीक उसी वक्त मेरा फोन बजने लगा।

बड़ी दीदिया का ही फोन  था । पता नहीं मुझे किस बात का डर था कि मैं डरते-डरते उनका फोन रिसीव कर रहा था। एक हल्की और धीमी सी आवाज मेरे कानों को सुनाई पड़ रही थी ... "मैं आना तो चाहती थी वीरू, पर नहीं आ पा रही हूँ । मैंने बैंक मेनेजर से फोन में बात कर लिखित में अपनी अर्जी भेज दी है कि पिताजी द्वारा खाते में छोड़ी गयी चालीस लाख रुपयों की रकम वे मेरे भाइयों में ही बराबर बराबर बाँट दें !"

मैं जानता हूँ कि दीदिया की यह बात सुनकर भाभियाँ कितना खुश होंगी। मैं नहीं जानता कि उनके न आने से मैं खुश हूँ या नहीं , पर मुझे महसूस हो रहा कि बड़ी दीदिया के सामने आज हम सब और बौने हो गए हैं।

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92 श्रीकुंज , बोईरदादर , रायगढ़ (छत्तीसगढ़) 

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