'भाप के घर में शीशे की लड़की' [ डायरी संग्रह, लेखिका :बाबुषा कोहली ] गूढ़ सांकेतिकता को बूझने का एक गंभीर उद्यम -रमेश शर्मा
बाबुषा कोहली की किताब 'भाप के घर में शीशे की लड़की' पढ़ते हुए कई बार लगा कि निजी जीवन के अनुभवों को ही प्रतिछबियों में मैं देख पा रहा हूं। मेरी जगह कोई और भी पाठक होता तो संभव है उसे भी इसी किस्म के अनुभव होते। बाबुषा के पास आम जन जीवन /निजी जीवन में घटित घटनाओं को देख पाने की एक विरल दृष्टि है जो अमूमन बहुत कम लोगों के पास होती है। विजन की अद्वितीयता एक रचनाकार को दूसरे रचनाकारों से अलग रखते हुए उसे एक नई पहचान देती है । बाबुषा की इस किताब में जो कुछ भी है बहुत साधारण होते हुए भी एक असाधारण दृष्टि के साथ इस रूप में सामने आती है कि एक पाठक के रूप में हम अपने आप को अंतर संबंधित करने लगते हैं। किताब में संग्रहित गद्य में दृष्टि की अद्वितीयता के साथ-साथ जो भाषायी सौंदर्य और सूफियाना अंदाज में व्यक्त हुई गद्य का जो लालित्य है वह अप्रतिम है। एक अच्छी कवियत्री और अप्रतिम गद्य लेखिका होने के साथ-साथ बाबुषा पेशे से एक अध्यापिका भी हैं । अपने मित्रों ,अपने विद्यार्थियों के साथ समय बिताते हुए बतौर रचनाकार और अध्यापिका के रूप में उनके दैनिक जीवन के जो अनुभव हैं और उन अनुभवों से उपजी जो विचार श्रृंखलाएं हैं उस श्रृंखला को अलग-अलग खंडों में हम इस किताब में पढ़ते हैं। इन खंडों को 'सा रे ग म प' के नामकरण के साथ इस तरह लयबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है कि इन्हें पढ़ते हुए विचार और भाषा के सांगीतिक अनुभवों से हम गुजरने लगते हैं.
'सा' खंड के अंतर्गत प्रार्थना शीर्षक नामक गद्य के अंश में वे लिखती हैं -
व्यवहार में छद्म का नाश हो
/शक्ति की लोलुपता का लोप हो /विचारों का पाखंड खंड खंड हो /दार्शनिक स्वप्न दर्शी हों /पृथ्वी एक बड़े घास के मैदान में बदल जाए
/बच्चों का राज हो /खेल हों
/धुन हो /झगड़े हों /कट्टीसें हों
/सीखें हों /झप्पी हो /नदियां हों /पेड़ हों /पहाड़ हों परिंदे हों ।
महज नर मादा न हों /प्रेम में मुक्त स्त्री हो /प्रेम में बंधा पुरुष हो।
दुनिया में किसी भी कारण से उड़न
छू हो सकने वाला नश्वर प्रेम तत्क्षण समाप्त हो
विकास की सभ्यता नहीं सभ्यता का
विकास हो
पुलिस व फौज की आवश्यकता ना हो
/सरहद ना हो /प्रकृति की सत्ता हो।
संविधान में कविता हो।
जीवन खोज हो ।
मृत्यु रोमांच हो।
रचनाकार की इस प्रार्थना के
भीतर वैचारिक होकर उतरिए तो दुनिया को नए सिरे से सिरजने की एक दृष्टि मिलती है।
आज यह दृष्टि कहीं खो गई है और यह दुनिया उस दिशा
में भाग रही है जिधर अंधेरा घना होता जा रहा है ।
दैनिक जीवन की जो आम गतिविधियाँ
हैं,
उसके बहाने बाबुशा ने जीवन के फैक्ट्स को उसके
सत्य दर्शन के साथ इस किताब में बड़ी सहजता से सामने रख दिया है | नवमी कक्षा में अंग्रेजी बिषय के बच्चों को विलियम
वर्ड्सवर्थ की कविता 'अ स्लम्बर डिड माय स्प्रिट सील' पढ़ाते हुए शिक्षक और बच्चों सहित समूची कक्षा के
जो गहरे अनुभव हैं , 'कविता के लोक में प्रवेश के
पहले'
नामक खंड में व्यक्त हुए हैं | किसी प्रिय को खो देने के बाद ही जीवन में मृत्यु
का भय आता है|
उसके पहले एक गहरी नींद मनुष्य की आत्मा को इस तरह
बांधे रखती है कि आदमी मृत्यु जैसे सत्य को स्वीकार करने की स्थिति में ही नहीं
होता |कविता के भावों को लेकर कक्षा में शिक्षिका के साथ
बच्चों के जो संवाद हैं बहुत अलहदा और रोचक हैं -
करन पूछता है ,हम क्यों दुखी होते हैं, जब लोग मर जाते हैं?स्वप्न ने बताया कि अब हम
दोबारा उन्हें देख नहीं सकेंगे,इसलिए|क्या हम किसी से घृणा कर सकते हैं , जब यह जान लें कि एक दिन हर कोई इस दोबारा न देखे
जाने की जद में चला जाएगा?मुझे इस सवाल का मौक़ा मिल गया |ज्योति की आँखों से सितारे टूटने लगे |सबने उसकी सुबक सुनी |क्लास किसी जादू से जगमगा गयी |
आगे बाबुशा लिखती हैं -
नवमी जमात के बच्चे जीवन की
सबसे बुनियादी बातें कर रहे हैं। वे अनिवार्य प्रश्नों और
अस्थायित्व को समझ रहे हैं । बच्चे जीवन को आंख खोल कर देख रहे हैं । इतना कुछ घट
रहा है जिसे बयान करना मुश्किल है। इतने प्रश्न आ रहे हैं , इतनी बातें हो रही हैं , जीवन पन्ने दर पन्ने खुल रहा है । खिड़की पर बैठी
चिड़िया के पंख की फड़फड़ाहट और पन्नों में वर्ड्सवर्थ के श्वास की फड़फड़ाहट मिल
गए हैं । शिक्षक पीछे छूट जाता है, विद्यार्थी
भी छूट जाते हैं । अब केवल फड़फड़ाहट का जादू बचा है ।इस जादू में हर शै डूब गई
है। इस क्षण कुछ भी निष्प्राण नहीं है। दरवाजे, खिड़की, ब्लैकबोर्ड,फ़र्श, अर्श, सबमें
धड़क है ।इस क्षण की कोई तस्वीर संभव नहीं। देखने की चेष्टा करती हूं अदृश्य में
रची सम्मोहक पेंटिंग को। दृश्य को देख लेना देखने की क्रिया भर है। अदृश्य को देख
पाना 'देखना' है
।अपलक छूट जाती हूं। दृश्य को देखकर कविता लिखी जा सकती है। ऐसी कविताओं को पढ़ते
और पढ़ाते हुए अदृश्य की उंगली पकड़ना ही होता है । कविताएं पढ़कर, लिखकर कविता पढ़ाना एकदम नहीं आ पाता। ज्ञान से
अधिक असहाय संसार में कुछ नहीं।
ऐसी कविताओं में प्रवेश करने से
पहले फूलों से प्रार्थना करती हूं, मुझे
अपनी सुगंध का बल दें।
वुड्सवर्थ की आठ पंक्ति की
इस कविता के बहाने बाबुषा जीवन दर्शन का एक समूचा
संचार रख देती हैं।
इसी खंड में बच्चों के साथ
कक्षा के जो अनुभव हैं उन अनुभवों में 'चल कहीं दूर निकल जाएं', 'द ज्योग्रफिक लेसन', 'एक
दिन तुम जान जाओगी' , 'मेरा स्वप्न है' , 'लेन्चो बचा रहे' ...इत्यादि
डायरी अंश की टिप्पणियाँ न केवल रोचक हैं
बल्कि इन्हें पढ़ते हुए भीतर से जिस पाठकीय आनंद का अनुभव होना चाहिए वैसा ही अनुभव
हमें मिलता है । समूचा गद्य कोई रोचक कविता पढ़ने जैसा आनंद
देने लगे तो उसकी पठनीयता यूं भी बढ़ जाती है।
सारेगामापा के 'सा' खण्ड
में जहां कि संगीत का सुर लगना आरंभ होता है और आगे सुर को एक मुकम्मल गति मिलती
जाती है ,
इस डायरी अंश के सा खण्ड में भी कुछ इसी किस्म के
सुर ध्वनित होते हैं । 'वे फरवरी के दिन थे' यह अंश हमें आल्हादित कर देता है।
डायरी अंशों के रूप में दर्ज
संग्रह की टिप्पणियों को लेकर प्रसिद्ध लेखक प्रियदर्शन जी कहते हैं -
'यह सच है कि बाबुषा कोहली की इन
टिप्पणियों को कविता की तरह पढ़ने का मोह होता है। यह भी सच है कि इन में बहुत
गहरी काव्यात्मकता है, लेकिन इस कविता में उलझे रहे तो
उसके पार जाकर वह संसार नहीं देख पाएंगे जो इस गद्य का असली आविष्कार है।'
सचमुच इसे गद्य का अविष्कार ही
कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं । मशहूर पाश्चात्य लेखकों की कविताओं, कहानियों, और
वक्तब्यों को लेकर गद्य के माध्यम से बड़ी साफगोई और रोचकता के साथ गंभीर विमर्श
की ओर पाठकों को ले जाने का जो लेखकीय उद्यम है वह किसी कारीगर की कला साधना का एहसास कराता है।
पाठकों की अपनी सीमाएं हैं कि वह कला को देखकर उस पर मुग्ध हो जाए या उससे आगे
जाकर उस पर चिंतन मनन करे। इस कला साधना में जीवन के गहरे राज छुपे हुए हैं जिसे
देखना सबके बस की बात नहीं। फिर भी उसे देखने का आग्रह इस संग्रह की
टिप्पणियों में जरूर विद्यमान है ।
रे खंड में 'मैं पानी की तरफ
हूँ', तुम खाली समय में क्या करती हो , खिलना और लिखना इत्यादि टिप्पणियों को भी
पढ़िए तो लगता है जैसे सहज रूप में हमें कोई जीवन के गहरे अर्थ में डुबो रहा है |
जीवन की दिनचर्या में जिन वैचारिक दर्शनों से वाबस्ता होते हुए भी हम एक उदासीनता
में अलग थलग होते हैं उनके प्रति एक राग पैदा करने की चेतनता यहाँ मौजूद है | यह
राग पैदा हो तो जीवन की गाड़ी जो कि गाहे बगाहे पटरी से उतरती रहती है उसका उतरना
बंद हो | 'मैं पानी की तरफ हूँ' में 'द
फायर सरमन'/बुद्ध का अग्नि प्रवचन के प्रसंग में बाबुषा वह सब कुछ कह जाती हैं जो
हमें जीवन में होने वाली अचेतन अवस्था की सामान्य गलतियों के प्रति सचेत करता है |
ग खंड में 'फ्रेंड्स कंट्रीमेन
एंड रोमन्स', हेंसी जा चुके थे , 'छूटना' , 'बी लाइक वाटर माय फ्रेंड' इत्यादि
टिप्पणियाँ भी न केवल रोचक हैं बल्कि गंभीर विमर्श के द्वार खोलती हैं | छूटना
टिप्पणी में अन्तोव चेखव की कथा शर्त के जिक्र के बहाने जीवन के दो पक्ष मृत्यु दंड
और एकान्तिक कारावास पर एक तुलनात्मक विमर्श है कि इनमें कौन सा पक्ष मनुष्य के
लिए ज्यादा कठिन है | दोनों ही पक्षों को लेकर लोगों के जीवन में अपने अपने तर्क
हो सकते हैं | पर इस टिप्पणी को पढ़िए और
गंभीरता से सोचिए तो दोनों ही पक्ष एक दूसरे पर भारी पड़ते हुए दिखाई देते
हैं | जीवन में बहुत कुछ ऐसा है जो अनिर्णित है |
'म' खंड के अंतर्गत संग्रह के
शीर्षक वाली टिप्पणी 'भाप के घर में शीशे की लड़की' पर चर्चा न हो तो बात अधूरी रह
जाएगी | इस टिप्पणी में मारा नामक एक असुर का जिक्र है जिसने भगवान तथागत पर उस
समय हमला किया जब सम्बोधि की पूर्व संध्या वे गहरे ध्यान में थे |
यहाँ बाबुषा सुर और असुर का
जिक्र करते हुए लिखती हैं कि जो भी सुर में लीन हुआ असुर उसका सुर बिगाड़ने चला आता
है | यह दुनियां की रीत ही है जहां मारा नामक असुर आदमी के जीवन में अन्दर बाहर सब
तरफ विद्यमान है | वे आगे लिखती है ...तथागत ने अपने दाएं हाथ की मध्यमा से धरती को
स्पर्श किया और सम्पूर्ण पृथ्वी में क्षण भर को भूडोल आ गया | मारा किसी सूखे
पत्ते की भांति उड़कर अन्तरिक्ष में विलीन हो गया |बाबुषा कहती हैं यह कोई चमत्कार
नहीं बल्कि दुनियां की समस्त कलाओं ,जीवन सूत्रों की तरह यह घटना भी गूढ़
सांकेतिकता का प्रतीक है किन्तु केवल उसके लिए ही जिसमें इस क्षण भंगुर जीवन के
सार को बूझने की प्रचंड जिज्ञासा हो |
मनुष्य और उसके जीवन के सार को
बूझने की उसकी प्रचंड जिज्ञासा के बीच मारा की तरह कई असुर हैं जिनके बारे में बाबुषा इस टिप्पणी
में शोधपरक जिक्र करती हैं | मनुष्य की आत्म दुर्बलता सबसे बड़ा असुर है जो उस गूढ़
सांकेतिकता तक पहुँचने में अनगिनत
रूकावटें उत्पन्न करता है |इस विमर्श के केंद्र में स्वयं को एक शीशे की लड़की से
तुलना करते हुए जीवन की तुलना एक भाप के
घर से वे करती हैं जहां एक धुंधलका छाया हुआ है |
यह धुंधलका तभी छंटेगा जब एक
दिन उस लड़की की आत्मिक दुर्बलताएं दूर होंगी |
तथागत मारा के इस प्रसंग के
बहाने बाबुषा एक सवाल भी छोड़ जाती हैं कि संगीत, साहित्य एवं इस तरह की तमाम कला साधनाओं के बावजूद मनुष्य
आत्मिक रूप से दुर्बल क्यों रह जाता है? उसके जीवन से मारा जैसा असुर दूर क्यों
नहीं हो पाता?
ये सवाल पाठकों को चिंतन मनन की
दुनियां की ओर ले जाते हैं | फिर से यह कहने में मुझे कोई हर्ज नहीं कि यह संग्रह
रोचक शैली और शब्दों की सांगीतिक धुनों के साथ हमें विमर्श की शोधपरक वैचारिक
दुनियां की ओर ले जाता है | उस दुनियां में आनंद की अनुभूति भी है और गूढ़
सांकेतिकता को समझने बूझने का एक अवसर भी |
किताब : भाप के घर में शीशे की लड़की
लेखिका : बाबुषा कोहली
प्रकाशक : रुख पब्लिकेशन न्यू दिल्ली
मूल्य : रु.199
समीक्षक
रमेश शर्मा
92 , श्रीकुंज कालोनी , बोईरदादर , रायगढ़
(छत्तीसगढ़) पिन 496001
मो.7722975017
बाबुषा कोहली के डायरी संग्रह "भाप के घर में शीशे की लड़की" पर आपके द्वारा लिखी गई समीक्षा इतनी नपी तुली, संतुलित और बेहतरीन है कि किताब मंगाने की इच्छा हो रही है।इस समीक्षा में संपादकीय कुशलता झलक रही है। इसी तरह लिखते रहें। बधाई।
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