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पंकज स्वामी की कहानी गणितज्ञ, रश्मि शर्मा की कहानी : "और वही ख्वाहिश" देवेश पाथ सरिया की कहानी: लेनेट और वह तस्वीर , सोनल की कहानी चस्का पर कुछ टिप्पणियां

 ■पंकज स्वामी रचित एक नए कलेवर की कहानी "गणितज्ञ"

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पंकज स्वामी गम्भीर कथाकार हैं, पहल के सहायक संपादक भी रहे हैं। परिकथा जनवरी फरवरी २०२१ अंक में   उनकी कहानी "गणितज्ञ" पढ़ते हुए पाठकों को ऐसा महसूस हो सकता है कि यह कहानी बहुत सहज और सरल कहानी है।कई बार ऐसा भी लग सकता है कि यह कहानी है भी या नहीं। पर कहानी जब खत्म हो जाती है तब उसका असर हमारे भीतर धीरे धीरे होने लगता है। दरअसल कुछ कहानियां विमर्श की मांग करती हैं । कुछ कहानियों पर बौद्धिक हो जाने का आरोप भी मढ़ दिया जाता है। पर इन सबके बावजूद कहानी अपने डेस्टिनेशन पर जब पहुंचती है तो अपना समग्र प्रभाव मन पर छोड़ने लगती है। गणितज्ञ कहानी भी मेरी नजर में कुछ इसी किस्म की कहानी है जिसमें  गणितज्ञ और वैज्ञानिक परितोष कुमार के माध्यम से समाज के नजरिए को मापा गया है। समाज किस सतहीपन में जीता है यह कहानी उसे दमदारी से सामने रखती है।

आज का यह समाज परितोष कुमार जैसे महान बुद्धिजीवी, गणितज्ञ एवं वैज्ञानिक का सम्मान करना तो नहीं जानता पर उनके पुत्र रवि तोष कुमार जो कि एक प्रसिद्ध कोचिंग इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर हैं, से इसलिए नजदीकियां रखने की इच्छा रखता है क्योंकि ऐसे संस्थानों में वह अपने बच्चों को भेज कर भविष्य के सुनहरे सपनों को साकार कर लेने की उम्मीद रखता है।

समाज के इस बाजारू दृष्टिकोण को कहानी में उद्धृत निम्न प्रसंगों के माध्यम से बेहतर ढंग से जाना समझा जा सकता है-- 

१.

"परितोष कुमार तो बहुत पहले गुजर चुके थे। बस औपचारिक घोषणा आज ही हुई है। उनकी मौत तो उस समय ही हो गई थी जब उनके कामों की समाज ने फिक्र नहीं की। समाज और परिवार को उनका काम समझ में नहीं आया । उनके काम को जानने समझने की असफल कोशिश तक नहीं की गई। दरअसल हमारे समाज को अपनी प्रतिभाओं की रचनाओं से कोई सरोकार नहीं है। समाज तो प्रतिभाहीनों को भी सिर पर बैठाने का आदी रहा है।"

२.

रवि तोष कुमार सोचने लगा... पागल हो जाना तीक्ष्ण प्रतिभा का द्योतक नहीं है, जैसा कि यह समाज समझता है। आदमी पागल इसलिए हो जाता है क्योंकि उसे समझने वाला, समाज में उसे कोई नहीं दिखता । उसके पिताजी यह समझते थे कि विज्ञान पढ़कर अवैज्ञानिकता की सेवा करने वाला और गणित पढ़ने के नाम पर पेट दर्द के बहाने बनाने वाला समाज अपढ़, कुपढ़ आलसी और ज्ञान भीरू समाज है। इस समाज में अपने बच्चे का परितोष कुमार होना किसी को स्वीकार्य नहीं है।

३.

रवि तोष कुमार सोचने लगा.. हमारा समाज गणित का मतलब लाभ हानि और ब्याज मापने तक समझना चाहता है । वह समझ रहा है कि शव यात्रा में जो भी है वह परितोष कुमार के सम्मान में नहीं बल्कि मैथ्स कोचिंग इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर रवि तोष कुमार के साथ संबंध बताने के लिए जुटी है। रवि तोष कुमार ने सोचा कि ठीक ही है कि उसके पिता को मोक्ष मिल गया। उनके थिसिस शायद इस देश के खत्म होने तक इस समाज को समझ में ना आए। यह समाज श्रुति परंपरा का समाज है। उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी बताया जाता है कि कौन महान है और कौन नहीं। ऐसा समाज मूर्तियां गढ़ता है।  जीते जी और मरने के बाद बस माला पहनाता है। महान बनाता है। फर्क इतना है कि कोई जीते जी महानता को प्राप्त हो जाता है और कोई मरने के बाद। सत्ताएं बदलती हैं , पीढ़ी बदलती है, तो इस कहा सुनी में समाज के नायक भी बदल जाते हैं। एक चीज बस नहीं बदलती है, अपढ़ रहने की सामूहिक क्षमता।

नए कथ्य पर बुनी गई यह कहानी नए विमर्श की ओर ले जाने की कोशिश करती है। आज इस तरह की कहानियां लिखे जाने की सख्त जरूरत है। 


■देवेश पाथ सरिया की कहानी: लेनेट और वह तस्वीर 

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देवेश एक अच्छे युवा कवि हैं।महीन दृष्टि और भाषा की कलात्मकता से जुड़े तमाम टूल्स का अपनी कविता में  बड़ी कुशलता के साथ वे उपयोग भी करते हैं।

हंस के मई 2022अंक में उनकी एक कहानी " लेनेट और वह तस्वीर " प्रकाशित है जो संभवतः उनकी पहली कहानी है ।

यह कहानी बहुत लंबी कहानी नहीं है पर इस कहानी को पढ़ते हुए एक अतिरिक्त कंसंट्रेशन की जरूरत महसूस होती है । एक युवक और एक युवती के बीच संवाद और उनके आसपास की दुनिया को स्थूल और सूक्ष्म रूप में प्रस्तुत करती हुई यह कहानी अपने कहानीपन, आसपास की घटनाओं की महीन बुनावट और चमत्कारिक रूप में बरती गई भाषायी कुशलता के कारण इसे पढ़ते चले जाने को मन में एक रुचि पैदा करती है।

कहानी के संवाद पेंटिंग्स पर केंद्रित चर्चा के माध्यम से आगे बढ़ते हैं ।

अक्सर ऐसा होता है कि हम अपने जीवन में कई बार अपरिचित लोगों से मिलते हैं, उनके साथ तमाम तरह की बातें होती हैं । इन बातों में तकनीक होता है, कला होती है साहित्य होता है । इन सब को लेकर हम संवाद करते हैं पर इस संवाद में व्यक्ति कहीं छूट जाता है ।

कहानी के कथ्य को लेकर कई डाइमेंशन्स हो सकते हैं पर कहानी का सूत्रधार जो एक युवक है वह लेनेट से मिलता तो है, पेंटिंग्स को लेकर उससे उसका  संवाद भी होता है । वे एक साथ जापान स्थित भारतीय रेस्त्रां में जाकर खाना भी खाते हैं पर युवक को अंत में यह एहसास होता है कि वह लेनेट को तो जानता ही नहीं है। दीवार में चिपकी हुई कोई तस्वीर है जिस पर एक लंबी चर्चा इस कहानी में है, जिसे की 2 घंटे में ही वहां की सत्ता के आदेश पर उतार दिया जाता है। युवक  उस शख्स के बारे में भी कुछ नहीं जानता जिसकी यह तस्वीर है। उस बारे में भी उसको कुछ पता नहीं कि आखिर सत्ता को कौन सी बात पसंद नहीं कि उस शख्स की तस्वीर को वहां से हटाया जाता है।

हमारे खुद के जीवन में भी इन चीजों को हम महसूस करते हैं । जीवन में आए हुए कितने लोगों के बारे में हम कुछ भी नहीं जानते पर उनके होते इस बात का एहसास हमें नहीं रहता । जब लोग छूट जाते हैं तब लगता है कि उनके बारे में हम कुछ नहीं जानते।

लेनेट को लेकर भी कहानी के  युवक का अनुभव कुछ इसी तरह का है जो आम लोगों के जीवन अनुभव से जाकर कहीं जुड़ जाता है। ऐसे अमूर्तन और सूक्ष्म विषय को कहानी के कथ्य के रूप में प्रस्तुत करना एक चुनौती भरा काम है पर सूक्ष्म घटनाओं को जोड़कर उनकी कुशल प्रस्तुति और संवादों की भाषायी कलात्मकता से देवेश ने इस चुनौती को आसान किया है। ऐसा भी लगता है कि उनकी कविता की साधना ने इस कहानी को लिखने में उनका साथ दिया है।


■रश्मि शर्मा की कहानी : "और वही ख्वाहिश"

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"और वही ख्वाहिश" रश्मि शर्मा की कहानी है जो कृति बहुमत के नवम्बर 2021 अंक में है।

आलोक और सत्या इस कहानी के दो ऐसे पात्र हैं जो कथा में मन के भीतर प्रेम की धूमिल होती इच्छाओं को अपने सीने में दबाए अपने रास्तों पर  विलग  हो चुके नायक नायिकाओं की तरह पाठकों को अपनी उपस्थिति का एहसास कराते हैं । जीवन की बड़ी-बड़ी आकांक्षाएं जो बाजार की उपज हैं,जीवन में प्रेम पर देखते देखते कब भारी पड़ने लग जाती हैं कि कहा नहीं जा सकता।आज के समय में युवक युवतियों  के जीवन की यह आम कहानी है कि प्रेम के बिछौने पर जो रिश्ते कायम हो सकते थे वे  रिश्ते भी इन बड़ी बड़ी आकांक्षाओं के बोझ तले जन्मने से पहले ही दम तोड़ देते हैं । सुख सुविधाएं, बड़ी-बड़ी आकांक्षाएं कभी भी प्रेम का विकल्प नहीं हो सकतीं। जीवन में वह समय भी आता है कि मन के भीतर अतृप्त आकांक्षाएं तो बची रह जाती हैं पर प्रेम छिटक कर जीवन से इतना दूर चला जाता है कि जीवन एक मरूभूमि में तब्दील हो जाता है। इस कहानी में भी एक शादीशुदा कुंठित और अवसाद ग्रस्त कथानायिका सत्या के साथ कुछ इसी तरह की बातें जुड़ी हुई हैं। वर्षों बाद आलोक की मुलाकात सत्या से जब उसके मायके में होती है तब सत्या की बातचीत और उसके व्यवहार में आए परिवर्तन से आलोक थोड़ा अचंभित होता है। 

"मुझे मोदी से प्यार है"  , "मुझे धोनी से प्यार है" इस तरह के कथन जब आलोक सत्या की जुबान से सुनता है तो उसे समझ में नहीं आता कि आखिर उसे हो क्या गया है? उटपटांग से लगने वाले इन कथनों को लेकर उसके मन में कई तरह के सवाल होते हैं। 

" क्या वह अपने शादीशुदा जीवन से खुश नहीं है?" सत्या से आलोक जब यह सवाल पूछता है तो सत्या उसके ऊपर बिफर पड़ती है। इस व्यवहार पर आलोक नाराज नहीं होता बल्कि उस पर उसे दया आने लगती है। वह तो यह सोच कर उससे मिलने आया था कि सत्या के जीवन में सब कुछ अच्छा होगा। पढ़ लिख कर वह अब तक एक बड़ा अधिकारी बन चुकी होगी। यह सब कुछ उसके मन में इसलिए बना रहता है क्योंकि सत्या की मूल छवि एक  महत्वाकांक्षी और ऊंची आकांक्षाओं वाली लड़की के रूप में उसके भीतर बनी हुई होती है।अरसे बाद, जीवन में बहुत बिखरी बिखरी, कुंठित और अवसादग्रस्त  सत्या से जब उसकी मुलाकात होती है तब भी सत्या के भीतर अतृप्त आकांक्षाओं की ध्वनि जब उसे सुनाई देने लगती है तो वह निराशा से भर उठता है। 

"मुझे मोदी से प्यार है"  , "मुझे धोनी से प्यार है"

सत्या के इन कथनों में मोदी और धोनी बाजार में चमक-दमक वाली बड़ी-बड़ी इच्छाओं, आकांक्षाओं के प्रतीक हैं जिनके प्रति जीवन में असफल और प्रेम से चुकी हुई नायिका का आकर्षण अब भी बरकरार है।अच्छी शैली और बेहतर बुनावट के साथ एक गम्भीर विमर्श की राह पकड़ती यह कहानी युवाओं के जीवन में बाजार से उपजी एक गम्भीर विडंबना की ओर इशारा करती है जिनके जीवन से प्रेम धीरे धीरे विलुप्त होता जा रहा है।


■सोनल की कहानी:  चस्का 

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परिकथा मई जून 2021 अंक में प्रकाशित 'चस्का' कहानी के माध्यम से सोनल निम्न वर्ग में नासूर की तरह पसरती जा रही एक ऎसी समस्या को रेखांकित करती हैं जिस पर अमूमन लोगों की नजर जाते हुए भी  नहीं जाती।

आज का बाज़ार इतना लुभावना है कि वह हर आदमी को अपनी ओर आकर्षित करता है।क्या अमीर ,क्या गरीब .... हर आदमी आज उस जीवन को जीना चाहता है जिसमें श्रम न करना पड़े और अधिक से अधिक सुविधाओं को उठाया जा सके। आधुनिक खान पान, आधुनिक सुख सुविधाओं की तरफ आज की दौड़ ने निम्न वर्ग को इस तरह अपनी गिरफ्त में लिया है कि वे अपने परम्परागत श्रम मूल्यों को भूलने लगे हैं । उनकी दिशा उस तरफ है जो उन्हें नाकारा और बदहाली की ओर ले जाने के लिए पर्याप्त है।संसाधनों के अभाव के बावजूद आदमी को वह सब कुछ चाहिए जो एक साधन संपन्न आदमी की दुनियां में दृश्यमान हैं।चाहे इसके लिए अपने परम्परागत पारिवारिक मूल्यों को ही क्यों न छोड़ना पड़े। यही समस्या उन्हें एक दिन छोटे बड़े  अपराधों की ओर भी ले जाती है।

कहानी का पात्र राजेंद्र भी उसी निम्न वर्गीय समाज का प्रतिनिधित्व करता है । उसके सपने में गाँव की खेतीबाड़ी की जगह शहर की चकाचौंध है । खेती बाडी छोड़ गाँव से वह रोज सुबह अपनी साईकिल से खजुराहो शहर आता है और वहां घूम घूम कर पर्यटकों को अपनी बातों से लुभाता हुआ किताबें बेचता है । एक ऐसा काम जिसमें परिवार के गुजर बसर हो जाने की दूर दूर तक कोई उम्मीद नहीं । उसे हमेशा उस विदेशी पर्यटक का इन्तजार रहता है जिसने उसे अपने प्रवास पर साथ रखते हुए उसके भीतर उसी आमोद प्रमोद वाले जीवन को जीने का चस्का उत्पन्न कर दिया है।

मुझे लगता है कथा लेखिका ने जरूर अपने अनुभवों से इस कहानी को लिखा होगा।  

कहानी में उस पात्र के जीवन को करीब से देखने का वे आभास भी कराती हैं । उनके बीच के संवाद कहानी में बहुत रोचक हैं। कथा पढ़ते हुए उस मनः स्थिति से भी हमारा सामना होता है जब उस विदेशी पर्यटक के बिना भी वह पात्र किस तरह उस जीवन को जीने के लिए आतुर है |कहानी में  होटल के भीतर का दृश्य है, वहां घटित एक घटना से इस कहानी को देखने की हम कोशिश करें -

#'कुछ देर में राजेन्द्र उठा और हमारी टेबिल के पास से गुजरता हुआ सीधे कैफे के रिसेप्शन पर पहुँच गया। उसकी चाल और गंध बता रही थी कि वह नशे में है। ‘हम तुमाये संगे चलेंगे मोटरसाइकल से... आज हम साइकल नहीं लाये हैं.।’उसने रिसेप्शन पर खड़े एक कम उम्र लडके से अधिकार के साथ कहा। वह लड़का राजेन्द्र के गाँव का ही होगा।‘हाँ ठीक है, तुम जाओ बाहर अभी।’‘क्यों... काये जाएँ बाहर...’ राजेन्द्र एकाएक अकड़ सा गया।‘ तुमाओ बाप को है जे... ग्राहक हैं हम भी, यहीं डिनर करेंगे।’‘तुम जाओ बाहर... तुम ने ज्यादा पी लई है, राजू’ लड़के ने कुछ धीमी लेकिन चिढ़ भरी आवाज में कहा।‘नहीं जायेंगे।’तभी कैफे के गार्ड का सख्त हाथ राजेंद्र की गर्दन पर आ गया। गार्ड उसे बाहर की ओर खींचने लगा और राजेंद्र की निगाह मुझ पर पड़ी। मेडम जी, गुड इवनिंग...।वह फिर रिसेप्शन की और मुड़कर बोला, ‘जे मेडम जी ने हमें पैसा दए और हमने पी...तुमाये बाप की...।’ वह गालियाँ दे रहा था।मैं पशोपेश में पड़ गयी। लेकिन यह कहने से तो अपने को रोक नहीं सकी,‘छोड़ दो उसे... इस तरह गर्दन तो मत पकड़ो...।’गार्ड ने गर्दन छोड़कर उसका हाथ पकड ़लिया। मेरी तरफदारी से शायद राजेद्र कुछ होश में आया। वह रुंआसा हो गया, ‘मेडम जी, जे लोग बहुत बेईमान हैं स्कोट सर के साथ हम यहीं खाना खाते थे रोज...लंच... डिनर... तब हम बुरे नहीं लगे... हमारे साहब अभी जा साल आ नहीं पाये जासे... जब आयेंगे तो हम बतायें।

सस्ती शराब की गंध उड़ाता फटेहाल राजेन्द्र राजा कैफे की चमचमाती लाइटों में एक अजूबा पात्र लग रहा था। देशी-विदेशी आभिजात स्त्री पुरुष मुड़-मुड़कर यह तमाशा देख रहे थे। गार्ड भी मेरा लिहाज कब तक करता।‘चल हो गयी तेई कहानी... साहब को राग गाबो बंद कर...।’ उसने राजेन्द्र को बाहर ठेलते हुए कहा। राजेन्द्र ने इस बार विरोध नहीं किया। वह शर्ट की बाँह से आँसू पोछते हुए अपने आप बाहर चला गया। मैंने वेटर को बुलाकर कहा, ‘एक प्लेट पुलाव उसे पहुँचा दो, प्लीज।’गार्ड उसे फूड पेकेट देकर लौटा तो हमारी टेबिल के पास रुक गया। इस बार उसका स्वर सहानुभूति से भरा था,कहने लगा... मेडम जी कछु नई है जे अंग्रेज आत हैं इते, इन्हें मुँह लगा लेत हैं। साथ घुमाए... रेस्टोरेंट में खिलाएँ... सराब पिलायें... काये से के बिने कोई साथ चईयें।दो चार डालर में तो जे दिन भर साहब मेडम के पीछे डोलत फिरें... उनकी डाँट-मार खाएँ और जब बे सोरी कहें तो उनके गले लग जाएँ... उनके देस में र्कोइ मिलत नहीं है ऐसो उने...। गार्ड की वर्दी में मूँछों वाला वह प्रोढ़ आदमी एक गहरे अपनत्व से भरकर कहे जा रहा है... साहब तो लगा के चस्का चले जात हैं इने। फिर इनसे कोई काम बनत नइ है... ये बरबाद हो जात हैं,न जे खेती करें, न मजूरी... रोटी मिले ना मिले... बाल बच्चा पढ़ें न पढ़ें... चाहे बीबी भाग जाए। इनको तो सुबह से रात तक झई डोलने हैं ।'#

बहरहाल दृश्यों की स्वाभाविकता , अपनी साधारणता और रोचक शैली, साथ ही एक नए कथ्य की ओर ले जाती यह कथा मुझे हर नजरिये से अच्छी और रोचक लगी।

कहानियों की भीड़ में कोई कहानी अच्छी लगे, चाहे वह किसी भी रचनाकार की कहानी हो, उस पर विमर्श होना चाहिए।

रमेश शर्मा

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■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

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            जीवन प्रबंधन से जुड़ी सात बातें

तीन महत्वपूर्ण कथाकार राजेन्द्र लहरिया, मनीष वैद्य, हरि भटनागर की कहानियाँ ( कथा संग्रह सताईस कहानियाँ से, संपादक-शंकर)

  ■राजेन्द्र लहरिया की कहानी : "गंगा राम का देश कहाँ है" --–-----------------------------  हाल ही में किताब घर प्रकाशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण कथा संग्रह 'सत्ताईस कहानियाँ' आज पढ़ रहा था । कहानीकार राजेंद्र लहरिया की कहानी 'गंगा राम का देश कहाँ है' इसी संग्रह में है। सत्ता तंत्र, समाज और जीवन की परिस्थितियाँ किस जगह जा पहुंची हैं इस पर सोचने वाले अब कम लोग(जिसमें अधिकांश लेखक भी हैं) बचे रह गए हैं। रेल की यात्रा कर रहे सर्वहारा समाज से आने वाले गंगा राम के बहाने रेल यात्रा की जिस विकट स्थितियों का जिक्र इस कहानी में आता है उस पर सोचना लोगों ने लगभग अब छोड़ ही दिया है। आम आदमी की यात्रा के लिए भारतीय रेल एकमात्र सहारा रही है। उस रेल में आज स्थिति यह बन पड़ी है कि जहां एसी कोच की यात्रा भी अब सुगम नहीं रही ऐसे में यह विचारणीय है कि जनरल डिब्बे (स्लीपर नहीं) में यात्रा करने वाले गंगाराम जैसे यात्रियों की हालत क्या होती होगी जहाँ जाकर बैठने की तो छोडिये खड़े होकर सांस लेने की भी जगह बची नहीं रह गयी है। साधन संपन्न लोगों ने तो रेल छोड़कर अपनी निजी गाड़ियों के जरिये सड़क मा