सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

'भाप के घर में शीशे की लड़की' [ डायरी संग्रह, लेखिका :बाबुषा कोहली ] गूढ़ सांकेतिकता को बूझने का एक गंभीर उद्यम -रमेश शर्मा

बाबुषा कोहली की किताब 'भाप के घर में शीशे की लड़की' पढ़ते हुए कई बार लगा कि निजी जीवन के अनुभवों को ही प्रतिछबियों में मैं देख पा रहा हूं। मेरी जगह कोई और भी पाठक होता तो संभव है उसे भी इसी किस्म के अनुभव होते। बाबुषा के पास आम जन जीवन /निजी जीवन में घटित घटनाओं को देख पाने की एक विरल दृष्टि है जो अमूमन बहुत कम लोगों के पास होती है। विजन की अद्वितीयता एक रचनाकार को दूसरे रचनाकारों से अलग रखते हुए उसे एक नई पहचान देती है । बाबुषा की इस किताब में जो कुछ भी है बहुत साधारण होते हुए भी एक असाधारण दृष्टि के साथ इस रूप में सामने आती है कि एक पाठक के रूप में हम अपने आप को अंतर संबंधित करने लगते हैं। किताब में संग्रहित गद्य में दृष्टि की अद्वितीयता के साथ-साथ जो भाषायी सौंदर्य और सूफियाना अंदाज में व्यक्त हुई गद्य का जो लालित्य है वह अप्रतिम है। एक अच्छी कवियत्री और अप्रतिम गद्य लेखिका होने के साथ-साथ बाबुषा पेशे से एक अध्यापिका भी हैं । अपने मित्रों ,अपने विद्यार्थियों के साथ समय बिताते हुए बतौर रचनाकार और अध्यापिका के रूप में उनके दैनिक जीवन के जो अनुभव हैं और उन अनुभवों से उपजी जो विचार श्रृंखलाएं हैं उस श्रृंखला को अलग-अलग खंडों में हम इस किताब में पढ़ते हैं। इन खंडों को 'सा रे ग म प' के नामकरण के साथ इस तरह लयबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है कि इन्हें पढ़ते हुए विचार और भाषा के सांगीतिक अनुभवों से हम गुजरने लगते हैं.



'सा' खंड के अंतर्गत प्रार्थना शीर्षक नामक गद्य के अंश में वे लिखती हैं -

 

व्यवहार में छद्म का नाश हो /शक्ति की लोलुपता का लोप हो /विचारों का पाखंड खंड खंड हो /दार्शनिक स्वप्न दर्शी हों /पृथ्वी एक बड़े घास के मैदान में बदल जाए /बच्चों का राज हो /खेल हों

/धुन हो /झगड़े हों /कट्टीसें हों /सीखें हों /झप्पी हो /नदियां हों /पेड़ हों /पहाड़ हों परिंदे हों ।

महज नर मादा न हों /प्रेम में मुक्त स्त्री हो /प्रेम में बंधा पुरुष हो।

 

दुनिया में किसी भी कारण से उड़न छू हो सकने वाला नश्वर प्रेम तत्क्षण समाप्त हो

विकास की सभ्यता नहीं सभ्यता का विकास हो

पुलिस व फौज की आवश्यकता ना हो /सरहद ना हो /प्रकृति की सत्ता हो।

 

संविधान में कविता हो।

जीवन खोज हो ।

मृत्यु रोमांच हो।

रचनाकार की इस प्रार्थना के भीतर वैचारिक होकर उतरिए तो दुनिया को नए सिरे से सिरजने की एक दृष्टि मिलती है। आज यह दृष्टि कहीं खो गई है और यह दुनिया उस दिशा में भाग रही है जिधर अंधेरा घना होता जा रहा है ।

दैनिक जीवन की जो आम गतिविधियाँ हैं, उसके बहाने बाबुशा ने जीवन के फैक्ट्स को उसके सत्य दर्शन के साथ इस किताब में बड़ी सहजता से सामने रख दिया है | नवमी कक्षा में अंग्रेजी बिषय के बच्चों को विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता 'अ स्लम्बर डिड माय स्प्रिट सील' पढ़ाते हुए शिक्षक और बच्चों सहित समूची कक्षा के जो गहरे अनुभव हैं , 'कविता के लोक में प्रवेश के पहले' नामक खंड में व्यक्त हुए हैं | किसी प्रिय को खो देने के बाद ही जीवन में मृत्यु का भय आता है| उसके पहले एक गहरी नींद मनुष्य की आत्मा को इस तरह बांधे रखती है कि आदमी मृत्यु जैसे सत्य को स्वीकार करने की स्थिति में ही नहीं होता |कविता के भावों को लेकर कक्षा में शिक्षिका के साथ बच्चों के जो संवाद हैं बहुत अलहदा और रोचक हैं -

करन पूछता है ,हम क्यों दुखी होते हैं, जब लोग मर जाते हैं?स्वप्न ने बताया कि अब हम दोबारा उन्हें देख नहीं सकेंगे,इसलिए|क्या हम किसी से घृणा कर सकते हैं , जब यह जान लें कि एक दिन हर कोई इस दोबारा न देखे जाने की जद में चला जाएगा?मुझे इस सवाल का मौक़ा मिल गया |ज्योति की आँखों से सितारे टूटने लगे |सबने उसकी सुबक सुनी |क्लास किसी जादू से जगमगा गयी |

आगे बाबुशा लिखती हैं -

नवमी जमात के बच्चे जीवन की सबसे बुनियादी बातें कर रहे हैं। वे अनिवार्य प्रश्नों और अस्थायित्व को समझ रहे हैं । बच्चे जीवन को आंख खोल कर देख रहे हैं । इतना कुछ घट रहा है जिसे बयान करना मुश्किल है। इतने प्रश्न आ रहे हैं , इतनी बातें हो रही हैं , जीवन पन्ने दर पन्ने खुल रहा है । खिड़की पर बैठी चिड़िया के पंख की फड़फड़ाहट और पन्नों में वर्ड्सवर्थ के श्वास की फड़फड़ाहट मिल गए हैं । शिक्षक पीछे छूट जाता है, विद्यार्थी भी छूट जाते हैं । अब केवल फड़फड़ाहट का जादू बचा है ।इस जादू में हर शै डूब गई है। इस क्षण कुछ भी निष्प्राण नहीं है। दरवाजे, खिड़की, ब्लैकबोर्ड,फ़र्श, अर्श, सबमें धड़क है ।इस क्षण की कोई तस्वीर संभव नहीं। देखने की चेष्टा करती हूं अदृश्य में रची सम्मोहक पेंटिंग को। दृश्य को देख लेना देखने की क्रिया भर है। अदृश्य को देख पाना 'देखना' है ।अपलक छूट जाती हूं। दृश्य को देखकर कविता लिखी जा सकती है। ऐसी कविताओं को पढ़ते और पढ़ाते हुए अदृश्य की उंगली पकड़ना ही होता है । कविताएं पढ़कर, लिखकर कविता पढ़ाना एकदम नहीं आ पाता। ज्ञान से अधिक असहाय संसार में कुछ नहीं।

ऐसी कविताओं में प्रवेश करने से पहले फूलों से प्रार्थना करती हूं, मुझे अपनी सुगंध का बल दें।

वुड्सवर्थ की आठ पंक्ति की इस कविता के बहाने बाबुषा जीवन दर्शन का एक समूचा संचार रख देती हैं।

इसी खंड में बच्चों के साथ कक्षा के जो अनुभव हैं उन अनुभवों में 'चल कहीं दूर निकल जाएं', 'द ज्योग्रफिक लेसन', 'एक दिन तुम जान जाओगी' , 'मेरा स्वप्न है' , 'लेन्चो बचा रहे' ...इत्यादि डायरी अंश की टिप्पणियाँ  न केवल रोचक हैं बल्कि इन्हें पढ़ते हुए भीतर से जिस पाठकीय आनंद का अनुभव होना चाहिए वैसा ही अनुभव हमें मिलता है । समूचा गद्य कोई रोचक कविता पढ़ने जैसा आनंद देने लगे तो उसकी पठनीयता यूं भी बढ़ जाती है।

सारेगामापा के 'सा' खण्ड में जहां कि संगीत का सुर लगना आरंभ होता है और आगे सुर को एक मुकम्मल गति मिलती जाती है , इस डायरी अंश के सा खण्ड में भी कुछ इसी किस्म के सुर ध्वनित होते हैं । 'वे फरवरी के दिन थे' यह अंश हमें आल्हादित कर देता है।

डायरी अंशों के रूप में दर्ज संग्रह की टिप्पणियों को लेकर प्रसिद्ध लेखक प्रियदर्शन जी कहते हैं -

'यह सच है कि बाबुषा कोहली की इन टिप्पणियों को कविता की तरह पढ़ने का मोह होता है। यह भी सच है कि इन में बहुत गहरी काव्यात्मकता है, लेकिन इस कविता में उलझे रहे तो उसके पार जाकर वह संसार नहीं देख पाएंगे जो इस गद्य का असली आविष्कार है।'

 

सचमुच इसे गद्य का अविष्कार ही कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं । मशहूर पाश्चात्य लेखकों की कविताओं, कहानियों, और वक्तब्यों को लेकर गद्य के माध्यम से बड़ी साफगोई और रोचकता के साथ गंभीर विमर्श की ओर पाठकों को ले जाने का जो लेखकीय उद्यम है वह किसी कारीगर की कला साधना का एहसास कराता है। पाठकों की अपनी सीमाएं हैं कि वह कला को देखकर उस पर मुग्ध हो जाए या उससे आगे जाकर उस पर चिंतन मनन करे। इस कला साधना में जीवन के गहरे राज छुपे हुए हैं जिसे देखना सबके बस की बात नहीं। फिर भी उसे देखने का आग्रह इस संग्रह की टिप्पणियों में जरूर विद्यमान है ।

 

रे खंड में 'मैं पानी की तरफ हूँ', तुम खाली समय में क्या करती हो , खिलना और लिखना इत्यादि टिप्पणियों को भी पढ़िए तो लगता है जैसे सहज रूप में हमें कोई जीवन के गहरे अर्थ में डुबो रहा है | जीवन की दिनचर्या में जिन वैचारिक दर्शनों से वाबस्ता होते हुए भी हम एक उदासीनता में अलग थलग होते हैं उनके प्रति एक राग पैदा करने की चेतनता यहाँ मौजूद है | यह राग पैदा हो तो जीवन की गाड़ी जो कि गाहे बगाहे पटरी से उतरती रहती है उसका उतरना बंद हो |  'मैं पानी की तरफ हूँ' में 'द फायर सरमन'/बुद्ध का अग्नि प्रवचन के प्रसंग में बाबुषा वह सब कुछ कह जाती हैं जो हमें जीवन में होने वाली अचेतन अवस्था की सामान्य गलतियों के प्रति सचेत करता है |

ग खंड में 'फ्रेंड्स कंट्रीमेन एंड रोमन्स', हेंसी जा चुके थे , 'छूटना' , 'बी लाइक वाटर माय फ्रेंड' इत्यादि टिप्पणियाँ भी न केवल रोचक हैं बल्कि गंभीर विमर्श के द्वार खोलती हैं | छूटना टिप्पणी में अन्तोव चेखव की कथा शर्त के जिक्र के बहाने जीवन के दो पक्ष मृत्यु दंड और एकान्तिक कारावास पर एक तुलनात्मक विमर्श है कि इनमें कौन सा पक्ष मनुष्य के लिए ज्यादा कठिन है | दोनों ही पक्षों को लेकर लोगों के जीवन में अपने अपने तर्क हो सकते हैं | पर इस टिप्पणी को पढ़िए और  गंभीरता से सोचिए तो दोनों ही पक्ष एक दूसरे पर भारी पड़ते हुए दिखाई देते हैं | जीवन में बहुत कुछ ऐसा है जो अनिर्णित है |

 

'म' खंड के अंतर्गत संग्रह के शीर्षक वाली टिप्पणी 'भाप के घर में शीशे की लड़की' पर चर्चा न हो तो बात अधूरी रह जाएगी | इस टिप्पणी में मारा नामक एक असुर का जिक्र है जिसने भगवान तथागत पर उस समय हमला किया जब सम्बोधि की पूर्व संध्या वे गहरे ध्यान में थे |

यहाँ बाबुषा सुर और असुर का जिक्र करते हुए लिखती हैं कि जो भी सुर में लीन हुआ असुर उसका सुर बिगाड़ने चला आता है | यह दुनियां की रीत ही है जहां मारा नामक असुर आदमी के जीवन में अन्दर बाहर सब तरफ विद्यमान है | वे आगे लिखती है ...तथागत ने अपने दाएं हाथ की मध्यमा से धरती को स्पर्श किया और सम्पूर्ण पृथ्वी में क्षण भर को भूडोल आ गया | मारा किसी सूखे पत्ते की भांति उड़कर अन्तरिक्ष में विलीन हो गया |बाबुषा कहती हैं यह कोई चमत्कार नहीं बल्कि दुनियां की समस्त कलाओं ,जीवन सूत्रों की तरह यह घटना भी गूढ़ सांकेतिकता का प्रतीक है किन्तु केवल उसके लिए ही जिसमें इस क्षण भंगुर जीवन के सार को बूझने की प्रचंड जिज्ञासा हो |

 

मनुष्य और उसके जीवन के सार को बूझने की उसकी प्रचंड जिज्ञासा के बीच मारा की तरह  कई असुर हैं जिनके बारे में बाबुषा इस टिप्पणी में शोधपरक जिक्र करती हैं | मनुष्य की आत्म दुर्बलता सबसे बड़ा असुर है जो उस गूढ़ सांकेतिकता तक पहुँचने में  अनगिनत रूकावटें उत्पन्न करता है |इस विमर्श के केंद्र में स्वयं को एक शीशे की लड़की से तुलना करते हुए जीवन की तुलना  एक भाप के घर से वे करती हैं जहां एक धुंधलका छाया हुआ है |

यह धुंधलका तभी छंटेगा जब एक दिन उस लड़की की आत्मिक दुर्बलताएं दूर होंगी |

तथागत मारा के इस प्रसंग के बहाने बाबुषा एक सवाल भी छोड़ जाती हैं कि संगीत, साहित्य  एवं इस तरह की तमाम कला साधनाओं के बावजूद मनुष्य आत्मिक रूप से दुर्बल क्यों रह जाता है? उसके जीवन से मारा जैसा असुर दूर क्यों नहीं हो पाता?

ये सवाल पाठकों को चिंतन मनन की दुनियां की ओर ले जाते हैं | फिर से यह कहने में मुझे कोई हर्ज नहीं कि यह संग्रह रोचक शैली और शब्दों की सांगीतिक धुनों के साथ हमें विमर्श की शोधपरक वैचारिक दुनियां की ओर ले जाता है | उस दुनियां में आनंद की अनुभूति भी है और गूढ़ सांकेतिकता को समझने बूझने का एक अवसर भी |

 

 

किताब : भाप के घर में शीशे की लड़की

लेखिका : बाबुषा कोहली

प्रकाशक : रुख पब्लिकेशन न्यू दिल्ली

मूल्य : रु.199

 

 

 

समीक्षक

रमेश शर्मा

92 , श्रीकुंज कालोनी , बोईरदादर , रायगढ़ (छत्तीसगढ़) पिन 496001

मो.7722975017

 

 

     

 

 

टिप्पणियाँ

  1. बाबुषा कोहली के डायरी संग्रह "भाप के घर में शीशे की लड़की" पर आपके द्वारा लिखी गई समीक्षा इतनी नपी तुली, संतुलित और बेहतरीन है कि किताब मंगाने की इच्छा हो रही है।इस समीक्षा में संपादकीय कुशलता झलक रही है। इसी तरह लिखते रहें। बधाई।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। ओमा द अक ने

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

गाँधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक

गांधीवादी विचारों को समर्पित मासिक पत्रिका "गाँधीश्वर" एक लंबे अरसे से छत्तीसगढ़ के कोरबा से प्रकाशित होती आयी है।इसके अब तक कई यादगार अंक प्रकाशित हुए हैं।  प्रधान संपादक सुरेश चंद्र रोहरा जी की मेहनत और लगन ने इस पत्रिका को एक नए मुकाम तक पहुंचाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की है। रायगढ़ के वरिष्ठ कथाकार , आलोचक रमेश शर्मा जी के कुशल अतिथि संपादन में गांधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक बेहद ही खास है। यह अंक डॉ. टी महादेव राव जैसे बेहद उम्दा शख्सियत से  हमारा परिचय कराता है। दरअसल यह अंक उन्हीं के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित है। राव एक उम्दा व्यंग्यकार ही नहीं अनुवादक, कहानीकार, कवि लेखक भी हैं। संपादक ने डॉ राव द्वारा रचित विभिन्न रचनात्मक विधाओं को वर्गीकृत कर उनके महत्व को समझाने की कोशिश की है जिससे व्यक्ति विशेष और पाठक के बीच संवाद स्थापित हो सके।अंक पढ़कर पाठकों को लगेगा कि डॉ राव का साहित्य सामयिक और संवेदनाओं से लबरेज है।अंक के माध्यम से यह बात भी स्थापित होती है कि व्यंग्य जैसी शुष्क बौद्धिक शैली अपनी समाजिक सरोकारिता और दिशा बोध के लिए कितनी प्रतिबद्ध दिखाई देती ह

'कोरोना की डायरी' का विमोचन

"समय और जीवन के गहरे अनुभवों का जीवंत दस्तावेजीकरण हैं ये विविध रचनाएं"    छत्तीसगढ़ मानव कल्याण एवं सामाजिक विकास संगठन जिला इकाई रायगढ़ के अध्यक्ष सुशीला साहू के सम्पादन में प्रकाशित किताब 'कोरोना की डायरी' में 52 लेखक लेखिकाओं के डायरी अंश संग्रहित हैं | इन डायरी अंशों को पढ़ते हुए हमारी आँखों के सामने 2020 और 2021 के वे सारे भयावह दृश्य आने लगते हैं जिनमें किसी न किसी रूप में हम सब की हिस्सेदारी रही है | किताब के सम्पादक सुश्री सुशीला साहू जो स्वयं कोरोना से पीड़ित रहीं और एक बहुत कठिन समय से उनका बावस्ता हुआ ,उन्होंने बड़ी शिद्दत से अपने अनुभवों को शब्दों का रूप देते हुए इस किताब के माध्यम से साझा किया है | सम्पादकीय में उनके संघर्ष की प्रतिबद्धता  बड़ी साफगोई से अभिव्यक्त हुई है | सुशीला साहू की इस अभिव्यक्ति के माध्यम से हम इस बात से रूबरू होते हैं कि किस तरह इस किताब को प्रकाशित करने की दिशा में उन्होंने अपने साथी रचनाकारों को प्रेरित किया और किस तरह सबने उनका उदारता पूर्वक सहयोग भी किया | कठिन समय की विभीषिकाओं से मिलजुल कर ही लड़ा जा सकता है और समूचे संघर्ष को लिखि

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था जहाँ आने

प्रीति प्रकाश की कहानी : राम को जन्म भूमि मिलनी चाहिए

प्रीति प्रकाश की कहानी 'राम को जन्म भूमि मिलनी चाहिए' को वर्ष 2019-20 का राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान मिला है, इसलिए जाहिर सी बात है कि इस कहानी को पाठक पढ़ना भी चाहते हैं | हमने उनकी लिखित अनुमति से इस कहानी को यहाँ रखा है | कहानी पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे कि यह कहानी एक संवेदन हीन होते समाज के चरित्र के दोहरेपन, ढोंग और उसके एकतरफा नजरिये को  किस तरह परत दर परत उघाड़ती चली जाती है | समाज की आस्था वायवीय है, वह सच के राम जिसके दर्शन किसी भी बच्चे में हो सकते हैं  , जो साक्षात उनकी आँखों के सामने  दीन हीन अवस्था में पल रहा होता है , उसके प्रति समाज की न कोई आस्था है न कोई जिम्मेदारी है | "समाज की आस्था एकतरफा है और निरा वायवीय भी " यह कहानी इस तथ्य को जबरदस्त तरीके से सामने रखती है | आस्था में एक समग्रता होनी चाहिए कि हम सच के मूर्त राम जो हर बच्चे में मौजूद हैं , और अमूर्त राम जो हमारे ह्रदय में हैं , दोनों के प्रति एक ही नजरिया रखें  | दोनों ही राम को इस धरती पर उनकी जन्म भूमि  मिलनी चाहिए, पर समाज वायवीयता के पीछे जिस तरह भाग रहा है, उस भागम भाग से उपजी संवेदनहीनता को

कोइलिघुगर वॉटरफॉल तक की यात्रा रायगढ़ से

    अपने दूर पास की भौगौलिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों को जानने समझने के लिए पर्यटन एक आसान रास्ता है । पर्यटन से दैनिक जीवन की एकरसता से जन्मी ऊब भी कुछ समय के लिए मिटने लगती है और हम कुछ हद तक तरोताजा भी महसूस करते हैं । यह ताजगी हमें भीतर से स्वस्थ भी करती है और हम तनाव से दूर होते हैं । रायगढ़ वासियों को पर्यटन करना हो वह भी रायगढ़ के आसपास तो झट से एक नाम याद आता है कोयलीघोघर! कोयलीघोघर ओड़िसा के झारसुगड़ा जिले का एक प्रसिद्द पिकनिक स्पॉट है जहां रायगढ़ से एक घंटे में सड़क मार्ग की यात्रा कर बहुत आसानी से पहुंचा जा सकता है । शोर्ट कट रास्ता अपनाते हुए रायगढ़ से लोइंग, बनोरा, बेलेरिया होते ओड़िसा के बासनपाली गाँव में आप प्रवेश करते हैं फिर वहां से निकल कर भीखमपाली के पूर्व पड़ने वाले एक चौक पर जाकर रायगढ़ झारसुगड़ा मुख्य सड़क को पकड लेते हैं। इस मुख्य सड़क पर चलते हुए भीखम पाली के बाद पचगांव नामक जगह आती है जहाँ खाने पीने की चीजें मिल जाती हैं।  यहाँ के लोकल बने पेड़े बहुत प्रसिद्द हैं जिसका स्वाद कुछ देर रूककर लिया जा सकता है । पचगांव से चलकर आधे घंटे बाद कुरेमाल का ढाबा पड़ता है , वहां र

समीक्षा- कहानी संग्रह "मुझे पंख दे दो" लेखिका: इला सिंह

शिवना साहित्यिकी के नए अंक में प्रकाशित समीक्षा स्वरों की धीमी आंच से बदलाव के रास्तों  की खोज  ■रमेश शर्मा ------------------------------------------------------------- इला सिंह की कहानियों को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि इला सिंह जीवन में अनदेखी अनबूझी सी रह जाने वाली अमूर्त घटनाओं को कथा की शक्ल में ढाल लेने वाली कथा लेखिकाओं में से एक हैं। उनका पहला कहानी संग्रह 'मुझे पंख दे दो' हाल ही में प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंचा है। इस संग्रह में सात कहानियाँ हैं। संग्रह की पहली कहानी है अम्मा । अम्मा कहानी में एक स्त्री के भीतर जज्ब सहनशील आचरण , धीरज और उदारता को बड़ी सहजता के साथ सामान्य सी लगने वाली घटनाओं के माध्यम से कथा की शक्ल में जिस तरह इला जी ने प्रस्तुत किया है , उनकी यह प्रस्तुति कथा लेखन के उनके मौलिक कौशल को हमारे सामने रखती है और हमारा ध्यान आकर्षित करती है । अम्मा कहानी में दादी , अम्मा , भाभी और बहनों के रूप में स्त्री जीवन के विविध रंग विद्यमान हैं । इन रंगों में अम्मा का जो रंग है वह रंग सबसे सुन्दर और इकहरा है । कहानी एक तरह से यह आग्रह करती है कि स्त्री का

परदेसी राम वर्मा की चर्चित कहानी : दीया न बाती

आज हम एक महत्वपूर्ण कथाकार परदेशी राम वर्मा जी पर चर्चा को केंद्रित करेंगे। 18 जुलाई 1947 को दुर्ग छत्तीसगढ़ के लिमतरा गांव में जन्मे परदेशी राम वर्मा देश के महत्वपूर्ण कथाकारों में से एक हैं ।वे पूर्व में सेना में भी रहे हैं और भिलाई स्टील प्लांट में भी उन्होंने काम किया है। रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर से मानद डी.लिट्. की उपाधि प्राप्त परदेशी राम वर्मा की अनेक किताबें प्रकाशित हुई हैं उनमें सात कथा संग्रह एवम तीन उपन्यास प्रमुख हैं । वे हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों ही भाषाओं में सम गति से लेखन करते हैं ।वर्तमान में वे अगासदिया नामक त्रैमासिक पत्रिका के संपादक भी हैं।उनकी कहानियों की देशजता और जनवादी तेवर उन्हें प्रेमचंद की परंपरा के कहानीकार के रूप में स्थापित करता है। उनकी इस कहानी को हमने हंस के जुलाई 2019अंक से लिया है। सत्ता और कॉर्पोरेट तंत्र की मिलीभगत और उनके षड्यंत्र से गांव आज कैसे प्रभावित हैं  कहानी इसे आख्यान की तरह हुबहू सुनाती है । सारे दृश्य आंखों के सामने फिल्म की तरह चलने लगते हैं। ग्रामीणों को विकास का सपना दिखाकर उनकी जमीनों को छीनना आज का नया खेल है। इस खेल में