सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं -

सोचना! 

सोचना उन अँधेरों के बारे में

जिनका स्याहपन तुम्हें छू तक नहीं पाया।

.  .  .  .

.  .  .    .  .

है अगर स्मृति शेष कुछ तो

तोड़कर अपना मायाजाल 

याद करना वह पसीना 

जिसे तुम भूल चुके हो। 

विभिन्न प्रकार के विचार जो किसी कविता में चलकर आते हैं कविता की आत्मा होते हैं जबकि उससे जुड़ी कलाएं कविता की सुंदरता को अभिव्यक्त करती हैं।  विचार और कलाओं का यह क्रम किसी कविता को जस्टिफाई करने में सहायक होता है। इस क्रम के लिहाज से भी देखा जाए तो उनकी कविताएं जस्टिफाई होती हुई नजर आती हैं और उनका प्रभाव पाठकों को उनकी कविताओं से जोड़ता भी है।

ममता की कविताओं में एक किस्म की वैचारिक साफ़गोई है । चाहे स्कूली बच्चों का दुख दर्द हो,विरासत के छूटने बिछड़ने का दर्द हो, सामाजिक असंतुल से उपजी पीड़ा हो या स्त्री मन के भीतर चल रहे द्वंद्व से जन्मा दुःख हो, सारी बातें विचार और भाव में रची पगी होकर तरल रूप में पाठकों तक पहुंचती हैं। उनकी कविताओं में स्त्री के भीतर उमड़ता प्रेम भी कुछ पंक्तियों में इस ख़ूबसूरती से अभिव्यक्त हुआ है कि पाठक अचंभित हो सकते हैं। इन पंक्तियों में प्रेम का एक उद्दात्त रूप दृश्यमान होता है-

"इनकी खुशनसीबी देख ख़याल आता है

काश कि होती कहीं मैं भी

इस अलमारी के बीच इन किताबों के दरमियाँ 

करती तुम्हारा इन्तज़ार

बेतरह!"

बहरहाल मानवीय आक्रोश, संवेदना और प्रेम में रची पगी ममता जयंत की इन कविताओं को अनुग्रह के पाठक यहां पढ़ सकते हैं-


■ शायद खोज पाऊँ कभी


भोर के कलरव में

रोज चले आते हैं

अलसाई आँखें लिए

बीनते हैं सपने उस प्रांगण में

जहाँ बिखरी पड़ी हैं उनकी आशा की किरणें


नहीं आते सब अकेले

कुछ लाते हैं खुद से बड़ी ज़िम्मेदारी भी साथ

जिसका भार बस्ते के बोझ से कहीं ज़्यादा है


निभाते हैं बड़ी तन्म्यता से

नहीं छोड़ पाते अकेला उस साथ को

उठाई है जिसके हँसने-रोने खाने-पीने

खोने -बिछुड़ने की ज़िम्मेदारी


सचमुच! 

उनकी उम्र से 

कहीं ज़्यादा बड़ी है ये अदायगी

छ: साल की बहन निभाती है 

तीन साल के भाई की माँ का धर्म


ओझल हो निकल जाते हैं मेरी आँखों से

सम्भालने उन नन्हें पाँवों को

जिन्होंने सीखा है अभी-अभी चलना

नहीं आया जिन्हें निवाला चबाना

भूल जाते हैं अपनी भूख-प्यास 

जब पड़ता है उनका मैला उठाना


मेरे हर प्रश्न का उत्तर है उनकी पीली आँखों में

उलझ कर रह जाते हैं सवाल

उनके लरज़ते बालों में


अबोध मन ज्यादा नहीं बस इतना जानता है

घर कोई नहीं कमरे में ताला है 

जिस ताले का बोझ भी है 

इसी बस्ते पर है


न मालूम 

ताला कमरे की सांकल पर लगा है 

या लगा है इनकी किस्मत पर

शायद खोज पाऊँ कभी इन तालों की चाबी!


■ ख़्वाहिश


ये किताबें हैं या तुम्हारी प्रेमिकाएँ

जो झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशे से तुम्हें 

निहारती हैं उम्मीद भरी निगाहों से 

एक बेआवाज़ मिलन की चाह लिए 


और तुम देकर दिलासा करते हो आश्वस्त

आने वाली छुट्टी के नाम पर 

ये छुट्टी कौन सी होगी पता नहीं


किसी रविवार तीज-त्यौहार 

या किसी नेता-राजनेता की मौत पर मनाए गए शोक की

इससे नहीं है उनका कोई लेना-देना

उन्हें तो बस तुम्हारा साथ चाहिए


उनका ये भरोसा झूठा नहीं है

कि पाते ही वक्त पुकारोगे नाम से 

पलटोगे पन्ना दर पन्ना कई-कई बार

पहुंचोगे शब्द से अर्थ तक


इनकी खुशनसीबी देख ख़याल आता है

काश कि होती कहीं मैं भी इस अलमारी के बीच

इन किताबों के दरमियाँ 

करती तुम्हारा इन्तज़ार

बेतरह!


■गुब्बारे


हमारे सपने

हिलियम के उन गुब्बारों जैसे थे

जिन्हें माँ उड़ने के भय से

बाँध देती थी धागे से हाथों में 


हम कर मशक्कत खोल देते तुरंत ही

वे स्वछंद विचरते आसमानी हवा में

पल भर को उड़ जाते हम भी फुग्गे संग

और लौटते ही ठिठक जाते 

उनके वापस न आने के भय से


फिर हमें सिखाया गया 

खिलौने खेलने को होते हैं उड़ाने को नहीं

उसके बाद नहीं उड़ने दिया एक भी गुब्बारा

बाँध लिए सब मन के धागों से


पता नहीं 

वे हमसे खेल रहे थे या हम उनसे

पर जुड़े थे सब अन्तस से

अब भीतर ही पड़े हैं सारे के सारे

सजीले रंगों के सुंदर गुब्बारे!


■मनुष्य न कहना


अभी मैंने पेश नहीं किए

अपने मनुष्य होने के प्रमाण

न ही साबित की अपनी मनुष्यता 

इसलिए तुम मुझे मनुष्य न कहना 


न कहना खग या विहग

क्योंकि उड़ना मुझे आया नहीं

मत कहना नीर क्षीर या समीर भी

क्योंकि उनके जैसी शुद्धता मैंने पाई नहीं 


न देना दुहाई 

धरा या वसुधा के नाम की

चूंकि उसके जैसी धीरता मुझमें समाई नहीं


हाँ कुछ कहना ही चाहते हो

पुकारना चाहते हो सम्बोधन से

तो पुकारना तुम मुझे एक ऐसे खिलौने 

की तरह 


जो टूटकर मिट्टी की मानिंद

मिल सकता हो मिट्टी में

जल सकता हो अनल में

बह सकता हो जल में

उड़ सकता हो आकाश में

उतर सकता हो पाताल में


ताकि तुम्हारे सारे प्रयोगों से बचकर

दिखा सकूँ मैं अपनी चिर-परिचित मुस्कान

दुखों से उबरने का अदम्य साहस

और एक सम्वेदनशील हृदय


इसके सिवा एक मनुष्य

और दे भी क्या सकता है 

अपनी मनुष्यता का साक्ष्य?


■पतंगें


आकाश में उड़ती पतंगे 

नहीं जानतीं अंकुश का अर्थ

वे जानती हैं खुली हवा में विचरना 

और छूना आसमान की ऊँचाईयों को 


पतंगें 

नहीं महसूस पातीं 

उस हाथ के दबाव को

जो थामे रखता है उनकी डोर अपने हाथ में


पतंगें 

लड़ना नहीं जानतीं

उन्हें लड़ाया जाता है 

वे जानती हैं सिर्फ मिलना-जुलना

और बढ़ना एक-दूसरे की ओर 


पतंगें

नहीं पहचान पातीं उस धार को

जिससे मिलते ही कट जाती है ग्रीवा


पतंगें 

नहीं जानतीं लुटने मिटने कटने का अर्थ

वे देखना चाहती हैं दुनिया को ऊँचाई से

उनका ऊँचा-नीचा होना निर्भर है

मुट्ठी में कसे धागे के तनाव पर


पतंगें 

नहीं थाम पातीं अपनी ही डोर अपने हाथ में

विजय और वर्चस्व की उम्मीदों को संजोए

आ गिरती हैं इक रोज़ ज़मीन पर 


अँधेरों उजालों के बीच

उठती-गिरती कटती-लुटती

भरती हैं फिर-फिर उड़ान


■तुम भगवान् तो नहीं

---------------------------------


मैंने रहने को मकाँ माँगा

तुमने मन्दिर दे दिया

मैंने भूख का नाम लिया

तुमने भगवान का ज़िक्र छेड़ दिया


मैंने विनोद की बात की

तुमने वन्दना का राग अलापा

मैंने अनाज की तरफ़ देखा

तुमने अर्चना की ओर इशारा किया

मैंने प्रार्थना में प्राण बचाने की मुहिम छेड़ी

तुमने पूजा में समय बिताने की विधि बताई


क्या सचमुच! 

मन्दिर, पूजा, अर्चना और वन्दना 

कर देते हैं पेट की आग को ठण्डा 

क्या दीपक बन जाता है ठिठुरती सर्दी में अलाव

क्या तपती गर्मी में पसीना बन जाता है पानी

क्या मन्दिर का प्रसाद बन सकता है मजदूर की दिहाड़ी

 

अगर नहीं

तो जितना अन्तर है भूख और भगवान् में

बस उतना ही फासला है मेरे और तुम्हारे बीच

कहीं मैं भूख तुम भगवान तो नहीं?


■कहर


हम कुदरत की लूट में उस हद तक माहिर हैं 

जहाँ हवा ज़हर बन जाती है

जमीनें बंजर हो जाती हैं

जंगल तबाह हो जाते हैं

नदियाँ सूख जाती हैं


बढ़ जाती है अशांति 

अपने अंतिम स्तर तक

रहती है जिसमें हमारी एक बड़ी भूमिका

हमारी यही खूबी हमें बाजार से जोड़ती है


आज स्वार्थ हमारा सबसे बड़ा सिद्धांत है 

अन्याय सबसे बड़ा हथियार

आ पहुँचे यहाँ तक अपना असंतोष लिए 

कि खड़े हैं कुदरत के समानांतर

विकास का भ्रम पाले


हमारी हवस के संग-संग

बढ़ रहा है उसका भी कहर 

हमारे लोभ पर भारी है उसका कोप


कल ऐसा न हो

सभ्यता और असभ्यता के इस युद्ध में

वह पार कर जाए अपनी पराकाष्ठा

और हम शान्त हो जाएँ मुनाफ़े की भूख से!


■बहेलियों के नाम


जब तुम हमारी अयोग्यता की बात करो

तो अपने उस अनाचार की भी करना

जिससे तुम साधते रहे निशाना

और हम होते रहे शिकार 

तुम्हारी ग़ुलेलों का


सोचना! 

सोचना उन अँधेरों के बारे में

जिनका स्याहपन तुम्हें छू तक नहीं पाया


देखकर हमारी चमकीली आँखें

मत समझ लेना सुख का पर्याय

गर हो कोई पैमाना सच का 

तो मापना हमारे उस द्वंद्व को 

जो उपजा है तुम्हारे छद्म से


न देखना

सिर्फ देखने के लिए

पढ़ना एक बार समझने के लिए


बचा है स्मृति शेष कुछ तो

तोड़कर अपना मायाजाल 

याद करना वह पसीना 

जिसे तुम भूल चुके हो। 


~ ममता जयंत 

-------------------------------------------    

■ परिचय


21 सितंबर को दिल्ली में जन्मीं युवा कवयित्री , आलोचक ममता जयंत पेशे से अध्यापिका हैं और दिल्ली में ही रहती हैं।शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों के लिए उन्होंने कुछ उल्लेखनीय कार्य किये हैं।

विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती आयी हैं। 'बाल सुमन माला' शीर्षक से उनका एक बाल कविता संग्रह प्रकाशित है। इसके अलावा पांच साझा काव्य संग्रहों में भी उनकी कविताएं शामिल की गई हैं।

टिप्पणियाँ

  1. उत्तर
    1. ममता जयंत की सारी रचनाएं यथार्थ के धरातल पर रुक कर रची गई हैं। थोड़ा थम कर अगर सोचें समझें और महसूस करने की कोशिश करें तो लगता है कि ममता जी का समाज की संवेदनाओं से एक गहरा नाता है एक गहरा रिश्ता है और उन तमाम रिश्तों को ही वो रफ्ता रफ्ता सिचतीं सहेजती नज़र आती हैं।

      हटाएं
  2. मैं इन कविताओं का लंबे समय से साक्षी रहा हूं। बेहतरीन। बहुत शुभकामना 🌹🌹

    जवाब देंहटाएं
  3. ममता जी रचनाओं में दबे, कुचलों की पीड़ा सहजरूप से अभिव्यक्त होती है...इसकी सभी रचनाएँ मनुष्य के सन्त्रासों की मुक्ति के लिए उद्घोष हैं। ममता जी अपनी कविताओं में कविता की आधारभूत, व्यवाहरिक तथा नैसर्गिक संरचना स्थापित करती हैं।
    भुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुक...

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज...

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था ...

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विच...

तीन महत्वपूर्ण कथाकार राजेन्द्र लहरिया, मनीष वैद्य, हरि भटनागर की कहानियाँ ( कथा संग्रह सताईस कहानियाँ से, संपादक-शंकर)

  ■राजेन्द्र लहरिया की कहानी : "गंगा राम का देश कहाँ है" --–-----------------------------  हाल ही में किताब घर प्रकाशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण कथा संग्रह 'सत्ताईस कहानियाँ' आज पढ़ रहा था । कहानीकार राजेंद्र लहरिया की कहानी 'गंगा राम का देश कहाँ है' इसी संग्रह में है। सत्ता तंत्र, समाज और जीवन की परिस्थितियाँ किस जगह जा पहुंची हैं इस पर सोचने वाले अब कम लोग(जिसमें अधिकांश लेखक भी हैं) बचे रह गए हैं। रेल की यात्रा कर रहे सर्वहारा समाज से आने वाले गंगा राम के बहाने रेल यात्रा की जिस विकट स्थितियों का जिक्र इस कहानी में आता है उस पर सोचना लोगों ने लगभग अब छोड़ ही दिया है। आम आदमी की यात्रा के लिए भारतीय रेल एकमात्र सहारा रही है। उस रेल में आज स्थिति यह बन पड़ी है कि जहां एसी कोच की यात्रा भी अब सुगम नहीं रही ऐसे में यह विचारणीय है कि जनरल डिब्बे (स्लीपर नहीं) में यात्रा करने वाले गंगाराम जैसे यात्रियों की हालत क्या होती होगी जहाँ जाकर बैठने की तो छोडिये खड़े होकर सांस लेने की भी जगह बची नहीं रह गयी है। साधन संपन्न लोगों ने तो रेल छोड़कर अपनी निजी गाड़ियों के जरिये सड़क मा...

गंगाधर मेहेर : ओड़िया के लीजेंड कवि gangadhar meher : odiya ke legend kavi

हम हिन्दी में पढ़ने लिखने वाले ज्यादातर लोग हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के कवियों, रचनाकारों को बहुत कम जानते हैं या यह कहूँ कि बिलकुल नहीं जानते तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ।  इसका एहसास मुझे तब हुआ जब ओड़िसा राज्य के संबलपुर शहर में स्थित गंगाधर मेहेर विश्वविद्यालय में मुझे एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में बतौर वक्ता वहां जाकर बोलने का अवसर मिला ।  2 और 3  मार्च 2019 को आयोजित इस दो दिवसीय संगोष्ठी में शामिल होने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि जिस शख्श के नाम पर इस विश्वविद्यालय का नामकरण हुआ है वे ओड़िसा राज्य के ओड़िया भाषा के एक बहुत बड़े कवि हुए हैं और उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से  ओड़िसा राज्य को देश के नक़्शे में थोड़ा और उभारा है। वहां जाते ही इस कवि को जानने समझने की आतुरता मेरे भीतर बहुत सघन होने लगी।वहां जाकर यूनिवर्सिटी के अध्यापकों से , वहां के विद्यार्थियों से गंगाधर मेहेर जैसे बड़े कवि की कविताओं और उनके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी जुटाना मेरे लिए बहुत जिज्ञासा और दिलचस्पी का बिषय रहा है। आज ओड़िया भाषा के इस लीजेंड कवि पर अपनी बात रखते हुए मुझे जो खु...

रघुनंदन त्रिवेदी की कहानी : हम दोनों

स्व.रघुनंदन त्रिवेदी मेरे प्रिय कथाकाराें में से एक रहे हैं ! आज 17 जनवरी उनका जन्म दिवस है।  आम जन जीवन की व्यथा और मन की बारिकियाें काे अपनी कहानियाें में मौलिक ढंग से व्यक्त करने में वे सिद्धहस्त थे। कम उम्र में उनका जाना हिंदी के पाठकों को अखरता है। बहुत पहले कथादेश में उनकी काेई कहानी पढी थी जिसकी धुंधली सी याद मन में है ! आदमी काे अपनी चीजाें से ज्यादा दूसराें की चीजें  अधिक पसंद आती हैं और आदमी का मन खिन्न हाेते रहता है ! आदमी घर बनाता है पर उसे दूसराें के घर अधिक पसंद आते हैं और अपने घर में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! आदमी शादी करता है पर किसी खूबसूरत औरत काे देखकर अपनी पत्नी में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! इस तरह की अनेक मानवीय मन की कमजाेरियाें काे बेहद संजीदा ढंग से कहानीकार पाठकाें के सामने प्रस्तुत करते हैं ! मनुष्य अपने आप से कभी संतुष्ट नहीं रहता, उसे हमेशा लगता है कि दुनियां थाेडी इधर से उधर हाेती ताे कितना अच्छा हाेता !आए दिन लाेग ऐसी मन: स्थितियाें से गुजर रहे हैं , कहानियां भी लाेगाें काे राह दिखाने का काम करती हैं अगर ठीक ढंग से उन पर हम अपना ध्यान केन्...

'कोरोना की डायरी' का विमोचन

"समय और जीवन के गहरे अनुभवों का जीवंत दस्तावेजीकरण हैं ये विविध रचनाएं"    छत्तीसगढ़ मानव कल्याण एवं सामाजिक विकास संगठन जिला इकाई रायगढ़ के अध्यक्ष सुशीला साहू के सम्पादन में प्रकाशित किताब 'कोरोना की डायरी' में 52 लेखक लेखिकाओं के डायरी अंश संग्रहित हैं | इन डायरी अंशों को पढ़ते हुए हमारी आँखों के सामने 2020 और 2021 के वे सारे भयावह दृश्य आने लगते हैं जिनमें किसी न किसी रूप में हम सब की हिस्सेदारी रही है | किताब के सम्पादक सुश्री सुशीला साहू जो स्वयं कोरोना से पीड़ित रहीं और एक बहुत कठिन समय से उनका बावस्ता हुआ ,उन्होंने बड़ी शिद्दत से अपने अनुभवों को शब्दों का रूप देते हुए इस किताब के माध्यम से साझा किया है | सम्पादकीय में उनके संघर्ष की प्रतिबद्धता  बड़ी साफगोई से अभिव्यक्त हुई है | सुशीला साहू की इस अभिव्यक्ति के माध्यम से हम इस बात से रूबरू होते हैं कि किस तरह इस किताब को प्रकाशित करने की दिशा में उन्होंने अपने साथी रचनाकारों को प्रेरित किया और किस तरह सबने उनका उदारता पूर्वक सहयोग भी किया | कठिन समय की विभीषिकाओं से मिलजुल कर ही लड़ा जा सकता है और समूचे संघर्ष को लिखि...

जीवन प्रबंधन को जानना भी क्यों जरूरी है

            जीवन प्रबंधन से जुड़ी सात बातें

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवा...