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उदय प्रकाश की कहानी अंतिम नींबू बहुत कुछ कहना चाहती है

इंडिया टुडे के 10 जून 2020 अंक में उदय प्रकाश जी की कहानी अंतिम नींबू पढ़ने का अवसर मिला । कहानी थोड़ी लंबी जरूर है  पर यह अपनी रोचकता में, हर घड़ी बदलती नई-नई परिस्थितियों से उपजे नए नए रहस्यों में ,जो जिज्ञासा उत्पन्न करती है वह इस कहानी की खूबी है। तेजी से बदलती परिस्थितियों के बावजूद हर घटना एक दूसरे से जुड़ी रहकर  कहानी को  एक सूत्र में बांधे रखती है। कहानी में किस्सागोई की ताजगी है, साथ ही भाषाई कलात्मकता और घटित प्रसंगों का चमत्कार भी है। इस कोरोना काल में चीन के वुहान शहर से निकले वायरस का प्रसंग जिस अर्थ और रूप आकार में कहानी में ध्वनित होता है वह पाठक को चमत्कृत करता है। साथ ही विश्व की तमाम राजनीतिक परिस्थितियां ध्वनित होने लगती हैं। एक वायरस जो इन दिनों भाषा के भीतर, हिंसक लोगों के भीतर गाली गलौज के रूप में घुस गया है वह भी उतना ही खतरनाक है जितना की वुहान शहर से निकला वायरस । और यह वायरस जिससे भाषा दिनों दिन मर रही है यह राजनीति की ही देन है । कहानी के अंतिम पैराग्राफ को देखिए जहां सारी बातें स्पष्ट होने लगती हैं-


"अगर आप कहीं विनायक दत्तात्रेय को कहीं मास्क लगाए भटकते हए देख सकें और उन्हें पहचान लें तो जान लीजिये कि वे उस 'अंतिम नीबू' की खोज़ में बैचन भटक रहे हैं।हो सके तो उनकी मदद करें।

भाषा के भीतर ही वह अंतिम नींबू है, जिसके अंदर मानवभक्षक ओग्रेस की जान है। ओग्रेस या आदमखोर दैत्य मानव सभ्यता की सबसे अश्लील और हिंसक गालियों का इस्तेमाल करते हैं। उन्हें पहचाना जा सकता है। क्योंकि भाषा ही हर किसी की मौलिक व्यावहारिक चेतना है।

अगर वह 'अंतिम नींबू’ कहीं दिखे, तो बिना विनायक दत्तात्रेय का इंतज़ार किए, आप ख़ुद उसे किसी चाकू से काट डालें। सारे वायरस के दैत्य मच्छरों की तरह मर जाएंगे और भाषा बच जाएगी।

भाषा बची तभी जीवन बचेगा" 


■ रमेश शर्मा


कहानी : अंतिम नींबू

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यह तब की बात है, जब ऐसा लगने लगा था कि अब इस पृथ्वी से मनुष्य नामक जैविक प्राणी का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। बहुत-से प्राणियों का अस्तित्व पृथ्वी पर इससे पहले ही समाप्त हो चुका था। चल-अचल दोनों तरह के चराचर थे। पेड़ पौधों, कीट-पतंगों, खर-पतवार से लेकर हज़ारों-लाखों तरह के दृश्य-अदृश्य जलचर-थलचर तक। और पृथ्वी से इन सबकी विलुप्ति की वजह कुछ और नहीं, मनुष्य ही था। लेकिन अब, इस बार ऐसा था कि स्वयं मनुष्य के ही विलुप्त हो जाने की घड़ी आ गयी थी।


टिक टिक टिक...


मतलब कि अब मनुष्य की दृष्टि से उसकी इस चमकदार, झमाझम, लूट-खसोट, हाय-हाय, मारो-काटो, नाचोकूदो, खाओ-उड़ाओ, ठगी-झूठ की महान हिंसक सभ्यता में प्रलय या क़यामत या होलोकास्ट आने वाला था। हुआ यह था कि एक किसी चमगादड़ के शरीर से होता हुआ एक कोई वायरस चीन के एक शहर वुहान में, जहां दो साल पहले दुनिया के सबसे अमीर और ताकतवर नेता और कम्पनियों के मालिक अपने किसी हिडेन एजेंडा के तहत इकट्ठा हए थे और जहां से एक ऐसा 'फाइव-जी' आने वाला था, जिससे अब तक किसी क़दर। थोडीबहुत बची-खुची दुनिया भी इस मानव सभ्यता की मेगा-सुपर सरकारों की मुट्ठी में आ जाने वाली थी।


कर लो डेटा मुट्ठी में। भर लो दुनिया पाकिट में।


प्रकृति ने या ईश्वर ने मनुष्य की खोपड़ी के भीतर जो एक बहुत जटिल, बेजोड़, अद्वितीय सॉफ़्टवेयर फ़िट कर रखा था और जिसका अब तक वह फ़क़त 5 प्रतिशत ही इस्तेमाल कर पा रहा था, उससे अलग एक कृत्रिम और हज़ारों गुना तेज़ सॉफ़्टवेयर या नरम-मुलायम तकनीकी दिमाग़ बस अब आने ही वाला था। आरटीफ़िशियल इंटेलीजेस | कृत्रिम मेधा। मेड इन चाइना।


टिक टिक टिक ...


पृथ्वी, चंद्रमा, मंगल, गुरु, शुक्र समेत सारे ब्रह्मांड को अपनी मुट्ठी में करने की हसरत रखने वाले पूँजी, तकनीक, हथियार और समस्त भोग-विलास के बमुश्किल आधा दर्जन ताकतवर स्वामी और उनके दर्जन भर क्रीत दास अर्थात् बोंडेड लेबर, मतलब बंधुआ मज़दूर साँस रोके चीन के उस शहर वुहान की ओर टकटकी लगाये, बिना पलक झपकाये देख रहे थे।


दो-तीन मेगा-गवर्मेंट और बाक़ी दर्जन भर उनके दोनहा-पत्तलहा लोकल गवर्मेंट।


टिक-टिक ......धक-धक...


ऐसी घड़ी, ऐसा पल अब आने ही वाला था कि इनमें से जैसे ही कोई चीखता -अच्छे दिन !' तो करोड़ों लोग, जिन्हें बिहारी-मैथिली की चुम्बकीय हिंदी के एक कालजयी महान ओबीसी कथाकार ने 'अरना भैंसा' लिखा था, वे सब के सब एक साथ प्रत्युत्तर में चिल्लाते —-


‘आयेंगे ...आयेंगे!'

'अच्छे दिन !'

'आयेंगे ! आयेंगे...!

...आ ऽ ऽ ये ऽ ऽ गे ऽ ऽ ऽ ! गे ऽ ऽ गे ऽ ऽ ऽ ! '

और बस्स ......


बस तभी वह अजनबी-सा वायरस पता नहीं किस राजनीतिक-धार्मिक राष्ट्र के, किस पेड़ के कितने पुराने तने की खोखल के अंधेरे में छिपे किसी प्राचीन चमगादड़ के शरीर की कोशिकाओं के भीतर अब तक समाधिस्थ या हाइबरनेशन की तुरीयावस्था में लीन , वहाँ के किसी अदृश्य-अगोचर सिस्ट से निकल कर किसी छापामार गुरिल्ला की तरह उस महान क्रांतिकारी ‘फ़ाइव जी' बनाने वाले उस चीनी सॉफ्टवेयर अभियंता की नाक में घुसकर चुपचाप बलगम में घुल गया, जैसे दूध में पानी और पानी में पानी और दूध में दूध का बूंद घुल-मिल जाता है। जैसे प्रेमिका के हृदय में प्रेमी का और प्रेमी के हृदय में प्रेमिका का प्यार घुल जाता है, जिसके फलस्वरूप लव जेहाद या जुनूनी क्रांतिकारी प्रेम पैदा होता है।


जैसे ऑक्सीजन में हाइड्रोजन घुल जाता है और इश्क़ का दरिया बहने लगता है। बाढ़ में उमड़ता-उफनता दरिया। बांधों सरहदों रुकावटों को तोड़ता, फलांगता। जैसे सूरज की धूप और हवा की लहरों में अगोचर तैरता हुआ कोई शुकाणु किसी स्त्री के स्वप्नों के गर्भ में घुल जाता है और कोई नन्हा-सा फ़रिश्ता या देवता या नए ज़माने का नया नायक जन्म लेकर किलकारी भरता है।


इंक़लाब जिंदाबाद !

बंदे मातरम् !

माँ तुझे सलाम !

लेकिन, उस अजनबी वायरस की यह हरकत, उस समय कोई भी अंदाज़ा नहीं लगा सका कि एक सभ्यतामूलक आधि-महा-ऐतिहासिक हरकत थी। अभूतपूर्व ! टीएच, अर्थात् 'ट्रैन्सेंडेंटल हिस्ट्री' !


किंवदंती बताते हैं कि कभी-कभी किसी बरनम बन में किसी हज़ारों साल पहले मरे विलुप्त पेड़ की लूंठ में अचानक एक कनगी हरी होती है और उसमें से एक कोंपल निकल कर हज़ारों साल बाद के संसार को अपनी अबोध-पवित्र-शिशु आँखों से झांकता है...


...एक नवजात नन्हा-सा पत्ता किसी हवा में हलका-सा कांपता है और ...फिर

...और फिर समूची सृष्टि बदल जाती है।

तो ऐसी ही हुई वह हरकत।

पैरा-मेगा-ट्रांस-हिस्टॉरिकल सिविलेजेशनल मूव !

इतिहासों और इतिहासकारों को फलांग कर, समूची सभ्यता को उलट-पलट कर, दुनिया भर के टीवी, सीसीटी, मोबाइल कैमरों के सामने एक बिलकुल नयी डरावनी दुनिया खड़ी कर देने वाली हरकत।


उस वायरस की इस हरकत से वहान के उस चीनी फ़ाइव जी इंजीनियर के गले का बलगम जम कर पत्थर बन गया और उसने उसकी साँस का आना-जाना रोक दिया ...और उस फ़ाइव जी वाले बेजोड़ सोफ्टवेयर इंजीनियर अर्थात् नरम-मुलायम-माल-अभियंता की साँस बंद हो गयी और वह हिट के हमले से मारे गए काकरोच की तरह जहां-का-तहाँ ढेर हो गया। पीठ के बल। चित। आकाश की ओर अपने अकड़े हए हाथ पाँव ताने। चौंकी हई खुली बंद आँखें।


कूब्रिक की मशहूर फ़िल्म की टाइटल की तरह - 'आइज़ वाइड शट...!'


लेकिन उस अदृश्य हरकत की परिणतियों को तो अभी आगे प्रकट होना था। जिस क्रूरता के रंगमंच पर कई वर्षों का यह जो लम्बा नाटक खेला जा रहा था, चीनी फ़ाइव जी अभियंता की मृत्यु उस नाटक का पटाक्षेप नहीं थी। अभी तो बस उसी सेट और स्पॉट लाइट में एक अगला दृश्य अवतरित हो रहा था।


शांतता कोर्ट चालू आहे !

ख़ामोश नाटक जारी है।


वुहान शहर के लोगों और नेताओं ने कहा'आह, हमारा सबसे प्रतिभाशाली, कृत्रिम प्रज्ञा और आभासी ज्ञान का इंजीनियर 'ब्रेन हेमेरेज' या 'हार्टफेल' से अकाल मृत्यु का शिकार हुआ, वरना दुनिया के बाज़ार में हम एक महीने के अंदर-अंदर टॉप पर होते। '


ट्रिलियन ट्रिलियन भूमंडलीय इकोनामी। लाइट से भी तेज़ रफ़्तार से दौड़ता, ऊपर की ओर चढ़ता विकास। प्रकाश से तेज़ विकास।


लेकिन यह क्या?

 होनी को तो अभी आगे कुछ और होना था ...!

जब उस अभियंता की लाश राजकीय सम्मान के साथ उठाई जा रही थी, तभी पटापट, मच्छर-पतंगों की तरह कई लोगों के गले का बलगम भी पत्थर हो गया और जो साँस यानी प्राण-वाय् नाक के रास्ते निकल कर बाहर गयी, वह फेफड़ों में लौट ही न सकी।


जो शव उठाने आए थे, वे शव हो कर अपने उठाए जाने का इंतजार करने लगे।

प्रात समय रवि भक्ष लियो तब तीनहँ लोक भयो अँधियारो

पवनसुत हनूमान की जय

हेल हेल द गॉड ऑ$फ टारनेडो, साइक्लोन, विंड एंड ब्रेथ

हेल हेल द गॉड ऑफ लाइफ एंड म्युज़िक

हे सांस और चक्रवात के स्वामी!

साँस जो गयी सो गयी। लौट कर न आयी।


कोई गोरखनाथ का पद गा रहा था। उसकी आवाज़ गोरखपुर-कुशीनगर के इलाक़े से उठकर, सिक्किम, भूटान, तिब्बत, ब्रह्मा-म्यांमार, वियेतनाम, कंपूचिया, नेपाल के ऊपर से तैरती हुई चीन के वुहान, शंघाई और बेजिंग तक किसी रहस्यपूर्ण बैकग्राउंड म्यूज़िक जैसी गूंज रही थी।


जैसे कोई ईरी साउंड ट्रैक। कानों से घुस कर शरीर की समस्त शिराओं को हिला डालने वाला अलौकिक रहस्यपूर्ण संगीत।


जैसे मिलारेपा और कबीर, जयदेव और निताई, बहुत सारे कनफटिया और महासिद्ध सरहपा एक साथ किसी कोरस में गा रहे हों:


'बारू की भीत ... पवन का खम्भा ... गोरख देख भया अचंभा ...

भोला मन जाने अमर मोरी काया ...!'

'...अ...म ...र ...मोरी का ऽ ...या ...ऽ ऽ !'


देखते-देखते हज़ारों मर गये। रील लाइफ़ के महान मरहूम अभिनेता प्राण का नाम , अब असली, बदहाल रियल जिंदगी का खलनायक सिद्ध होने लगा। अनुलोम का विलोम हो गया। दिशाएँ एक हो गयीं। बायाँ-दायाँ, लेफ्ट राइट, सच-झूठ, सूचना-अफ़वाह, सब एक। जिंदा-मुर्दा सब बराबर।


यह जनवरी महीने के आखिरी कुछ दिन थे। वुहान का वायरस तो पिछले साल के दिसम्बर में ही आ गया था। इस बार नया साल कुछ देर से शुरू हुआ था।


दूसरा और तीसरा महीना आते-आते, यानी फ़रवरी और मार्च तक के सत्तर-अस्सी दिनों में पृथ्वी के सैंकड़ों देश उस वायरस की हरकत की चपेट में आ गये। पृथ्वी पर जितनी भी भाषाएँ थीं और जितने भी सूचना संचार के माध्यम थे सब में एक ही सूचना थी -'मौत'।


टीवी न्यूज़ चैनलों की टीआरपी मौत के आँकड़ों से बनने लगी। सेंसेक्स नीचे गिर रहा था, मृत्यु के आँकड़ों का इंडेक्स ऊपर की ओर उछाल मार रहा था।


'महाभारत...!’


राष्ट्र के नाम संदेश नहीं उद्घोषणा ब्रॉडकास्ट हुई। वुहान के वायरस के विरुद्ध महाभारत से भी बड़ा संग्राम होगा। सारे लोग घरों में छुप जाएं। अट्ठारह अक्षौहणी सेना अट्ठारह दिन का नहीं, इक्कीसवीं सदी की फौजें इक्कीस दिन का युद्ध लड़ेंगी। पूरा देश कुरुक्षेत्र बनेगा।


टीवी चैनल में महाकाल की आवाज़ गूंजने लगी।


इस महाभारत की महान पटकथा उसने लिखी थी, जिसे इस भाषा में मामूली मुदर्रिस की नौकरी तक न हासिल हुई थी। जिसने किसी उपमहाद्वीप जैसे एक बड़े गांव को दो टुकड़ों में काट कर आधा कर देने की कथा लिखी थी आधा गांव, जिसमें प्यार में डूबी एक लड़की पूछ रही थी—''का ढोर-डांगर जैसा गांवों का भी हाथ-गोड़ होता है, जो इधर से उधर चला जाता है?”


ऐसा महाभारत जिसमें फ़िरोज़ ख़ान अर्जुन का रोल कर रहा था और कृष्ण उसके रथ के सारथी बने हुए थे।


और ठीक उसी समय फ़्रांस में एक अंग्रेज़ का लिखा नाटक भी खेला जा रहा था, जिसमें अमेरिका, एशिया, यूरोप और तमाम देशों के एक्टर एक साथ रंगमंच पर नौ घंटे का महाभारत खेल रहे थे।


इस नाटक का अंग्रेज़ निर्देशक कह रहा था: ''महाभारत किसी एक देश, नस्ल, वर्ण, धर्म का महाकाव्य नहीं, यह समूची पृथ्वी में रहने वाले लोगों का महानाट्य है”। और अमेरिका का अख़बार द न्यूयार्क


टाइम्स लिख रहा था—दक्षिण एशियाई लोगों के लिए महाभारत वैसा ही है, जैसा हमारे लिए बाइबल, ओडिसि और इलियड तीनों का कुल जोड़। धृतराष्ट्र अंधा था, गांधारी ने आंख पर मास्क बांध लिया था। संजय बहुतेरे थे, जो झूठी ख़बरें यानी फ़ेक न्यूज़ फैला रहे थे।


यही वह समय था जब विनायक दत्तात्रेय अपने गाँव में अपने घर की पछीत के बगीचे में चुपचाप, अकेले, मुँह और नाक में मास्क लगाये असमंजस में खड़े थे। पिछले ही दिन उन्होने उस वायरस से बचने के लिए, रात में ठीक नौ बजे अपनी पत्नी और बच्चे के साथ ताली और थाली बजाई थी और अपनी छत पर राई के तेल और गऊ के देसी घी से, रुई की बाती भिगो कर, माटी के दिये जलाये थे। ठीक नौ बजे रात। इसलिए कि प्रधानमंत्री ने कहा था कि नौ का अंक शुभांक होता है। विनायक दत्तात्रेय ने अपनी पत्नी और बेटे से खुशी में कांपते-थरथराते हए कहा - 'देखो। अब कोई वायरस हमें नहीं छू सकता। क्योंकि ... क्योंकि...' वे एक पल के लिए डरे, इसलिए उन्होने गले में अटके बलगम को घुटका। इस घुटकने की क्रिया ने उन्हें भययक्त किया। हिम्मत आयी। उन्हें पता चल गया कि उनका बलगम अभी पत्थर नहीं हुआ, बा-क़ायदा मानवीय या इंसानी है।


विनायक दत्तात्रेय बलगम घुटकने के बाद संविधान-सम्मत नागरिक अधिकार के जर्जर साहस में गुनगुनाने लगे --

'निरभय निरगुन गुन रे गाऊँगा ...

पाँच पच्चीसो पकड़ मँगाऊँ जी एक ही धागा पिराऊँगा ...

निरभय निरगुन गुन रे ...!'

उनकी पत्नी, बेटे और ड्राइवर ने थाली और ताली बजाना रोक कर उनकी ओर व्यग्रता के साथ ताकना शुरू कर दिया।


विनायक दत्तात्रेय के चेहरे में दिव्य आभा थी। दिये की रोशनी में सुर्ख हो गयीं उनकी आँखें चमक रहीं थीं।


उन्होने थरथराते हुए कहा - 'सुनो, ये बात किसी से न कहना। तुम्हें गऊ क़सम। बिद्या क़सम। सुनो, पीएम और मेरा शुभांक एक है। नौ...नाइन ! नाइन इज़ वेरी वेरी एक्स्ट्रीमली फ़ाइन !


ज़रा 'नौ' को बार-बार बोल कर तो देखो तुम लोग। उल्टा राम जपत जग जाना, बाल्मीक भये ब्रह्म समाना। मरामरामरा म रा म


बोलो ! नौ नौ ... नव... नव ... नव ... ! नव नव नव ! नव गति, नव लय, ताल-छंद नव, नवल कंठ, नव जलद मंद्र रव नव नभ के नव विहग वृंद को नव पर, नव स्वर दे ! नव नव नौ नौ


नवयुग आयेगा। वुहान वाला वायरस लेकर आयेगा। '

'वात-पित्त-कफ। यह कच्च्छ और नहीं कफ यानी बलगम का सारा मामला है।


ब्रह्मा, विष्णु, महेश। कुच्छ भी नहीं, शिव-शम्भु की लीला है। नाचने का मन पड़ गया होगा बम-भोले को। ' उन्होने सोचा। धरती आकाश पाताल, ठोस, द्रव गैस। अब सब में होगा तांडव !


डमड्डमम्... डमड्डमम्...


विनायक झूम-झूम कर गाने लगे। वे उत्साह में लालन फकीर और जयदेव एक साथ बन गए थे 'लौदियेग बोनायिल मोर डुगडुगी


शाधिर लाउ बोनायिल मोर बोयरागी...

आमि गया गेलाम, काशीगो गेलाम...

शोंगे नईं मोर बेश्नोबी...

शाधिर लौ बोनायिल मोर......बोयरागी!


विनायक दत्तात्रेय का पूरा परिवार छत पर नाच रहा था। सारा गाँव दूर से उन्हें देख रहा था, जहां एक किसी के घर में भी छत नहीं थी। बस छप्पर, एस्बेस्टस शीट और प्लास्टिक की चददर।


तो, उस नव की रात में विनायक दत्तात्रेय ने देखा था, कि आसपास के गाँवों के लोग अपने-अपने आँगन, ओसार, गलियों में दिया, मोबाइल, टार्च और केटी यानी 'किसान-टार्च' जलाये नाच रहे थे। सबसे बढ़िया डांस कोरियोग्राफ़ी तो उस गाँव की थी, जहां कोयले की खदानों में काम करने वाले मजदूर थे, जिन्होंने खदान वाला 'माइनिंग हेलमेट' पहन रखा था, जिसमें टार्च फ़िट था। रोशनियाँ नृत्य कर रहीं थीं। बॉलीवुड के रुपया-पेट्रो डॉलर भक्षी कोरियोग्राफ़र मात खा जाते।


लेकिन आप सब को पता ही है कि विनायक दत्तात्रेय को तो ट्रांस या गैब या तूरियवस्था में बार-बार चले जाने की लत पड़ चुकी थी, इसीलिए वे नाचते-नाचते अपने नृत्य में लीन और विभोर होकर गाने भी लग गये थे –

'डफली वाले डफली बजा

मेरे घुघरू बुलाते हैं

आ ...आऽ... आऽ ऽ ऽ ऽ ...!'

अब वे अपने कालेज के दिनों के रोलमाइल, अपनी ही उम्र के चिंटू बन गए थे और उनकी थाली डफली में बदल चुकी थी।

पर यह बात तो कुछ रोज़ पहले की, नौ नम्बर के शुभांक वाली रात की बात थी। आज, फ़िलहाल तो वह अपने गाँव के घर की पछीत के अपने बगीचे में, मँह-नाक में मास्क बांधे, अकेले चुपचाप खड़े थे। जैसा आप सब विनायक दत्तात्रेय के जीवन के बारे में जानते ही हैं कि वे और उनका परिवार लगभग आधी शताब्दी से खानाबदोश था। किसी भी राष्ट्रीय या निजी अर्थात् अ-राष्ट्रीय नाटक कम्पनी में उन्हें कोई काम नहीं मिल रहा था। इस बीच उनके राजधानी वाले घर में डाका भी पड़ चुका था तो उनकी आर्थिक स्थिति आखिर किस हाल में थी।

नौ साल पहले, ठीक बड़े दिन वाली सुबह साढ़े सात बजे वे इक्यासी घंटे के कोमा, यानी जीवन और मृत्यु के बीच के अल्पविराम में भी जा चुके थे, और वहाँ के अंधेरे-उजाले में उन्होने जो देखा था, वह वे किसी को बताना नहीं चाहते थे। वह न तो कोई फिक्शन था, न कोई स्वप्न, न कल्पना, न सच।

'मेरी जिंदगी की हिंदी हो गयी है। ' वे अक्सर मुस्कुराते हुए कहते थे।

तो, वे बगीचे में चुपचाप खड़े थे और उस चीनी वायरस से यह अपना पंचरचित शरीर स-प्राण बनाये रखने के लिए प्रधानमंत्री के निर्देशानुसर ताड़ासन और वृक्षासन लगाने की तैय्यारी में थे।

और बस्स ! यहीं पर उनसे चूक हो गयी।

अगर वह पहले ताड़ासन लगा लेते तो क़तई वह न देख पाते, जो उन्होने वृक्षासन लगाते हुए देख डाला।

कहते हैं कि मनुष्य ही नहीं, हर चराचर का जीवन हमेशा कुछ संयोगों पर निर्भर हुआ करता है। लाइफ़ इज़ अनसन एवर, डांसेज ओवर चांस।

लेकिन विनायक दत्तात्रेय, जैसा कि आप जानते हैं, पढ़ते बहुत थे, इसलिए वे 'चांस' और 'संयोग' का अंतर जानते थे, इसीलिए वे दोनों पदों का प्रयोग संदर्भानुसार करते थे।

एक जर्जर, पतली, जगह-जगह गाँठ लगी रस्सी पर, आँख में पट्टी और मुँह में मास्क लगा कर नृत्य। ये ही है जिंदगी।

ये जीना भी कोई जीना है, लल्लू !

जहां विनायक दत्तात्रेय का गाँव था, उसी इलाके की एक सड़क पर, कई दशक पहले, या कह लें कि विनायक दत्तात्रेय के जन्म से भी पहले एक फ़िल्म की शूटिंग हई थी, जिस सड़क पर एक ताँगा नियति के विरुदध लगातार दौड़ता चला जा रहा था। उस ताँगे में एक विवाहित अभिनेता और उसकी अविवाहिता विधर्मी प्रेमिका का दुखांत छुपा हुआ था और जिसमें 'सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, न हाथी है, न घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है' गाने वाले गायक ने, अपने जीवन में पहली बार एक्टिंग करते हुए गाया था:

'छोटी सी ये जिंदगानी रे चार दिन की जवानी तेरी। हाय रे चार पल की कहानी तेरी। '

जिसने यह गीत लिखा था वह बहुत छोटी जात का बहुत ऊँचा महान कवि था, जो इस भाषा में अपनी ही जिंदगानी की कहानी नहीं जान पाया था, धोखे से उसने एक फ़िल्म बना डाली थी और क़र्ज़ न चुका पाने की वजह से 'गोदान' के होरी की तरह असमय गुज़र गया था और अपनी उस क्लासिक लेकिन फ़्लॉप फ़िल्म में एक गाना लिख कर छोड़ गया था –'सजनवा बैरी हो गये हमार ...

यानी 'सजन' ने तब भी झूठ बोल दिया था, और बिना हाथी-घोड़े के, बिना पैदल हुए, किसी कार या हवाई जहाज़ में चढ़ कर अपने ख़ास ख़दा या आका के पास चले गये थे। विनायक दत्तात्रेय सोच रहे थे कि महात्मा गांधी तो पैदल ही लाठी के सहारे चलते थे, उन्हें भी, विनायक दत्तात्रेय के जन्म से चार साल पहले, किसी झूठ बोलने वाले सजन के बंदे ने गोली मार दी थी।

तो बात वहाँ थी कि विनायक दत्तात्रेय से चूक हई और ताड़ासन लगाने की जगह उन्होने भूलवश वृक्षासन लगा डाला। फिर तो, जैसा आप विनायक के बारे में जानते ही हैं कि उन्हें ट्रांस या गैब या तुरीयावस्था में चले जाने का एडिक्शन था। तो वे धीरे-धीरे वृक्ष बनने लगे। हरा भरा पेड़। वैसा पेड़, जो बिरहमनी भाषा की कविता में क़तई कभी नहीं होता।

असल में, बुनियादी समस्या की जड़ यह थी कि विनायक दत्तात्रेय की चेतना में एक साथ अध्यात्म, पदार्थवाद, आधि और परा भौतिक-भाववादी दर्शन और साहित्य-कलाएँ एक ही क्षणांश में किसी ज्यामितिक गतिशीलता में सक्रिय हो जाती थीं।

उन्हें याद रहता था कि किसी महान साहित्यकार ने कभी कहा था कि अगर तुम सेब के बारे में लिखना चाहते हो, तो सेब को तब तक देखते रहो, जब तक तुम स्वयं सेब न बन जाओ। अगर रेशम के बारे में लिखना चाहते हो शहतूत की डाल में लगे कोशाफल के कीड़े को तबतक देखते रहो, जब तक तुम खुद कोशाफल के कीड़ा न बन जाओ। जब ऐसा हो जायेगा तभी तुम रेशम का रहस्य समझ पाओगे और तुम रेशम के बारे में लिख पाओगे। इसीलिए उन्हें जानने वाले लोग जानते हैं कि कई बार विनायक दत्तात्रेय कुछ और बन जाया करते थे। जैसे दूध, कप, नीले रंग का गुब्बारा, पहाड़, मैदान, सेमल का पेड़, शहतूत की कुशियारी, रेशम वगैरह-वगैरह।

तो, वृक्षासन में लीन विनायक दत्तात्रेय एक हरा-भरा पेड़ बन गये थे। अंग्रेज़ी में बोलें तो- ग्रीन ट्री और जर्मन भाषा में कहें तो - 'ग्रूनबाम'।

वे इस तरह से पेड़ बन चुके थे कि उनकी भुजाएँ डालियाँ, उँगलियाँ टहनियाँ, रोएँ पत्ते-पत्तियाँ आदि बन चुकी थीं और तितलियाँ, मधुमक्खियाँ, मकड़े-मकड़ियाँ, चींटे-मटे, बाज-बुलबुल सब आ कर उस हरे-भरे पेड़ पर लद गये थे और अपनी-अपनी भाषाओं में एक दूसरे से बातें कर रहे थे। कोई उन परिंदों को बंदूक़ नहीं दिखा रहा था कि सिर्फ एक किसी भाषा में ही बोलो और चहको। वरना शूट एट साइट !

कहाँ है शॉट गन?

और यह सच है कि जब आप पेड़ या पक्षी बन जाते हैं, तभी किसी दूसरे पेड़ या चिड़िया को उसकी सम्पूर्णता और वास्तविकता में देख पाते हैं। ठीक यही बात मनुष्य या इंसान और उसके समाज पर भी लागू होती है। जब तक आप दूसरा' नहीं बनते, तब तक न दूसरे की भाषा समझ सकते हैं, न 'अन्य' किसी का जीवन| बाघ और इंसान में यही फ़र्क होता है क्योंकि बाघ न हिरण बन सकता है, न गाय।

किंवदंती कहती है कि त्रेता युग में एक राजा दिलीप सिंह हए थे, जो बाद के अपने कुल के कई राजाओं के बाप थे। वे शेर और गाय, दोनों की भाषा समझते थे। इसी विद्या के बल पर उन्होने एक बार एक गाय और उसके बछड़े को एक डरावने भूखे शेर या सिंह अर्थात् लायन के जबड़े और पेट में जाने से बचाया था।

लेकिन यहाँ भी किंवदंती में एक औचक पेंच है। इस पेंच को सिदध सौंदर्य-वैज्ञानिक 'गल्प-गाँठ' कहते हैं।

गल्प-गाँठ यह कि वह भूखा सिंह, जो रघुवंश के राजा दिलीप सिंह के सामने गाय और उसके बछड़े को खा जाना चाहता था, वह शेर या लायन था ही नहीं।

वह एक ईश्वर था। ईश्वर कभी कभी शेर, सुअर, कछुआ, आग, हवा, पानी बन जाता है। क्योंकि वह अन्य की भाषा समझता है।

जब कोई यह बात जान जाता है, तब विश्वास कर लेता है कि किसी एक किस्से को कैसे किसी गरुड़ और एक कौवे ने एक-दूसरे से कहा और सुना। तभी यह समझ में आता है कि पसोलिनी ने अपनी एक फ़िल्म में एक कौवे को क्यों प्रोफ़ेसर बनाया था, जो कैम्पस में अपनी खरखराती-खरोंचती हुई आवाज़ में छात्रों को साहित्य, राजनीति और समाज का सिद्धांत सिखाता टहलता था और स्टूडेंट्स उसे 'मनहूस' कहते हुए दूर भागते थे।

तो, यही वह ग़ैब या तुरीयावस्था थी कि वृक्ष हो चुके विनायक दत्तात्रेय को वह नींबू दिखाई दे गया, जिसे अब तक किसी ने नहीं देखा था। जब कि उनके बगीचे में हर रोज़ पाँच-छह लोग कभी न कभी रहे ही आते थे। वे स्वयं इस बगीचे में दिन भर में, #ऽtayHome के चलते, कई-कई चक्कर लगाते थे।

वह इस मौसम का अंतिम नींब था।

'एक्शन'

'एक्शन ...साइलेंस !'

वृक्ष के भीतर से आवाज़ आयी और विनायक दत्तात्रेय ने हाथ बढ़ा कर वह नीबू तोड़ लिया।

वह कागज़ी नींबू था। शुद्ध देशी। जो यूरोप और अमेरिका में कहीं नहीं पाया जाता।

जिसके बारे में दुनिया भर के चिकित्सक, वैद्य, हक़ीम, डाक्टर ही नहीं प्रधानमंत्री भी कह रहे थे कि इसका रस व्हान के वायरस से प्राण बचा सकता है। दि ग्रेट साइट्रस फ्रूट।


'निबुआ तले डोला रख दे मुसाफ़िर ...'


सइयां के आए कहार रे... कऽ ...हा ऽऽ र ऽ रे ऽऽऽ ...!’


विनायक दत्तात्रेय ने हिंदी या हिंदवी के आदिकवि अमीर खुसरो का गीत गाना शुरू कर दिया और उस लोकगीत बन चुकी जन-कविता के संगीत में लीन होने लगे। उन्होने नीबू को मेज़ पर रख दिया और उस नीबू को अपलक देखने लगे। टकटकी बांधे।

वह नीबू इस मौसम का अंतिम नीबू था। बाज़ार से नीबू लाना मुमकिन नहीं था क्योंकि बाहर, बाज़ार की ओर जाने वाली सड़क पर पहुँचते ही पुलिस 'दंडित' करती थी। तड़ातड़। 'दंड' तत्सम था। हिंदी या हिंदवी में वह था 'डंडा'। इतिहास तो छोटी शै है, उसका वैसे ही अंत हो चुका था। विनायक दत्तात्रेय ने तुरीयावस्था में जाकर देख लिया था कि समूची मानव सभ्यता के पुरा-काल में भी कभी इतने डंडे नहीं चले थे।


तड़ातड़... तड़ातड़...


इसीलिए अब प्राण बचाने के लिए इसी अंतिम नीबू से काम चलाना था। इसीलिए विनायक उस नीबू को प्यार से निहार रहे थे।


और यह एक बहत बड़ी गलती थी। एक भयंकर भूल। मिसटेक नहीं, बलंडर, हाऊलर।


टिक टिक टिक...


धक... धक... धक...


विनायक दत्तात्रेय नींबू बनने लगे। नीबू बनने की यह प्रक्रिया या प्रसंस्करण अजब था। शब्दातीत। अनुभवातीत| अनिर्वचनीय। हर रंग की अलग और अद्वितीय गंध होती है, यह तो विनायक दत्तात्रेय अच्छी तरह से जानते थे। हरे रंग की गंध को तो वह तमाम वनस्पतियों में खोजते और खाते-पीते ही रहते थे। गीता में उस फ़लसफ़ाकर ने कहा था – वो तो मैं ही हूं, जो हर वनस्पति के अंदर रस बन कर प्रवाहित होता हूं। मैं ही हूं, जो तुम्हारा जीवन बनता है।


लेकिन इस बार?


इस अंतिम नीबू के सामने नींबू बनते हुए, जो हरा रंग उनकी त्वचा पर फैल रहा था, इस हरे की गंध बाक़ी हरों से बिलकुल अलग थी।


'आह !'


उन्होंने गहरी साँस अपने फेफड़ों में भरते हुए कहा और ग्लोबस का ‘एन95’ मास्क उतार कर फेंक दिया। अब वे बिलकुल अरक्षित, वध्य और वलनरेबल थे।


नीबू ...!


बिलकुल प्योर, निखालिस देशी। आर्य, ज्वार, गन्ना, कपास यहाँ से बाहर गये हों या न गये हों, यह तो सिद्ध था कि नीबू तो पक्का यहीं से दूसरे देशों को गया। अपना महान निबुआ, निम्बू, नेमुआ।


उन्होने कहीं पढ़ा था कि जब कोलंबस नीबू को अमेरिका लेकर गया, उससे बहुत पहले यूनान के साम्राज्य तक स्वदेशी निबुआ की बहन-बिरादरी पहुँच चुकी थीं। इसी के रस से औषधि और विष बना करता था। यूनान की कई रानियों ने अपने प्रेमियों से मिल कर अपने पतियों को इसी से ख़त्म कर के तख्त-ओ-ताज हासिल किया था, और कई प्रेमी या प्रेमिकाओं ने इसी के रस से एक-दूसरे की जान भी बचाई थी। क्लॉडीयस का क़िस्सा।


विषस्य विषमौषधिम।


काँटे से काँटा ! पूँजी से पूंजीवाद ! समानता से समाजवाद। खल से खल ख़त्म किया जाता रहा है। शठ से शठ।


लेकिन तथागत ने तो ऐसा कभी नहीं कहा था।


तो किसने कहा था ?


नीबू बनते हुए विनायक किसी टाइम मशीन की तरह भूत और भविष्य के दिक् और काल में पहुँचे किसी अंतरिक्ष यात्री की तरह अपना सारा भार छोड़ कर, हवा से भी हल्के और अमीबा से भी अधिक सूक्ष्म हो कर किसी मात्रा के रूप में टहल रहे थे तभी अचानक उनके बगीचे की पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण ने एक ज़ोरदार धक्का मारा...


धचाक ...

धमम्म ...

धड़ाम ...!


यह धक्का किसी बहुत बड़े भूकम्प या सुनामी के धक्के जैसा था। रिचर पटरी पर नौ से ग्यारह नाप वाला भूकंप। जैसा अभी कुछ साल पहले गुजरात के कच्छ के इलाके में आया था, जिसमें हज़ारों लोग मरे थे और लाखों बे-घरबार हो गए थे, जिसका पूरा किस्सा हिंदी में हमेशा पान की गिलौरी गलियाए रहने वाले एक अपूर्व जादुई गद्यकार या असंभव रिपोर्टर ने लिखा था।


'हर भूकंप ...हर प्राकृतिक या मानव निर्मित विपत्ति का कोई न कोई 'केंद्र' या 'एपीसेंटर' जरूर होता है।


'एपीसेंटर'!' विनायक दत्तात्रेय ने सोचा...

और यह सोचना ही ग़लत हो गया

धड़ाम ...!


जैसे कोई विस्फोट हुआ और वे एक कई साल पुरानी किताब के पन्नों पर आ कर गिरे। जिस पन्ने पर विनायक दत्तात्रेय नीबू बन कर गिरे थे।


जिस पन्ने पर एक छोटी-सी कहानी किसी एंटीक फ़ोंट में मटमैले स्याही में छपी हई थी, जिसका शीर्षक था –


'मानव-भक्षक दैत्य'।


यह कहानी मूलतः तो इस्पहानी भाषा में, बीसवीं सदी के एक ऐसे अंधे महान कथाकार और कवि ने लिखी थी, जो अपने कमरे से कभी बाहर नहीं निकलता था लेकिन दुनिया के हर देश के गली मोहल्लों, लोग-बागों और देवी-देवताओं को जानता था। पृथ्वी के दूसरे छोर पर अपने छोटे से अंधेरे बंद कमरे में बैठ कर उसने अपनी 'रेत की किताब' शीर्षक कहानी की शुरुआत बीकानेर के जिप्सियों से की थी, जो रेत की किताब बेचने के लिए राजस्थान से निकल कर यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका और जाने कहाँ-कहाँ घूमते रहते थे।


लेकिन इस 'मानव-भक्षी दैत्य' शीर्षक कहानी की असलियत कुछ और ही थी। असलियत यह कि यह कहानी, उस अंधे, बूढ़े, स्थावर कथाकार ने नहीं लिखी थी। यह कहानी श्रीलंका की एक लोककथा थी, जिसे खुद श्रीलंका के सिंहली, तमिल और बौद्ध भूल चुके थे।


आह ! कैसा महान और अद्वितीय कथाकार था वह, जो बिना आँख के देखता था, बिना कान के सुनता था, बिना जीभ के सारे स्वाद जानता था और बिना दिमाग के सोचता था। सारा संसार एक कथा है। हर बार वही कथा दुहराई जाती है। हर किस्सा पहले ही कहा जा चुका है। ऐसा उसने कहा था।


तो विनायक दत्तात्रेय उस विलक्षण पुरानी किताब के पन्ने पर इस्पहानी से अंग्रेज़ी में बदल दी गयी कहानी - 'ओग्रेस' को दत्तचित हो कर पढ़ने लगे और जैसा आप जानते हैं कि विनायक दत्तात्रेय दुनिया की कोई भी अधिकृत यानी ओफ़िशियल या अधिगृहीत अर्थात् एन्स्लेव्ड अथवा गुलाम भाषा नहीं जानते थे, इसके बावजूद उनके दिमाग में कोई ऐसा सहजात मल्टी-लिंग्वल सॉफ़्टवेयर मौजूद था, जो हर भाषा को अपनी तरह से पढ़ता था, तो...


...तो नीबू ने ‘आदमखोर दैत्य' शीर्षक कहानी पढ़नी शुरू कर दी।


कहानी यह थी कि एक बार, कई-कई साल पहले, श्रीलंका में ऐसे ओग्रेस या आदमखोर दैत्य आ गये जिन्होंने वहाँ के हर मानुष को खाना शुरू कर दिया। फिर वे श्रीलंका को चट करने के बाद सारी दुनिया में फैलने लगे। बिलकुल इसी वुहान वाले इस वायरस की तरह।


इन दैत्यों को मारने की तमाम कोशिशें की गयीं, लेकिन कोई भी हथियार उनका रोयां तक न उखाड़ पाता था। वे पॉपकॉर्न की तरह, बबलगम की तरह, टोफ़ी या आइसक्रीम की तरह मनुष्यों को खाते थे और कोल्ड ड्रिंक की तरह पी जाते थे।


हाहाकार मच गया। जैसे मधुमक्खी के छत्ते पर ढेला मारने पर बदहवास मधुमक्खियाँ उड़ती-बिखरती हैं, उसी तरह लाखों-करोड़ों डरे हए लोग सड़कों पर जान बचाने के लिए भाग रहे थे और मर रहे थे। तबाही ही तबाही पसरी हई थी।


तो उसी समय हिंदुस्तान में एक अस्सी साल का बूढ़ा ऐसा था, जिसके पेट में कई दिनों से बहुत दर्द हो रहा था। ऐंठन और असह्य मरोड़ उठ रही थी। उसे मानव-भक्षक दैत्यों ने नहीं खाया था। शायद बहुत बूढ़ा और जर्जर होने की वजह से वह अखाद्य हो गया हो।


वह बूढ़ा अपने बगीचे में ठीक विनायक दत्तात्रेय की तरह जब टहल रहा था, तब उसने भी एक नीबू देख डाला था। वह नीबू भी उस मौसम का अंतिम नीबू था।


वह बीमार बूढ़ा भी काग़ज़ी नीबू की तासीर को जानता था इसलिए उसने उसे तोड़ लिया और अपने पेट के दर्द और मरोड़ से निजात पाने के लिए उसने उसे एक चाकू से काट दिया।


नीबू का कटना था कि सारे मानव-भक्षक दैत्य मच्छरों की तरह पलक झपकते मर गये। समूची पृथ्वी के मानुषों की जान बच गयी।


'आह ! चाकू !'


विनायक दत्तात्रेय चीखे।


'चक्कू ... चक्कू चक्कू ...'


नीबू के भीतर से चीख के सहारे विनायक बाहर निकल आये।


लेकिन चीख और बाहर निकलने के एक क्षणांश में उन्होने जो देखा और सुना वह बहुत डरावना, सुर्रियल और रहस्यपूर्ण था। जैसे कोई हलोवीन की गुफा या संग्रहालय।


उस अंतिम नीब के भीतर एक डरावना लोक था। वहाँ विचित्र आकार-प्रकार के नर और मादा कृत्रिम मानवाकार थे। वे सिर्फ गंदी, फाहशा, घिनौनी और हिंसक भाषा में आपस में बोल रहे थे। पचास-साठ साल की उमर के ये डरावने मानवाकार किसी भेड़िए की गुर्राहट में मेल-फ़ीमेल कोरस गा रहे थे।


यह गाना विनायक दत्तात्रेय के पिता के बचपन का मशहूर गाना था, जिसे कभी हिंदुस्तान-पाकिस्तान की महान कालजयी गायिका ने गाया था। फ़िल्म थी अनमोल घड़ी। विनायक दत्तात्रेय की शिराओं में भय की सिहरन दौड़ गयी क्योंकि अतीत का वह मधुर गीत अब ओग्रेस यानी मानव-भक्षक दैत्य गा रहे थे ;


'जवाँ है मोहब्बत हसीं है ज़माना ...

...लुटाया है दिल ने ख़ुशियों का ख़ज़ाना...

ख़ुशियों का ख़ज़ाना ...!'

गुर्र गुर्रर्र... ख़ुशियों ऽ का ऽ ऽ ऽ ख़ज़ा... ना ऽ ऽ ऽ !


वहाँ बहुत सारी लाशें थीं। बच्चों, बच्चियों, बूढ़े, बूढ़ियों, गरीब और असहाय लोगों की लाशें। मज़दूरों, कलमचियों, दर्जियों, लोहारों, मुसलमानों, फ़क़ीरों, संतों, वनवासियों-मूलनिवासियों, तमाम तरह के मज़लूम विजातियों की लाशें।


उनमें से एक अधबूढा मानवाकार एक बूढ़ी मानवाकृति के साथ गा रहा था –


'अभी तो मैं जवान हूँ ...

अब्भी तो मैं जवान हूँ ...!'


यह गाना विनायक दत्तात्रेय के जन्म से भी पहले का मल्लिका पुखराज का गाया अमर गाना था। अलिशा चिनॉय या दिल्ली के रेख्ते वाले इवेंटकारों का नहीं।


और उसी क्षणांश के हज़ारवें अंश में उस अधबूढ़े ‘ओग्रेस’ ने, जो नशे में धुत्त था और एक नन्ही-सी बच्ची को अपने पंजों में जकड़े हुआ था, विनायक दत्तात्रेय को देख लिया


'मादर ...

मादर ...

मादर ...'


वह चीख़ा और विनायक दत्तात्रेय की ओर किसी डिजिटल एनिमेटेड बाज़ की तरह झपटा ...।


यह बहुत ही नाजुक पल था।


'या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यमिधीयते। नमस्तस्यै...

...फ़ॉर यू दि मदर ऑफ गॉड, ओ मेरी, टु बी माइंडफुल ऑफ अस ...’


'चक्कू ...!'


विनायक दत्तात्रेय चीखे और उस नीबू को मेज़ पर छोड़ कर, रसोई की ओर दौड़ पड़े। किचेननाइफ़ वहीं रखा था। लेकिन बगीचे से रसोई की दूरी पैंतालीस दशमलव सत्ताईस मीटर थी। रास्ते में कुछ खर-पतवार, एक टूटी बाल्टी, एक कुदाल, दो फावड़े भी जहां-तहाँ पड़े हुए थे।  ईंट-रोड़े-पत्थर तो थे ही।


विनायक दत्तात्रेय, जैसा आप सब जानते हैं, मानव-भक्षक दैत्यों के लिए अखाद्य इसलिए थे कि उनकी उम्र सत्तर के क़रीब पहुँच रही थी। ऊपर से वुहान वाले वायरस से प्राण बचाने के लिए वृक्षासन लगाने और नीबू बनने की वजह से वे थक भी गये थे। घर-गिरस्थी की गाड़ी आधी सदी तक खींचने के कारण वे कमजोर भी हो गये थे इसलिए वे बगीचे से रसोई के रास्ते में चार बार गिरे।


उनकी नाक और घुटनों में खरोंचे लगीं। उन खरोंचों से इंसानी लहू निकला। मानवीय पीड़ा हुई।


'दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना — उन्होने मिर्जा गालिब को याद किया और आशावादी चिल्लाहट के साथ रसोई में रखे चाकू को उठा कर लौट पड़े।


अब उनके कदमों में दृढ़ता थी।


पृष्ठभूमि का संगीत और साउंड एफेक्ट बदल गया था।


'माँ तुझे सलाम !

माँ तुझे सऽ ...ला...ऽ ऽ ऽ म ...!

वंदे माऽ...तऽऽरऽऽऽ...म!’


वे ऑस्कर अवार्ड से सम्मानित, हिंदू से मुसलमान बन गये देश के सबसे प्रतिभाशाली और देश के मनोरंजन इंडस्ट्री के सबसे महान अर्बन नेशनल लोकगायक ए आर रहमान का इंडिया गेट में गाया गाना गा रहे थे।


उन्हें दृढ़ विश्वास था कि जैसे ही वे उस मेज़ पर रखे इस मौसम के अंतिम नीबू को चाकू से काटेंगे, सारे के सारे ओग्रेस या आदमखोर दैत्य मच्छरों की तरह चट से मर जायेंगे और वुहान वाले वायरस से इस पृथ्वी के सारे मनुष्य बच जायेंगे।


क्योंकि इस संक्रामक वायरस के प्राण उसी अंतिम नीबू के अंदर है।


उन्होने चाकू को कस कर पकड़ लिया और मेज़ की ओर बढ़े।


टिक टिक टिक...


थप थप थप


लेकिन

पर, होनी को तो कुछ और ही होना था।


अंतिम नीबू उस मेज़ से गायब था।


उसे कोई ले गया था। या वह ख़ुद ही भाग गया था।


अगर आप कहीं विनायक दत्तात्रेय को कहीं मास्क लगाए भटकते हए देख सकें और उन्हें पहचान लें तो जान लीजिये कि वे उस 'अंतिम नीबू' की खोज़ में बैचन भटक रहे हैं।

हो सके तो उनकी मदद करें।

भाषा के भीतर ही वह अंतिम नींबू है, जिसके अंदर मानवभक्षक ओग्रेस की जान है। ओग्रेस या आदमखोर दैत्य मानव सभ्यता की सबसे अश्लील और हिंसक गालियों का इस्तेमाल करते हैं। उन्हें पहचाना जा सकता है। क्योंकि भाषा ही हर किसी की मौलिक व्यावहारिक चेतना है।

अगर वह 'अंतिम नींबू’ कहीं दिखे, तो बिना विनायक दत्तात्रेय का इंतज़ार किए, आप ख़ुद उसे किसी चाकू से काट डालें। सारे वायरस के दैत्य मच्छरों की तरह मर जाएंगे और भाषा बच जाएगी।

भाषा बची तभी जीवन बचेगा। 

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समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

जीवन प्रबंधन को जानना भी क्यों जरूरी है

            जीवन प्रबंधन से जुड़ी सात बातें

तीन महत्वपूर्ण कथाकार राजेन्द्र लहरिया, मनीष वैद्य, हरि भटनागर की कहानियाँ ( कथा संग्रह सताईस कहानियाँ से, संपादक-शंकर)

  ■राजेन्द्र लहरिया की कहानी : "गंगा राम का देश कहाँ है" --–-----------------------------  हाल ही में किताब घर प्रकाशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण कथा संग्रह 'सत्ताईस कहानियाँ' आज पढ़ रहा था । कहानीकार राजेंद्र लहरिया की कहानी 'गंगा राम का देश कहाँ है' इसी संग्रह में है। सत्ता तंत्र, समाज और जीवन की परिस्थितियाँ किस जगह जा पहुंची हैं इस पर सोचने वाले अब कम लोग(जिसमें अधिकांश लेखक भी हैं) बचे रह गए हैं। रेल की यात्रा कर रहे सर्वहारा समाज से आने वाले गंगा राम के बहाने रेल यात्रा की जिस विकट स्थितियों का जिक्र इस कहानी में आता है उस पर सोचना लोगों ने लगभग अब छोड़ ही दिया है। आम आदमी की यात्रा के लिए भारतीय रेल एकमात्र सहारा रही है। उस रेल में आज स्थिति यह बन पड़ी है कि जहां एसी कोच की यात्रा भी अब सुगम नहीं रही ऐसे में यह विचारणीय है कि जनरल डिब्बे (स्लीपर नहीं) में यात्रा करने वाले गंगाराम जैसे यात्रियों की हालत क्या होती होगी जहाँ जाकर बैठने की तो छोडिये खड़े होकर सांस लेने की भी जगह बची नहीं रह गयी है। साधन संपन्न लोगों ने तो रेल छोड़कर अपनी निजी गाड़ियों के जरिये सड़क मा