सन 1888 में गांधी जी कानून की पढाई करने जब लन्दन गए तब वहां उन्होंने वेजिटेरियन सोसायटी की सदस्यता ली । वेजिटेरियन सोसायटी से उनदिनों एक पत्रिका निकलती थी जिसका नाम था वेजिटेरियन । ‘वेजिटेरियन’ पत्रिका के लिए गांधी ने भारत के त्योहारों पर लेखों की एक श्रृंखला लिखी थी। इसी श्रृंखला में 25 अप्रैल, 1891 को एक आलेख उन्होंने ‘होली’ पर भी लिखा था। इसमें उन्होंने होली और दिवाली का एक सुंदर तुलनात्मक विश्लेषण किया था। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि होली के अवसर पर विशेषकर महिलाओं के प्रति अशोभनीय व्यवहार और अश्लील भाषा के इस्तेमाल की वजह से उन्होंने इसे विनोदपूर्ण भाषा में अंग्रेजी का ‘अनहोली’ (Unholy) या अपावन त्योहार कहा था । इस आलेख में यद्यपि उन्होंने उम्मीद जताई थी कि जैसे-जैसे भारतीयों में शिक्षा बढ़ेगी, वैसे-वैसे ये अश्लील प्रथाएं समाप्त होती जाएंगी ।
132 साल पहले गांधी जी ने जो उम्मीद जताई थी कि शिक्षा के साथ साथ महिलाओं को लेकर लोगों के नज़रिए में परिवर्तन आएगा , उस बात को हम बहुत पीछे छोड़ आए हैं।
8 मार्च को जब होली त्यौहार भी है और अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस भी है, इस विशेष अवसर पर उस परिवर्तन की एक तरह से पड़ताल करने की कोशिश में, अनुग्रह की ओर से हमने समाज के अलग अलग तबकों से आने वाली और अलग अलग क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं से बातचीत की । बातचीत के उन अंशों को हम पाठकों के सामने रख रहे हैं-
मेडम जागृति प्रभाकरइस बातचीत के दौरान ब्लूमिंग बूड्स प्ले स्कूल रायगढ़ की डायरेक्टर और पूर्व में कई सीनियर सेकेंडरी कान्वेंट स्कूलों की प्राचार्य रह चुकीं मेडम जागृति प्रभाकर ने हमसे कहा कि इन 132 सालों में भी पुरूष सत्तात्मक सोच में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है । देश के अलग अलग क्षेत्रों में महिलाओं के साथ जिस तरह के जघन्य अपराध हो रहे हैं उससे महिलाओं के भीतर एक तरह से भय का विस्तार ही हुआ है । होली जैसे त्योहारों में महिलाएं अगर घर से बाहर निकलती भी हैं तो उनकी सीमाएं घर के आस पड़ोस तक ही सीमित होती हैं । परिस्थितियों को सामान्य रूप में देखें तो एक तरह से ऐसे त्योहारों में महिलाओं के लिए भय का ही माहौल होता है। एक बात मैं जरूर कहना चाहूंगी कि विगत पांच दस सालों में लड़कों की जो एक शिक्षित पीढ़ी सामने आयी है उसका व्यवहार लड़कियों के प्रति दोस्ताना होकर थोड़ी उदारता और सम्मानित नज़रिए का रहा है इसलिए उनके साथ लड़कियां सहज होकर होली जैसे त्योहारों को सेलेब्रेट कर लेती हैं। इस सकारात्मक बदलाव के पीछे कुछ हद तक सोशल मीडिया की भूमिका जरूर कही जा सकती है।
तुलसी सुकरा
कनक चौहान
सुश्री कनक चौहान शहर के एक सरकारी विद्यालय में शिक्षिका हैं और उनका निवास स्थल सोनूमुड़ा क्षेत्र अंतर्गत आता है । एक रचनात्मक और अध्ययन शील शिक्षिका के रूप में बच्चों के बीच उनकी पहचान है । बातचीत के दौरान कनक ने बताया कि सोनूमुड़ा क्षेत्र में होली त्यौहार के अवसर पर हम तीन दिन घर से बाहर नहीं निकल पाते क्योंकि क्षेत्र का माहौल बहुत दूषित रहता है । बहुत जरूरी काम से निकलना भी पड़ा तो मन में भय व्याप्त रहता है । कई बार अप्रिय स्थितियों का सामना भी करना पड़ जाता है । इन 132 सालों में भी गांधी जी ने महिलाओं के साथ व्यवहार को लेकर बदलाव की जो उम्मीद जतायी थी वह अभी भी पूरी नहीं हो सकी है।
श्रीमती ऋतु बसंत साव शहर के पास स्थित गोवर्धनपुर गाँव के सरकारी स्कूल की रचनात्मक और जागरूक शिक्षिका हैं। आकाशवाणी रायगढ़ में नैमित्तिक उद्घोषिका के रूप में भी उन्होंने काम किया है। उनसे भी हमने इस सम्बन्ध में बात की । उनका कहना था कि विगत दस पंद्रह सालों में एक परिवर्तन जरूर आया है कि अब लडकियां भी अपने आस पड़ोस में होली खेल लेती हैं । पर आज भी उनके लिए ऐसा कोई स्वस्थ माहौल नहीं है कि वे घर से थोड़ा दूर जाकर होली त्यौहार को अपनों के साथ सेलेब्रेट कर सकें । इसके पीछे एक कारण यह भी समझ में आता है कि माता पिता लड़कियों के मन के भीतर बसे भय को निकालने की कोशिश के बजाय टोका टाकी करके उसे बनाये रखने का माहौल ही पैदा करते हैं। होली जैसे त्यौहार को सेलेब्रेट करने के लिए लड़कियों के माता पिता को उनके साथ सहयोगात्मक व्यवहार जरूर करना चाहिए,इससे परिस्थितियां बदलेंगी।
प्रतिमा शर्मा
प्रतिमा शर्मा एक कुशल गृहिणी हैं और उनका निवास शहर के बोईरदादर क्षेत्र के एक कालोनी अंतर्गत है । इस बातचीत का हिस्सा बनते हुए प्रतिमा शर्मा ने अपना पुराना अनुभव साझा करते हुए कहा कि इस इलाके के दूरदराज के निचले मोहल्लों में होली त्यौहार पर बहुत खराब माहौल रहता है । लोगों को , खासकर अशिक्षित युवा पीढ़ी को शराब के नशे में धुत्त रहकर महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करते हुए आज भी देखा जा सकता है ।हाँ, समय के साथ कुछ बदलाव जरूर हुए हैं । लडकियाँ भी अपनी सुरक्षा और अधिकार को लेकर थोड़ा सचेत हुई हैं।सूचना तंत्र का एक हल्का सा दबाव भी अपराधों को रोकने के लिए निर्मित हुआ है,फिर भी जिस तरह का स्वस्थ माहौल त्योहारों के समय होना चाहिए,वैसा वातावरण इन 132 सालों में हम नहीं बना पाए हैं।सुप्रिया देवांगन
स्थानीय प्रोडक्शन की यू ट्यूब फिल्मों और वीडियो एल्बम में बतौर अभिनेत्री काम करते हुए रायगढ़ शहर में चर्चित सुप्रिया देवांगन से भी हमने बात की।उन्होंने कहा कि समय के साथ बदलाव तो जरूर आया है।पुरूषों के साथ काम करते हुए अब उतनी असहजता महसूस नहीं होती जैसी असहजता आज से बीस साल पहले महिलाओं के मन में हुआ करती थी । इसके बावजूद लड़कियों को लेकर लोगों के नज़रिए में और बदलाव की जरूरत है। होली जैसे त्योहारों पर आज भी महिलाएं भयग्रस्त रहती हैं । वे स्वछंदता के साथ खुले मन से आज भी घर से नहीं निकल पातीं जो कि एक चिंतन का बिषय होना चाहिए। क्या हम सब मिलकर एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण नहीं कर सकते? क्या हममें वो इच्छा शक्ति अब नहीं रह गई है? मेरे मन में ये कुछ सवाल हैं, जो अनुग्रह के माध्यम से मैं लोगों के ऊपर छोड़ती हूं।
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प्रस्तुति: रमेश शर्मा , मो.7722975017
ब्लॉग बहुत सुंदर और गुणवत्ता पूर्ण सामग्री से सुसज्जित है। यह परिचर्चा बहुत वैचारिक और उच्च स्तर की है। इस तरह की परिचर्चाओं से समाज में एक बदलाव भी आता है। बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार। हमेशा की तरह आपने हमारा हौसला बढ़ाया और रचनात्मक रूप से हमें प्रेरणा दी।
हटाएंविश्व महिला दिवस पर एक सार्थक पहल बधाई भईया💐💐💐💐💐💐
जवाब देंहटाएंविवेक भाई साहब हार्दिक आभार। आपकी प्रतिक्रिया बहुमूल्य है ।
हटाएंवाह । सुंदर चर्चा करवाई गई है
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