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30 अक्टूबर पुण्यतिथि पर डॉ राजू पांडे को याद कर रहे हैं बसंत राघव "सत्यान्वेषी राजू पांडेय के नहीं होने का मतलब"

डॉक्टर राजू पांडेय


शेम शेम मीडिया, बिकाऊ मीडिया, नचनिया मीडिया,छी मीडिया, गोदी मीडिया  इत्यादि इत्यादि विशेषणों से संबोधित होने वाली मीडिया को लेकर चारों तरफ एक शोर है , लेकिन यह वाकया पूरी तरह सच है ऐसा कहना भी उचित नहीं लगता ।  मुकेश भारद्वाज जनसत्ता, राजीव रंजन श्रीवास्तव देशबन्धु , सुनील कुमार दैनिक छत्तीसगढ़ ,सुभाष राय जनसंदेश टाइम्स जैसे नामी गिरामी संपादक भी आज मौजूद हैं जो राजू पांंडेय को प्रमुखता से बतौर कॉलमिस्ट अपने अखबारों में जगह देते रहे हैं। उनकी पत्रकारिता जन सरोकारिता और निष्पक्षता से परिपूर्ण रही है।  आज धर्म  अफीम की तरह बाँटी जा रही है। मेन मुद्दों से आम जनता का ध्यान हटाकर, उसे मशीनीकृत किया जा रहा है। वर्तमान परिपेक्ष्य में राजनीतिक अधिकारों, नागरिक आजादी और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के क्षेत्र में गिरावट महसूस की जा रही है। राजू पांंडेय का मानना था कि " आज तंत्र डेमोक्रेसी  इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी में तब्दील हो चुकी है ,जहां असहमति और आलोचना को बर्दाश्त नहीं किया जाता और इसे राष्ट्र विरोधी गतिविधि की संज्ञा दी जाती है।" स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि व्याधियों से घिरा हुआ  राजू पांडेय जैसा इंसान सीना तानकर  उसके खिलाफ खड़ा हो जाता है। और सरकार की गलत नीतियों और सामाजिक- राजनीतिक, पर्यावरण संबंधी बदलाव को रेखांकित कर उसका सकारात्मक  विश्लेषण करता है।  नहीं तो उसके पास शानदार भाषा थी चाहता तो प्रेम गीत लिख अमर होने की चाहत में डूबा रहता। नहीं , वह तो सत्यान्वेषी था, वह अपने को मिटाकर, सुखाकर, धरती की आर्द्रता बनाये रखना चाहता था। हर हाल में मनुष्यता को बचाए रखने का हिमायती बना रहना चाहता था। यह तय है भविष्य में उनके लिखे गए गंभीर शोधपरक लेखन से हम लोगों के साथ साथ प्रतियोगी विद्यार्थी भी लाभन्वित होते रहेंगे।

            राजू पांंडेय का परिचय देना, मुझे गैर जरूरी इस लिए जान पड़ता है, क्योंकि वे  दो दशकों से देश के नामचीन  पत्र पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपते आ रहे थे और छायावाद प्रवर्तक पं. मुकुटधर पांंडेय एवं छत्तीसगढ़ी साहित्य के भीष्मपितामह पं लोचन प्रसाद पांंडेय के परिवार के साथ साथ छत्तीसगढ़ी भाषा के प्रथम उपन्यासकार पं. बंशीधर पांडेय के पौत्र थे। इतना ही परिचय उनके लिए पर्याप्त है।  राजू पांंडेय एक ऐसे लेखक थे जो दुनिया को इंसानियत की नजरों से देखते थे। दलगत राजनीति से उनका कोई वास्ता नहीं। हर घड़ी मनुष्यता को बचा पाने की जद्दोजहद उनके लेखन मे देखने को मिलती है। उनकी दृष्टि विश्वपटल पर एक विश्लेषक की  तरह थी।  उन्होंने अपने पुरखों की साहित्यिक उपादेयता को नयी दृष्टि दी , यही कारण है कि मैं उनके लेखन के सामने अपने आप को हमेशा नतमस्तक पाता हूँ।

उन्होंने चंद दिनों पहले फेसबुक में अपने गिरते हुए सेहत को लेकर लिखा था "इस बात की बहुत संभावना है कि यह वापसी अस्थायी और अल्पजीवी हो और लेखन पर अल्प विराम , अर्द्ध विराम या पूर्ण विराम लग जाए।, तब सभी मित्रों ने उन्हें डांट लगाई थी और यशस्वी, स्वस्थ,लम्बी उम्र  की कामना की थी।

देश की वर्तमान स्थिति और सामाजिक- राजनीतिक गतिविधियों पर उनकी धारदार टिप्पणियाँ  पाठकों के लिए किसी धरोहर से कम नहीं है,  राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय घटना चक्र पर उनकी पैनी नज़र रहती थी। उनकी प्रतिबद्धता मनुष्यता को बचाए रखने के लिए थी। राजू पांडेय अपने पिता की तरह गांधीवादी , मार्क्सवादी चिंतक थे। इसी साल 9 अक्टूबर को रायपुर में अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन द्वारा "शांति,एकजुटता और महात्मा गांधी" विषय पर आयोजित विचार गोष्ठी में उन्हें मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था और उन्होंने उसमें अपना वक्तव्य पढ़ा था। इस तरह के बहुत से महत्वपूर्ण आयोजनों में उन्हें आमंत्रित किया जाता था ,लेकिन  अपने  पिता के स्वास्थ्यगत समस्याओं के कारण उन्हें अस्वीकार  करना  उनकी अपनी मजबूरी थी। 

भाषा को लेकर  वे कितने गंभीर थे, उनके पिछले 14 सिंतबर को हिंदी दिवस पर लिखा गया  " हिंदी एक भाषा नहीं- एक संस्कार, एक जीवन शैली है।" लेख को पढ़कर समझा जा सकता है। भाषा पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी। उनकी जैसी भाषा रायगढ़ के अब तक दो-चार लेखकों को ही नसीब हुई है।

राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर उनकी गंभीर, धारदार आलेखों को बिना काटछांट किये देश के शीर्ष समाचार पत्रों में स्थान मिलता था। उनकी लेखनी में सर्वहारा वर्ग की पीड़ा को व्याख्यायित करने की क्षमता थी, उन्हें उस पीड़ा से  मुक्त कराने की छटपटाहट थी। वे समाजवाद और सर्वधर्म समभाव के पक्षधर थे । राजू पांडेय सही मायनों में एक गंभीर सचेत राजनीतिक दृष्टि सम्पन्न लेखक थे। गलत नीतियों का पुरजोर विरोध करना उनकी प्रतिबद्धता थी।  उनकी संवेदनाएं जनहित को समर्पित थीं । वे उम्र में मुझसे चार साल छोटे थे, लेकिन उनकी प्रतिभा की वजह से वे मेरे लिए हमेशा श्रद्धेय रहे। जब भी उनको पढ़ता मेरी श्रद्धा उनके प्रति और बढ़ती जाती। रिश्ते में वे मेरी सास के छोटे भाई थे। लेकिन उनका हमारा परिचय बहुत पुराना था, इसलिए वे मुझे बसंत भाई ही कहा करते थे। सच कहें तो उनका और मेरा संबंध औपचारिकता से इतर आत्मीय था। मुझ  जैसे साधारण व्यक्ति को भी वे लेखन के लिए निरंतर प्रोत्साहित करते रहते थे। वे मेरे शुभेच्छु थे, उनके चले जाने से  मेरा मन शून्यता और गहन अवसाद से भर गया है। 

राजू पांडेय को बहुत से शारीरिक कष्टों, अवसादों और अनेक विपरीत परिस्थितियों ने  घेरे रखा था। लेकिन वे हारे नहीं। उन्होंने अपने पिता की  सेवा , अपनी बीमारी से परेशानी और लेखकीय दायित्वों के लिए नौकरी से वी.आर.एस ले लिया था। ऐसे विषम परिस्थितियों के बावजूद राजू पांडेय देश के तमाम छोटे-बड़े अख़बारों, पत्रिकाओं और वेबसाइटों में लगातार छाए रहे। वे भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनसे जुड़ी स्मृतियां हमेशा मानसपटल पर उत्कीर्णित रहेंगी। उन्होंने दुनिया से जितना लिया ,उससे ज्यादा उन्होंने समाज को सृजन करके  लौटाया। उनके राजनीतिक, सामाजिक लेख़ों में निरपेक्षता, तटस्थता,समदर्शिता के दर्शन होते हैं। उन्होंने पूरी निष्ठा, और निडरता के साथ ज्वलंत मुद्दों पर अपनी बात रखी। राजू पांडेय अपने जीवन में मनुष्यता की वकालत करते रहे। उन्होंने अपने लेखनकर्म के सामाजिक सरोकारो को खूब निभाया भी। पं. लोचन प्रसाद पांडेय, बंशीधर पांडेय, डाँ. बलदेव, एवं कौशल प्रसाद दुबे,ललित सुरजन और हिंदी भाषा के ऊपर लिखी गई उनकी साहित्यिक समीक्षाएं हों या फिर जटिल दार्शनिक प्रश्नों पर लिखे गये उनके सभी लेखों का स्थायी महत्व है। राजू पांंडेय कुछ भी लिखते थे , तो प्रमाणित लिखते थे। उन्होंने "सावरकर और गांधी" के संबंधों की गहन , सघन पड़ताल की थी। उससे संबंधित पुस्तकों का अनुशीलन किया था। सावरकर के सम्पूर्ण वाङ्गमय में से अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों के साथ - साथ गांधी को भी बहुत बारीकी से पढ़ा , खासकर जाति और वर्ण के संबंध में उनके विचारों को। इसके बाद उन्होंने चार लंबे आलेख तैयार किये  । इन लेखों का स्थायी महत्व है । इनका पुस्तकाकार अगर प्रकाशन हो जाता तो, शोधार्थी निश्चय ही लाभान्वित होते। यही उनकी आखरी इच्छा थी।

राजू पांडेय वर्तमान रायगढ़ की प्रतिभाओं को लांघते हुए एक अलग पहचान बनाने में सफल रहे । उन्होंने अपने पूर्वजों की ऐतिहासिकता को बनाए रखने में अपने को जोड़ा, यह महत्वपूर्ण है। यह आश्चर्य नहीं होगा कि भविष्य में उनके अग्रजों को उनके नाम से जाना जायेगा।

गोदी मीडिया से वे खफा थे, कभी चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाते तो कभी नेताओं की चुनावी अमर्यादित भाषाओं से क्षुब्ध होकर कटाक्ष भी करते। धर्म और जातीयता के संकीर्ण मार्ग से इतर उन्होंने मनुष्यता की राह पर चलने के लिए ज्यादा जोर दिया। उनका मानना था "जब कथित मुख्यधारा का मीडिया सत्ता से मित्रवत संबंध बना ले तो सत्ता से असहमति की अभिव्यक्ति को पाठकों तक पहुंचाने के लिए नए मार्ग तलाशने पड़ते हैं। "  बिकाऊ मीडिया रात दिन वही दिखाती है जो सरकार चाहती है। सरकारी ऐजेंसियाँ, महामहिम सभी संदेही लगने लगे हैं, इससे स्थिति की भयावहता समझी जा सकती है जिसे लोग देखकर, समझकर चुप रहने में अपने को सुरक्षित होना मानते हैं। वे भी लोकतंत्र की हत्या के लिए भविष्य में कसूरवार ठहराए जायेंगे। अन्याय के खिलाफ चुप रहना भी एक अपराध है। स्थिति भयावह और लोकतांत्रिक मूल्यों का अवमूल्यन गाँधीवादी राजू पांंडेय को मंजूर नहीं था। देश की बद से बदतर होती परिस्थितियों के लिए वे सत्ताधारी सोच और नीतियों को दोषी मानते थे। समसमायिक राजनीतिक, सामाजिक घटनाओं पर कटाक्ष करना मात्र उनका उद्देश्य नहीं था। उनकी विसंगतियों को दूर करने के लिए विनम्र आग्रह भी था ।    उन्होंने जो कुछ महसूस किया सच को सच लिखा झूठ को झूठ। अन्धभक्तों ने उन्हें फोन पर गालियाँ दी। सरकार के विरुद्ध लिखने पर बड़े भैया हेमचंद ने जेल में ठूस दिये जाने का भय भी दिखाया, पिता ने डांट लगायी। पर वे सच के पथ पर अनवरत चलते रहे। " गांव के लोग"  पत्रिका एवं यू ट्यूब चैनल की कार्यकारी संपादक अपर्णा जी के व्दारा लिये गये उनके इंटरव्यू में उन्होंने समसमायिक मुद्दों, वर्तमान मीडिया की हालत पर बेबाकी से अपनी बात रखी। 

अस्वस्थता के बावजूद पांडेय जी संपादकों का आग्रह टाल नहीं पाते थे, लिखने बैठे तो पूरी ईमानदारी के साथ लिखते। नामचीन अखबारों में छपने के बाद भी उन्होंने स्थानीय पत्रों के लिए भी लिखा। अहंकार उन्हें कभी छू नहीं पाया। मृत्यु के कुछ घंटे पहले तक लिखते रहे। पिता की खूब सेवा की जो कि उनकी दिनचर्या में शामिल थी। पिता की देखभाल की जिम्मेदारी और लेखकीय जिम्मेदारी के बीच ऐसा सामंजस्य दुर्लभ है। पिता जो नब्बे के चल रहे हैं उनकी देखभाल बच्चों की तरह  राजू पांडेय ने किया। पितृ ऋण से उऋण होने का इससे सरल सहज राह भला कोई दूसरा हो सकती है? 

मीडिया ने जिन ज्वलंत मुद्दों के लिए अपने अपने दरवाजे पूरी तरह बंद कर दिए , उन्हीं जटिल मुद्दों पर राजू पांंडेय ने अपनी लेखनी चलाई। देश में उनके जैसे परिश्रमी, ईमानदार, चिंतक वर्तमान में विरले ही मिलेंगे। विद्वता, स्वाध्याय और स्वालंबन उनके व्यक्तित्व की विशेषता थी। स्वयं अनेक व्याधियों से घिरे होने के बावजूद वे अपना मानव धर्म एवं पुत्र धर्म को पूरी  ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ निभाते  रहे। इस दुनिया से अलविदा होने के चंद घंटे पहले उन्होंने अपने पिता के लिए रोटी बनाकर हमेशा की तरह अपने हाथों से खिलाया । फिर सोने चले गए। फिर सोते रहे.. देर सुबह जब हेमचन्द भैया ने उन्हें आवाज दी तो आशंका से घिरकर उन्होंने दरवाजा तोड़ना ही ठीक समझा। खाट पर छोटा भाई राजू चिर निंद्रा में सो रहा था। जब यह समाचार बाहर आया तो पूरा साहित्यिक जगत शोक में डूब गया। मैं उन्हें छत्तीसगढ़ का रवीश कुमार कहा करता था। वे रवीश कुमार से ज्यादा प्रखर, पारदर्शी और निष्पक्ष थे ।  

जब देश के बजट में ग्रामीण भारत और कृषि क्षेत्रों की  उपेक्षा की गई तो उससे राजू पांडेय जी बहुत दुखी हुए थे। दुःख का एक और कारण यह था कि मुख्य धारा की मीडिया द्वारा इस बात की अनदेखी पर चर्चा नहीं हो रही थी। तब उन्होंने अपने बहुत अन्वेषण करने के बाद एक लेख लिखा था जो कि  जनसन्देश टाइम्स, देशबंधु, जनमोर्चा, जनवाणी और शाह टाइम्स जैसे बेबाक, साहसिक एवं जनपक्षधर अखबारों  में प्रकाशित हुआ था। 

दयानंद , रंगकर्मी अजय आठले , रविंद्र चौबे, मुमताज भारती "पापा", जनवादी लेखक गणेश कछवाहा,अजय पांंडेय, वरिष्ठ कवि ,कथाकार रमेश शर्मा जैसे मित्रों से उनकी लंबी बौद्धिक चर्चाएं हुआ करती थीं। उन्हें पढ़ने का हमेशा जुनून सवार रहता था ।  उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी, रूसी - हर भाषा के साहित्य के प्रति उनकी अभिरुचि दीवानगी की हद तक देखी जा सकती थी। हिंदी साहित्य की अनमोल किताबें तो उनके अपने परिवार के ही लोगों व्दारा लिखी गई हैं। वे भेंट की किताबों का मूल्य भी हाथों में दे दिया करते थे।

समाज, इतिहास एवं संस्कृति की उन्हें अच्छी समझ थी, जिसके आधार पर वे वैज्ञानिक तरीके से तथ्यों को रखते हुए विषयों का सत्यान्वेषण करते थे। जन विरोधी नीतियों, एवं समाजिक सौहार्द्र

को बिगाड़ने वाली ताकतों की शिनाख्त  करते थे। पुरजोर मुखालफत करते थे। पर्यावरण,जनसंख्या, राजनीतिक -सामाजिक संबंधी बदलाव संबंधी उनका चिंतन किसी देश के लिए नहीं अपितु पूरे विश्व के लिए था। वैश्विक तापमान ने धरती के लिए नये - नये खतरे पैदा कर दिये हैं। राजू पांंडेय विश्व को आने वाले संकट के लिए सचेत करते रहे ,जागते रहो

की तर्ज पर ।राजू पांंडेय स्वयं को इस पृथ्वी में मुसाफिर मानते थे। वे जाने से पहले इस वृहद समाज के लिए बहुत कुछ सार्थक,सुंदर, सुरक्षित जीवन और मानवीय करुणा छोड़ जाना चाहते थे। वे छद्म राजनीति, कट्टरपंथी सोच, अलगाव और विघटनकारी ताकतों से समाज को  सुरक्षित रखना चाहते थे उनके लिए जो उनके बाद आयेंगे। वृहद समाज के प्रति वे मनुष्य होने के नाते अपना कर्तव्य को भलीभांति समझते थे। फेसबुक में उनकी पोस्ट देखने की ललक बनी रहती थी। राजू पांंडेय जी की  मानसिक ऊर्जा सकारात्मक सोच और उनकी क्रियाशीलता हमें चकित ही नहीं करती, सोचने को मजबूर भी करती है।

उनके मित्र अपर्णा की जिद की वज़ह से "तुम जैसा नहीं बनना" हाल ही में  उनकी पहली  एकमात्र किताब "अगोरा प्रकाशन" से प्रकाशित हो सकी है जो काफी चर्चा में है।"  उन्होंने शादी नहीं की। माँ बहुत पहले ही दुनिया से चली गई थी। नारी के प्रति उनकी श्रद्धा अगाध थी। नारी वेदना, नारी संघर्ष, नारी सशक्तिकरण के ऊपर लिखे गये उनके शोधपरक आलेख उनकी सूक्ष्म संवेदनशीलता के ही द्योतक हैं। उन्होंने नारी से जुड़ी पूर्व मान्यताओं को रेखांकित करते हुए समाज को एक नयी दृष्टि देने की कोशिश की है।उनकी यह किताब नारी विषयक पूर्व स्थापित मान्यताओं पर हमें पुनःविचार के लिए बाध्य करती है।

उन्होंने जो कुछ लिखा उनकी अंतरात्मा की आवाज थी। उन्होंने कभी भी सप्रयास या कहें जबरन कुछ  नहीं लिखा। एक दिन उनसे मैंने अन्य विधाओं मसलन कविता, कहानी लेखने के लिए अनुरोध किया था, तब उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा था बसंत भाई जब  अन्दर से  आवाज आयेगी  तब उन विधाओं पर भी लिखूंगा। अभी मेरे पास वक्त बहुत कम है। और मनुष्य होने के नाते समाज से उऋण होने के लिए इससे सरल सीधा राह मुझे फिलहाल नज़र नहीं आती। वे मनुष्य समाज को बहुत कुछ देकर जाना चाहते थे। उनके व्दारा लिखा गया वृहद लेख हमारे लिए किसी धरोहर से कम नहीं। एक बड़े पाठक वर्ग से उनके लेखों का सीधा सरोकार था। उनके लेखन का उद्देश्य आम जन  का हित था और एक बड़ा पाठक वर्ग उनके आलेखों से लाभान्वित होते रहेगा, उनका सृजन हमेशा प्रासंगिक बना रहेगा , इसमें दो मत नहीं। ऐसे लेखक को क्या कभी हम विस्मृत कर पायेंगे।

                       

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बसन्त राघव

पंचवटी नगर,बोईरदादर ,कृषि फार्म रोड, रायगढ़, छत्तीसगढ़, पिन नं. 496001, मोबाईल नं. 8319939396, ईमेल:-basantsao52@gmail.com

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समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना

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■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

जीवन प्रबंधन को जानना भी क्यों जरूरी है

            जीवन प्रबंधन से जुड़ी सात बातें

तीन महत्वपूर्ण कथाकार राजेन्द्र लहरिया, मनीष वैद्य, हरि भटनागर की कहानियाँ ( कथा संग्रह सताईस कहानियाँ से, संपादक-शंकर)

  ■राजेन्द्र लहरिया की कहानी : "गंगा राम का देश कहाँ है" --–-----------------------------  हाल ही में किताब घर प्रकाशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण कथा संग्रह 'सत्ताईस कहानियाँ' आज पढ़ रहा था । कहानीकार राजेंद्र लहरिया की कहानी 'गंगा राम का देश कहाँ है' इसी संग्रह में है। सत्ता तंत्र, समाज और जीवन की परिस्थितियाँ किस जगह जा पहुंची हैं इस पर सोचने वाले अब कम लोग(जिसमें अधिकांश लेखक भी हैं) बचे रह गए हैं। रेल की यात्रा कर रहे सर्वहारा समाज से आने वाले गंगा राम के बहाने रेल यात्रा की जिस विकट स्थितियों का जिक्र इस कहानी में आता है उस पर सोचना लोगों ने लगभग अब छोड़ ही दिया है। आम आदमी की यात्रा के लिए भारतीय रेल एकमात्र सहारा रही है। उस रेल में आज स्थिति यह बन पड़ी है कि जहां एसी कोच की यात्रा भी अब सुगम नहीं रही ऐसे में यह विचारणीय है कि जनरल डिब्बे (स्लीपर नहीं) में यात्रा करने वाले गंगाराम जैसे यात्रियों की हालत क्या होती होगी जहाँ जाकर बैठने की तो छोडिये खड़े होकर सांस लेने की भी जगह बची नहीं रह गयी है। साधन संपन्न लोगों ने तो रेल छोड़कर अपनी निजी गाड़ियों के जरिये सड़क मा