सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

30 अक्टूबर पुण्यतिथि पर डॉ राजू पांडे को याद कर रहे हैं बसंत राघव "सत्यान्वेषी राजू पांडेय के नहीं होने का मतलब"

डॉक्टर राजू पांडेय


शेम शेम मीडिया, बिकाऊ मीडिया, नचनिया मीडिया,छी मीडिया, गोदी मीडिया  इत्यादि इत्यादि विशेषणों से संबोधित होने वाली मीडिया को लेकर चारों तरफ एक शोर है , लेकिन यह वाकया पूरी तरह सच है ऐसा कहना भी उचित नहीं लगता ।  मुकेश भारद्वाज जनसत्ता, राजीव रंजन श्रीवास्तव देशबन्धु , सुनील कुमार दैनिक छत्तीसगढ़ ,सुभाष राय जनसंदेश टाइम्स जैसे नामी गिरामी संपादक भी आज मौजूद हैं जो राजू पांंडेय को प्रमुखता से बतौर कॉलमिस्ट अपने अखबारों में जगह देते रहे हैं। उनकी पत्रकारिता जन सरोकारिता और निष्पक्षता से परिपूर्ण रही है।  आज धर्म  अफीम की तरह बाँटी जा रही है। मेन मुद्दों से आम जनता का ध्यान हटाकर, उसे मशीनीकृत किया जा रहा है। वर्तमान परिपेक्ष्य में राजनीतिक अधिकारों, नागरिक आजादी और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के क्षेत्र में गिरावट महसूस की जा रही है। राजू पांंडेय का मानना था कि " आज तंत्र डेमोक्रेसी  इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी में तब्दील हो चुकी है ,जहां असहमति और आलोचना को बर्दाश्त नहीं किया जाता और इसे राष्ट्र विरोधी गतिविधि की संज्ञा दी जाती है।" स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि व्याधियों से घिरा हुआ  राजू पांडेय जैसा इंसान सीना तानकर  उसके खिलाफ खड़ा हो जाता है। और सरकार की गलत नीतियों और सामाजिक- राजनीतिक, पर्यावरण संबंधी बदलाव को रेखांकित कर उसका सकारात्मक  विश्लेषण करता है।  नहीं तो उसके पास शानदार भाषा थी चाहता तो प्रेम गीत लिख अमर होने की चाहत में डूबा रहता। नहीं , वह तो सत्यान्वेषी था, वह अपने को मिटाकर, सुखाकर, धरती की आर्द्रता बनाये रखना चाहता था। हर हाल में मनुष्यता को बचाए रखने का हिमायती बना रहना चाहता था। यह तय है भविष्य में उनके लिखे गए गंभीर शोधपरक लेखन से हम लोगों के साथ साथ प्रतियोगी विद्यार्थी भी लाभन्वित होते रहेंगे।

            राजू पांंडेय का परिचय देना, मुझे गैर जरूरी इस लिए जान पड़ता है, क्योंकि वे  दो दशकों से देश के नामचीन  पत्र पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपते आ रहे थे और छायावाद प्रवर्तक पं. मुकुटधर पांंडेय एवं छत्तीसगढ़ी साहित्य के भीष्मपितामह पं लोचन प्रसाद पांंडेय के परिवार के साथ साथ छत्तीसगढ़ी भाषा के प्रथम उपन्यासकार पं. बंशीधर पांडेय के पौत्र थे। इतना ही परिचय उनके लिए पर्याप्त है।  राजू पांंडेय एक ऐसे लेखक थे जो दुनिया को इंसानियत की नजरों से देखते थे। दलगत राजनीति से उनका कोई वास्ता नहीं। हर घड़ी मनुष्यता को बचा पाने की जद्दोजहद उनके लेखन मे देखने को मिलती है। उनकी दृष्टि विश्वपटल पर एक विश्लेषक की  तरह थी।  उन्होंने अपने पुरखों की साहित्यिक उपादेयता को नयी दृष्टि दी , यही कारण है कि मैं उनके लेखन के सामने अपने आप को हमेशा नतमस्तक पाता हूँ।

उन्होंने चंद दिनों पहले फेसबुक में अपने गिरते हुए सेहत को लेकर लिखा था "इस बात की बहुत संभावना है कि यह वापसी अस्थायी और अल्पजीवी हो और लेखन पर अल्प विराम , अर्द्ध विराम या पूर्ण विराम लग जाए।, तब सभी मित्रों ने उन्हें डांट लगाई थी और यशस्वी, स्वस्थ,लम्बी उम्र  की कामना की थी।

देश की वर्तमान स्थिति और सामाजिक- राजनीतिक गतिविधियों पर उनकी धारदार टिप्पणियाँ  पाठकों के लिए किसी धरोहर से कम नहीं है,  राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय घटना चक्र पर उनकी पैनी नज़र रहती थी। उनकी प्रतिबद्धता मनुष्यता को बचाए रखने के लिए थी। राजू पांडेय अपने पिता की तरह गांधीवादी , मार्क्सवादी चिंतक थे। इसी साल 9 अक्टूबर को रायपुर में अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन द्वारा "शांति,एकजुटता और महात्मा गांधी" विषय पर आयोजित विचार गोष्ठी में उन्हें मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था और उन्होंने उसमें अपना वक्तव्य पढ़ा था। इस तरह के बहुत से महत्वपूर्ण आयोजनों में उन्हें आमंत्रित किया जाता था ,लेकिन  अपने  पिता के स्वास्थ्यगत समस्याओं के कारण उन्हें अस्वीकार  करना  उनकी अपनी मजबूरी थी। 

भाषा को लेकर  वे कितने गंभीर थे, उनके पिछले 14 सिंतबर को हिंदी दिवस पर लिखा गया  " हिंदी एक भाषा नहीं- एक संस्कार, एक जीवन शैली है।" लेख को पढ़कर समझा जा सकता है। भाषा पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी। उनकी जैसी भाषा रायगढ़ के अब तक दो-चार लेखकों को ही नसीब हुई है।

राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर उनकी गंभीर, धारदार आलेखों को बिना काटछांट किये देश के शीर्ष समाचार पत्रों में स्थान मिलता था। उनकी लेखनी में सर्वहारा वर्ग की पीड़ा को व्याख्यायित करने की क्षमता थी, उन्हें उस पीड़ा से  मुक्त कराने की छटपटाहट थी। वे समाजवाद और सर्वधर्म समभाव के पक्षधर थे । राजू पांडेय सही मायनों में एक गंभीर सचेत राजनीतिक दृष्टि सम्पन्न लेखक थे। गलत नीतियों का पुरजोर विरोध करना उनकी प्रतिबद्धता थी।  उनकी संवेदनाएं जनहित को समर्पित थीं । वे उम्र में मुझसे चार साल छोटे थे, लेकिन उनकी प्रतिभा की वजह से वे मेरे लिए हमेशा श्रद्धेय रहे। जब भी उनको पढ़ता मेरी श्रद्धा उनके प्रति और बढ़ती जाती। रिश्ते में वे मेरी सास के छोटे भाई थे। लेकिन उनका हमारा परिचय बहुत पुराना था, इसलिए वे मुझे बसंत भाई ही कहा करते थे। सच कहें तो उनका और मेरा संबंध औपचारिकता से इतर आत्मीय था। मुझ  जैसे साधारण व्यक्ति को भी वे लेखन के लिए निरंतर प्रोत्साहित करते रहते थे। वे मेरे शुभेच्छु थे, उनके चले जाने से  मेरा मन शून्यता और गहन अवसाद से भर गया है। 

राजू पांडेय को बहुत से शारीरिक कष्टों, अवसादों और अनेक विपरीत परिस्थितियों ने  घेरे रखा था। लेकिन वे हारे नहीं। उन्होंने अपने पिता की  सेवा , अपनी बीमारी से परेशानी और लेखकीय दायित्वों के लिए नौकरी से वी.आर.एस ले लिया था। ऐसे विषम परिस्थितियों के बावजूद राजू पांडेय देश के तमाम छोटे-बड़े अख़बारों, पत्रिकाओं और वेबसाइटों में लगातार छाए रहे। वे भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनसे जुड़ी स्मृतियां हमेशा मानसपटल पर उत्कीर्णित रहेंगी। उन्होंने दुनिया से जितना लिया ,उससे ज्यादा उन्होंने समाज को सृजन करके  लौटाया। उनके राजनीतिक, सामाजिक लेख़ों में निरपेक्षता, तटस्थता,समदर्शिता के दर्शन होते हैं। उन्होंने पूरी निष्ठा, और निडरता के साथ ज्वलंत मुद्दों पर अपनी बात रखी। राजू पांडेय अपने जीवन में मनुष्यता की वकालत करते रहे। उन्होंने अपने लेखनकर्म के सामाजिक सरोकारो को खूब निभाया भी। पं. लोचन प्रसाद पांडेय, बंशीधर पांडेय, डाँ. बलदेव, एवं कौशल प्रसाद दुबे,ललित सुरजन और हिंदी भाषा के ऊपर लिखी गई उनकी साहित्यिक समीक्षाएं हों या फिर जटिल दार्शनिक प्रश्नों पर लिखे गये उनके सभी लेखों का स्थायी महत्व है। राजू पांंडेय कुछ भी लिखते थे , तो प्रमाणित लिखते थे। उन्होंने "सावरकर और गांधी" के संबंधों की गहन , सघन पड़ताल की थी। उससे संबंधित पुस्तकों का अनुशीलन किया था। सावरकर के सम्पूर्ण वाङ्गमय में से अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों के साथ - साथ गांधी को भी बहुत बारीकी से पढ़ा , खासकर जाति और वर्ण के संबंध में उनके विचारों को। इसके बाद उन्होंने चार लंबे आलेख तैयार किये  । इन लेखों का स्थायी महत्व है । इनका पुस्तकाकार अगर प्रकाशन हो जाता तो, शोधार्थी निश्चय ही लाभान्वित होते। यही उनकी आखरी इच्छा थी।

राजू पांडेय वर्तमान रायगढ़ की प्रतिभाओं को लांघते हुए एक अलग पहचान बनाने में सफल रहे । उन्होंने अपने पूर्वजों की ऐतिहासिकता को बनाए रखने में अपने को जोड़ा, यह महत्वपूर्ण है। यह आश्चर्य नहीं होगा कि भविष्य में उनके अग्रजों को उनके नाम से जाना जायेगा।

गोदी मीडिया से वे खफा थे, कभी चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाते तो कभी नेताओं की चुनावी अमर्यादित भाषाओं से क्षुब्ध होकर कटाक्ष भी करते। धर्म और जातीयता के संकीर्ण मार्ग से इतर उन्होंने मनुष्यता की राह पर चलने के लिए ज्यादा जोर दिया। उनका मानना था "जब कथित मुख्यधारा का मीडिया सत्ता से मित्रवत संबंध बना ले तो सत्ता से असहमति की अभिव्यक्ति को पाठकों तक पहुंचाने के लिए नए मार्ग तलाशने पड़ते हैं। "  बिकाऊ मीडिया रात दिन वही दिखाती है जो सरकार चाहती है। सरकारी ऐजेंसियाँ, महामहिम सभी संदेही लगने लगे हैं, इससे स्थिति की भयावहता समझी जा सकती है जिसे लोग देखकर, समझकर चुप रहने में अपने को सुरक्षित होना मानते हैं। वे भी लोकतंत्र की हत्या के लिए भविष्य में कसूरवार ठहराए जायेंगे। अन्याय के खिलाफ चुप रहना भी एक अपराध है। स्थिति भयावह और लोकतांत्रिक मूल्यों का अवमूल्यन गाँधीवादी राजू पांंडेय को मंजूर नहीं था। देश की बद से बदतर होती परिस्थितियों के लिए वे सत्ताधारी सोच और नीतियों को दोषी मानते थे। समसमायिक राजनीतिक, सामाजिक घटनाओं पर कटाक्ष करना मात्र उनका उद्देश्य नहीं था। उनकी विसंगतियों को दूर करने के लिए विनम्र आग्रह भी था ।    उन्होंने जो कुछ महसूस किया सच को सच लिखा झूठ को झूठ। अन्धभक्तों ने उन्हें फोन पर गालियाँ दी। सरकार के विरुद्ध लिखने पर बड़े भैया हेमचंद ने जेल में ठूस दिये जाने का भय भी दिखाया, पिता ने डांट लगायी। पर वे सच के पथ पर अनवरत चलते रहे। " गांव के लोग"  पत्रिका एवं यू ट्यूब चैनल की कार्यकारी संपादक अपर्णा जी के व्दारा लिये गये उनके इंटरव्यू में उन्होंने समसमायिक मुद्दों, वर्तमान मीडिया की हालत पर बेबाकी से अपनी बात रखी। 

अस्वस्थता के बावजूद पांडेय जी संपादकों का आग्रह टाल नहीं पाते थे, लिखने बैठे तो पूरी ईमानदारी के साथ लिखते। नामचीन अखबारों में छपने के बाद भी उन्होंने स्थानीय पत्रों के लिए भी लिखा। अहंकार उन्हें कभी छू नहीं पाया। मृत्यु के कुछ घंटे पहले तक लिखते रहे। पिता की खूब सेवा की जो कि उनकी दिनचर्या में शामिल थी। पिता की देखभाल की जिम्मेदारी और लेखकीय जिम्मेदारी के बीच ऐसा सामंजस्य दुर्लभ है। पिता जो नब्बे के चल रहे हैं उनकी देखभाल बच्चों की तरह  राजू पांडेय ने किया। पितृ ऋण से उऋण होने का इससे सरल सहज राह भला कोई दूसरा हो सकती है? 

मीडिया ने जिन ज्वलंत मुद्दों के लिए अपने अपने दरवाजे पूरी तरह बंद कर दिए , उन्हीं जटिल मुद्दों पर राजू पांंडेय ने अपनी लेखनी चलाई। देश में उनके जैसे परिश्रमी, ईमानदार, चिंतक वर्तमान में विरले ही मिलेंगे। विद्वता, स्वाध्याय और स्वालंबन उनके व्यक्तित्व की विशेषता थी। स्वयं अनेक व्याधियों से घिरे होने के बावजूद वे अपना मानव धर्म एवं पुत्र धर्म को पूरी  ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ निभाते  रहे। इस दुनिया से अलविदा होने के चंद घंटे पहले उन्होंने अपने पिता के लिए रोटी बनाकर हमेशा की तरह अपने हाथों से खिलाया । फिर सोने चले गए। फिर सोते रहे.. देर सुबह जब हेमचन्द भैया ने उन्हें आवाज दी तो आशंका से घिरकर उन्होंने दरवाजा तोड़ना ही ठीक समझा। खाट पर छोटा भाई राजू चिर निंद्रा में सो रहा था। जब यह समाचार बाहर आया तो पूरा साहित्यिक जगत शोक में डूब गया। मैं उन्हें छत्तीसगढ़ का रवीश कुमार कहा करता था। वे रवीश कुमार से ज्यादा प्रखर, पारदर्शी और निष्पक्ष थे ।  

जब देश के बजट में ग्रामीण भारत और कृषि क्षेत्रों की  उपेक्षा की गई तो उससे राजू पांडेय जी बहुत दुखी हुए थे। दुःख का एक और कारण यह था कि मुख्य धारा की मीडिया द्वारा इस बात की अनदेखी पर चर्चा नहीं हो रही थी। तब उन्होंने अपने बहुत अन्वेषण करने के बाद एक लेख लिखा था जो कि  जनसन्देश टाइम्स, देशबंधु, जनमोर्चा, जनवाणी और शाह टाइम्स जैसे बेबाक, साहसिक एवं जनपक्षधर अखबारों  में प्रकाशित हुआ था। 

दयानंद , रंगकर्मी अजय आठले , रविंद्र चौबे, मुमताज भारती "पापा", जनवादी लेखक गणेश कछवाहा,अजय पांंडेय, वरिष्ठ कवि ,कथाकार रमेश शर्मा जैसे मित्रों से उनकी लंबी बौद्धिक चर्चाएं हुआ करती थीं। उन्हें पढ़ने का हमेशा जुनून सवार रहता था ।  उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी, रूसी - हर भाषा के साहित्य के प्रति उनकी अभिरुचि दीवानगी की हद तक देखी जा सकती थी। हिंदी साहित्य की अनमोल किताबें तो उनके अपने परिवार के ही लोगों व्दारा लिखी गई हैं। वे भेंट की किताबों का मूल्य भी हाथों में दे दिया करते थे।

समाज, इतिहास एवं संस्कृति की उन्हें अच्छी समझ थी, जिसके आधार पर वे वैज्ञानिक तरीके से तथ्यों को रखते हुए विषयों का सत्यान्वेषण करते थे। जन विरोधी नीतियों, एवं समाजिक सौहार्द्र

को बिगाड़ने वाली ताकतों की शिनाख्त  करते थे। पुरजोर मुखालफत करते थे। पर्यावरण,जनसंख्या, राजनीतिक -सामाजिक संबंधी बदलाव संबंधी उनका चिंतन किसी देश के लिए नहीं अपितु पूरे विश्व के लिए था। वैश्विक तापमान ने धरती के लिए नये - नये खतरे पैदा कर दिये हैं। राजू पांंडेय विश्व को आने वाले संकट के लिए सचेत करते रहे ,जागते रहो

की तर्ज पर ।राजू पांंडेय स्वयं को इस पृथ्वी में मुसाफिर मानते थे। वे जाने से पहले इस वृहद समाज के लिए बहुत कुछ सार्थक,सुंदर, सुरक्षित जीवन और मानवीय करुणा छोड़ जाना चाहते थे। वे छद्म राजनीति, कट्टरपंथी सोच, अलगाव और विघटनकारी ताकतों से समाज को  सुरक्षित रखना चाहते थे उनके लिए जो उनके बाद आयेंगे। वृहद समाज के प्रति वे मनुष्य होने के नाते अपना कर्तव्य को भलीभांति समझते थे। फेसबुक में उनकी पोस्ट देखने की ललक बनी रहती थी। राजू पांंडेय जी की  मानसिक ऊर्जा सकारात्मक सोच और उनकी क्रियाशीलता हमें चकित ही नहीं करती, सोचने को मजबूर भी करती है।

उनके मित्र अपर्णा की जिद की वज़ह से "तुम जैसा नहीं बनना" हाल ही में  उनकी पहली  एकमात्र किताब "अगोरा प्रकाशन" से प्रकाशित हो सकी है जो काफी चर्चा में है।"  उन्होंने शादी नहीं की। माँ बहुत पहले ही दुनिया से चली गई थी। नारी के प्रति उनकी श्रद्धा अगाध थी। नारी वेदना, नारी संघर्ष, नारी सशक्तिकरण के ऊपर लिखे गये उनके शोधपरक आलेख उनकी सूक्ष्म संवेदनशीलता के ही द्योतक हैं। उन्होंने नारी से जुड़ी पूर्व मान्यताओं को रेखांकित करते हुए समाज को एक नयी दृष्टि देने की कोशिश की है।उनकी यह किताब नारी विषयक पूर्व स्थापित मान्यताओं पर हमें पुनःविचार के लिए बाध्य करती है।

उन्होंने जो कुछ लिखा उनकी अंतरात्मा की आवाज थी। उन्होंने कभी भी सप्रयास या कहें जबरन कुछ  नहीं लिखा। एक दिन उनसे मैंने अन्य विधाओं मसलन कविता, कहानी लेखने के लिए अनुरोध किया था, तब उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा था बसंत भाई जब  अन्दर से  आवाज आयेगी  तब उन विधाओं पर भी लिखूंगा। अभी मेरे पास वक्त बहुत कम है। और मनुष्य होने के नाते समाज से उऋण होने के लिए इससे सरल सीधा राह मुझे फिलहाल नज़र नहीं आती। वे मनुष्य समाज को बहुत कुछ देकर जाना चाहते थे। उनके व्दारा लिखा गया वृहद लेख हमारे लिए किसी धरोहर से कम नहीं। एक बड़े पाठक वर्ग से उनके लेखों का सीधा सरोकार था। उनके लेखन का उद्देश्य आम जन  का हित था और एक बड़ा पाठक वर्ग उनके आलेखों से लाभान्वित होते रहेगा, उनका सृजन हमेशा प्रासंगिक बना रहेगा , इसमें दो मत नहीं। ऐसे लेखक को क्या कभी हम विस्मृत कर पायेंगे।

                       

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

बसन्त राघव

पंचवटी नगर,बोईरदादर ,कृषि फार्म रोड, रायगढ़, छत्तीसगढ़, पिन नं. 496001, मोबाईल नं. 8319939396, ईमेल:-basantsao52@gmail.com

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इन्हें भी पढ़ते चलें...

डॉ. चंद्रिका चौधरी की कहानी : घास की ज़मीन

  डॉ. चंद्रिका चौधरी हमारे छत्तीसगढ़ से हैं और बतौर सहायक प्राध्यापक सरायपाली छत्तीसगढ़ के एक शासकीय कॉलेज में हिंदी बिषय का अध्यापन करती हैं । कहानियों के पठन-पाठन में उनकी गहरी अभिरुचि है। खुशी की बात यह है कि उन्होंने कहानी लिखने की शुरुआत भी की है । हाल में उनकी एक कहानी ' घास की ज़मीन ' साहित्य अमृत के जुलाई 2023 अंक में प्रकाशित हुई है।उनकी कुछ और कहानियाँ प्रकाशन की कतार में हैं। उनकी लिखी इस शुरुआती कहानी के कई संवाद बहुत ह्रदयस्पर्शी हैं । चाहे वह घास और जमीन के बीच रिश्तों के अंतर्संबंध के असंतुलन को लेकर हो , चाहे बसंत की विदाई के उपरांत विरह या दुःख में पेड़ों से पत्तों के पीले होकर झड़ जाने की बात हो , ये सभी संवाद एक स्त्री के परिवार और समाज के बीच रिश्तों के असंतुलन को ठीक ठीक ढंग से व्याख्यायित करते हैं। सवालों को लेकर एक स्त्री की चुप्पी ही जब उसकी भाषा बन जाती है तब सवालों के जवाब अपने आप उस चुप्पी में ध्वनित होने लगते हैं। इस कहानी में एक स्त्री की पीड़ा अव्यक्त रह जाते हुए भी पाठकों के सामने व्यक्त होने जैसी लगती है और यही इस कहानी की खूबी है। घटनाओ...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुक...

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज...

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विच...

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था ...

डॉक्टर उमा अग्रवाल और डॉक्टर कीर्ति नंदा : अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर रायगढ़ शहर के दो होनहार युवा महिला चिकित्सकों से जुड़ी बातें

आज 8 मार्च है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस । आज के दिन उन महिलाओं की चर्चा होती है जो अमूमन चर्चा से बाहर होती हैं और चर्चा से बाहर होने के बावजूद अपने कार्यों को बहुत गम्भीरता और कमिटमेंट के साथ नित्य करती रहती हैं। डॉ कीर्ति नंदा एवं डॉ उमा अग्रवाल  वर्तमान में हम देखें तो चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी महिला चिकित्सकों की संख्या में  पहले से बहुत बढ़ोतरी हुई है ।इस पेशे पर ध्यान केंद्रित करें तो महसूस होता है कि चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी महिला डॉक्टरों के साथ बहुत समस्याएं भी जुड़ी होती हैं। उन पर काम का बोझ अत्यधिक होता है और साथ ही साथ अपने घर परिवार, बच्चों की जिम्मेदारियों को भी उन्हें देखना संभालना होता है। महिला चिकित्सक यदि स्त्री रोग विशेषज्ञ है और किसी क्षेत्र विशेष में  विशेषज्ञ सर्जन है तो  ऑपरेशन थिएटर में उसे नित्य मानसिक और शारीरिक रूप से संघर्ष करना होता है। किसी भी डॉक्टर के लिए पेशेंट का ऑपरेशन करना बहुत चुनौती भरा काम होता है । कहीं कोई चूक ना हो जाए इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता है । इस चूक में  पेशेंट के जीवन और मृत्यु का मसला जुड़ा होता है।ऑपरेशन ...

छत्तीसगढ़ राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी संघ का महासम्मेलन 15 अप्रैल 2025 को बिलासपुर में

छत्तीसगढ़ राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी संघ का महासम्मेलन  15 अप्रैल 2025 को बिलासपुर में  हक की आवाज़ और एकजुटता के  संकल्प के साथ जुटेंगे संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी रायगढ़। 14 अप्रैल 2025:  छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) के संविदा स्वास्थ्य कर्मचारी, अपने हक और सम्मान की लड़ाई को एक नया आयाम देने जा रहे हैं। दिनांक *15 अप्रैल 2025, मंगलवार को स्वर्गीय लखीराम अग्रवाल सभागृह, बिलासपुर* में आयोजित होने वाले *राज्य स्तरीय महासम्मेलन* में प्रदेश के 33 जिलों से हजारों कर्मचारी एकत्र होंगे। यह महासम्मेलन केवल एक सभा नहीं, बल्कि वर्षों की उपेक्षा, आश्वासनों की थकान और अनसुनी मांगों का साहसिक जवाब है। माननीयों का स्वागत, मांगों का आह्वान इस ऐतिहासिक आयोजन में छत्तीसगढ़ के यशस्वी स्वास्थ्य मंत्री *श्री श्याम बिहारी जयसवाल जी, श्री अमर अग्रवाल जी, श्री धरमलाल कौशिक जी, श्री धर्मजीत सिंह जी, श्री सुशांत शुक्ला* जी सहित अन्य गणमान्य विधायकों और जनप्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया है। इनके समक्ष संविदा कर्मचारी अपनी मांगो...

गाँधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक

गांधीवादी विचारों को समर्पित मासिक पत्रिका "गाँधीश्वर" एक लंबे अरसे से छत्तीसगढ़ के कोरबा से प्रकाशित होती आयी है।इसके अब तक कई यादगार अंक प्रकाशित हुए हैं।  प्रधान संपादक सुरेश चंद्र रोहरा जी की मेहनत और लगन ने इस पत्रिका को एक नए मुकाम तक पहुंचाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की है। रायगढ़ के वरिष्ठ कथाकार , आलोचक रमेश शर्मा जी के कुशल अतिथि संपादन में गांधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक बेहद ही खास है। यह अंक डॉ. टी महादेव राव जैसे बेहद उम्दा शख्सियत से  हमारा परिचय कराता है। दरअसल यह अंक उन्हीं के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित है। राव एक उम्दा व्यंग्यकार ही नहीं अनुवादक, कहानीकार, कवि लेखक भी हैं। संपादक ने डॉ राव द्वारा रचित विभिन्न रचनात्मक विधाओं को वर्गीकृत कर उनके महत्व को समझाने की कोशिश की है जिससे व्यक्ति विशेष और पाठक के बीच संवाद स्थापित हो सके।अंक पढ़कर पाठकों को लगेगा कि डॉ राव का साहित्य सामयिक और संवेदनाओं से लबरेज है।अंक के माध्यम से यह बात भी स्थापित होती है कि व्यंग्य जैसी शुष्क बौद्धिक शैली अपनी समाजिक सरोकारिता और दिशा बोध के लिए कितनी प्रतिबद्ध दिखाई देती ह...

21वें राष्ट्रीय ट्रिपल ओ संगोष्ठी 2024 (21st National OOO Symposium 2024) का आयोजन देश के सिल्वर सिटी के नाम से ख्यात ओड़िसा के कटक में सम्पन्न

डेंटल चिकित्सा से जुड़े तीन महत्वपूर्ण ब्रांच OOO【Oral and Maxillofacial Surgery,Oral Pathology, Oral Medicine and Radiology】पर 21वें राष्ट्रीय ट्रिपल ओ संगोष्ठी 2024  (21st National OOO Symposium 2024) का आयोजन देश के सिल्वर सिटी के नाम से ख्यात ओड़िसा के कटक में सम्पन्न हुआ. भारत के सिल्वर सिटी के नाम से प्रसिद्ध ओड़िसा के कटक शहर में 21st National OOO Symposium 2024  का सफल आयोजन 8 मार्च से 10 मार्च तक सम्पन्न हुआ। इसकी मेजबानी सुभाष चंद्र बोस डेंटल कॉलेज एंड हॉस्पिटल कटक ओड़िसा द्वारा की गई। सम्मेलन का आयोजन एसोसिएशन ऑफ ओरल एंड मैक्सिलोफेशियल सर्जन ऑफ इंडिया, (AOMSI) और इंडियन एसोसिएशन ऑफ ओरल एंड मैक्सिलोफेशियल पैथोलॉजिस्ट (IAOMP) के सहयोग से इंडियन एकेडमी ऑफ ओरल मेडिसिन एंड रेडियोलॉजी (IAOMR) के तत्वावधान में किया गया। Dr.Paridhi Sharma MDS (Oral Medicine and    Radiology)Student एससीबी डेंटल कॉलेज एंड हॉस्पिटल कटक के ओरल मेडिसिन एंड रेडियोलॉजी डिपार्टमेंट की मेजबानी में संपन्न हुए इस नेशनल संगोष्ठी में ओरल मेडिसिन,ओरल रेडियोलॉजी , ओरल मेक्सिलोफेसियल सर्जरी और ओरल प...

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सो...