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युवा पीढ़ी के कथा संसार में ग्रामीण लोक जीवन की उपस्थिति

 

भारत हमेशा से गाँवों का देश रहा है, जहां की अस्सी प्रतिशत आबादी ग्रामीण लोक जीवन से सम्बद्ध रही है । प्रेमचन्द युगीन हिन्दी कहानियों पर जब हमारी नजर जाती है तो इसी ग्रामीण लोकजीवन की गहरी छाया वहां हम देख पाते हैं । आर्थिक उदारीकरण के उपरान्त समय के साथ सभ्यता और


संस्कृति के उलट फेर ने जब एक नए बाजार को जन्म दिया तब उसका गहरा प्रभाव भारत के गाँवों की आबादी पर भी पड़ा और वे निपट शहरीकरण की चपेट में आने लगे । पूंजीवादी तंत्र और सत्ता ने मिलकर जब गाँवों को तहस-नहस करना शुरू किया तब गाँवों का स्वरूप बिगड़ने लगा । किसानों की जमीनें छीनी जाने लगीं और खेती की जगह पर कल कारखानों का कब्जा होने लगा । ज्यादातर गाँव, कस्बों और शहरों में विलीन होते चले गए और उनका अस्तित्व धीरे-धीरे एक तरह से खत्म सा होने लगा। हिन्दी कहानी पर भी उसका प्रभाव स्पष्ट दिखने लगा । अस्सी और नब्बे के दशक की हिन्दी कहानियों को देखें, खासकर तत्कालीन युवा कहानी विशेषांकों को जो कि रविन्द्र कालिया जी के संपादन में पाठकों तक आए , तो यह बात स्पष्ट तौर पर उभरकर सामने आती है कि हिंदी कहानी से ग्रामीण लोक जीवन अदृश्य सा होने लगा । अगर वह कैलाश बनवासी जैसे कुछेक कहानीकारों की कहानियों में बचा भी रहा तो ऐसा नहीं लगा कि वह बचा रह गया है । उसकी जगह एकाएक, एक बाजारू महानगरीय जीवन ने ले लिया । पर ईक्कीसवीं सदी के वर्तमान दशक की हिन्दी कहानियों को देखने-पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि हिंदी कहानी का इतिहास फिर से अपने को दोहराने लगा है। ग्रामीण लोक जीवन का वह दौर धीरे-धीरे ही सही, पर फिर से अपने वजूद के साथ हिन्दी कहानी में लौटने लगा है । कुछ भी कहा जाए , गाँव इस देश की आत्मा में बसे हैं । उनकी प्रासंगिकता कभी खत्म नहीं होगी । कोरोना काल में हमने इसे घटते हुए भी देखा है । जब देश के तमाम कल कारखाने , दुकानें , मॉल्स इत्यादि बंद हो गए तब गाँव के किसानों की सब्जियां, अन्न सहित उनके अन्य कृषि उत्पादनों ने देश की अर्थ व्यवस्था को सहारा दिया । देश के सारे मजदूर गाँव की ओर लौटने लगे और गाँवों
  ने ही उन्हें पनाह दिया ।
 
 

इक्कीसवीं सदी के वर्तमान दशक की युवतम पीढ़ी में विगत पाँच-सात वर्षों में कहानी लेखन के क्षेत्र में जो नाम मेरी नजर में उभर कर आए हैं उनमें शेखर मल्लिक , संदीप मील , सत्यनारायण पटेल , मनीष वैद्य , सीमा शर्मा , श्रद्धा थवाईत , हुश्न तबस्सुम निहाँ, नीरज वर्मा , सरिता कुमारी , सिनीवाली शर्मा, इंदिरा दांगी , डॉ.परिधि शर्मा, रश्मि शर्मा, प्रज्ञा रोहिणी, भूमिका द्विवेदी अश्क, अमिता नीरव इत्यादि प्रमुख हैं । 

इस युवतम पीढ़ी के कथाकारों द्वारा लिखी गयी कुछ कहानियों पर चर्चा के माध्यम से इस निष्कर्ष पर पहुँचने में हमें आसानी होगी कि बाजारू भूमंडलीकरण और निपट शहरीकरण के इस दौर में भी क्या इनकी कहानियों में आज भी ग्रामीण जीवन या लोक जीवन की चिंताएं शेष हैं? या फिर इस युवतम पीढ़ी के कहानीकारों की कहानियों में भी शहरीकरण से जन्मे महानगरीय जीवन की गहरी छाया है | इस क्रम में सबसे पहले युवा कथा लेखिका रश्मि शर्मा की कहानी "चार आने की खुशी( परिकथा मार्च-अप्रेल 2020 ) को चर्चा के केंद्र में मैं ले रहा हूँ | इस कहानी में एक पात्र है 'बड़ा' । बड़ा यानी बड़ी माँ । एक उम्रदराज विधवा ब्राह्मणी औरत जिसकी कोई संतान नहीं और वह अपने देवर देवरानी के परिवार के साथ रहती आई है । साथ रहते हुए भी एकदम अकेले,एक झोपड़ी में अलग-थलग रहती थीं बड़ा। व्यवहार से थोड़ी कर्कश जिसे वे छुपाने की कोशिश भी नहीं करतीं थीं।उन्हें एक ही आदत थी कि वे चाय बहुत पीती थीं । बिना दूध और ज्यादा चीनी वाली चाय सुड़क सुड़क कर पीते हुए देखना कहानी की सूत्रधार (लेखिका) को अच्छा लगता था।

एकदम लोक रंग में रचा पगा था उनका जीवन।

सूत्रधार ने इस पात्र के बारे में एक जगह लिखा है-

"बहुत कम कपड़े थे उनके पास । जो भी थे रंगहीन । विधवाओं के वस्त्र ऐसे ही हुआ करते हैं गांव में । पति की मृत्यु के साथ ही सारे रंग उनके जीवन से चले जाते हैं । यह कहना सही होगा कि जीवन ही चला जाता है । बस यादें रह जाती हैं। वह कपड़े पहने पहने नहातीं । कुएं के लट्ठ कुंड से ठंडा पानी खींचकर निकालतीं और बाल्टी से वहीं खुद पर उड़ेलती जातीं। उन्हें देखकर मेरा भी मन होता कि ऐसे ही नहाऊं पर मां ने नहाने नहीं दिया कभी वैसे।"

बड़ा के पास बकरियां थीं जिन्हें वह चराने जातीं। एक छोटी सी मगर मजबूत छड़ी उनके हाथ में हमेशा मौजूद रहती ।सुबह एक बार जंगल से लौट आने के बाद वह गांव में बकरियां छोड़ देतीं और घर से लगे गोबर लिपे पिंडे पर बाहर बैठी रहती ।

शायद यह उनका शौक था, शायद उनकी जरूरत या शायद मजबूरी।

सूत्रधार (लेखिका) ने कई जगह इस पात्र को लेकर बड़ा दिलचस्प वर्णन किया है कि बड़ा जो है अपने झोपड़ी में रखे दो चार बर्तन को बहुत रगड़ रगड़ कर मांजती । एकदम साफ चमकदार बर्तन।

बड़ा के पास कुएं के अगल-बगल में बाड़ी थी जहां पुदीने के पत्ते उगते थे। साग भाजी ऊगा करती थी। बड़ा के बाड़ी में सीताफल के पेड़ होते थे जहां पके फलों को देखकर सूत्रधार(लेखिका)और उसकी सहेली मनु का मन उन्हें खाने को होता था पर बड़ा से वे बहुत डरती थीं।

लेखिका ने एक जगह जिक्र किया है कि उसकी पसंद की चीजें बढ़ा के कब्जे में थी और वह उन्हें बड़ा से नहीं ले पाती थीं ।

एक बार बड़ा ने लेखिका और उसकी सहेली को अपने पास बुलाकर बड़े प्रेम से कहा था कि क्या उन्हें शरीफा चाहिए ? फिर बड़ा ने चुपके से कहा कि इसके बदले उन्हें चवन्नी देनी पड़ेगी। दोनों सहेलियां अपने घरों से चवन्नी लाकर शरीफा खरीद लेती थीं। बड़ा उन्हें कहती थी कि शरीफा को छुपा कर ले जाना । बड़ा ऐसा क्यों कहतीं थीं उन्हें उनदिनों समझ में नहीं आता था । यह काम वर्षों होता रहा जब तक बड़ा जिंदा रहीं। अपने बचपन में लेखिका और उसकी सहेली मनु अपने पड़ोस की बड़ा को इस तरह देखा करतीं थीं। उनके अनुभव बहुत निराले थे। बड़ा में लोक जीवन के सभी रंग, राग द्वेष, कर्कशता के पीछे प्रेम का छुपा हुआ रूप इत्यादि सब कुछ था जिसे दोनों सहेलियां महसूस करती हुई बड़ी हुई थीं ।

कहानी में एक जगह लेखिका लिखती हैं- "बड़ा अकेली थी । विधवा होने के बाद उनके देवर देवरानी ने उनकी जमीन की लालच में उन्हें आजीवन खाना कपड़ा देना स्वीकार किया था । एक कोने में पड़ी दो वक्त की रोटी निगल कर अपने मरने का इंतजार कर रही बड़ा को सिर्फ एक ही शौक था - चाय का। अपने उस शौक के लिए वे देवरानी या किसी अन्य के आगे हाथ नहीं फैलाना चाहती थी। छुपाकर बेचे गए शरीफे और अनाज से मिलने वाले वह कुछ पैसे ही उनके अपने थे जिससे वे चाय पत्ती और चीनी खरीदा करती थी।"

फिर बड़ा इस दुनिया से चली गई। एक स्वाभिमानी पात्र बड़ा। दोनों सहेलियां भी बड़ी हो गईं। बरसों बाद जब कहानी की सूत्रधार (लेखिका) गांव के अपने घर में बैठी हुई थीं तो उसे बड़ा का घर याद आया , बड़ा बहुत याद आई, पर वहां सब कुछ बदल चुका था। ना बड़ा की वह बाड़ी बची थी ना वहां शरीफे से लदे हुए पेड़ बचे थे। उस जगह अब मोबाइल के टावर लग गए थे ।उसके देवर देवरानी ने बड़ा का सब कुछ बेच दिया था ।अब वे सारे दृश्य बदल गए थे। शरीफा खरीद कर खाने की वह जो चार आने की खुशी थी वह बड़ा के जाने के बाद अब कहीं गुम हो चुकी थी। यह कहानी मूल रूप में ग्रामीण लोक जीवन और वहां के बदलते समाज के बाजारू विमर्श की कहानी है |

 

परिकथा जनवरी-फरवरी 2018 अंक में छपी सीमा शर्मा की कहानी "उसी पीपल के नीचे" ग्रामीण लोक जीवन में महिला शोषण की उस सच्चाई को सामने रखती है जो न केवल भयावह है बल्कि उसके साथ-साथ दिनोंदिन समाज के गर्त में जाने का संकेत भी है । इस कहानी को पढ़कर प्रेमचंद का युग याद आने लगता है | दाऊ साहेब,सुखबीर बाबू, पंडित और कालिया जो इस कहानी के सामंती और रसूखदार खल पात्र हैं ऐसे पात्रों की संख्या दिनोंदिन ग्रामीण समाज में बढ़ती जा रही है । राजनीति में डलुआ जैसे लोग इन पात्रों के लिए टूल्स की तरह हैं जिनके माध्यम से कजरी जैसी भोली भाली स्त्रियों के शोषण के द्वार खुलते हैं । शोषण के रास्ते कजरी से होकर सत्तू जैसी भोली भाली लड़कियों तक भी पहुंच चुके हैं । ये सामंती खल पात्र सत्तू जैसी छोटी-छोटी बच्चियों को भी नोचने में पीछे नहीं और जब कजरी जैसी स्त्रियां उसका प्रतिरोध करती हैं तो ये मिलकर संगठित षडयंत्र रचते हुए उन्हें ही कटघरे में ले आते हैं । अपराध तो वे ही करते हैं पर उनके द्वारा षड्यंत्र पूर्वक कजरी जैसी स्त्रियां ही हत्यारिन और डायन साबित कर दी जाती हैं । सामाजिक न्याय व्यवस्था भी उनके विरुद्ध खड़ी हो जाती है और डलवा जैसा पात्र जो कजरी का पति है वह भी इस क्रूर न्याय व्यवस्था के दबाव में न चाह कर भी कजरी को सजा देने के लिए अभिशप्त है ।उसकी आड़ में आज की सामाजिक व्यवस्था कजरी जैसी स्त्रियों का, न्याय के नाम पर लिंचिंग कर देती है ।डलुवा तो बस एक टूल्स है जिसे विधायक बनने का सिर्फ सपना दिखाया जाता है और उस सपने के माध्यम से राजनीति अपना हवस मिटाती है। आज समाज का वह हिस्सा जो दमित है, शोषित है , उसे सपने दिखाने का काम आज की राजनीति कर रही है और उसके मायाजाल में दमित वर्ग अपना अस्तित्व खो रहा है । कहानी में जिस तरह डलुवा अपनी पत्नी कजरी और बेटी सत्तू को खो देता है वह आज की राजनीतिक व्यवस्था में एक भयावह दृश्य है जो इस कहानी में दिखाई पड़ता है। सीमा शर्मा की ज्यादातर कहानियाँ लोक जीवन का ही प्रतिनिधित्व करती हैं, इसका उदाहरण दुनियां इनदिनों में प्रकाशित उनकी कहानी "तीन का पहाड़ा और गटर" है जिसमें एक दलित युवक की दारूण कथा को जगह मिली है, जो मैला ढोने के अपने परम्परागत काम से बाहर निकल कर पढ़ना लिखना चाहता है पर उसके आसपास की दुनियां और उसके आसपास मौजूद उच्च वर्ग का नजरिया सर्वथा इसके प्रतिकूल है | उनकी अन्य कहानियाँ भेड़ियों का पोषम्मा( कथादेश) चरित्र प्रमाण पत्र(कथाक्रम जनवरी-मार्च 2020),रोशनी (इन्द्रप्रस्थ भारती), चिलगोजे का तेल(परिकथा )इत्यादि यद्यपि स्त्री विमर्श की कहानियाँ हैं पर इनमें से ज्यादातर कहानियों में ग्रामीण लोक जीवन की उपस्थिति भी समानांतर रूप में शिद्दत से विद्यमान है |

 

वर्तमान दशक के महत्वपूर्ण युवा कथाकार मनीष वैद्य के अब तक दो कहानी संग्रह टुकड़े टुकड़े धूप और फुगाटी का जूता प्रकाशित हो चुके हैं | उनकी कई कहानियों में ग्रामीण लोक जीवन की गूँज सुनाई पड़ती है | ग्रामीण जीवन में आए बदलाव के दर्द को प्रेम की स्मृतियों के माध्यम से अपनी कहानी 'खिरनी' में बड़ी तरलता के साथ जिस तरह वे प्रस्तुत करते हैं वह पाठकों को द्रवित करता है | ग्राम्य जीवन और विगत के प्रति आस्था का भाव जिस तरह इस कहानी के सुन्दर संवादों में जीवंत होकर आता है वह हमें बांध लेता है |

 

28 वर्ष उम्र की डॉ.परिधि शर्मा की कहानियाँ.. उम्मीद ( परिकथा नवलेखन 2012 ),एक साधारण आदमी की मौत (समावर्तन फरवरी 2012 ) तोहफा (वागर्थ मार्च 2010) नीला आसमान (समावर्तन अक्टूबर 2011) इत्यादि में आम आदमी का दुःख दर्द शिद्दत से मौजूद है | यद्यपि उन्होंने भी कुछ कहानियाँ मसलन "एक छूटती मेट्रो एक तस्वीर एक लड़की" (परिकथा मार्च अप्रेल 2014) वजूद ( भास्कर रसरंग 20 सितंबर 2009) महिला विमर्श जैसे बिषयों को लेकर लिखी हैं, फिर भी उनकी कहानियों ने उस दायरे को दूर तक लांघा है | समावर्तन में प्रकाशित 'नीला आसमान' कहानी की बात करें तो यह कहानी निपट शहरीकरण की चपेट में आए एक संवेदनशील ग्रामीण मनुष्य के आत्मरूदन की कहानी है जो अपने गाँव को, गाँव में छूट गए अपने परिवार को याद करते-करते अपना जीवन शहर में गुजारता है  | जीवन-स्मृतियों के विविध रंगों के जरिये मार्मिक रूप में अपनी पूरी संवेदना और बचपन की वास्तविकताओं से गुम्फित घटनाओं के माध्यम से यह कहानी उस आत्मरूदन को जिस तरह बयाँ करती है, वह ध्यातब्य है | शहरीकरण और उद्योगों के चलते ग्रामीण किसानों की जीवन-स्थितियों में आ रही गिरावट की ओर भी यह कहानी हल्के से संकेत करती हुई आगे बढ़ती है | इस कहानी में रिश्तों को पुनः पुनः टटोलने और उसे बचा लेने की एक मार्मिक अपील भी भीतर ही भीतर प्रतिध्वनित होती है|

 

इसी क्रम में युवा कथा लेखिका श्रद्धा थवाईत की कहानी "हवा में फड़फड़ाती चिट्ठी", की बात करें तो यह कहानी अभय और सरू जैसे नवदम्पतियों की ऎसी दुनियां से हमें जोड़ती है जो बनते-बनते अचानक कहीं खो जाती है | अभय और सरू की इस दुनियां में , उड़ान भरती आकांक्षाएँ , रोमानियत और निजी भावनाओं का एक शोर तो है पर यह शोर थोड़ा सुरीला है | ऎसी दुनियाएं कई बार इस धरती पर ऊग आए नक्सलवाद और गोली बारूद के आतंक की अतिवादिता से नष्ट होती रही हैं | नक्सल मोर्चे पर गए सैनिक अभय के शहीद हो जाने के उपरान्त अवशेष में बची उन जैसे युवाओं की लिखी चिट्ठियाँ सरू जैसी उनकी नवविवाहित पत्नियों के हाथों में बस फड़फड़ाती ही रह जाती हैं | उनके सारे सपने , सारी आकांक्षाएं अचानक ध्वस्त हो जाती हैं ।यह कहानी प्रेम की धरती पर जन्मती है और अतिवादी हिंसा से उपजे उन सवालों के साथ खत्म होती है जिसके उत्तर खोजे जाने अभी शेष हैं | प्रेम के माध्यम से नक्सलवादी हिंसा की विभीषिका को सामने रखती यह कहानी वर्तमान में ग्रामीण लोक जीवन से जुड़ी एक विकराल समस्या को सामने रखती है जो छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके एवं उसके चारों तरफ पसरा हुआ है | नया ज्ञानोदय कहानी विशेषांक अगस्त 2019 में प्रकाशित श्रद्धा की कहानी 'बसेरा' छत्तीसगढ़ के बस्तर के ग्रामीण क्षेत्रों में हाथियों की समस्या से जूझ रहे आदिवासियों की भीषण समस्या को पूरे मर्म और संवेदना के साथ प्रस्तुत करते हुए पाठकों को लोक जीवन के करीब ले जाती है|

 

सिनीवाली शर्मा उन युवा महिला कथाकारों में से हैं जिनकी सभी कहानियाँ ग्रामीण पृष्ठभूमि पर ही बुनी गयी हैं | गाँव के लोक जीवन में महिलाओं से जुड़ी समस्याओं के अलावा वे अन्य ज्वलंत बिषयों को इस तरह उठाते हैं कि लोक जीवन की त्रासदियाँ फिल्म के दृश्यों की तरह चलने लगती हैं | परिकथा नवलेखन अंक में प्रकाशित उनकी कहानी 'हंस अकेला रोया' विपिन नामक एक ऐसे किसान की कहानी है जिसके शिक्षक पिता की लम्बी बीमारी उपरान्त मृत्यु हो चुकी है | लोगों की नजर में बाहर से संपन्न दिखता विपिन का यह परिवार पिता की लम्बी बीमारी के चलते आर्थिक परेशानी में आ चुका है पर पिता के क्रिया कर्म में कर्मकांडी लोग उनका भावनात्मक शोषण करके उन्हें इस तरह लूटने पर आमादा हैं कि विपिन की हालत उस हंस की तरह हो गयी है जो अकेले रोने को अभिशप्त है | समाज के असल चरित्र को उजागर करती यह कहानी पाठकों के सामने एक बड़ा सवाल उठाती है | सिनीवाली की 'उस पार' 'महादान' एवं 'नियति' जैसी कहानियाँ यद्यपि महिला विमर्श पर केन्द्रित हैं पर उन्होंने कहानी के कंटेंट के दायरों को व्यापक ही किया है |

 

शेखर मल्लिक वर्तमान दशक में युवतम पीढ़ी के प्रतिभा संपन्न कथाकार हैं | उनके दो कहानी संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं| लोक जीवन उनकी कहानियों में सघनता के साथ आता है | परिकथा (मार्च अप्रेल 2011 युवा कहानी-3) में प्रकाशित उनकी कहानी डायनमारी पढ़कर इस बात से पूरी तरह आश्वस्त हुआ जा सकता है कि हिन्दी कहानी का असली मुकाम ग्रामीण लोक जीवन की कथा गाथा के बिना आज भी अधूरा है |डीह (गाँव) के संथाली लोक जीवन की सामाजिक बुराईयों को उघाड़ती यह कथा वहां की सामन्ती पुरूष प्रधान समाज व्यवस्था पर न केवल चोंट करती है बल्कि महिलाओं की दारूण स्थिति का भी चित्रण करती है | मोगा जैसे शराबी और अकर्मण्य पुरूष की पत्नी गुनिया की चिंता यह है कि किसी तरह बारिश के मौसम में खेतों की जुताई हो जाय तो खेती से साल भर का खर्च निकल सके | वह कई बार पति मोगा से विनती भी करती है कि वह इस काम को करे, पर मोगा जैसा शराबी आदमी जिसे शराब में पैसे उड़ाने और नशे में धुत्त पड़े रहने से फुर्सत नहीं है वह भला ऐसा क्यों करे , इसलिए गुस्से में गुनिया को वह लातों से मारता है | अंततः अपने बच्चों के भूख की चिंता में डूबी उनकी माँ गुनिया एक दिन भोर होने से पहले बूढ़े बैल को लेकर खेतों में हल चलाती है और वहां के संथाली समाज की नजर में यह उसका सबसे बड़ा अपराध हो जाता है, कि उसने औरत होकर खेतों में हल चलाया जो कि उस समाज में पूरी तरह वर्जित है | डीह में यह कहकर उसकी प्रताड़ना का दौर शुरू होता है कि औरत के हल चलाने से देवी माँ अप्रसन्न हो जाएगी और पूरा गाँव उसकी सजा भुगतेगा |वह सबकी नजर में डायन ठहरा दी जाती है | पूरा गाँव तमाशबीन हो जाता है | सजा के बतौर गुनिया को एक बैल के साथ हल में बांधकर खेंतों की जुताई होने लगती है | लोग उसे कोड़े मारते हैं | पेड़ से बाँध देते हैं | फिर मुर्गा भात के लिए मोगा को बुलाकर जुर्माना लगाया जाता है | प्रधान और बैगा जैसे पात्र इस कहानी में जिस तरह अत्यंत क्रूर पात्र की तरह उभरते हैं उसे देख पढ़ कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं | डीह के ग्रामीण समाज का अंधविश्वास और उसकी काली सच्चाईयों को उभारती यह कहानी यह बताती है कि डायन होने का आरोप लगाकर औरत को किस तरह आज भी प्रताड़ित किया जाता है |

 

 

इसी क्रम में संदीप मील युवा पीढ़ी के उन गिने-चुने कथाकारों में से हैं जिन की कहानियां ग्रामीण परिवेश के रचाव में मुखर हैं और वहां की घटनाओं को अपने सही स्वरूप में सामने लाने की दिशा में एक संवाहक की भूमिका में खरी उतरती हैं । परिकथा में प्रकाशित उनकी एक कहानी "किश्तों की मौत' की चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगा | यह कहानी भी गांव के परिवेश पर बुनी गई है, पर यह ग्रामीण परिवेश बाजार और शहरीकरण के प्रभाव के चलते रिश्तों के धरातल पर एक भुरभुरी जमीन में तब्दील होता जा रहा है । उसी तब्दीली को संदीप अपनी इस कहानी में उठाते हैं । समाज में स्त्री के प्रति उपेक्षा का जो अमूर्तन भाव है, वह कितना भयावह है, उस भयावह अमूर्तन भाव को संदीप ने मूर्ति के बरक्स अपनी कहानी में दिखाने की जो कोशिश की है वह उल्लेखनीय है । मूर्ति जो मृत्यु का प्रतीक है ,और अपनी ही मृत्यु के इस प्रतीक को देख देख कर मृत्यु की प्रतीक्षा करना सचमुच बहुत पीड़ादायक है।

"इनसान खुद नहीं मरता, दूसरे लोग मार देते हैं।"

दरअसल ये दूसरे लोग कौन हैं? क्या यह दूसरा, उचित नामक पात्र है जो दृश्य को अपनी आंखों से देख रहा है और देख कर उसे तकलीफ हो रही है | जाकर रुकमा को वह छू भी रहा है और छूते ही वह गिर कर मर जा रही है । या ये दूसरे लोग उस रुकमा के बेटे हैं जो किस्तों में उसे जीते जी मार रहे हैं, पर उनकी नजर में आरोपी वह उचित है जो संवेदना की धरती पर अब भी काबिज है ।

दरअसल " इन दूसरे लोगों" की यह पहचान ही अमूर्तन है और उस अमूर्तन को यह कहानी रचती है । पर अब भी वह अमूर्तन न्याय की नजर से कभी देखी नहीं जाती वह भी ऐसे समाज में जो आस्था रूपी अमूर्तन पर विश्वास करता है और उस अमूर्तन को कई बार न्याय की नजर से भी देखे जाने की कोशिश हुई है । यह कहानी ग्रामीण समाज में व्याप्त कुछ ऐसी ही बुराइयों , चालबाजियों पर सवाल उठाती है |

 

 

ग्रामीण लोकजीवन को अपनी कहानियों में रचकर जिन युवा कहानीकारों ने प्रेमचन्द युगीन कहानी आन्दोलन को ईक्कीसवीं सदी के वर्तमान दशक में भी गति दी है, उनमें सत्यनारायण पटेल एक अग्रणी नाम है | उनके दो कहानी संग्रह 'काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस' और 'तीतर फांद' चर्चा में रहे हैं | उनका एक उपन्यास 'गाँव भीतर गाँव; भी ग्रामीण लोक जीवन पर बुना गया प्रभावी उपन्यास है |

सत्यनारायण की कहानियों में लोककथा के तत्व अपने सघन रूप में विद्यमान हैं  | लोकजीवन में आसपास के नदी, पहाड़, पशु, पक्षी भी शामिल हैं | नृशंस शहरीकरण से उपजे स्त्री-पुरुष की उत्तर आधुनिक समस्याओं को चिका और चिकी पक्षियों के माध्यम से काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस संग्रह में संग्रहित कहानी "एक था चिका एक थी चिकी" में चित्रित किया गया है | कथा नायिका अपनी भगिनी और भतीजे को चिका और चिकी पक्षियों की कहानी सुनाती है और अंत में वह खुद चिकी पक्षी के एक जगह बंधक होकर रह  जाने के दर्द से अपने दर्द को जोडकर महसूस करा पाने में कामयाब हो जाती है | एक जगह बंद कमरे में औरत के बंधक हो जाने की यह व्यथा पाठकों तक बखूबी इसलिए भी संप्रेषित हुई है क्योंकि सत्यनारायण अपनी ठेठ देशज शब्दों और वाचिक शैली के प्रभाव उत्पादक तत्वों का बखूबी स्तेमाल कर पाने में कामयाब हुए हैं| आज विकास की अवधारणा को महानगरों में चमचमाती सड़कों ,पुल-पुलियों और वहां की चकाचौंध से ही अंतर्संबंधित कर दिया गया है , जबकि गाँव के गाँव आज भी सड़क, पुलिया ,बिजली जैसी बुनियादी आवश्कताओं से वंचित हैं | सत्यनारायण पटेल के इसी संग्रह में संग्रहित कहानी "घट्टी वाली माई की पुलिया" कहानी में घट्टी वाली माई इस अव्यवस्था के दंश को भोगी हुई वह लोक नायिका है जो बाढ़ के दिनों में नदी पर पुल न होने की वजह से अपने पति, जिसको सांप ने डस लिया है, को इलाज के लिए गाँव के बाहर नहीं ले जा सकती और उसे खो देती है | सत्ता के बहरेपन से उपजी बुनियादी आवश्यकताओं का अभाव लोकजीवन को कई बार त्रासद स्थितियों में पहुंचा देता है , किसी को खो देने जैसी यही त्रासदपूर्ण घटना कई बार घट्टी वाली माई जैसे लोकजीवन के पात्रों के भीतर प्रेम को नये रूप में सृजित कर देती है और यह प्रेम लोकजीवन की अपनी सांगठनिक ताकत बन जाती है जो उनसे खुद ब खुद ऐसा काम करवा लेती है जिसे सत्ता प्रतिष्ठान हमेशा उपेक्षित करते आए हैं | घट्टी वाली माई द्वारा निर्मित पुलिया लोकजीवन की उसी ताकत की मिशाल है जो सत्ता को कई बार आइना दिखाने का काम भी करती है जिसे सत्यनारायण अपनी कहानी में संजीदगी से रच पाने में कामयाब हुए हैं |

 

 

युवा पीढ़ी के कथाकारों में हुश्न तबस्सुम निहाँ भी वर्तमान दशक में एक उभरता हुआ नाम है जिनकी कहानियों में गाँव का लोक जीवन दृश्यमान है | उनके दो कहानी संग्रह 'नीले पंखों वाली लडकियां' और 'नर्गिस फिर नहीं आएगी' प्रकाशित हुए हैं | परिकथा जनवरी-फरवरी 2019 में प्रकाशित उनकी कहानी 'परीक्षा' ग्रामीण परिवेश से जुड़ी नय्या नामक उस लड़की की कहानी है जिसे किशोरावस्था में मासिक धर्म की अनभिज्ञता के कारण गलतफहमियों के चलते विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है | वह हिजड़ी के रूप में स्कूली जीवन से ही गाँव में नाहक ही बदनाम हो जाती है और स्कूल जाना छोड़ देती है | उसका ब्याह तय होता है फिर बाद में उसके ससुराल वाले उसके हिजड़ी होने की खबर सुनकर आपत्ति उठाते हैं | फिर किसी तरह उसके मासिक धर्म की परीक्षा उसके ससुराल से आये महिलाओं द्वारा की जाती है | इस परीक्षा में तो वह पास हो जाती है पर यह परीक्षा उसके लिए यातना से कम नहीं होती | ग्रामीण समाज में इस तरह की भ्रांतियां , अफवाहें आज भी विद्यमान हैं जिसे इस कहानी में चित्रित किया गया है |

 

दिब्या विजय , नीरज वर्मा , प्रज्ञा रोहिणी , सरिता कुमारी, इंदिरा दांगी, अमिता नीरव और भूमिका द्विवेदी अश्क  भी वर्तमान दशक के प्रतिभा संपन्न युवा कथाकार हैं | उनकी कहानियों में यद्यपि ग्रामीण जनजीवन के चित्र सघन रूप में दृश्यमान नहीं हैं पर उसके बावजूद इनमें से ज्यादातर रचनाकारों की कहानियों में आम जनजीवन से जुड़े सर्वहारा पात्रों की उपस्थिति हमें आश्वस्त करती है | लोक जीवन किसी न किसी रूप में इनकी कहानियों में आता है | नीरज वर्मा की कहानी पत्थर , प्रज्ञा रोहिणी की कहानी 'फ्रेम' और  'सीताओं की देहरी' में लोक जीवन से जुड़े पात्रों का दर्द हम महसूस कर सकते हैं |

 

दिव्या विजय की एक कहानी 'यारेगार' जो नया ज्ञानोदय के कहानी विशेषांक अगस्त 2019 में आयी थी| यह कहानी पूरी तरह लोकजीवन पर केन्द्रित है | एक बर्बर शासन के साए में लोग भयग्रस्त होकर जीने को अभिशप्त हैं | जहां बच्चों के पतंग उड़ाने जैसी बालसुलभ गतिविधियों पर भी पूरी तरह बंदिश है और पकड़े जाने पर मृत्यु तक की सजा मुक़र्रर है |

 

युवा लेखिका सरिता कुमारी की कहानियाँ भी आम जनजीवन से रची-पगी हैं | नया ज्ञानोदय कहानी विशेषांक अगस्त 2019 में प्रकाशित उनकी एक कहानी 'ज़मीर' की चर्चा मैं यहाँ करना चाहूँगा| यह कहानी आरिफ नामक एक ऐसे पात्र पर बुनी गयी है जो राजस्थान के रेगिस्तानी टूरिस्ट इलाकों में पर्यटकों को ऊंट की सवारी कराता है | कम पढ़ा लिखा यह आरिफ अपने व्यवहार और बातचीत से हंसमुख और पढ़ा लिखा लगता है| उसे जीवन का वह व्यवहारिक अनुभव हासिल है जो आमतौर पर स्कूल या महाविद्यालयों से प्राप्त नहीं हो पाता| वह अपने जीवन में सीमित संसाधनों के बावजूद संतुष्ट है क्योंकि उसे इस बात का इल्म है कि व्यक्ति कितना भी धन अर्जित कर ले उसे जीवन में हर समय संशाधनों की कमी महसूस होती है | इसे लेकर उसका नजरिया इतना स्पष्ट है कि वह अपने टूरिस्ट से अलग से बख्शीश नहीं माँगता न ही देने पर कभी लेता है | उसका जमीर इस बात के लिए गवाही नहीं देता कि वह ऐसा गलत कदम उठाए | अंत में जब उसके दो महिला टूरिस्ट उसकी बच्ची के बर्थ डे के नाम पर बख्शीश में एक हजार रूपये यह जानते हुए भी कि वह नहीं लेगा , आग्रह पूर्वक खुश होकर उसे देने का प्रयास करते हैं तो वह बड़ी विनम्रता से यह कहकर टाल देता है कि अगर आपको देना ही है तो कल घर आकर उसी के हाथों में दीजिए | वह ऐसा इसलिए कहता है क्योंकि बातचीत के दौरान उसे पता रहता है कि ये महिला टूरिस्ट कल तक यहाँ रूकेंगी नहीं| आरिफ इस कहानी का इतना कल्चर्ड पात्र है कि वह अपने टूरिस्टों का दिल दुखाना भी नहीं चाहता, इसलिए चालाकी से वह उनसे पूछता है... " मेडम क्या आपके पास टॉफियाँ होंगी ?" टूरिस्ट जब  ख़ुशी खुशी टॉफियाँ निकालती हैं तो उनमें से यह कहकर वह एक टॉफी रख लेता है कि यह उसकी बेटी के लिए बर्थ डे गिफ्ट है |उसके इस व्यवहार से महिला टूरिस्ट चकित होकर रह जाती हैं और वे अपने स्वयं के जीवन की कमियों की ओर झाँकने से भी नहीं बच पातीं |

 

ईक्कीसवीं सदी के वर्तमान दशक में उभरे इन युवा कथाकारों की कहानियों पर चर्चा उपरान्त यह बात आश्वस्त होकर कही जा सकती है कि कहानी धीरे धीरे फिर से गाँवों की ओर , लोकजीवन की ओर लौट रही है और कहानी का इतिहास अपने को दोहराने की शुरूवात कर चुका है |

 

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