कथाकार राजेंद्र दानी ,मुकेश वर्मा,प्रभुनारायण वर्मा के साथ मंच पर परिधि शर्मा |
आज वह हॉस्पिटल के उस कमरे के बिस्तर पर अकेले अंधेरे में लेटा लेटा दुनिया की बहुत सी तिलस्मी शक्तियों का पर्दाफाश करने की कोशिश कर रहा था । अंधेरे के भीतर अंधेरा और उसके भीतर छिपे कई और अंधियारों के तिलस्मी चेहरे। प्रश्नों के भीतर प्रश्न ।उसकी नजरें दीवार के उस हिस्से पर जा गडीं जहां पर कमरे के रोशनदान से बरामदे के बल्ब की हल्की सी रोशनी पड़ रही थी। ठीक उसी जगह पर एक परछाई थी । वैसे तो वह परछाई बिस्तर के बगल की मेज पर रखी मिनरल वाटर की एक खाली बोतल की थी, पर फिलहाल उसे वह परछाई कुछ और ही नजर आ रही थी । शायद एक घोड़े की ।उसे लगा कि अभी गोली चलने की एक तेज आवाज आएगी 'धाँय' और वह घोड़ा सरपट दौड़ जाएगा। अपने पीछे धूल का गुबार छोड़ता हुआ।
अपनी पहली कहानी 'वजूद' के संपादक गीत चतुर्वेदी के साथ आयोजन में शामिल परिधि |
उसके दाहिनी जांघ में दर्द अभी
बरकरार था ।कभी-कभी उसे लगता था कि यह दर्द उसके पूरे शरीर को एक बार में लील
जाएगा । बेतरतीबी से।कुछ ही दिनों में डॉक्टर उसे हॉस्पिटल से डिस्चार्ज कर
देंगे फिर वह बाहर होगा। खुली हवा में। इस कमरे से आजाद।
वह रो रही थी , जब
आखरी बार उससे मुलाकात हुई थी। उसकी आंखें बड़ी बड़ी थीं और नजरें बेहद तेज । उसका
माथा थोड़ा सा चौड़ा था और नाक नुकीली सी। उसका चेहरा गोल था और जब वह अपने होठों
को रोते रोते भींच रही थी तब उसके दोनों गालों में गड्ढे पड़ रहे थे। उसने दुपट्टे
से अपना सर ढक रखा था और उसकी आंसू भरी आंखें उसे एकटक देख रही थीं।
उन दोनों ने आपस में कुछ पका
रखा था।
एक प्रेम ज्वर। एक रिश्ते की डोर 'मुझे
तुम्हारी फिक्र है'
जैसी भावनाओं से गुंथा ।
'तुम
चले जाओ'
वह बुदबुदा रही थी। ये लोग तुमसे बहुत सारे सवाल
जवाब करेंगे । तुम मुसीबत में पड़ सकते हो।
तिलस्म अपने पंख फैला रहा था और
उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे उसके ठीक पीछे कोई खड़ा हो, उस
पर प्रहार करने को तैयार । उसने अपनी आंखें बंद कर ली। सहसा उसके कानों में एक
आवाज पड़ी। एक बुदबुदाहट। 'उठो
। जगदीश उठो ।जगदीश उठो।'
उसने आंखें खोल ली। कानों में अभी तक वही आवाज पड़ रही थी .. 'जगदीश उठो' मगर कमरे में कोई नहीं था।
समावर्तन के संपादक मुकेश वर्मा, त्रिलोक महावर, गीत चतुर्वेदी के साथ परिधि |
वह चीख पड़ा। उसके मुंह से
निकला 'जय
बजरंगबली।'
वह आवाज आनी बंद हो गई । वह थोड़ी सी मशक्कत के बाद
हल्का सा उठ बैठा । फिर उसने चारों तरफ नजरें घुमाई । एक गहरी चुप्पी। वहां कोई
नहीं था। फिर वह निश्चिंत होकर सो गया।
अंधकार ने अपने डैनों को समेट
लिया था। सुबह हो चुकी थी ।उसके अधेड़ पिता एक कांच के गिलास में चाय लेकर आ
पहुंचे थे।
एक वार्ड बॉय की मदद से व्हील चेयर पर बैठा कर वे उसे गुसल खाने तक ले गए , फिर कांपते हाथों से उसे टूथब्रश और कोलगेट का एक ट्यूब थमाया।
जब वह मंजन कर रहा था तब झाग के
गोलों
के जमीन पर पड़ते ही उनकी चमक में उसे अपना चेहरा
नजर आता,
फिर वह ऊपर से नल चला देता और पूरा झाग पानी के
साथ गटर में चला जाता। झाग के गोले सुंदर थे। कुछ सफेद, कुछ
पारदर्शी । बिल्कुल जैस्मिन की आंखों की तरह। कुछ निश्चल ।कुछ सफेद। कुछ पारदर्शी।
जब उसने जैस्मिन को पहली बार
देखा था तब उसके बाल गीले थे और चेहरा उजला उजला ।वह ऐसी लग रही थी जैसे बारिश में
भीगी हीरोइन । 'मुझे
तुम्हारी फिक्र है'...
उसे अच्छे से याद है कि उनकी अंतिम मुलाकात में भी
यह कहते हुए वह मुस्कुराई थी ।सिर्फ एक बार ।
विदाई के वक्त उन्होंने एक
दूसरे को कोई खास तोहफा नहीं दिया था। सिवाय पिछले दो वर्षों से दुपहरियों की धूप
चुरा चुरा कर पैदा की गई प्रेम की गर्माहट के।
सिवाय जिंदगी के रंगों की बचत
कर कर के बुने गए सपनों के।
'तुम
चले जाओ'
वह सचमुच चला गया था, जल्द वापस लौट आने के ख्याल के साथ। उस दिन मेट्रो ट्रेन में बड़ी खचपच थी। खड़े होने में भी थोड़ी सी मुश्किल हो रही थी, तभी उसका पर्स कहीं गिर गया था। जब उसने बहुत ढूंढा तब एक सीट के कोने में पड़ा मिला ।वह भीड़ को धक्का मारता हुआ पर्स तक जा पहुंचा। उसने जल्दी से पर्स खोला, पैसे सही सलामत थे । वह निश्चिंत हो गया ।एमजी रोड तक जाने के लिए जिस स्टेशन पर उसे उतरना था, वह स्टेशन आ गया था ।मेट्रो रुकी ।थोड़ी सी भीड़ के साथ वह भी बाहर निकला। मेट्रो चलने लगी।
श्रीकांत वर्मा सृजन पीठ के अध्यक्ष रामकुमार तिवारी द्वारा परिधि का सम्मान |
अचानक उसे पूरा का पूरा सीन
ब्लैक एंड वाइट सा लगने लगा । जैस्मिन की फोटो कहां गई? पर्स
में नहीं थी ।फोटो मेट्रो में ही गिर गई थी और वह आगे बढ़ चुकी थी।
उन दिनों देश में दंगे भड़क रहे
थे ।जाति,
धर्म ,मजहब
के नाम पर ।अखबारों के पहले पृष्ठ में बिछी लाशों की तस्वीरें! खून !सनसनी! बिखरती
जिंदगानी की खबरें !
वह सब कुछ एक बार में समेट लेना
चाहता था मगर उसकी गिरफ्त में कुछ भी ना आ सका ।सब कुछ बिखरना दरअसल ठीक-ठीक वहीं
से शुरू हुआ था । वह तारीख उसे याद होते हुए भी याद नहीं आ रही थी । अब तक वह
सोचता था कि उसे वह तारीख याद है पर आज जब उसने याद करने की कोशिश की तो वह भूल
चुका था। उसे बौखलाहट होने लगी वैसे ही बौखलाहट जैसे कि आपको तब हो सकती है जब कुछ
जरूरी लिखने के लिए आप अपने साथ एक कलम ले गए हों और एन वक्त पर जब आप उस का ढक्कन
खोलें तो उसकी नीब टूटी हुई हो या की तब जब उसमें रिफिल ही ना हो या फिर उसकी
स्याही सूख चुकी हो ।
'चिंता
मत करो दोस्त जो होता है अच्छे के लिए ही होता है ।सब ठीक हो जाएगा' - डेविड
ने ढाढस बंधाते हुए उस दिन कहा था जब वह पैकिंग कर रहा था।
'ठीक
से पैक कर लो सब कुछ, देख लो कुछ छूट न जाए। मोबाइल
का चार्जर निकाल कर रख लो बैग में।' कुछ
छूट न जाए।
छूट तो रहा था कुछ-कुछ। छुट्टी
हुई मेट्रो। छुट्टी हुई एक तस्वीर। एक
प्यारी सी लड़की ।
जो होता है अच्छे के लिए ही
होता है,
तो क्या इस देश में जो दंगे फसाद, खून
खराबे,
कत्ल वगैरह हो रहे हैं वह सब अच्छे के लिए ही हो
रहे हैं ?
वह प्रश्न भरी आंखों से डेविड को देखता तो है मगर
उसकी मासूम मुस्कुराती नजरों को देख सिहर उठता है और फौरन अपनी नजरें फेर लेता है।
संगीत की धुन उसकी नसों के भीतर
से गुजर कर झुनझुनाती हुईं तब तक उसे अपनी जकड़ में ला चुकी थीं। और उनके शिकंजे
में कसा हुआ वह उनका गुलाम बन चुका था। संगीत तब तक एक नशा बन चुका था उसके लिए ।
यही वजह थी कि वह नियमित रूप से हर रात क्लब जाता था । जब उसके संगीत के गुलाम बन
जाने की घटना घट ही रही थी उसी वक्त में एक और घटना घटी। किसी ने मिस्टर एके
डिसूजा का कत्ल कर दिया था ।
'डॉक्टर
साहब से बात हो गई है वह बोल दिए हैं घर ले जाना है तो ले जा सकते हो। बोलो चलना
है क्या?"
चाय ठंडी हो चुकी है ।
'जी
चले चलते हैं ।अब का रुकना तो फिर, जब
जाने का सिग्नल मिल ही गया तो , चलिए
आज ही चलते हैं।'
वह जल्द से जल्द उस कमरे से बाहर निकलना चाहता है। उसे
याद है पिछली रात किसी ने उसके कानों में आवाज लगाई थी । उसे पक्का यकीन है कि वह
कमरा भूतिया है। वह चला जाएगा आज ही । जितनी
जल्दी हो सके।
वह अपने पिता को कातर नजरों से
एकटक देखने लगा। वो अब थोड़ा झुक कर चलते हैं ।
बुढ़ापा उन पर हावी हो रहा है ।
डेविड उसका रूम मेट था । वह उसी
के साथ-साथ बीए की पढ़ाई कर रहा था । कहने
को तो वे दोनों पढ़ रहे थे पर उनकी असल पढ़ाई तो पत्राचार से हो रही थी। पढ़ते
लिखते तो ठेंगा । बस जैसे-तैसे पास हो रहे थे। परीक्षा के एक दिन पहले बैठ जाते
किताब पकड़ के । यूनिवर्सिटी वालों ने भी रहम खा रखा था उन पर । कभी फेल नहीं हुए।
शुरुआत के दिनों में तो डेविड किसी बड़े सेठ का ड्राइवर था, पर
इस काम में रिस्क था और पगार भी कम थी लिहाजा उसने इधर-उधर से जुगाड़ पानी करके एक
बड़े से क्लब हाउस में होने वाली नाइट पार्टीज में डिस्को जॉकी का काम पा लिया ।
कुछ दिनों बाद उसी की सिफारिश
पर जगदीश को भी डीजे का काम मिल गया। क्लब का नाम था डायमंड । वहां अक्सर रातों को
महफिल जमती। जगह वही होती। संगीत का शोर भी
उतना ही होता,
बस लोगों के चेहरे बदलते रहते । पर एक चेहरा कभी
नहीं बदला। वह चेहरा था क्लब के मालिक मिस्टर एंटनी के डिसूजा का । वह स्वभाव से
हंसमुख थे और उनकी मूंछें घनी थीं। उनकी आंखें उम्र की बढ़त के साथ अपनी चमक खो
रही थीं। और वह कोर्ट पेंट और सिर पर एक गोल हैट लगाए बॉलीवुडिया फिल्मों के विलेन
की तरह लगते थे ।
जगदीश ने संगीत के शोर को अपना
लिया। सीडी में कैद धुनों को हवा में आजाद करना उसका काम था, जिसे
वह बखूबी करता । उसके काम से खुश होकर लोग देर रात तक थिरकते रहते । उसी महफ़िल
में बड़े-बड़े लोग शामिल होते और आपस में कुछ खास बातें करते। कुछ खास सौदे। क्या
आपका क्या मेरा । कितना आपका कितना मेरा । शराब की बोतलें । एक शाम आपके नाम।
जगदीश ने अपने एक मित्र से माउथ ऑर्गन बजाना सीख लिया था । कभी कभार वह डेविड की
अनुपस्थिति में जब कमरे में अकेला होता तब खालीपन और चुप्पी को खत्म करने के लिए
माउथ ऑर्गन बजाता । उसे बजाना मशक्कत का काम था और उसे एक सुरीली धुन की लय में
बजाना और भी मुश्किल काम था । उसने अभ्यास जारी रखा । इसी तरह एक बार वह माउथ
ऑर्गन बजा रहा था कि उसके दिमाग में एक सवाल आया। धुन
कहां से पैदा होती है और कहां जाकर खत्म होती है ?उसने
अपनी बुद्धि के खदान में छान मारा तब उसे हल्का हल्का कुछ याद आया । दसवीं कक्षा
में उसने शायद भौतिकी शास्त्र में पढ़ा था कि ध्वनि पैदा होती है एनर्जी से और
माउथ ऑर्गन वाले केस में वह एनर्जी अपने अंदर से निकाल रहा है जो हवा में एक लहर
पैदा कर रही है । उसी से ध्वनि का जन्म हो रहा है और यही ध्वनि हवा में तब तक
तैरती रहेगी जब तक इसकी शक्ति याने की एनर्जी खत्म ना हो जाए । कितनी अजीब बात है , ध्वनि
जैसी निर्जीव चीज का भी एक जीवन काल है । यह संपूर्ण जीवन भी तो एक धुन है चाहे
जिस तरह से छेड़ दो,
सुरीली या बेसुरी जैसी भी धुन पैदा कर दो । यह तो
तुम्हारे कौशल पर निर्भर करता है। उस दिन डेविड चर्च गया था । वह संडे का दिन था।
डेविड हर संडे चर्च जाया करता था। जाने क्या मांगता था परमेश्वर से। जगदीश तो जाने
कितने दिनों से मंदिर नहीं गया था। बल्कि वह तो अपने जीवन में इतने कम बार मंदिर
गया था कि वह अपनी उंगलियों में गिन सकता था कि वह कितनी बार मंदिर गया था । एक
बार डेविड के कहने पर वह चर्च जरूर गया था । वहीं तो मिला था वह जैस्मीन से । वह
इसाई थी ।
बेहद गोरी । उसके बाल गीले थे और चेहरा उजला उजला
।
वह ऐसी लग रही थी जैसे बारिश में भीगी हीरोइन ।
शायद वह तुरंत ही नहा धोकर , तैयार
होकर सीधे चर्च आई थी । पता नहीं क्या मांग रही थी जिसस से । पता नहीं डेविड उस
वक्त क्या मांग रहा था जिसस से । उस
वक्त उसे यह भी पता नहीं था कि उसे क्या मांगना चाहिए था जिसस से। उसने
जैस्मिन को नहीं मांगा ।
डेविड और जैस्मीन मित्र थे । वे
एक दूसरे को काफी समय से जानते थे। उसकी पहचान जैस्मीन से उसी के जरिए हुई ।वे
जल्द ही मित्र बन गए। अब वह अक्सर चर्च जाने लगा ।उसके भीतर कहीं एक सुकून था ।
दिल्ली जैसे बड़े शहर में कोई उनसे यह नहीं पूछेगा कि क्या वे एक ही मजहब के हैं। हां
या ना। वे निश्चिंत होकर साथ-साथ चर्च से बाहर निकलते । साथ-साथ सड़क पार करते ।
साथ-साथ बस में धक्के खाते और साथ-साथ हंसते । वक्त बीतने लगा और उनकी खुशियां एक
कहानी बन गयीं। ( कहानी आखिर होती क्या है ?जीवन
का एक कतरा या संपूर्ण जीवन )
उन्होंने साथ-साथ इसी तरह से
चलते रहने का वायदा नहीं किया एक दूसरे से कभी । साथ निभा पाना ही प्रेम नहीं होता
।
एक दूसरे की जिंदगियों से प्रेम के लम्हे चुरा
लेना भी तो प्रेम की निशानी है। ऐसे लम्हे जिन्हें बाद के दिनों में शायद घर के
कोने में महफूज रख दिया जाए इस जानकारी के साथ कि वह कोना लंबे समय तक महकता
रहेगा।
"हिंदुत्व
के बारे में तुम कितना जानते हो ? -जैस्मीन
ने एक बार पूछ लिया था जगदीश से।
उसने कुछ सोच कर कहा,- 'ज्यादा
कुछ नहीं,
हां एक बात है हिंदुत्व का जन्म कब और कहां हुआ यह
कोई नहीं जानता जबकि अगर तुम्हारे धर्म की बात कहूं तो वह तो ईसा के जन्म से शुरू
हुआ था। ईशा का जन्म होना और फिर मृत्यु के बाद उनका ईश्वर को प्राप्त होना।'
'तुम
सही हो'
जैस्मीन ने अपने होंठ हल्के से भींच लिए। जब वह
अपने होठों को भींचती थी तब उसके दोनों गालों में गड्ढे पड़ जाते ।
'लेकिन
इसाईयत की कहानी वह नहीं है जिसमें इंसान ईश्वर बन जाता है, बल्कि
यह वह कहानी है जिसमें ईश्वर इंसान बनकर आते हैं और पुनः ईश्वर बन जाते हैं। यह
कहानी घोर यातना और कष्टों को सहकर महानता को प्राप्त होने की कहानी है और शायद
....! वह एक बार फिर अपने होठों को भींच लेती है सिर्फ कुछ पलों के लिए फिर अपने
भवों को थोड़ा सिकोड़ कर कहती है, "शायद
जो ईश्वर मां मरियम की कोख से इंसान बनकर पैदा हुए थे वो वही थे जिनसे हिंदुत्व
जन्मा था ,
शायद ये वो ईश्वर हैं जिन्होंने हिंदू और इसाई तो
क्या दुनिया के हर धर्म को जन्म दिया है।"
"तो
क्या तुम यह मानती हो कि हिंदुत्व सबसे प्राचीन धर्म है ?"
"मैं
नहीं मान सकती क्योंकि मुझे सच पता नहीं है ।"
वे शहर की गलियों में पैदल चलते
चलते कभी किसी दुकान में घुसकर छोटी-मोटी खरीददारी कर लेते तो कभी बाजार में
दुकानों की साज-सज्जा को टुकुर टुकुर निहारते हुए आगे निकल जाते । कभी किसी ठेले
से गोलगप्पे खाते तो कभी बारिश में भीगते भीगते बस अड्डे तक जा पहुंचते ।
वक्त उनके हाथों से लगातार फिसल
रहा था । जैस्मिन के पिता आगे की पढ़ाई के लिए इतने चिंतित नजर नहीं आते थे । किसी
तरह उसे ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई पूरी कर लेने की छूट थी फिर अगर आगे कुछ अच्छा हुआ
तो ठीक,
नहीं तो शादी ।
उनका ग्रेजुएशन पूरा होने जा
रहा था और समय की गाड़ी सरपट दौड़ रही थी। उन्हें
इस तरह से मिलते हुए करीब दो वर्ष बीत चुके थे और उनकी बेफिक्री अब साथ छोड़ रही
थी ।
डेविड ने आगे एमबीए करने का
फैसला ले लिया था । क्लब हाउस में डीजे का काम उसने जगदीश से एक महीने पहले छोड़ा
था । उसी बाद के एक महीने में बहुत कुछ बदल गया। एक कत्ल । क्लब के मालिक का।
हालांकि बाद में असली कातिल पकड़ लिया गया था और जगदीश से कभी कोई सवाल जवाब करने
नहीं आया पर फिर भी वह वक्त बहुत कशमकश में बीता । उसी बीच रिजल्ट आए और बीए की
परीक्षा में पास होने के बाद जगदीश के पास अकेले काटने के लिए कई सूनी रातें थीं।
क्योंकि रिजल्ट आने के बाद ठीक अगले दिन डेविड कुछ दिनों के लिए अपने घर चला गया।
वह मध्य प्रदेश का रहने वाला था।
कत्ल की खबर आने के बाद रात की
पार्टियां होनी बंद हो गई थीं, लिहाजा
अब वहां जगदीश की कोई जरूरत नहीं थी । वह संगीत की गिरफ्त से बाहर आ चुका था और
प्रतिमाह मिलने वाली पगार से भी। 8000 रुपये
महीना। उसके पिताजी से उस दिन फोन पर बात हुई थी। उसकी अम्मा की तबीयत सही नहीं
रहती। दीदी की शादी के बाद घर में अकेली हो गई थी।
'पढ़ाई
लिखाई हो गई तो लौट आओ । का रखा है दिल्ली मुंबई में। इहहीं आ के रहो । इधर ही
कहीं लग जाओ,
नहीं तो यदि कोई सही जुगाड़ न लगे तो कोई दुकान
डाल लियो ।"
जैस्मिन से सिर्फ इतना ही तो
कहा था उसने लौटने से पहले "डिसूजा साहब का मर्डर एक बड़ी मिस्ट्री है, पुलिस
को हर किसी पर शक है । मेरा यहां रुकना ठीक नहीं है जैस्मिन ! मुझे डर लगने लगा है
यहां ! जाना होगा कुछ समय के लिए !"
उस शाम बारिश हो रही थी। उसने
अपना सर दुपट्टे से ढक रखा था। बारिश
की बूंदे उसकी आंखों में भी थीं।
वे लौट गए थे उस अंतिम मुलाकात
के बाद । विपरीत दिशाओं में । वह भांप गया था कि उसके जीवन का एक चैप्टर क्लोज हो
रहा था । वह उसी शाम मेट्रो पकड़ कर अपने रूम लौट रहा था । वहीं से तो चीजों के
बिखरने की शुरुआत हुई थी । एक छुटती मेट्रो । एक तस्वीर । एक लड़की।
डेविड के घर से वापस लौट आने के
एक दिन बाद ही तो उसने पैकिंग शुरू की थी । डेविड ने भी उसके साथ साथ अपनी पैकिंग
शुरू कर दी थी। डेविड और जगदीश समझ रहे थे वक्त
को । चीजें सदा एक ही नहीं रहतीं। हमारे अनुसार परिस्थितियां ढल नहीं सकतीं, हमको
भी ढलना होगा उनके अनुरूप।
वह लौट ही तो रहा था अपने घर।
कुछ बीता वक्त और कुछ सामान।
इतना ही तो था उसके पास जिसे वह
लेकर स्टेशन के लिए एक ऑटो में लादकर लौट रहा था जानी पहचानी गलियों में से होकर ।
जब सामने से आती कार से ऑटो की भिड़ंत हुई और ऑटो पलट कर एक ओर जा गिरी तब जगदीश
की कोहनी को जमीन से एक जोर की ठोकर लगी। जब थोड़ा सा होश संभाला तब जाकर महसूस
हुआ कि बायां पैर सुन्न पड़ चुका है। एक्सरे का रिजल्ट आया । दो हड्डियों में
फैक्चर । एक दाएं हाथ की और एक बायीं टांग की । एक हुमेरस और एक टिबिया। प्लास्टर
तो पिताजी के पहुंचने के बाद ही चढ़ सका।
डॉक्टर साहब का आश्वासन था कि
सब कुछ ठीक हो जाएगा । बस हड्डियों को कुछ वक्त जोड़ने के लिए छोड़ दिया जाए ।
याने कि बेड रेस्ट। याने कि बहुत सारा अंधेरा। बहुत सारा तिलस्म। करने को कुछ नहीं
।
घर लौट आने के एक हफ्ते बाद की
बात है । वह मां का सहारा लेकर शाम का कुछ वक्त खुली हवा में बिताने के लिए आंगन
में बिछी खटिया में जा लेटा। उसकी एक टांग और एक हाथ पर प्लास्टर चढ़ा था। वह
पीठ के बल लेटा था । उसकी आंखों के ठीक आगे खुला आसमान था। उसी वक्त उसे एक तारा
नजर आया।
नितांत अकेला । मानों समूचा ब्रह्मांड उसी का हो।
मां बचपन में कहती थी कि एक अकेले तारे को देखना अशुभ होता है। वह तारे को लगातार
एकटक देखता ही रह गया। वह वहीं आंगन में लेटा लेटा सो गया।
नींद में उसे बहुत सारे सपने
आए। सपनों में एक लड़का था जो लट्टू चलाने की बहुत कोशिशें कर रहा था मगर हर बार
वह रस्सी से लड्डू को जमीन में फेंकता और लट्टू बिना घूमे लुढ़क जाता ।
जैस्मिन दिल्ली की उन्हीं
गलियों से होकर जा रही थी । वह खुश थी । बेहद खुश । वह सपने में अपना तोहफा वापस
मांग रही थी । दो वर्षों से दुपहरियों की धूप चुरा चुरा कर पैदा की गई प्रेम की
गर्माहट और जीवन के रंगों की बचत कर कर के बुने गए सपने ।
जैस्मिन के बारे में एक बात वह
पक्के तौर पर जानता था। वह यह कि जैस्मिन जैसी गोरी इसाई लड़की उसने अपने जीवन में
पहली बार देखी थी । इसके पहले उसने जितने भी क्रिश्चन लोगों को देखा था वे सब गहरे
रंगों के थे । उसके मानस पटल में जेस्मिन एक अनोखी लड़की थी जो क्रिस्चियन भी थी
और गोरी भी ।
आंगन में सुंदर सुंदर गुलाब के
फूल खिले थे ।पिताजी को फूलों का बड़ा शौक जो था । जब वे शेव नहीं करवा पाते तब
उनके गालों पर छोटी-छोटी सफेद दाढ़ियाँ ऊग
आतीं जो उसे गुलाब के कांटों सी लगतीं। उनकी दुकान और खेत खलिहानों के साथ-साथ
उनके मकान का आकार भी फलीभूत हो रहा था । वह एक मंजे हुए व्यापारी की तरह हर चीज
में मुनाफा ढूंढते। फिलहाल अपनी सारी उर्जा वे अपने बेटे को लाइन पर लाने में लगाए
हुए थे ।
बस यह एक काम हो जाए फिर सब ठीक
।
इस जमीनी हकीकत को उनका लड़का
समझ रहा था। वह जानता था कि बस उसे एक काम करना है ।
पीछे की कुछ चीजों को अदृश्य कर
देना है ।
कुछ घटनाओं के घटित होने के
साक्ष्यों को झुठला देना है।
उसकी नींद टूट चुकी है । अंधकार
छा रहा है। ऊपर आसमान में अब कई तारे उभर आए हैं। उसे अब घर में ऐसा कोना तलाशना
है जहां कुछ चीजों को बहुत समय तक महकते रहने के लिए महफूज
रख दिया जाए।
यह कहानी परिकथा मार्च-अप्रेल 2014 अंक में प्रकाशित हुई थी और 25 मई 2023 को बिलासपुर शहर में छत्तीसगढ़ संस्कृति परिषद् अधीन 'श्रीकांत वर्मा सृजन पीठ' के आयोजन में परिधि ने इसका पाठ किया था.
परिचय
सुश्री डॉ. परिधि शर्मा का जन्म 6 अगस्त 1992 को छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में हुआ । विवाह उपरांत ओडिशा के मलकानगिरी में दन्त चिकित्सक के रूप में वे अपना निजी क्लिनिक अपने पति डॉ. नित्या नन्द के साथ संचालित कर रही हैं । वर्तमान में वे मास्टर ऑफ डेंटल सर्जरी MDS की छात्रा हैं ।
17 साल की उम्र में उनकी पहली कहानी 'वजूद' भास्कर रसरंग के 20.09.2009 अंक में गीत चतुर्वेदी के सम्पादन में प्रकाशित हुई थी । उसके पश्चात वागर्थ (मार्च 2010), समावर्तन (अक्टूबर 2011), परिकथा (जनवरी-फरवरी 2012), समावर्तन (फरवरी 2012), परिकथा मार्च-अप्रेल 2014 इत्यादि पत्रिकाओं के अंकों में उनकी कहानियाँ प्रकाशित हुईं ।
इसके अलावा पंद्रह साल की उम्र में लिखा गया उनका एक यात्रा
संस्मरण 'आनंद वन में बाबा आमटे के साथ' मधुबन बुक्स द्वारा प्रकाशित हिन्दी पाठ्य
पुस्तक वितान कक्षा सातवीं में शामिल है, जिसे सीबीएसई से जुड़े कई कान्वेंट स्कूल
के बच्चे पढ़ते हैं.
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संपर्क:
डॉ. परिधि शर्मा
जुगल किशोर डेंटल क्लिनिक
आर के टावर, न्यू मेडिकल रोड़
मलकानगिरी (ओड़िसा)
मो.9752891078
श्रीकांत वर्मा सृजन पीठ में कहानी पाठ करके आपने रायगढ़ शहर का मान बढ़ाया है। बहुत सुंदर कहानी के लिए हार्दिक बधाई
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