सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

दैनिक न्यूज़ मेगेज़ीन 'सुबह सवेरे' भोपाल एवम इंदौर एडिशन में प्रकाशित कहानी ■ अधूरी चिठ्ठी , लेखक-रमेश शर्मा

■ अधूरी चिठ्ठी 

-------------------------------------------------------------------सड़क के किनारे अपने कदमों को बढाता हुआ वह चल रहा था । थका-मांदा उदास । मन में विचार आ-जा रहे थे। यह क्रम है कि खत्म ही नहीं हो रहा था । इस अजनबी शहर ने उदासी और हताशा के सिवाय उसे आज तक कुछ दिया ही नहीं। फिर भी यहाँ से जाने को उसका मन आखिर क्यों नहीं होता ? यह एक अजीब सा सवाल था जो चलते-चलते उसके मन में उठने लगा था । वह जाना भी चाहे तो आखिर कहाँ जाए ? जाने के लिए कोई जगह भी तो नियत हो।

उसके मन में उपजे इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। जवाब के फेर में पड़े बिना ही वह चला जा रहा था। फरवरी का महीना। आसमान में धूप खिली हुई।एक बात अच्छी घट रही थी कि देह पर पड़ने वाली धूप की आंच देह को भली लग रही थी।सुबह के दस बज रहे होंगे जब इस तरह सडकों पर वह भटक रहा था। 

नज़र उठाकर उसने इधर उधर देखा ....सड़क किनारे रखे कचरे के डिब्बे पर चढ़कर बच्चे खेल रहे थे। उनकी देह पर मैले कुचैले कपड़े न जाने कब से पड़े थे । उनके लिए यह सिर्फ खेल भर नहीं था । खेल के साथ साथ वे अपनी जरूरत की चीजें भी वहां ढूँढ़ रहे थे।उसने गौर से देखा ...एक बच्चा ब्रेड के फेंके गए पेकेट से बचे हुए ब्रेड निकाल कर मुंह में भर रहा था। एक बच्चा कूड़े से बीन बीन कर अपनी जेब में कुछ रखे जा रहा था । एक बच्चे के हाथ में एक बंद लिफाफा था, जो संभवतः उसी कचरे के डिब्बे से उसे मिला था।वह बच्चा बेमन से उसे उलट-पुलट कर देख रहा था । उसके बाल मन ने जब तय कर लिया कि यह लिफाफा उसके किसी काम का नहीं , तब उसने उसे सड़क किनारे ही फेंक दिया । बच्चों की सारी गतिविधियों को कुछ देर खड़े होकर देखने में उसे बेचैनी सी महसूस होने लगी थी । हंगर इंडेक्स के आंकड़े उसकी आँखों के सामने नाचने लगे थे । यूँ ही बेमन से चलते हुए जब फेंका हुआ लिफाफा उसके कदमों के सामने आ गिरा तब उस लिफ़ाफ़े को उठाकर उसने अपने पास रख लिया । उस वक्त इस शहर से ज्यादा इस शहर के लोगों के बारे में वह सोच रहा था।

“ गरीब बच्चे अपनी जरूरत की चीजें कचरे के ढेर पर तलाशते हुए क्यों दीख जाते हैं ?” जब इस सवाल में निहित दृश्य उसकी आँखों के सामने पहली बार दिखायी पड़ा था तब तकरीबन वह दस साल की उम्र का रहा होगा। पिता बहुत पहले दुनिया छोड़ गए थे । तब माँ के हिस्से उसकी सारी जिम्मेदारी थी। यह उन दिनों की घटना थी जब वह अपने कस्बे में रहता था । वह स्कूल जाता और माँ दूसरों के घरों में बर्तन और झाडू पोंछा का काम करती । शाम आते आते वह जब थककर निढाल हो जाती तब वह माँ के पांव दबा देता था। जिन्दगी की बस यही छोटी सी कहानी उनदिनों थी। वह नहीं चाहता था कि उसके जीवन की कहानी बड़ी होकर विस्तारित होने लगे । पर जीवन की कहानी कभी न कभी बड़ी तो हो ही जाती है। कहानी सुख दुःख को साथ लेकर ही विस्तारित होती है । सुख के आने के आसार जीवन में कम थे । जब कहानी बड़ी हुई तो बड़े दुःख ने अनायास जीवन में प्रवेश किया । काम का बोझ ज्यादा रहा या दुःख एवं बीमारी का दंश कि माँ अचानक एक दिन चल बसी । जीवन में अनायास हुए बदलावों ने जीवन की छोटी सी कहानी को एकदम बड़ा बना दिया । जीवन की वह कहानी फिर दिनोंदिन बड़ी होती चली गयी । अनगिनत घटनाएं, अनगिनत प्रसंग । इस कहानी में दस साल की उम्र में आँखों में समाया वह दृश्य अपनी जगह पर आज भी स्थिर है । कभी इस दृश्य का हिस्सा उसे भी बनना पड़ा था, यह सोचकर ही उसके पसीने छूट गए। चलते-चलते एक छाँव वाली जगह पर वह बैठ गया। बच्चे के हाथ से फेंका गया वह लिफाफा अब उसके हाथ में था । उस बिना पता लिखे लिफ़ाफ़े के भीतर रखी चिट्ठी को खोलकर वह अनिच्छा से पढ़ने लगा । यह किसी प्रेमी की चिट्ठी थी जो उसने अपनी प्रेमिका के लिए लिखी थी । पत्र पढ़ते पढ़ते वह भावुक हो रहा था।

'चिठ्ठी लिखी तो है मैंने पर तुम तक पहुँच नहीं सकती!यह अनुपयोगी ही रह जाएगी । तुम इतनी दूर हो चुकीं मुझसे कि कोई डोरी अब तुम्हें मुझसे जोड़ नहीं सकती !' 

आगे चिठ्ठी में आड़ी तिरछी रेखाएं बनी हुई थीं। उन रेखाओं से आसमान में उड़ती हुई एक लड़की का चित्र बन रहा था । उसे एकबारगी महसूस हुआ कि चिट्ठी लिखने वाला कोई चित्रकार रहा होगा । इन चित्रों के ऊपर दाग धब्बे उभर आये थे । दाग धब्बों के लिए जिम्मेदार नमी आँखों की थी या मौसम की , इसके राज उन दाग धब्बों में ही दफन थे। लड़की उसके जीवन से भर दूर हुई थी या इस दुनिया से , उसकी समझ से सारी चीजें परे होती गयीं थीं । चिठ्ठी एक रहस्य और वेदना को लिए लिफ़ाफ़े में कैद होकर कचरे के डिब्बे में फेंकी गयी थी । पहली बार जिस बच्चे ने इस चिठ्ठी को कचरे के डिब्बे से उठाया था संभव है वह भी इसी तरह किसी के द्वारा फेंका गया हो । कचरे के डिब्बों में जीवन ढूँढने वाले बच्चे अक्सर अनाथ ही होते हैं। 

'दुनिया में बहुत सारी चीजें इसी तरह फेंक दी जाती हैं' यह सोचकर ही वह कुछ देर के लिए सहम गया ! चीजें कैसे अनुपयोगी हो जाती हैं , यहां तक बच्चे भी ! चिट्ठी पढ़कर अचानक उसे अपने कस्बे की याद हो आयी । उसका अपना कस्बा भी तो कब का उठाकर उसे फेंक चुका। माँ गयी तो उसका कस्बा भी उसकी हाथ से रेत की तरह फिसल गया । किसी ने उसे पनाह नहीं दी। निष्ठुर लोग और एक निष्ठुर सा कस्बा ! पंद्रह साल का बच्चा अकेले करे तो क्या करे ? पेट की समस्या अलग। फिर एक दिन शहर के स्टेशन से गुजरती छुक छुक करती रेल गाड़ी ने उसे अपनी गोदी में बिठाकर यहाँ पहुंचा दिया । एक तेल मिल के मालिक की नज़र उस पर पड़ी।उसने उसे पनाह दी । शायद इसलिए पनाह दी उसने कि वह उसके काम का निकला । उसके मुनाफे में उसकी भूमिका थी । वह उसे कई बार डांटता, गाली गलौज भी करता। जीने के लिए उसने सहना भी सीख लिया था। जीवन की गाड़ी रेंगती रही धीरे धीरे । वह तो जीवन की कहानी को बहुत छोटा रखना चाहता था पर वह थी कि हर बार बड़ी होती गयी थी । इतने सालों बाद अब यहाँ से भी उसे फेंकने की तैयारी मिल मालिक ने कर ली है । उसने अपना मिल बंद करके कोई ज्यादा मुनाफे का बिजनेस सोच लिया है । वह कह चुका कि उस बिजनेस में उसकी कोई उपयोगिता नहीं । अब अचानक वह उसकी नज़र में अनुपयोगी कचरे में तब्दील हो गया है । आखिर अब वह कहाँ जाए ? कौन सा कस्बा तलाशे? लोग अचानक इतना संवेदनहीन, इतना निष्ठूर कैसे हो जाते हैं ? वह कुछ भी समझ पाने की स्थिति में नहीं था । 

चिठ्ठी पढ़ते और अपने बारे में यह सब सोचते हुए उसे झपकी सी आ गयी थी। उसकी आँखें अचानक खुलीं तो लगा कि वह भी तो एक अधूरी चिठ्ठी की तरह है जिसे समय ने लिखा। समय भी किसी चित्रकार से कम थोड़े ही है । इस चित्रकार की लिखी यह चिठ्ठी किस जगह फेंकी जाएगी और किस बच्चे के हाथ लगेगी , वह कुछ नहीं जानता। वह यह भी नहीं जानता कि    चिठ्ठियों के इस तरह अधूरे रह जाने पर दुनिया में कोई आहत होता भी है या नहीं ।       

-----------------------------------------------------------

टिप्पणियाँ

  1. अधूरी चिट्ठी , एक अच्छी और सम्वेदन शील कहानी है, हार्दिक बधाई शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुक...

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज...

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विच...

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवा...

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सो...

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहान...

डॉ. चंद्रिका चौधरी की कहानी : घास की ज़मीन

  डॉ. चंद्रिका चौधरी हमारे छत्तीसगढ़ से हैं और बतौर सहायक प्राध्यापक सरायपाली छत्तीसगढ़ के एक शासकीय कॉलेज में हिंदी बिषय का अध्यापन करती हैं । कहानियों के पठन-पाठन में उनकी गहरी अभिरुचि है। खुशी की बात यह है कि उन्होंने कहानी लिखने की शुरुआत भी की है । हाल में उनकी एक कहानी ' घास की ज़मीन ' साहित्य अमृत के जुलाई 2023 अंक में प्रकाशित हुई है।उनकी कुछ और कहानियाँ प्रकाशन की कतार में हैं। उनकी लिखी इस शुरुआती कहानी के कई संवाद बहुत ह्रदयस्पर्शी हैं । चाहे वह घास और जमीन के बीच रिश्तों के अंतर्संबंध के असंतुलन को लेकर हो , चाहे बसंत की विदाई के उपरांत विरह या दुःख में पेड़ों से पत्तों के पीले होकर झड़ जाने की बात हो , ये सभी संवाद एक स्त्री के परिवार और समाज के बीच रिश्तों के असंतुलन को ठीक ठीक ढंग से व्याख्यायित करते हैं। सवालों को लेकर एक स्त्री की चुप्पी ही जब उसकी भाषा बन जाती है तब सवालों के जवाब अपने आप उस चुप्पी में ध्वनित होने लगते हैं। इस कहानी में एक स्त्री की पीड़ा अव्यक्त रह जाते हुए भी पाठकों के सामने व्यक्त होने जैसी लगती है और यही इस कहानी की खूबी है। घटनाओ...

जीवन के उबड़ खाबड़ रास्तों की पहचान करातीं कहानियाँ

जीवन के उबड़ खाबड़ रास्तों की पहचान करातीं कहानियाँ ■सुधा ओम ढींगरा का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह चलो फिर से शुरू करें ■रमेश शर्मा  -------------------------------------- सुधा ओम ढींगरा का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ‘चलो फिर से शुरू करें’ पाठकों तक पहुंचने के बाद चर्चा में है। संग्रह की कहानियाँ भारतीय अप्रवासी जीवन को जिस संवेदना और प्रतिबद्धता के साथ अभिव्यक्त करती हैं वह यहां उल्लेखनीय है। संग्रह की कहानियाँ अप्रवासी भारतीय जीवन के स्थूल और सूक्ष्म परिवेश को मूर्त और अमूर्त दोनों ही रूपों में बड़ी तरलता के साथ इस तरह प्रस्तुत करती हैं कि उनके दृश्य आंखों के सामने बनते हुए दिखाई पड़ते हैं। हमें यहां रहकर लगता है कि विदेशों में ,  खासकर अमेरिका जैसे विकसित देशों में अप्रवासी भारतीय परिवार बहुत खुश और सुखी होते हैं,  पर सुधा जी अपनी कहानियों में इस धारणा को तोड़ती हुई नजर आती हैं। वास्तव में दुनिया के किसी भी कोने में जीवन यापन करने वाले लोगों के जीवन में सुख-दुख और संघर्ष का होना अवश्य संभावित है । वे अपनी कहानियों के माध्यम से वहां के जीवन की सच्चाइयों से हमें रूबरू करवात...

चक्रधर नगर स्कूल में जननायक रामकुमार जन्म शताब्दी वर्ष पर हुए शैक्षिक प्रतियोगिताओं के आयोजन

चक्रधर नगर स्कूल में जननायक रामकुमार जन्म शताब्दी वर्ष पर हुए शैक्षिक प्रतियोगिताओं के आयोजन ।  विभिन्न प्रतियोगिताओं के विजेता बच्चे हुए पुरस्कृत रायगढ़। 16 दिसम्बर। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पूर्व विधायक रामकुमार की स्मृति में उनके जन्म शताब्दी वर्ष पर शहर के अनेक संस्थानों में आयोजन हो रहे हैं। इसी कड़ी में जन्म शताब्दी आयोजन समिति के सहयोग से स्वामी आत्मानन्द शासकीय उ मा वि चक्रधरनगर में भी बच्चों के लिए स्लोगन,निबंध एवं भाषण प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। इन प्रतियोगिताओं के विजेता बच्चों को पुरस्कृत करने के लिए सोमवार 16 दिसम्बर को स्कूल में एक गरिमामय आयोजन सम्पन्न हुआ ।  मुख्य अतिथि नगर निगम पार्षद पंकज कंकरवाल, विशिष्ट अतिथि नगर निगम पार्षद कौशलेश मिश्र , वरिष्ठ रंगकर्मी अनुपम पाल एवं पूर्व विधायक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रामकुमार के परिवार से सुनील कुमार अग्रवाल की उपस्थिति में बच्चों ने अपनी स्पीच कला का बखूबी प्रदर्शन किया। स्लोगन प्रतियोगिता अंतर्गत कनिष्ठ वर्ग में शगुफ्ताह  प्रथम,नन्दिता मेहर द्वितीय एवं रितिका पाऊले तृतीय स्थान पर रहीं।क्षमा देवांगन को ...

दिव्या विजय की कहानी: महानगर में एक रात, सरिता कुमारी की कहानी ज़मीर से गुजरने का अनुभव

■विश्वसनीयता का महासंकट और शक तथा संदेह में घिरा जीवन  कथादेश नवम्बर 2019 में प्रकाशित दिव्या विजय की एक कहानी है "महानगर में एक रात" । दिव्या विजय की इस कहानी पर संपादकीय में सुभाष पंत जी ने कुछ बातें कही हैं । वे लिखते हैं - "महानगर में एक रात इतनी आतंकित करने वाली कहानी है कि कहानी पढ़ लेने के बाद भी उसका आतंक आत्मा में अमिट स्याही से लिखा रह जाता है।  यह कहानी सोचने के लिए बाध्य करती है कि हम कैसे सभ्य संसार का निर्माण कर रहे जिसमें आधी आबादी कितने संशय भय असुरक्षा और संत्रास में जीने के लिए विवश है । कहानी की नायिका अनन्या महानगर की रात में टैक्सी में अकेले यात्रा करते हुए बेहद डरी हुई है और इस दौरान एक्सीडेंट में वह बेहोश हो जाती है। होश में आने पर वह मानसिक रूप से अत्यधिक परेशान है कि कहीं उसके साथ बेहोशी की अवस्था में कुछ गलत तो नहीं हो गया और अंत में जब वह अपनी चिंता अपने पति के साथ साझा करती है तो कहानी की एक और परत खुलती है और पुरुष मानसिकता के तार झनझनाने लगते हैं । जिस शक और संदेह से वह गुजरती रही अब उस शक और संदेह की गिरफ्त में उसका वह पति है जो उसे बहुत प्...