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सुबह सवेरे अखबार में प्रकाशित कहानी: रेस्तरां से लौटते हुए

छुट्टी का  दिन था । वीकली ऑफ । उनके लिए छुट्टी का दिन याने मौज मस्ती का दिन। खाना पीना घूमना । 

एक ने कहा 'चौपाल जायेंगे , वहां लंच लेंगे ।' 

'नहीं यार चौपाल नहीं , आज नारियल नेशन जायेंगे ।' - दूसरे ने झट से उसकी बात काटते हुए कह दिया  ।

दोनों की बातें सुनकर तीसरे ने हँसते हुए कहा 'तुम लोग भी न..... वही घिसी पिटी जगह ! अरे जीवन में जायका बदलने की भी सोचो , किसी नयी जगह की बात करो , ये क्या उसी जगह बार बार जाना ।' 

तीसरे की बात सुनकर दोनों हक्का बक्का उसकी ओर देखने लगे थे ।उन दोनों को लगा कि यह सच बोल रहा है । पर  पहले ने बदलाव शब्द सुनकर आहें भरी और कहने लगा .... हमारे जीवन में बदलाव कहाँ है दोस्त ! वही रोज रोज का घिसा पिटा काम । सुबह हुई नहीं कि बीबी को नींद से जगाओ, टिफिन तैयार करवाने के लिए कहो। फिर बाथ रूम में जाकर हबड़ तबड़ नहाकर निकलो । कपड़े पहनो और भाग लो कम्पनी की बस पकड़ने। यार अब तो लगता है जैसे इसी रूटीन पर चलते चलते जिन्दगी के ऊपर जंग की एक परत जम गयी है । यह सब कहते कहते उसके चेहरे से नीरसता का भाव टपक पड़ा । 

दूसरा ज्यादा सोचता नहीं था । मानो उसकी सोच पर ही जैसे जंग लग चुकी हो ।

पर जब उसने पहले की बातें सुनीं तो सुनकर उसे भी कुछ बोलने का मन हुआ । बोलने के लिए वह बहुत कुछ सोचता रहा । उसे लगा कि सोचना भी बड़ा मशक्कत भरा काम है । 

वह बोलना तो बहुत कुछ चाह रहा था पर शब्द हैं कि फूट ही नहीं रहे थे । 'क्या वह एक मशीन हो चुका है?' मन में अचानक इस सवाल के आने से सोच के ऊपर लगी जंग की परत जैसे एकबारगी झड़ने को भी हुई ,पर वह पूरी तरह झड़ नहीं पायी। 

वह बोलने के बजाय भीतर ही भीतर कुछ सोचता हुआ रह गया था।

उसकी चुप्पी बाक़ी दोनों को रास नहीं आ रही थी ।

'तू क्या सोचने लगा ?' दोनों एक साथ उससे पूछ बैठे

'कुछ नहीं , बस यूं ही'

'कुछ तो है जो तू नहीं बता रहा! तू सोच रहा होगा कि आखरी बार बीबी बच्चों को कब शहर घुमाने ले गया था । तुझे तो याद भी न होगा , है न !'

उनकी बातें सुनकर भी उसकी चुप्पी बरकरार रही । उसने कुछ नहीं कहा ।

आखिर कहता भी क्या, बात तो सोलह आने सच थी ।

आज उसे जब कुछ सोचने का अवसर हाथ लगा था तो मन के भीतर दबी हुई बातें कांटे की तरह चुभने लगीं थीं ।

उसने महसूस किया कि उसकी बीबी अब उससे शिकायतें नहीं करती ।

शायद अब वह सोचती हो कि शिकायतें करने से भी आखिर क्या लाभ!

'अरे ज्यादा मत सोचो, सोचने समझने का काम हमारे हिस्से का नहीं है। हमें तो बस कम्पनी के प्रोडक्शन में ही अपना रोल अदा करना है । सोचने विचारने का काम कवियों , लेखकों , पत्रकारों को करने दो । तुम बस मस्त रहो और आज के दिन के जायके को लेकर कुछ विचार करो ।' - उसकी चुप्पी देखकर दोनों ने उसे बहलाने की कोशिश की ।

पहले ने कहा आज हम 'लोनिया वांजा' में लंच लेंगे । बाक़ी दोनों के लिए यह पहली बार सुना हुआ नाम था । कितना प्यारा नाम है 'लोनिया वांजा' , सुनकर दूसरे के चेहरे पर मुस्कान फ़ैल गयी । कुछ देर के लिए उसकी चुप्पी टूटी और वह जोर से हंसने लगा । 

'तू इस तरह हँस क्यों रहा है?'

कुछ नहीं , मैं तो बस मजे ले रहा था । वो क्या है न , नाम बड़ा प्यारा है 'लोनिया वांजा!'

'हाँ सचमुच! तब तो रेस्टोरेंट भी बड़ा प्यारा होगा।' तीसरे ने बातों का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए कह दिया ।

'एक बात सुन लो ...सबको जेब कुछ ज्यादा ही ढीली करनी पड़ेगी!' पहले ने  चेताते हुए जब यह कहा तो  उनमें से एक के चेहरे पर  हल्की की  नाराज़गी का भाव तैरने लगा।

'अरे चिंता किसे है ,  अच्छी खासी तनख्वाह है यार हम सबकी !'


'क्या क्या वैसे मिलता है वहां ?

'जो चाहो!'

'मतलब?'

'अरे मतलब क्या , बोला न जो चाहो!'

'ओह्ह .... तभी तू कह रहा है कि जेब ज्यादा ढीली करनी पड़ेगी।' एक ने चेहरे पर मुस्कान  लाते हुए बातचीत के इस सिलसिले को विराम देने की कोशिश की । 

इस पूरी बातचीत में दूसरा कम ही सहभागी हो पाया था । उसके भीतर अब भी सोचने का क्रम टूटा नहीं है । सोच पर जमी जंग की परत भावनाओं के संवेग से उधड़ने लगी थी । मशीन होकर यंत्रवत जीने की उसकी आदत आज उसे  न जाने क्यों खटकने  लगी थी ।

जिस  जायके की बात तीनों कर रहे थे, उसके बीबी बच्चे तो इस तरह के जायके का लुफ्त  कभी  उठा नहीं पाते । उन्हें भी तो लगता होगा कि जीवन का जायका बदले। वे भी कभी इसका लुफ्त उठाएं। 

  

'इस दिशा में उसने कभी सोचा क्यों नहीं?' सोचने के साथ यह सवाल भी अब उसके मन में उमड़ने घुमड़ने लगा था ।

वे लोनिया वांजा रेस्तरां के विशाल प्रवेश द्वार पर अब आ चुके थे ।भीतर धीमी आवाज़ में गुलाम अली की कोई ग़ज़ल बज रही थी । लोग, जिसमें स्त्री पुरूष दोनों शामिल थे , उन्हें दूर दूर तक टेबल के इर्द गिर्द समूहों में बैठे नज़र आए । पूरा दृश्य उन्हें बड़ा सम्मोहक लगने लगा।

वेटर जिनमें ज्यादातर यंग लडकियां नज़र आ रही थीं , उनके टेबल के नजदीक आ गयीं थीं । 

वे खडीं थीं और वे तीनों खाने के मीनू को लेकर पांच मिनट तक  चर्चा करते रहे । 

किसी तरह  उन्होंने  खाने का आर्डर दिया और लडकियां वहां से चली गयीं ।

खाने का जायका ऐसा था कि सबने छककर खाना खाया था। 

  

अपनी अपनी जेबें ढीली करने के बाद रेस्तरां से वे बाहर निकल आए थे । 

चलते चलते एक ने कहा "यार पनीर की सब्जी बड़ी जोरदार थी।"

सूप पीकर तो जैसे आनंद ही गया... एक की बात पूरी भी न हुई थी कि तीसरे दोस्त ने अपनी बात झट से रख दी ।


"वेज बिरयानी खाकर मुझे कॉलेज के दिनों की याद आ गयी। कितनी जोरदार बिरयानी थी सच में। ऐसी ही बिरयानी मीना अपने टिफिन में लेकर आती थी और हम दोनों साथ मिलकर खाते थे।" एक दोस्त उस वक्त बिरयानी के जायके को जीवन के जायके से जोड़ कर देखने लगा।


पूरी चर्चा जायके पर केंद्रित थी और वह बिल्कुल चुप था। वह अब भी कुछ कुछ सोच ही रहा था । उसे आज बोलने से ज्यादा दूसरों के बोले हुए को सुनने में अधिक रुचि आ रही थी ।   वह अपना अनुभव बाक़ी दोनों के मुंह से सुनना चाहता था .. कि दोनों में से कोई तो ये कहे कि रेस्तरां के वेटर कितने अच्छे हैं! इस जायके में उनकी भूमिका सबसे बड़ी है । 

 ...वह प्रतीक्षारत था ....पर  बाक़ी दोनों ने  वेटरों के बारे में कुछ भी नहीं कहा।

वहां से लौटते हुए उसे लगने लगा कि मशीन की तरह जीते  हुए , आदमी जीते जी मर जाता है। उस वक्त उसकी आँखों के सामने उन वेटर लड़कियों का चेहरा अचानक घूम गया था।

■ रमेश शर्मा की कहानी

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संपर्क :92 श्रीकुंज , रायगढ़ छत्तीसगढ़ मो.7722975017 


 


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