बहुत दिन अभी नहीं हुए , सन 2022 का दिसम्बर महीना अभी अभी ही बीता है। वह दिन मेरी स्मृतियों में शेष है । रविवार का दिन था वह और स्व.हेमसुन्दर गुप्त शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय महापल्ली, रायगढ़ के प्रांगण में लगभग 1000 लोग एकत्रित हुए थे। अवसर था इस विद्यालय में पूर्व और वर्तमान में अध्ययनरत विद्यार्थियों और वहां पूर्व और वर्तमान में पदस्थ शिक्षकों के आपसी समागम का।
इस समागम में चार
पीढ़ी के लोग शामिल हुए। निमंत्रण पाकर बहुत व्यस्त समय के बावजूद दूर दराज से जिस उत्साह के साथ
सम्मेलन में भाग लेने यहां के भूतपूर्व छात्र, यहां की भूतपूर्व छात्राएं, और यहां के भूतपूर्व शिक्षको का आगमन हुआ, उनका यह आगमन विद्यालय के प्रति
उनकी श्रद्धा और उनके प्रेम का प्रमाण है। अन्यत्र विवाही गईं यहां पढ़ने वाली पूर्व छात्राओं का उत्साह देखिए कि अपने छोटे छोटे बच्चों के साथ वे भी यहां दौड़ी चली
आईं। छत्तीसगढ़ के कोने कोने जशपुर, जांजगीर, कोरबा से लोग दौड़े चले आए । अपने
पुराने सहपाठियों और भूतपूर्व शिक्षकों से मिलने की तीव्र इच्छा ने उनके भीतर की
ऊर्जा को उड़ान देकर इस विद्यालय के प्रांगण में उन्हें जैसे उड़न खटोले की तरह उतार दिया।
मैं पूर्व में
इसी विद्यालय का छात्र रहा ।सत्र 1980-81,1981-82,1982-83 में मैंने 9वीं से लेकर हायर सेकेंडरी 11वीं की परीक्षा यहां से उत्तीर्ण की
।
नौकरी में आने के
बाद कालांतर में स्थानांतरित होकर सन 1992 से 2004 तक हायर सेकेंडरी
शिक्षक के रूप में भी मैंने अपनी सेवाएं यहां दी हैं।
जब मैं पहली बार यहां पदस्थ हुआ तो मेरे प्राचार्य डॉक्टर बलदेव थे । उनके जैसा उदारमना एक वरिष्ठ साहित्यकार का सान्निध्य मेरे लिए अत्यंत सुखकर रहा।
दो अलग-अलग कालखंडों में दो अलग-अलग किस्म के अनुभवों की संपदा मेरे हिस्से इस विद्यालय को लेकर
हैं।
कल जब मैं यहां
मंच पर उपस्थित था तो मेरी आंखों के सामने चार पीढ़ियां नजर आ रही थीं। मैं बहुत
अर्से बाद उनको देख रहा था और उनसे मिलने की तीव्र इच्छा मेरे भीतर उठने लगी थी।
यह इच्छा एकतरफा नहीं थी। कुछ समय बाद जब मैं सब से मिलने लगा तो मिलकर लगा कि
मुझसे अधिक उत्सुकता मेरे प्रिय विद्यार्थियों और गुरुजनों के भीतर मौजूद है। यह
उत्सुकता अमूर्त थी, पर उस अमूर्त
उत्सुकता की तीव्रता को, प्रेम में डूबी
हुई उसकी गहराई को, मैं बारम्बार
महसूस कर रहा था।
मेरी स्थिति तो
यह थी कि मैं किसी से बात करने लगता था तब हमारी बात पूरी भी नहीं हुई रहती कि कई कई
हाथ चरण स्पर्श करने लगते थे और कई कई मुस्कुराते चेहरे मुझे घेर लेते थे। सबसे
मिलने के क्रम में हम आपस में ज्यादा बोल बतिया नहीं पा रहे थे पर उन चेहरों में
जो प्रसन्नता और आनंद का भाव था वही हमारे संवाद का माध्यम था।
उस दिन का आयोजन
पूर्वांचल के युवाओं और उनके मार्गदर्शक गुरुओं की रचनात्मकता का जीवंत उदाहरण है।
सांगठनिक तौर पर जिस कर्मठता का परिचय आयोजन समिति की पूरी टीम ने दिया और इतने
बड़े आयोजन को सफल कर दिखाया वह सचमुच ऐतिहासिक था ।
सच कहूं तो इस
विद्यालय की मिट्टी में ही ऐसा कुछ है कि कुछ अच्छा करने को यह विद्यालय क्षेत्र
के लोगों को प्रेरित करता है।
क्षेत्र की
मिट्टी का ही कमाल है कि शशिधर पंडा सर ने सांगठनिक शक्ति का प्रयोग करते हुए जन
सहयोग से कॉलेज की आधारशिला रख दी और जनसहयोग से आज वह कॉलेज फल फूल रहा है।
उस दिन के आयोजन में
जो जन सहयोग मिला , चाहे वह श्रम का
सहयोग हो चाहे वह धन का सहयोग हो, वह सहयोग भी अद्भुत है । इस तरह का सहयोग वहीं संभव हो पाता है
जहां लोगों के बीच जीवन मूल्य जीवित हों।
चूंकि इस विद्यालय को लेकर मेरे हिस्से दो प्रकार के लंबे अनुभव हैं , इन अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि इन जीवन मूल्यों के जीवित होने के पीछे पूरा श्रेय इस विद्यालय का ही है। उस दिन के आयोजन को सफल बनाने में वर्तमान में अध्ययनरत विद्यार्थियों की रचनात्मकता ने भी इस बात को सबके सामने उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया होगा कि इस विद्यालय ने जीवन मूल्यों की जड़ को आज भी सिंचित कर रखा है। आज भी यहां के विद्यार्थी और शिक्षक कल्चर्ड हैं।
फिलहाल मेरी उम्र 56 साल है । इस
उम्र में आकर अब मुझे अनुभव होता है कि विद्यार्थी के रूप में पढ़ाई करते हुए और
शिक्षक के रूप में अध्यापन की सेवा करते हुए जीवन के सबसे बेहतरीन वर्ष मैंने इस
विद्यालय में व्यतीत किये ।एक शिक्षक की पूंजी उसके पढ़ाए हुए विद्यार्थी ही होते
हैं । बेहतर और जिम्मेदार नागरिक के रूप में अगर समाज में उनका प्रतिनिधित्व बेहतर
है तो शिक्षक अपने आपको भाग्यशाली समझता है।
मैं भी अपने को उन्हीं भाग्यशाली शिक्षकों में शामिल पाता हूं क्योंकि मेरे सभी विद्यार्थी, जिनसे एक एक कर उस दिन मेरी मुलाकातें हुईं, सबने मुझे अपने उदारमना कर्तब्यनिष्ठ आचरण और मृदु व्यवहार से मुझे आश्वस्त किया कि सामाजिक और पारिवारिक जीवन में उनकी दिशा उसी तरफ है जहां उन्हें होना चाहिए।सबने अपने लिए समाज में एक अच्छी जगह बनाई है।मुझे न जाने क्यों लगता है कि एक विद्यालय के इर्द गिर्द ही जीवन की सांस्कृतिक यात्राएं गतिमान रहती हैं , इसका अंदाज तो तब होता है जब हम किसी दिन जाकर थोड़ा समय वहां बिताते हैं | मैं अब भी कहता हूँ कि कभी जीवन में निराशा हो , कभी थकान महसूस करें तो अपने पढ़े हुए किसी पसंदीदा विद्यालय की दीवारों को जाकर छू आएं , मुझे विश्वास है आपको शुकून मिलेगा |
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रमेश शर्मा
बहुत सुंदर आलेख ,सचमुच उसदिन का वह दृश्य जिसने भी सशरीर उपस्थिति दी ,कितना गौरवपूर्ण क्षण होगा वह जिसका आपने चित्रण किया ।काबिलेतारीफ
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