सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

रमेश शर्मा की कहानी : 'तोहफे में मिली थोड़ी सी नींद'

 


                                                        उन दिनों रायपुर शहर के शंकर नगर नामक पाश एरिया में स्थित अशोका टावर नामक अपार्टमेंट हमेशा गुलजार रहता । शाम का समय न हुआ कि सामने स्थित बीटीआई ग्राउंड पर क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी जमा होकर एक साथ मिलते जुलते। थोड़ी बहुत मस्ती भी होती । उस दृश्य में जीवन के विविध रंगों की  न जाने कितनी बार आवा जाही होने लगती । कुछ हँसते खिलखिलाते मस्ती में डूबे हुए तो कुछ नाचते गाते हुए। कुछ आपस में किसी सतही बहस में अपने आप को संलग्न किये हुए । उस समय के दृश्य को लेकर अगर कोई कुछ टिप्पणी करना चाहता तो वह कहता "इस अपार्टमेंट में रहने वालों का समय इस वक्त अपने सबसे खूबसूरत लिबास में सामने खड़ा दुनियां की आँखों को लुभा रहा है।"

आँखों को तो लुभावने दृश्य जल्दी भाते हैं, सो एक दूसरे की देखा-देखी लोग न चाहकर भी घरों से निकल इन दृश्यों का हिस्सा बन जाते। बूढों  की पसंद राजनीतिक बहसें होतीं और वे बात-बात पर  फलानी संस्था के फलाने योग गुरू को सेहत का ठेकेदार साबित करने में भी पीछे नहीं रहते ।एकाध कोई होता जो इसका प्रतिरोध करता तो बाक़ी सभी उस पर पिल पड़ जाते, आखिरकार फिर वह बेचारा चुप हो जाता । बात आयी गयी हो जाती और सब फिर ठहाके लगाने लगते । मैदान लोगों से गुलजार हो उठता ।उच्च मध्य वर्ग के सतही जीवन के उत्सव और आनंद मनाने के जो तौर तरीके होते हैं वे सब यहाँ दिखाई पड़ते ।

पर ये दृश्य यहाँ रहने वालों के जीवन के साथ हमेशा संलग्न रहें ऐसा भी नहीं था  । लोगों के जीवन के दृश्य एक सा कब होते हैं? वे तो क्षण-क्षण बदलते रहते हैं , इसलिए समय के भिन्न भिन्न काल खंडों में यह अपार्टमेंट अपनी भीतरी दुनियां में नूर खोता हुआ भी लगता । इसी अशोका टावर अपार्टमेंट के फ्लैट नम्बर दो सौ तीस पर रहते हैं मिस्टर श्याम नौटियाल । उनकी पत्नी को गुजरे कुछ ही वर्ष हुए होंगे । लोग अब कहते हैं कि उनकी पत्नी को नींद न आने की बीमारी थी । कई बार जब उन्हें नींद की गोली खाने के बाद भी नींद न आती तो वे आधी रात इसी मैदान में आकर बैठी रहतीं। किसी को नींद न आए तो दूसरों की नींद में कोई फर्क आ जाए, ऐसा नहीं देखा गया कभी । लोग गहरी नींद में होते और मिसेस नौटियाल जागतीं रहतीं । मिस्टर नौटियाल रातों में अक्सर गायब रहते और कई बार वे अकेले होतीं ।कमरे के भीतर उनकी छटपटाहट को महसूस करने वाला कोई न होता.... न यह शहर , न इस शहर के लोग । नींद देह की जरूरत होती है । उस वक्त देह के भीतर आदमी की जगह, नींद ले लेती है और आदमी देह से बाहर हो जाता है। आदमी घूमता रहता है सपनों के खूबसूरत ब्रम्हांड में । पर ऎसी क्या मजबूरी थी कि मिसेस नौटियाल की देह को नींद की जरूरत महसूस ही नहीं होती थी । ऐसा तब होता है जब देह पर मन का बोझ भारी पड़ जाए । पता नहीं उन्हें क्या हुआ था। वे शादी के पहले अपने मायका में बिताये  गाँव के दिनों को खोजतीं जो इस शहर में आकर जैसे कहीं खो गया था । न यह शहर उनका कभी हो पाया न वे इस शहर की कभी हो पायीं ।अपने जीवन के अनुभवों से उन्हें लगता कि शहर सब कुछ छीन लेते हैं । इस शहर ने उन्हें जो दिया, धीरे धीरे उन्हें उनसे छीन भी लिया।

आधी रात मिसेस नौटियाल जहां बैठतीं वहां की नीरवता देखकर लगता कि उस वक्त यह मैदान भी गहरी नींद में है और वह उनकी उपस्थिति को महसूस ही नहीं कर पा रहा । तब उनकी उम्र 45-46 के आसपास ही  रही होगी । गठी हुई देहयष्टि और रंग रूप से सुन्दर युवा औरत का इस तरह आधी रात को अकेली बैठी रहना उस अपार्टमेंट में फिलहाल अब तक किसी कहानी को जन्म नहीं दे सका था । रात के तीसरे पहर जब कभी मिस्टर नौटियाल घर पर होते और नींद से जागते तो अपनी पत्नी को पास न पाकर हड़बड़ा कर जाग  उठते । वे सीधे मैदान की ओर दौड़ पड़ते । उनकी पत्नी मैदान की कोने वाली बेंच पर बड़े आराम से बैठकर बच्चों के लिए लगे शी-शा जैसे  झूलों को ताकती रहती । कई बार उन झूलों को छूकर अपने से दूर जा चुके बच्चों को वे अपने पास महसूस करतीं । जब मिस्टर नौटियाल उनके पास पहुँचते तो वह निर्विकार भाव से उन्हें देखती जैसे कुछ हुआ ही न हो । वे अक्सर अपार्टमेंट के सेक्युरिटी गार्ड को डांटते कि उसने आधी रात गेट खोलकर उनकी पत्नी को बाहर जाने क्यों दिया।

जल में रहकर मगरमच्छ से बैर वाली स्थिति में कोई क्यों अपने को ले जाए, यह सोचकर  गार्ड ज्यादा प्रतिक्रिया  ब्यक्त कर पाने की स्थिति में न होता । वह चाहते हुए भी कभी न कहता कि आप भी तो कई बार जब आधी रात बाहर से घर आते हैं तो मैं मना नहीं करता । सब कुछ समझते हुए भी वह भारी मन से जवाब देता "हमारा काम इस अपार्टमेंट के रहवासियों का हुक्म बजाना है साहब ! उन्हें आने-जाने से रोकने का अधिकार हमें नहीं है ! यह अधिकार बस आपको है, आप ही उन्हें रोकें ! " उसकी बातें सुन मिस्टर नौटियाल को अपनी कमजोरी का एहसास होता और वे चुप्पी साध लेते।


इस तरह न उनकी डांट कभी बंद हुई, न उनकी पत्नी का आधी रात बाहर निकलना बंद हुआ। सबकुछ उसी तरह चलता रहा। 

शैक्षिक अनुसंधान परिषद् जो उस ग्राउंड के किनारे ही था, वहां का वाचमेन मिसेस नौटियाल को आधी रात बैठे हुए टुकुर टुकुर देखता और अपनी लाठी को जमीन पर ठुक-ठुक बजाता हुआ अहाते के भीतर घूमता रहता। वाचमेन की देह को कई बार नींद की जरूरत महसूस होती। आँखें छोटी-छोटी होने लगतीं और उसकी देह नींद में समा जाने को आतुर हो जाती , पर वाचमेन के भीतर का आदमी जो एक मजबूर बाप भी था और जिसके ऊपर अपने परिवार के भरण पोषण की सारी जिम्मेदारी थी , कभी देह से अलग नहीं हो पाता था और हमेशा जागता रहता। नींद और उसकी नौकरी में छत्तीस का आंकड़ा था।या तो वह नींद को चुने या फिर इस नौकरी को। उसने नींद के बदले मजबूरी में इस नौकरी को चुना था।

कई बार वाचमेन सोचता कि यह महिला आये दिन इस तरह आधी रात को पार्क में आकर अकेली क्यों बैठी रहती है ? क्या उसे अकेले डर नहीं लगता ? क्या उसकी देह को नींद की जरूरत महसूस नहीं होती  ? क्या उसका पति इसे प्यार नहीं करता ? क्या उसके बच्चे उसे नहीं खोजते ? आखिर जागने की उसकी कोई तो मजबूरी होगी? आखिर था तो वह एक मर्द, सो बहुत कुछ सोचता जो कि मर्द स्त्री-पुरूष के बीच अच्छे-बुरे संबंधों को लेकर अक्सर सोच लेते हैं।

अपनी लाठी को जमीन पर ठुक ठुक बजाते हुए, घूमते वाचमेन के भीतर प्रश्न उठते रहते । तब भी उन प्रश्नों से उसकी देह को कोई फर्क नहीं पड़ता था। उसकी देह नींद में समा जाने को आतुर ही रहती, पर उसके भीतर के आदमी से प्रश्न टकराते रहते और वह नींद से उसे रोके रखता। वहीं घूमते घूमते उसके भीतर का आदमी न जाने कहाँ कहाँ घूम आता। उसकी आँखों में रेलवे प्लेट फॉर्म की सख्त खुली जमीन पर निश्चिन्त सोये फटेहाल ग़रीबों की तस्वीरें घूम जातीं । उसे लगता कि वे जब चाहे अपनी मनचाही नींद ले लेते हैं। नींद के लिए न उन्हें कोई मखमली गद्दे चाहिए, न कूलर या एसी। नींद के लिए चाहिए उन्हें बस दो गज जमीन, जहां वे अपने पैरों को फैला सकें। वाचमेन सोचता कि उन सोये हुए लोगों का कोई घर या गंतब्य भी नहीं होता। जब भी उनकी नींद खुल जाए तो छुक-छुक करती कहीं से आती रेलगाड़ी उन्हें अपने साथ फिर किसी नए प्लेट फॉर्म पर ले जाकर उतार देती है। उनका कोई स्थायी घर नहीं होता, वह तो रोज बनता है और रोज उजड़  जाता है । सोचकर उसे अच्छा लगता कि कुछ न होते हुए भी कम से कम उनके हिस्से की  नींद तो स्थायी होती है । एकदम निष्फिक्र सी नींद।

वह सोचता कि बहुतों की नींद निष्फिक्र होती है ।इतनी निष्फिक्र कि कुछ तो सड़कों/फुटपाथों पर भी सो जाते हैं और रात में घूमते उनींदे निशाचरों की महंगी-महंगी गाड़ियों से रौंदे जाते हैं । वह आगे सोचता कि जिनके पास खोने को कुछ नहीं होता कई बार उनकी देह ही खो जाती है । देह के खो जाने से फिर वे हमेशा के लिए सो जाते हैं। एक स्थायी नींद । फिर कभी न जागने के लिए ! लेकिन जिनके पास खोने को बहुत कुछ होता है, उस बहुत कुछ के खो जाने की चिंता में उनकी देह से नींद ही खो जाती है । फिर उस नींद को पाने के लिए उनका जीवन जद्दोजहद से भरता चला जाता है । इसी क्रम में वह आगे सोचता कि आखिर बड़े लोगों को नींद क्यों नहीं आती? क्यों आधी रात को वे शराब पीकर किसी क्लब में नाचते रहते हैं , महंगी जगहों में पार्टी मनाकर क्यों हुडदंग करते रहते हैं। न चाहकर भी वाचमेन के भीतर सवाल आने-जाने लगते और उसकी दिलचस्पी मिसेस नौटियाल में हर दिन बढ़ती जाती।    

बहरहाल अभी तक किसी को इस बात की खबर नहीं थी कि मिसेस नौटियाल को नींद न आने की कोई बीमारी भी है । उन्हें देखकर कोई ऐसा अंदाजा भी नहीं लगा सकता था। आधी रात को मैदान में आकर अकेले बैठने की खबर भी उनके अपार्टमेंट के वाचमेन और मैदान पर स्थित शैक्षिक अनुसंधान परिषद् के वाचमेन के अलावा अभी तक किसी को नहीं थी। यह खबर किसी को हो भी जाए, तो आखिर क्या होता ? कुछ मनगढ़ंत किस्से कहानियाँ बन जातीं । लोगों को बैठे बिठाए एक नया मुद्दा मिल जाता । उस पर चटखारे ले लेकर लोग बातें करने लगते । पता नहीं यह खबर लोगों के हाथ लगी या नहीं लगी , पर लोगों ने इस पर कभी बातें नहीं कीं । संभव है उनके लिए यह खबर कोई खबर ही न हो । संभव है नींद न आने की बीमारी उस अपार्टमेंट में बहुतों को हो और वे जागते हुए घर के बंद कमरों में ही अपना समय बिता लेने को अभिशप्त हों। यूं भी नींद न आने की बीमारी से खाता पीता मध्य वर्ग दिनोंदिन ग्रसित होता जा रहा है इसलिए वहां कुछ भी संभव था।

फरवरी का महीना था । उस दिन तेज हवाएं चल रही थीं। लग रहा था कि कहीं बारिश न हो जाए। उस दिन भी मिसेस नौटियाल घर से रात 3 बजे निकलीं। वाचमेन ने हमेशा की तरह उस दिन भी अपार्टमेंट के अहाते का मेन गेट खोल दिया। मिसेस नौटियाल बाहर निकल सड़क पर चलने लगीं।पता नहीं ऐसा क्यों हुआ कि उस दिन उन्हें सड़क पर जाते देख वाचमेन के मन में अधीरता से सवाल आने जाने लगे। उन्हें लेकर वह कुछ ज्यादा ही जिज्ञासु होने लगा । उस दिन उससे रहा नहीं गया ।उसने अनुसंधान परिषद् के वाचमेन को फोन लगाया। रिंग जाता रहा पर कॉल रिसीव नहीं हुआ।

"स्साला कहीं सो तो नहीं गया" वह मन ही मन बड़बड़ाया। पर कुछ देर बाद उसका कॉल बेक हुआ।

"अरे जोर की पेशाब लगी थी भाई, पर आधी रात तुमने फोन क्यों किया ?" फोन पर अपनी सफाई देते हुए उसने सवाल दाग दिया।

"अरे क्या बताऊँ भाई, इस महिला के चक्कर में, मैं रोज डांट खाता हूँ । अभी अभी निकली है , अब तक तो तुम्हारी नजर की परिधि में भी आ गयी होगी"

"किसकी बात कर रहे हो , वही मिसेस नौटियाल की ?"

" हाँ भाई उसकी ही बात कर रहा हूँ ! वही तो है एक, जो हमारे साथ-साथ रात में जागती रहती है "

"तू भी न !".. उसकी बातें सुन उधर का वाचमेन हँसने लगा

"सच कहूँ तो मैं आज तक समझ नहीं सका कि उसे आखिर नींद क्यों नहीं आती। पति , बच्चे, धन-दौलत सब कुछ होते हुए भी उसे नींद का न आना एक अबूझ पहेली है।" कहते कहते वह थोड़ा सीरियस हो गया

"तू पूछ ही क्यों नहीं लेता उनसे कभी ?"

"अरे भाई, तू ही क्यों नहीं पूछ लिया अब तक ?"

वार्तालाप चलता रहा और इसी बीच जोर की बारिश शुरू हो गयी ।

बारिश से बचने मिसेस नौटियाल अनुसंधान परिषद् के मेन गेट की ओर दौड़ पड़ीं । उन्हें देख, न चाहते हुए भी वहां के वाचमेन ने मेन गेट का दरवाजा खोल दिया । वे अन्दर आ गयीं । इस बीच बारिश तेज हो गयी थी । गेट से संलग्न वाचमेन के लिए बनी छः बाई छः की खोली में वाचमेन ने उन्हें अपनी पुरानी सी प्लास्टिक की  कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और खुद उठकर वहीं जमीन पर ऊकंडू बैठ गया ।

मिसेस नौटियाल भीगने से बचना चाह रहीं थीं या उनकी देह बारिश में भीगना नहीं चाह रही थी, यह सवाल वाचमेन के भीतर उस वक्त आने-जाने लगा।इस सवाल के जरिये दरअसल वह उनकी देह की चेतना को टटोलना चाह रहा था जो उसे, नींद को लेकर अक्सर अचेतन लगती थी ।

"तुम कबसे यहाँ काम कर रहे हो ?"मिसेस नौटियाल ने वाचमेन से औपचारिकता निभाते हुए पूछ लिया

"जी पांच साल हो गए !"

"कितनी तनख्वाह मिल जाती है ?"

"जी ! ज्यादा नहीं बस महीने के आठ हजार "

" बस आठ हजार ? आठ हजार में गुजारा चल जाता है ?"

"जी ! किसी तरह कर लेते हैं "

"खुश हो अपने जीवन से ?"

"जी खुश हूँ !"

" क्या कभी तुम्हें ऐसा लगा कि जीवन एकदम ब्यर्थ जाया हो रहा , इससे अच्छा तो इस दुनियां में जन्म ही नहीं लेते ?"

"जी! ऐसा क्यों लगेगा भला मुझे ?"

"..............."

इतनी कम तनख्वाह के बावजूद वाचमेन की बातों में जीवन के प्रति उत्साह की एक गहरी ताप थी । उस ताप से मिसेस नौटियाल के भीतर वर्षों से जमी बेचैनी की बर्फ न जाने क्यों थोड़ी पिघलने सी लगी । आज बारिश न होती तो यह घटना उनके भीतर न घटती । बारिश ने उन्हें वाचमेन से संवाद का यह अवसर क्या दिया कि बहुत कुछ उनके भीतर भी घटित होने लगा । गाँव जहां उनका मायका था , उस गाँव में अभावों से घिरे होने के बावजूद पुराने दिनों के कई खुशहाल चेहरे एक-एक कर उनकी नजरों के सामने आने-जाने लगे । खोरबाहरीन काकी, डोमार चाचा, मंगली , फिरतु और भी न जाने कितने चेहरे ....!   

"और कौन-कौन रहते हैं तुम्हारे घर में?"- मिसेस नौटियाल की दिलचस्पी उसमें और बढ़ने लगी, उन्हें लगा जैसे यह भी तो उन्हीं पात्रों में से ही बीच का कोई पात्र है |

"जी ! पत्नी और दो बच्चे "

"इस तरह उन्हें गाँव में छोडकर यहाँ रहना अच्छा लगता है तुम्हें ?"

"जी नहीं लगता, पर उनकी परवरिश के लिए यह नौकरी भी जरूरी है मेरे लिए !" थोड़ा सांस रोककर  वाचमेन कह उठा

"पत्नी शिकायतें नहीं करती तुमसे कभी ?"

"करती है ! कहती है बहुत दिन में एक बार घर आते हो ! पूछती है उधर कुछ गड़बड़ तो नहीं करते ? पर वह भी समझती है परिस्थितियों को और अपने संशय से मुक्त होती रहती है  " इस बिषय पर वाचमेन कहना तो बहुत कुछ चाहता था पर मिसेस नौटियाल को लगा जैसे उसके भीतर कहने को बहुत सी  बातें बची रह गयीं हैं|

"क्या कभी तुमने किसी और से प्रेम किया था कभी ?" इस बार मिसेस नौटियाल ने थोड़ा गंभीर होकर पूछा

"हाँ किया था , शादी से पहले ! पर वह कहानी उसकी शादी हो जाने के बाद ही खत्म हो गयी ! कभी कोई याद करा देता है तो थोड़ी तकलीफ होने लगती है | उससे शादी करना चाहता था, पर हर इच्छा कहाँ पूरी हो पाती है जीवन में ! कभी सोचो तो आज भी लगता है जैसे कहीं कुछ खो गया जीवन में !"

"इतने दिनों बाद भी ?"

" हाँ, प्रेम की अहमियत तो बनी ही रहती है जीवन में ! जब किसी प्रसंग में उसकी याद करा दी जाए तो आज भी ऐसा लगता है मुझे  ! " 

" जीवन में इस अनमोल चीज के खो जाने का असर कभी तुम्हारी नींद पर नहीं पड़ा ?" मिसेस नौटियाल ने न जाने यह प्रश्न क्यों पूछ लिया था

" नहीं ! पत्नी ने उस प्रेम को पुनः प्रतिस्थापित कर दिया मेरे जीवन में !

"क्या यह संभव है मनुष्य के लिए  ?"

"हाँ बिलकुल ! अगर उस कमी को कोई पूरा कर दे | पत्नी ने उस कमी को पूरा किया और मैं उस खोने को भूल गया धीरे धीरे ! और फिर देह को तो नींद की जरूरत हमेशा रहती है! नींद न हो तो देह काम करना ही छोड़ दे !" वाचमेन ने इस बार बिना किसी संकोच से कह दिया

"नींद के साथ साथ देह को तो और भी चीजों की जरूरत पड़ती है ! मसलन नींद, भोजन, .... और भी बहुत कुछ ! सारी चीजें एक साथ गुंथीं हुईं नहीं लगती तुम्हें ?"

वाचमेन , मिसेस नौटियाल के इस प्रश्न को पता नहीं ताड़ पाया या नहीं, पर उसने कहा -" देह को तो सबकुछ चाहिए ! न मिले तो कई बार मन भारी हो जाता है देह पर ! पर सबको हर चीज हर समय कहाँ मिल पाती है भला ।हम सबके जीवन,  मिलने को कुछ न कुछ शेष रह ही जाता है । चीजों के शेष रह जाने से कई बार देह से नींद गायब होने लगती है।यह नींद देह से नहीं बल्कि मन से जाती है । कई बार संपन्न आदमी महंगी दवाइयों को खरीदकर खाने के बहाने नींद को पाने की कोशिश करता है, जबकि उसे किसी और चीज की जरूरत रहती है जो अप्राप्य हो उठती है कई बार उसके जीवन में  !"

"जैसे कि ?" - मिसेस नौटियाल इस बार अधीरता से पूछ बैठीं

"प्रेम !" वाचमेन उसी तत्परता से कह उठा

वाचमेन की बातें मिसेस नौटियाल के भीतर सीधे सीधे उतर गयीं ! उन्हें लगा जैसे वाचमेन ने उनके जीवन की कहानी ही उन्हें सुना दी हो ! पता नहीं उन्हें क्या सूझा कि वे वाचमेन से अचानक पूछ बैठीं- "तुमको कभी अटपटा नहीं लगा कि मैं यहाँ आधी रात आकर क्यों अक्सर अकेली बैठी रहती हूँ !"

" लगा ! आपका इस तरह आकर अकेली बैठना कई बार सवाल भी पैदा करने लगा मेरे मन में , पर इन सबके बावजूद अच्छा ही लगा आपका यहाँ आना ! आप आती हैं तो आपको देखकर लगता है जैसे इस अंधेरी रात में, अकेला नहीं हूँ मैं ! सच कहूँ तो इस बड़े शहर में अकेलेपन से कई बार डर लगता है मुझे भी ! आप आती हैं तो लगता है जैसे आधी रात इस नींद में गाफिल दुनियां में कोई तो है जो मेरे साथ अभी मेरी आँखों के सामने जाग रहा है!"

"ऐसा क्यों लगता है तुम्हें ? कभी सोचा ?" मिसेस नौटियाल यह पूछकर उसे परखना चाहती थी या यूं ही उन्होंने पूछ लिया था कुछ कहा नहीं जा सकता

"मैंने इस बारे में कभी नहीं सोचा ! बस आप आती हैं यहाँ, तो मुझे अच्छा लगता है" वाचमेन ने साफगोई से कह दिया

" मुझे लेकर बुरे विचार भी मन में आये होंगे कभी ?"

"नहीं ! ऐसा तो नहीं हुआ कभी , सच कहूँ तो आप मुझे हमेशा ही अच्छी लगीं । क्यों अच्छी लगीं मैं खुद नहीं जानता" - वाचमेन का जवाब मिसेस नौटियाल को बुरा नहीं लगा, बल्कि वे भीतर से खुश हुईं | क्यों खुश हुईं? शायद वे भी न जानती हों | कुछ बातें बिना जाने भी अच्छी लगती हैं जो अपने आप चलकर आती हैं जीवन में !

उस वक्त मिसेस नौटियाल को लगा जैसे उनके भीतर जमी उदासीनता और बेचैनी की बर्फ थोड़ी थोड़ी गल रही है । जीवन अचानक राख में बची चिंगारी की तरह लगा और यह बात भीतर से द्रवित भी करने लगी उन्हें। उन्हें महसूस हुआ कि इस शहर में आकर खोते जाने का जो सिलसिला है, वह आज टूटा है और कोई अनमोल वस्तु उनके हाथ लगी हो जैसे, जिसे कि हमेशा वे खोजतीं रहीं इस शहर में आकर और न पाकर अवसाद की अंधी सुरंग में गिरती रहीं हमेशा ! वे नितांत अकेली होती गयीं ! एक तरफ पर-स्त्री में रमा हुआ पति और दूसरी तरफ पढाई के बाद अपनी-अपनी नौकरियों के चलते विदेश में जा बसे उनके बच्चे उनके जीवन से एकदम दूर जा चुके थे । शून्य में टंगा था उनका जीवन ! उम्मीद शब्द उनके जीवन के शब्दकोश से दूर हो चुका था ।  इस मुलाक़ात के बाद उस वक्त यह घटना उनके भीतर उसी उम्मीद को जन्मने लगी।  उन्हें उस वक्त लगा कि चलो कोई तो है इस शहर में जो उनकी उपस्थिति को महसूस करता है ! कई बार ऐसा होता है कि निरूद्देश्य सा जीवन जीने वाले किसी आदमी को सरसों की राई की तरह कोई बहुत छोटी सी बात भी भीतर से छूकर उसके भीतर जीने की आस जगा देती है । उस दिन मिसेस नौटियाल के साथ भी शायद वही हुआ था।

बहरहाल उस वक्त रात के चार बज रहे थे । बारिश थम गयी थी । एक अरसे बाद उन्हें न जाने क्यों आज लगा कि उनके भीतर का अवसाद कुछ कम हुआ है । उन्हें लगा मानों मायके के गाँव से उनके पुराने दिनों का कोई पात्र आज उन्हें मिला था जिससे वे जी भरकर मन की बातें कर सकीं ।  उन्हें आज आश्चर्य जनक रूप से जम्हाईयाँ भी आने लगीं थीं ...... जैसे उनकी देह को अचानक नींद की जरूरत आन पड़ी हो। उनके चेहरे पर उठती जम्हाईयों को देखकर वाचमेन ने धीरे से कहा " घर जाईये मेडम और जाकर आराम से सो जाईये !"

जाते जाते मिसेस नौटियाल के भीतर यह सुनने की इच्छा भी जगने लगी कि वाचमेन उसे यहाँ दोबारा फिर से आने को कहे । संभव है वाचमेन के भीतर भी यह इच्छा जन्मी हो पर उसने ऐसा कुछ भी नहीं कहा   ... बस उस दिन जाते हुए वह उन्हें टुकुर टुकुर नजर भर देखता रहा ।  इस मीठी सी, चाहे-अनचाहे संवाद के बाद वाचमेन की उस नजर के भार को मिसेस नौटियाल अपने मन और अपनी देह पर अपने जीवन के बचे हुए दिनों में हमेशा महसूस करती रहीं ! पता नहीं उस नजर में ऐसा क्या था कि उसने मिसेस नौटियाल को उनके जीवन के बाक़ी बचे हुए दिनों के लिए थोड़ी सी नींद तोहफे में दे दी।

---------------------------------------------------------- 

टिप्पणियाँ

  1. रमेश शर्मा जी की कहानी "तोहफे में मिली थोड़ी सी नींद" आज के स्त्री-पुरूष के जटिल होते संबंधों पर आधारित है। कहानी की सम्प्रेषणीयता जबर्दस्त है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. भाई बसंत राघव जी, इस टिप्पणी के लिए शुक्रिया

      हटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इन्हें भी पढ़ते चलें...

कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। ओमा द अक ने

नीरज वर्मा की कहानी : हे राम

नीरज वर्मा की कहानियाँ किस्सागोई से भरपूर होती हैं । साथ साथ उनकी कहानियाँ राजनैतिक संदर्भों को छूती हुईं हमें एक तरह से विचारों की दुनिया में घसीटकर भी ले जाने की कोशिश करती हैं। कहानी 'हे राम' इस बात को स्थापित करती है कि राजनीति मनुष्य को विचारवान होने से हमेशा रोकती है क्योंकि विचारवान मनुष्य के बीच राजनीति के दांव पेच फेल होने लगते हैं । नीरज वर्मा अपनी इस कहानी में गांधी को केंद्र में रखकर घटनाओं को बुनते हैं तब ऐसा करते हुए वे हमें उसी विचारों की दुनिया में ले जाने की कोशिश करते हैं।गांधी को केंद्र में रखकर लिखी गयी यह कहानी 'हे राम' देश के वर्तमान हालातों पर भी एक नज़र फेरती हुई आगे बढ़ती है । बतौर पाठक कहानी के पात्रों के माध्यम से इस बात को गहराई में जाकर महसूस किया जा सकता है कि गांधी हमारे भीतर वैचारिक रूप में हमेशा जीवित हैं । जब भी अपनी आँखों के सामने कोई अनर्गल या दुखद घटना घटित होती है तब हमारी जुबान से अनायास ही "हे राम" शब्द  निकल पड़ते हैं । इस कहानी में नीरज यह बताने की कोशिश करते हैं कि गांधी का हमारे जीवन में इस रूप में अनायास लौटना ही उनकी

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था जहाँ आने

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं

समकालीन कविता और युवा कवयित्री ममता जयंत की कविताएं दिल्ली निवासी ममता जयंत लंबे समय से कविताएं लिख रही हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह बात कही जा सकती है कि उनकी कविताओं में विचार अपनी जगह पहले बनाते हैं फिर कविता के लिए जरूरी विभिन्न कलाएं, जिनमें भाषा, बिम्ब और शिल्प शामिल हैं, धीरे-धीरे जगह तलाशती हुईं कविताओं के साथ जुड़ती जाती हैं। यह शायद इसलिए भी है कि वे पेशे से अध्यापिका हैं और बच्चों से रोज का उनका वैचारिक संवाद है। यह कहा जाए कि बच्चों की इस संगत में हर दिन जीवन के किसी न किसी कटु यथार्थ से वे टकराती हैं तो यह कोई अतिशयोक्ति भरा कथन नहीं है। जीवन के यथार्थ से यह टकराहट कई बार किसी कवि को भीतर से रूखा बनाकर भाषिक रूप में आक्रोशित भी कर सकता है । ममता जयंत की कविताओं में इस आक्रोश को जगह-जगह उभरते हुए महसूसा जा सकता है। यह बात ध्यातव्य है कि इस आक्रोश में एक तरलता और मुलायमियत है। इसमें कहीं हिंसा का भाव नहीं है बल्कि उद्दात्त मानवीय संवेदना के भाव की पीड़ा को यह आक्रोश सामने रखता है । नीचे कविता की कुछ पंक्तियों को देखिए, ये पंक्तियाँ उसी आक्रोश की संवाहक हैं - सोचना!  सोचना

गाँधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक

गांधीवादी विचारों को समर्पित मासिक पत्रिका "गाँधीश्वर" एक लंबे अरसे से छत्तीसगढ़ के कोरबा से प्रकाशित होती आयी है।इसके अब तक कई यादगार अंक प्रकाशित हुए हैं।  प्रधान संपादक सुरेश चंद्र रोहरा जी की मेहनत और लगन ने इस पत्रिका को एक नए मुकाम तक पहुंचाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की है। रायगढ़ के वरिष्ठ कथाकार , आलोचक रमेश शर्मा जी के कुशल अतिथि संपादन में गांधीश्वर पत्रिका का जून 2024 अंक बेहद ही खास है। यह अंक डॉ. टी महादेव राव जैसे बेहद उम्दा शख्सियत से  हमारा परिचय कराता है। दरअसल यह अंक उन्हीं के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित है। राव एक उम्दा व्यंग्यकार ही नहीं अनुवादक, कहानीकार, कवि लेखक भी हैं। संपादक ने डॉ राव द्वारा रचित विभिन्न रचनात्मक विधाओं को वर्गीकृत कर उनके महत्व को समझाने की कोशिश की है जिससे व्यक्ति विशेष और पाठक के बीच संवाद स्थापित हो सके।अंक पढ़कर पाठकों को लगेगा कि डॉ राव का साहित्य सामयिक और संवेदनाओं से लबरेज है।अंक के माध्यम से यह बात भी स्थापित होती है कि व्यंग्य जैसी शुष्क बौद्धिक शैली अपनी समाजिक सरोकारिता और दिशा बोध के लिए कितनी प्रतिबद्ध दिखाई देती ह

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला

परदेशी राम वर्मा की कहानी दोगला वागर्थ के फरवरी 2024 अंक में है। कहानी विभिन्न स्तरों पर जाति धर्म सम्प्रदाय जैसे ज्वलन्त मुद्दों को लेकर सामने आती है।  पालतू कुत्ते झब्बू के बहाने एक नास्टेल्जिक आदमी के भीतर सामाजिक रूढ़ियों की जड़ता और दम्भ उफान पर होते हैं,उसका चित्रण जिस तरह कहानी में आता है वह ध्यान खींचता है। दरअसल मनुष्य के इसी दम्भ और अहंकार को उदघाटित करने की ओर यह कहानी गतिमान होती हुई प्रतीत होती है। पालतू पेट्स झब्बू और पुत्र सोनू के जीवन में घटित प्रेम और शारीरिक जरूरतों से जुड़ी घटनाओं की तुलना के बहाने कहानी एक बड़े सामाजिक विमर्श की ओर आगे बढ़ती है। पेट्स झब्बू के जीवन से जुड़ी घटनाओं के उपरांत जब अपने पुत्र सोनू के जीवन से जुड़े प्रेम प्रसंग की घटना उसकी आँखों के सामने घटित होते हैं तब उसके भीतर की सामाजिक जड़ता एवं दम्भ भरभरा कर बिखर जाते हैं। जाति, समाज, धर्म जैसे मुद्दे आदमी को झूठे दम्भ से जकड़े रहते हैं। इनकी बंधी बंधाई दीवारों को जो लांघता है वह समाज की नज़र में दोगला होने लगता है। जाति धर्म की रूढ़ियों में जकड़ा समाज मनुष्य को दम्भी और अहंकारी भी बनाता है। कहानी इन दीवारों

गजेंद्र रावत की कहानी : उड़न छू

गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।              कहानी '

समकालीन कहानी : अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग ,सर्वेश सिंह की कहानी रौशनियों के प्रेत आदित्य अभिनव की कहानी "छिमा माई छिमा"

■ अनिल प्रभा कुमार की दो कहानियाँ- परदेस के पड़ोसी, इंद्रधनुष का गुम रंग अनिलप्रभा कुमार की दो कहानियों को पढ़ने का अवसर मिला।परदेश के पड़ोसी (विभोम स्वर नवम्बर दिसम्बर 2020) और इन्द्र धनुष का गुम रंग ( हंस फरवरी 2021)।।दोनों ही कहानियाँ विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी कहानियाँ हैं पर दोनों में समानता यह है कि ये मानवीय संवेदनाओं के महीन रेशों से बुनी गयी ऎसी कहानियाँ हैं जिसे पढ़ते हुए भीतर से मन भींगने लगता है । हमारे मन में बहुत से पूर्वाग्रह इस तरह बसा दिए गए होते हैं कि हम कई बार मनुष्य के  रंग, जाति या धर्म को लेकर ऎसी धारणा बना लेते हैं जो मानवीय रिश्तों के स्थापन में बड़ी बाधा बन कर उभरती है । जब धारणाएं टूटती हैं तो मन में बसे पूर्वाग्रह भी टूटते हैं पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इन्द्र धनुष का गुम रंग एक ऎसी ही कहानी है जो अमेरिका जैसे विकसित देश में अश्वेतों को लेकर फैले दुष्प्रचार के भ्रम को तोडती है।अजय और अमिता जैसे भारतीय दंपत्ति जो नौकरी के सिलसिले में अमेरिका की अश्वेत बस्ती में रह रहे हैं, उनके जीवन अनुभवों के माध्यम से अश्वेतों के प्रति फैली गलत धारणाओं को यह कहानी तो

डॉक्टर उमा अग्रवाल और डॉक्टर कीर्ति नंदा : अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर रायगढ़ शहर के दो होनहार युवा महिला चिकित्सकों से जुड़ी बातें

आज 8 मार्च है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस । आज के दिन उन महिलाओं की चर्चा होती है जो अमूमन चर्चा से बाहर होती हैं और चर्चा से बाहर होने के बावजूद अपने कार्यों को बहुत गम्भीरता और कमिटमेंट के साथ नित्य करती रहती हैं। डॉ कीर्ति नंदा एवं डॉ उमा अग्रवाल  वर्तमान में हम देखें तो चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी महिला चिकित्सकों की संख्या में  पहले से बहुत बढ़ोतरी हुई है ।इस पेशे पर ध्यान केंद्रित करें तो महसूस होता है कि चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी महिला डॉक्टरों के साथ बहुत समस्याएं भी जुड़ी होती हैं। उन पर काम का बोझ अत्यधिक होता है और साथ ही साथ अपने घर परिवार, बच्चों की जिम्मेदारियों को भी उन्हें देखना संभालना होता है। महिला चिकित्सक यदि स्त्री रोग विशेषज्ञ है और किसी क्षेत्र विशेष में  विशेषज्ञ सर्जन है तो  ऑपरेशन थिएटर में उसे नित्य मानसिक और शारीरिक रूप से संघर्ष करना होता है। किसी भी डॉक्टर के लिए पेशेंट का ऑपरेशन करना बहुत चुनौती भरा काम होता है । कहीं कोई चूक ना हो जाए इस बात का बहुत ध्यान रखना पड़ता है । इस चूक में  पेशेंट के जीवन और मृत्यु का मसला जुड़ा होता है।ऑपरेशन थियेटर में घण्टों  लगाता