उन दिनों रायपुर शहर के शंकर नगर नामक पाश एरिया में स्थित अशोका टावर नामक अपार्टमेंट हमेशा गुलजार रहता । शाम का समय न हुआ कि सामने स्थित बीटीआई ग्राउंड पर क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी जमा होकर एक साथ मिलते जुलते। थोड़ी बहुत मस्ती भी होती । उस दृश्य में जीवन के विविध रंगों की न जाने कितनी बार आवा जाही होने लगती । कुछ हँसते खिलखिलाते मस्ती में डूबे हुए तो कुछ नाचते गाते हुए। कुछ आपस में किसी सतही बहस में अपने आप को संलग्न किये हुए । उस समय के दृश्य को लेकर अगर कोई कुछ टिप्पणी करना चाहता तो वह कहता "इस अपार्टमेंट में रहने वालों का समय इस वक्त अपने सबसे खूबसूरत लिबास में सामने खड़ा दुनियां की आँखों को लुभा रहा है।"
पर ये दृश्य यहाँ रहने वालों के जीवन के साथ हमेशा संलग्न रहें ऐसा भी नहीं था । लोगों के जीवन के दृश्य एक सा कब होते हैं? वे तो क्षण-क्षण बदलते रहते हैं , इसलिए समय के भिन्न भिन्न काल खंडों में यह अपार्टमेंट अपनी भीतरी दुनियां में नूर खोता हुआ भी लगता । इसी अशोका टावर अपार्टमेंट के फ्लैट नम्बर दो सौ तीस पर रहते हैं मिस्टर श्याम नौटियाल । उनकी पत्नी को गुजरे कुछ ही वर्ष हुए होंगे । लोग अब कहते हैं कि उनकी पत्नी को नींद न आने की बीमारी थी । कई बार जब उन्हें नींद की गोली खाने के बाद भी नींद न आती तो वे आधी रात इसी मैदान में आकर बैठी रहतीं। किसी को नींद न आए तो दूसरों की नींद में कोई फर्क आ जाए, ऐसा नहीं देखा गया कभी । लोग गहरी नींद में होते और मिसेस नौटियाल जागतीं रहतीं । मिस्टर नौटियाल रातों में अक्सर गायब रहते और कई बार वे अकेले होतीं ।कमरे के भीतर उनकी छटपटाहट को महसूस करने वाला कोई न होता.... न यह शहर , न इस शहर के लोग । नींद देह की जरूरत होती है । उस वक्त देह के भीतर आदमी की जगह, नींद ले लेती है और आदमी देह से बाहर हो जाता है। आदमी घूमता रहता है सपनों के खूबसूरत ब्रम्हांड में । पर ऎसी क्या मजबूरी थी कि मिसेस नौटियाल की देह को नींद की जरूरत महसूस ही नहीं होती थी । ऐसा तब होता है जब देह पर मन का बोझ भारी पड़ जाए । पता नहीं उन्हें क्या हुआ था। वे शादी के पहले अपने मायका में बिताये गाँव के दिनों को खोजतीं जो इस शहर में आकर जैसे कहीं खो गया था । न यह शहर उनका कभी हो पाया न वे इस शहर की कभी हो पायीं ।अपने जीवन के अनुभवों से उन्हें लगता कि शहर सब कुछ छीन लेते हैं । इस शहर ने उन्हें जो दिया, धीरे धीरे उन्हें उनसे छीन भी लिया।
आधी रात मिसेस नौटियाल जहां बैठतीं वहां की नीरवता देखकर लगता कि उस वक्त यह मैदान भी गहरी नींद में है और वह उनकी उपस्थिति को महसूस ही नहीं कर पा रहा । तब उनकी उम्र 45-46 के आसपास ही रही होगी । गठी हुई देहयष्टि और रंग रूप से सुन्दर युवा औरत का इस तरह आधी रात को अकेली बैठी रहना उस अपार्टमेंट में फिलहाल अब तक किसी कहानी को जन्म नहीं दे सका था । रात के तीसरे पहर जब कभी मिस्टर नौटियाल घर पर होते और नींद से जागते तो अपनी पत्नी को पास न पाकर हड़बड़ा कर जाग उठते । वे सीधे मैदान की ओर दौड़ पड़ते । उनकी पत्नी मैदान की कोने वाली बेंच पर बड़े आराम से बैठकर बच्चों के लिए लगे शी-शा जैसे झूलों को ताकती रहती । कई बार उन झूलों को छूकर अपने से दूर जा चुके बच्चों को वे अपने पास महसूस करतीं । जब मिस्टर नौटियाल उनके पास पहुँचते तो वह निर्विकार भाव से उन्हें देखती जैसे कुछ हुआ ही न हो । वे अक्सर अपार्टमेंट के सेक्युरिटी गार्ड को डांटते कि उसने आधी रात गेट खोलकर उनकी पत्नी को बाहर जाने क्यों दिया।
जल में रहकर मगरमच्छ से बैर वाली स्थिति में कोई क्यों अपने को ले जाए, यह सोचकर गार्ड ज्यादा प्रतिक्रिया ब्यक्त कर पाने की स्थिति में न होता । वह चाहते हुए भी कभी न कहता कि आप भी तो कई बार जब आधी रात बाहर से घर आते हैं तो मैं मना नहीं करता । सब कुछ समझते हुए भी वह भारी मन से जवाब देता "हमारा काम इस अपार्टमेंट के रहवासियों का हुक्म बजाना है साहब ! उन्हें आने-जाने से रोकने का अधिकार हमें नहीं है ! यह अधिकार बस आपको है, आप ही उन्हें रोकें ! " उसकी बातें सुन मिस्टर नौटियाल को अपनी कमजोरी का एहसास होता और वे चुप्पी साध लेते।
शैक्षिक अनुसंधान परिषद् जो उस ग्राउंड के किनारे ही था, वहां का वाचमेन मिसेस नौटियाल को आधी रात बैठे हुए टुकुर टुकुर देखता और अपनी लाठी को जमीन पर ठुक-ठुक बजाता हुआ अहाते के भीतर घूमता रहता। वाचमेन की देह को कई बार नींद की जरूरत महसूस होती। आँखें छोटी-छोटी होने लगतीं और उसकी देह नींद में समा जाने को आतुर हो जाती , पर वाचमेन के भीतर का आदमी जो एक मजबूर बाप भी था और जिसके ऊपर अपने परिवार के भरण पोषण की सारी जिम्मेदारी थी , कभी देह से अलग नहीं हो पाता था और हमेशा जागता रहता। नींद और उसकी नौकरी में छत्तीस का आंकड़ा था।या तो वह नींद को चुने या फिर इस नौकरी को। उसने नींद के बदले मजबूरी में इस नौकरी को चुना था।
कई बार वाचमेन सोचता कि यह महिला आये दिन इस तरह आधी रात को पार्क में आकर अकेली क्यों बैठी रहती है ? क्या उसे अकेले डर नहीं लगता ? क्या उसकी देह को नींद की जरूरत महसूस नहीं होती ? क्या उसका पति इसे प्यार नहीं करता ? क्या उसके बच्चे उसे नहीं खोजते ? आखिर जागने की उसकी कोई तो मजबूरी होगी? आखिर था तो वह एक मर्द, सो बहुत कुछ सोचता जो कि मर्द स्त्री-पुरूष के बीच अच्छे-बुरे संबंधों को लेकर अक्सर सोच लेते हैं।
अपनी लाठी को जमीन पर ठुक ठुक बजाते हुए, घूमते वाचमेन के भीतर प्रश्न उठते रहते । तब भी उन प्रश्नों से उसकी देह को कोई फर्क नहीं पड़ता था। उसकी देह नींद में समा जाने को आतुर ही रहती, पर उसके भीतर के आदमी से प्रश्न टकराते रहते और वह नींद से उसे रोके रखता। वहीं घूमते घूमते उसके भीतर का आदमी न जाने कहाँ कहाँ घूम आता। उसकी आँखों में रेलवे प्लेट फॉर्म की सख्त खुली जमीन पर निश्चिन्त सोये फटेहाल ग़रीबों की तस्वीरें घूम जातीं । उसे लगता कि वे जब चाहे अपनी मनचाही नींद ले लेते हैं। नींद के लिए न उन्हें कोई मखमली गद्दे चाहिए, न कूलर या एसी। नींद के लिए चाहिए उन्हें बस दो गज जमीन, जहां वे अपने पैरों को फैला सकें। वाचमेन सोचता कि उन सोये हुए लोगों का कोई घर या गंतब्य भी नहीं होता। जब भी उनकी नींद खुल जाए तो छुक-छुक करती कहीं से आती रेलगाड़ी उन्हें अपने साथ फिर किसी नए प्लेट फॉर्म पर ले जाकर उतार देती है। उनका कोई स्थायी घर नहीं होता, वह तो रोज बनता है और रोज उजड़ जाता है । सोचकर उसे अच्छा लगता कि कुछ न होते हुए भी कम से कम उनके हिस्से की नींद तो स्थायी होती है । एकदम निष्फिक्र सी नींद।
वह सोचता कि बहुतों की नींद निष्फिक्र होती है ।इतनी
निष्फिक्र कि कुछ तो सड़कों/फुटपाथों पर भी सो जाते हैं और रात में घूमते उनींदे
निशाचरों की महंगी-महंगी गाड़ियों से रौंदे जाते हैं । वह आगे सोचता कि जिनके पास
खोने को कुछ नहीं होता कई बार उनकी देह ही खो जाती है । देह के खो जाने से फिर वे
हमेशा के लिए सो जाते हैं। एक स्थायी नींद । फिर कभी न जागने के लिए ! लेकिन
जिनके पास खोने को बहुत कुछ होता है, उस बहुत कुछ के खो जाने की चिंता में उनकी
देह से नींद ही खो जाती है । फिर उस नींद को पाने के लिए उनका जीवन जद्दोजहद से
भरता चला जाता है । इसी क्रम में वह आगे सोचता कि आखिर बड़े लोगों को नींद क्यों
नहीं आती? क्यों आधी रात को वे शराब पीकर किसी क्लब में नाचते रहते हैं , महंगी
जगहों में पार्टी मनाकर क्यों हुडदंग करते रहते हैं। न चाहकर भी वाचमेन के भीतर
सवाल आने-जाने लगते और उसकी दिलचस्पी मिसेस नौटियाल में हर दिन बढ़ती जाती।
बहरहाल अभी तक किसी को इस बात की खबर नहीं थी कि मिसेस नौटियाल को नींद न आने की कोई बीमारी भी है । उन्हें देखकर कोई ऐसा अंदाजा भी नहीं लगा सकता था। आधी रात को मैदान में आकर अकेले बैठने की खबर भी उनके अपार्टमेंट के वाचमेन और मैदान पर स्थित शैक्षिक अनुसंधान परिषद् के वाचमेन के अलावा अभी तक किसी को नहीं थी। यह खबर किसी को हो भी जाए, तो आखिर क्या होता ? कुछ मनगढ़ंत किस्से कहानियाँ बन जातीं । लोगों को बैठे बिठाए एक नया मुद्दा मिल जाता । उस पर चटखारे ले लेकर लोग बातें करने लगते । पता नहीं यह खबर लोगों के हाथ लगी या नहीं लगी , पर लोगों ने इस पर कभी बातें नहीं कीं । संभव है उनके लिए यह खबर कोई खबर ही न हो । संभव है नींद न आने की बीमारी उस अपार्टमेंट में बहुतों को हो और वे जागते हुए घर के बंद कमरों में ही अपना समय बिता लेने को अभिशप्त हों। यूं भी नींद न आने की बीमारी से खाता पीता मध्य वर्ग दिनोंदिन ग्रसित होता जा रहा है इसलिए वहां कुछ भी संभव था।
फरवरी का महीना था । उस दिन तेज हवाएं चल रही थीं। लग रहा था कि कहीं बारिश न हो जाए। उस दिन भी मिसेस नौटियाल घर से रात 3 बजे निकलीं। वाचमेन ने हमेशा की तरह उस दिन भी अपार्टमेंट के अहाते का मेन गेट खोल दिया। मिसेस नौटियाल बाहर निकल सड़क पर चलने लगीं।पता नहीं ऐसा क्यों हुआ कि उस दिन उन्हें सड़क पर जाते देख वाचमेन के मन में अधीरता से सवाल आने जाने लगे। उन्हें लेकर वह कुछ ज्यादा ही जिज्ञासु होने लगा । उस दिन उससे रहा नहीं गया ।उसने अनुसंधान परिषद् के वाचमेन को फोन लगाया। रिंग जाता रहा पर कॉल रिसीव नहीं हुआ।
"स्साला कहीं सो तो नहीं गया" वह मन ही मन बड़बड़ाया। पर कुछ देर बाद उसका कॉल बेक हुआ।
"अरे जोर की पेशाब लगी थी भाई, पर आधी रात तुमने फोन क्यों किया ?" फोन पर अपनी सफाई देते हुए उसने सवाल दाग दिया।
"अरे क्या बताऊँ भाई, इस महिला के चक्कर
में, मैं रोज डांट खाता हूँ । अभी अभी निकली है , अब तक तो तुम्हारी नजर की परिधि
में भी आ गयी होगी"
"किसकी बात कर रहे हो , वही मिसेस नौटियाल
की ?"
" हाँ भाई उसकी ही बात कर रहा हूँ ! वही तो
है एक, जो हमारे साथ-साथ रात में जागती रहती है "
"तू भी न !".. उसकी बातें सुन उधर का
वाचमेन हँसने लगा
"सच कहूँ तो मैं आज तक समझ नहीं सका कि उसे
आखिर नींद क्यों नहीं आती। पति , बच्चे, धन-दौलत सब कुछ होते हुए भी उसे नींद का
न आना एक अबूझ पहेली है।" कहते कहते वह थोड़ा सीरियस हो गया
"तू पूछ ही क्यों नहीं लेता उनसे कभी
?"
"अरे भाई, तू ही क्यों नहीं पूछ लिया अब तक
?"
वार्तालाप चलता रहा और इसी बीच जोर की बारिश शुरू हो गयी ।
बारिश से बचने मिसेस नौटियाल अनुसंधान परिषद् के मेन गेट की ओर दौड़ पड़ीं । उन्हें देख, न चाहते हुए भी वहां के वाचमेन ने मेन गेट का दरवाजा खोल दिया । वे अन्दर आ गयीं । इस बीच बारिश तेज हो गयी थी । गेट से संलग्न वाचमेन के लिए बनी छः बाई छः की खोली में वाचमेन ने उन्हें अपनी पुरानी सी प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और खुद उठकर वहीं जमीन पर ऊकंडू बैठ गया ।
मिसेस नौटियाल भीगने से बचना चाह रहीं थीं या उनकी देह बारिश में भीगना नहीं चाह रही थी, यह सवाल वाचमेन के भीतर उस वक्त आने-जाने लगा।इस सवाल के जरिये दरअसल वह उनकी देह की चेतना को टटोलना चाह रहा था जो उसे, नींद को लेकर अक्सर अचेतन लगती थी ।
"तुम कबसे यहाँ काम कर रहे हो ?"मिसेस
नौटियाल ने वाचमेन से औपचारिकता निभाते हुए पूछ लिया
"जी पांच साल हो गए !"
"कितनी तनख्वाह मिल जाती है ?"
"जी ! ज्यादा नहीं बस महीने के आठ हजार
"
" बस आठ हजार ? आठ हजार में गुजारा चल जाता
है ?"
"जी ! किसी तरह कर लेते हैं "
"खुश हो अपने जीवन से ?"
"जी खुश हूँ !"
" क्या कभी तुम्हें ऐसा लगा कि जीवन एकदम
ब्यर्थ जाया हो रहा , इससे अच्छा तो इस दुनियां में जन्म ही नहीं लेते ?"
"जी! ऐसा क्यों लगेगा भला मुझे ?"
"..............."
इतनी कम तनख्वाह के बावजूद वाचमेन की बातों में
जीवन के प्रति उत्साह की एक गहरी ताप थी । उस ताप से मिसेस नौटियाल के भीतर वर्षों
से जमी बेचैनी की बर्फ न जाने क्यों थोड़ी पिघलने सी लगी । आज बारिश न होती तो यह
घटना उनके भीतर न घटती । बारिश ने उन्हें वाचमेन से संवाद का यह अवसर क्या दिया कि
बहुत कुछ उनके भीतर भी घटित होने लगा । गाँव जहां उनका मायका था , उस गाँव में
अभावों से घिरे होने के बावजूद पुराने दिनों के कई खुशहाल चेहरे एक-एक कर उनकी
नजरों के सामने आने-जाने लगे । खोरबाहरीन काकी, डोमार चाचा, मंगली , फिरतु और भी न
जाने कितने चेहरे ....!
"और कौन-कौन रहते हैं तुम्हारे घर में?"-
मिसेस नौटियाल की दिलचस्पी उसमें और बढ़ने लगी, उन्हें लगा जैसे यह भी तो उन्हीं
पात्रों में से ही बीच का कोई पात्र है |
"जी ! पत्नी और दो बच्चे "
"इस तरह उन्हें गाँव में छोडकर यहाँ रहना
अच्छा लगता है तुम्हें ?"
"जी नहीं लगता, पर उनकी परवरिश के लिए यह
नौकरी भी जरूरी है मेरे लिए !" थोड़ा सांस रोककर वाचमेन कह उठा
"पत्नी शिकायतें नहीं करती तुमसे कभी
?"
"करती है ! कहती है बहुत दिन में एक बार घर
आते हो ! पूछती है उधर कुछ गड़बड़ तो नहीं करते ? पर वह भी समझती है परिस्थितियों को
और अपने संशय से मुक्त होती रहती है "
इस बिषय पर वाचमेन कहना तो बहुत कुछ चाहता था पर मिसेस नौटियाल को लगा जैसे उसके
भीतर कहने को बहुत सी बातें बची रह गयीं
हैं|
"क्या कभी तुमने किसी और से प्रेम किया था
कभी ?" इस बार मिसेस नौटियाल ने थोड़ा गंभीर होकर पूछा
"हाँ किया था , शादी से पहले ! पर वह कहानी
उसकी शादी हो जाने के बाद ही खत्म हो गयी ! कभी कोई याद करा देता है तो थोड़ी तकलीफ
होने लगती है | उससे शादी करना चाहता था, पर हर इच्छा कहाँ पूरी हो पाती है जीवन
में ! कभी सोचो तो आज भी लगता है जैसे कहीं कुछ खो गया जीवन में !"
"इतने दिनों बाद भी ?"
" हाँ, प्रेम की अहमियत तो बनी ही रहती है
जीवन में ! जब किसी प्रसंग में उसकी याद करा दी जाए तो आज भी ऐसा लगता है मुझे ! "
" जीवन में इस अनमोल चीज के खो जाने का असर
कभी तुम्हारी नींद पर नहीं पड़ा ?" मिसेस नौटियाल ने न जाने यह प्रश्न क्यों
पूछ लिया था
" नहीं ! पत्नी ने उस प्रेम को पुनः
प्रतिस्थापित कर दिया मेरे जीवन में !
"क्या यह संभव है मनुष्य के लिए ?"
"हाँ बिलकुल ! अगर उस कमी को कोई पूरा कर दे
| पत्नी ने उस कमी को पूरा किया और मैं उस खोने को भूल गया धीरे धीरे ! और फिर देह
को तो नींद की जरूरत हमेशा रहती है! नींद न हो तो देह काम करना ही छोड़ दे !" वाचमेन
ने इस बार बिना किसी संकोच से कह दिया
"नींद के साथ साथ देह को तो और भी चीजों की
जरूरत पड़ती है ! मसलन नींद, भोजन, .... और भी बहुत कुछ ! सारी चीजें एक साथ गुंथीं
हुईं नहीं लगती तुम्हें ?"
वाचमेन , मिसेस नौटियाल के इस प्रश्न को पता नहीं
ताड़ पाया या नहीं, पर उसने कहा -" देह को तो सबकुछ चाहिए ! न मिले तो कई बार
मन भारी हो जाता है देह पर ! पर सबको हर चीज हर समय कहाँ मिल पाती है भला ।हम सबके जीवन, मिलने को कुछ न कुछ शेष रह ही जाता है । चीजों
के शेष रह जाने से कई बार देह से नींद गायब होने लगती है।यह नींद देह से नहीं
बल्कि मन से जाती है । कई बार संपन्न आदमी महंगी दवाइयों को खरीदकर खाने के बहाने
नींद को पाने की कोशिश करता है, जबकि उसे किसी और चीज की जरूरत रहती है जो
अप्राप्य हो उठती है कई बार उसके जीवन में !"
"जैसे कि ?" - मिसेस नौटियाल इस बार
अधीरता से पूछ बैठीं
"प्रेम !" वाचमेन उसी तत्परता से कह
उठा
वाचमेन की बातें मिसेस नौटियाल के भीतर सीधे सीधे
उतर गयीं ! उन्हें लगा जैसे वाचमेन ने उनके जीवन की कहानी ही उन्हें सुना दी हो ! पता
नहीं उन्हें क्या सूझा कि वे वाचमेन से अचानक पूछ बैठीं- "तुमको कभी अटपटा
नहीं लगा कि मैं यहाँ आधी रात आकर क्यों अक्सर अकेली बैठी रहती हूँ !"
" लगा ! आपका इस तरह आकर अकेली बैठना कई बार
सवाल भी पैदा करने लगा मेरे मन में , पर इन सबके बावजूद अच्छा ही लगा आपका यहाँ
आना ! आप आती हैं तो आपको देखकर लगता है जैसे इस अंधेरी रात में, अकेला नहीं हूँ
मैं ! सच कहूँ तो इस बड़े शहर में अकेलेपन से कई बार डर लगता है मुझे भी ! आप आती
हैं तो लगता है जैसे आधी रात इस नींद में गाफिल दुनियां में कोई तो है जो मेरे साथ
अभी मेरी आँखों के सामने जाग रहा है!"
"ऐसा क्यों लगता है तुम्हें ? कभी सोचा
?" मिसेस नौटियाल यह पूछकर उसे परखना चाहती थी या यूं ही उन्होंने पूछ लिया
था कुछ कहा नहीं जा सकता
"मैंने इस बारे में कभी नहीं सोचा ! बस आप
आती हैं यहाँ, तो मुझे अच्छा लगता है" वाचमेन ने साफगोई से कह दिया
" मुझे लेकर बुरे विचार भी मन में आये होंगे
कभी ?"
"नहीं ! ऐसा तो नहीं हुआ कभी , सच कहूँ तो
आप मुझे हमेशा ही अच्छी लगीं । क्यों अच्छी लगीं मैं खुद नहीं जानता" -
वाचमेन का जवाब मिसेस नौटियाल को बुरा नहीं लगा, बल्कि वे भीतर से खुश हुईं |
क्यों खुश हुईं? शायद वे भी न जानती हों | कुछ बातें बिना जाने भी अच्छी लगती हैं
जो अपने आप चलकर आती हैं जीवन में !
उस वक्त मिसेस नौटियाल को लगा जैसे उनके भीतर जमी उदासीनता और बेचैनी की बर्फ थोड़ी थोड़ी गल रही है । जीवन अचानक राख में बची चिंगारी की तरह लगा और यह बात भीतर से द्रवित भी करने लगी उन्हें। उन्हें महसूस हुआ कि इस शहर में आकर खोते जाने का जो सिलसिला है, वह आज टूटा है और कोई अनमोल वस्तु उनके हाथ लगी हो जैसे, जिसे कि हमेशा वे खोजतीं रहीं इस शहर में आकर और न पाकर अवसाद की अंधी सुरंग में गिरती रहीं हमेशा ! वे नितांत अकेली होती गयीं ! एक तरफ पर-स्त्री में रमा हुआ पति और दूसरी तरफ पढाई के बाद अपनी-अपनी नौकरियों के चलते विदेश में जा बसे उनके बच्चे उनके जीवन से एकदम दूर जा चुके थे । शून्य में टंगा था उनका जीवन ! उम्मीद शब्द उनके जीवन के शब्दकोश से दूर हो चुका था । इस मुलाक़ात के बाद उस वक्त यह घटना उनके भीतर उसी उम्मीद को जन्मने लगी। उन्हें उस वक्त लगा कि चलो कोई तो है इस शहर में जो उनकी उपस्थिति को महसूस करता है ! कई बार ऐसा होता है कि निरूद्देश्य सा जीवन जीने वाले किसी आदमी को सरसों की राई की तरह कोई बहुत छोटी सी बात भी भीतर से छूकर उसके भीतर जीने की आस जगा देती है । उस दिन मिसेस नौटियाल के साथ भी शायद वही हुआ था।
बहरहाल उस वक्त रात के चार बज रहे थे । बारिश थम
गयी थी । एक अरसे बाद उन्हें न जाने क्यों आज लगा कि उनके भीतर का अवसाद कुछ कम
हुआ है । उन्हें लगा मानों मायके के गाँव से उनके पुराने दिनों का कोई पात्र आज
उन्हें मिला था जिससे वे जी भरकर मन की बातें कर सकीं । उन्हें
आज आश्चर्य जनक रूप से जम्हाईयाँ भी आने लगीं थीं ...... जैसे उनकी देह को अचानक
नींद की जरूरत आन पड़ी हो। उनके चेहरे पर उठती जम्हाईयों को देखकर वाचमेन ने धीरे
से कहा " घर जाईये मेडम और जाकर आराम से सो जाईये !"
जाते जाते मिसेस नौटियाल के भीतर यह सुनने की इच्छा भी जगने लगी कि वाचमेन उसे यहाँ दोबारा फिर से आने को कहे । संभव है वाचमेन के भीतर भी यह इच्छा जन्मी हो पर उसने ऐसा कुछ भी नहीं कहा ... बस उस दिन जाते हुए वह उन्हें टुकुर टुकुर नजर भर देखता रहा । इस मीठी सी, चाहे-अनचाहे संवाद के बाद वाचमेन की उस नजर के भार को मिसेस नौटियाल अपने मन और अपनी देह पर अपने जीवन के बचे हुए दिनों में हमेशा महसूस करती रहीं ! पता नहीं उस नजर में ऐसा क्या था कि उसने मिसेस नौटियाल को उनके जीवन के बाक़ी बचे हुए दिनों के लिए थोड़ी सी नींद तोहफे में दे दी।
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रमेश शर्मा जी की कहानी "तोहफे में मिली थोड़ी सी नींद" आज के स्त्री-पुरूष के जटिल होते संबंधों पर आधारित है। कहानी की सम्प्रेषणीयता जबर्दस्त है।
जवाब देंहटाएंभाई बसंत राघव जी, इस टिप्पणी के लिए शुक्रिया
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